दो सपने / अमृता प्रीतम

Gadya Kosh से
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१९८५ में--इस किताब को तरतीब देते हुए,८ और ९ अगस्त की रात मुझे सपना आया कि कुछ लोग एक क़ब्र खोद रहे हैं, और मैं चीख कर कहती हूँ--सारा अभी ज़िंदा है, तुम लोग उस ज़िंदा लड़की को दफन करना चाहते हो ?

अपनी ही चीख से मेरी आँख खुल गई,तो लगा-- एक तरह से यह सपना सच्चा है. सारा को पागल क़रार देने से लेकर मरने तक मज़बूर कर देने वालों ने उसे ज़िंदा ही तो दफन किया है...

फिर नहीं जानती-- कब आँख लग गई, तो देखा-- सारा को क़ब्र में उतरा जा रहा है, और कहती हूँ-- ठहरो! पहले कब्र में दूध डालो.सारा ने दूध की कसम खाई थी कि वह मौत की आखिरी दस्तक तक नज़्में लिखेगी. उसकी क़सम पूरी हुई. अब उसके एक बच्चे की तरह, उसका दूध भी बेकफ़न रह जाएगा...पहले दूध को कफन दो, और दूध को क़ब्र दो!

मैं जगी-- तो भरी हुई आँखों से मैं सारा की कब्र को देखने लगी,जो जाने कहाँ है ?