दौड़ (भाग एक से तीन)

Gadya Kosh से
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वह अपने ऑफ़िस में घुसा। शायद इस वक्त लोड शेडिंग शुरू हो गई थी। मुख्य हॉल में आपातकालीन ट्यूब लाइट जल रही थी। वह उसके सहारे अपने केबिन तक आया। अँधेरे में मेज़ पर रखे कंप्यूटर की एक बौड़म सिलुएट बन रही थी। फ़ोन, इंटरकॉम सब निष्प्राण लग रहे थे। ऐसा लग रहा था संपूर्ण सृष्टि निश्चेष्ट पड़ी है।

बिजली के रहते यह छोटा-सा कक्ष उसका साम्राज्य होता है। थोड़ी देर में आँख अँधेरे की अभ्यस्त हुई तो मेज़ पर पड़ा माउस भी नज़र आया। वह भी अचल था। पवन को हँसी आ गई, नाम है चूहा पर कोई चपलता नहीं। बिजली के बिना प्लास्टिक का नन्हा-सा खिलौना है बस। बोलो चूहे कुछ तो करो, चूँ चूँ ही सही, उसने कहा। चूहा फिर बेजान पड़ा रहा।

पवन को यकायक अपना छोटा भाई सघन याद आया। रात में बिस्कुटों की तलाश में वे दोनों रसोईघर में जाते। रसोई में नाली के रास्ते बड़े-बड़े चूहे दौड़ लगाते रहते। उन्हें बड़ा डर लगता। रसोई का दरवाज़ा खोल कर बिजली जलाते हुए छोटू लगातार म्याऊँ-म्याऊँ की आवाज़ें मुँह से निकालता रहता कि चूहे ये समझें कि रसोई में बिल्ली आ पहुँची है और वे डर कर भाग जाएँ। छोटू का जन्म भी मार्जार योनि का है।

पवन ज़्यादा देर स्मृतियों में नहीं रह पाया। यकायक बिजली आ गई, अँधेरे के बाद चकाचौंध करती बिजली के साथ ही ऑफ़िस में जैसे प्राण लौट आए। दातार ने हाट प्लेट कॉफी का पानी चढ़ा दिया, बाबू भाई ज़ेराक्स मशीन में काग़ज़ लगाने लगे और शिल्पा काबरा अपनी टेबल से उठ कर नाचती हुई-सी चित्रेश की टेबल तक गई, यू नो हमें नरूलाज़ का कांट्रेक्ट मिल गया।

पवन ने अपनी टेबल पर बैठे-बैठे दाँत पीसे। यह बेवकूफ़ लड़की हमेशा ग़लत आदमी से मुख़ातिब रहती है। इसे क्या पता कि चित्रेश की चौबीस तारीख को नौकरी से छुट्टी होने वाली है। उसने दो जंप्स (वेतन वृद्धी) माँगे थे, कंपनी ने उसे जंप आउट करना ही बेहतर समझा। इस समय तलवारें दोनों तरफ़ की तनी हुई हैं। चित्रेश को जवाब मिला नहीं है पर उसे इतना अंदाज़ा है कि मामला कहीं फँस गया है। इसीलिए पिछले हफ़्ते उसने एशियन पेंट्स में इंटरव्यू भी दे दिया। एशियन पेंट्स का एरिया मैनेजर पवन को नरूलाज में मिला था और उससे शान मार रहा था कि तुम्हारी कंपनी छोड़-छोड़ कर लोग हमारे यहाँ आते हैं। पवन ने चित्रेश की सिफ़ारिश कर दी ताकि चित्रेश का जो फ़ायदा होना है वह तो हो, उसकी कंपनी के सिर पर से यह सिरदर्द हटे। वहीं उसे यह भी ख़बर हुई कि नरूलाज में रोज़ बीस सिलेंडर की खपत है। आई.ओ.सी. अपने एजेंट के ज़रिए उन पर दबाव बनाए हुई है कि वे साल भर का अनुबंध उनसे कर लें। गुर्जर गैस ने भी अर्ज़ी लगा रखी है। आई.ओ.सी. की गैस कम दाम की है। संभावना तो यही है बनती है कि उनके एजेंट शाह एंड सेठ अनुबंध पा जाएँगे पर एक चीज़ पर बात अटकी है। कई बार उनके यहाँ माल की सप्लाई ठप्प पड़ जाती है। पब्लिक सेक्टर के सौ पचड़े। कभी कर्मचारियों की हड़ताल तो कभी ट्रक चालकों की शर्तें। इनके मुक़ाबले गुर्जर गैस में माँग और आपूर्ति के बीच ऐसा संतुलन रहता है कि उनका दावा है कि उनका प्रतिष्ठान संतुष्ट उपभोक्ताओं का संसार है।

पवन पांडे को इस नए शहर और अपनी नई नौकरी पर नाज़ हो गया। अब देखिए बिजली चार बजे गई ठीक साढ़े चार बजे आ गई। पूरे शहर को टाइम ज़ोन में बाँट दिया है, सिर्फ़ आधा घंटे के लिए बिजली गुल की जाती है, फिर अगले ज़ोन में आधा घंटा। इस तरह किसी भी क्षेत्र पर ज़ोर नहीं पड़ता। नहीं तो उसके पुराने शहर यानी इलाहाबाद में तो यह आलम था कि अगर बिजली चली गई तो तीन-तीन दिन तक आने के नाम न ले। बिजली जाते ही छोटू कहता, भइया ट्रांसफार्मर दुड़िम बोला था, हमने सुना है। परीक्षा के दिनों में ही शादी-ब्याह का मौसम होता। जैसे ही मोहल्ले की बिजली पर ज़्यादा ज़ोर पड़ता, बिजली फेल हो जाती। पवन झुँझलाता, माँ अभी तीन चैप्टर बाकी हैं, कैसे पढूँ। माँ उसकी टेबल के चार कोनों पर चार मोमबत्तियाँ लगा देती और बीच में रख देती, उसकी क़िताब। नए अनुभव की उत्तेजना में पवन, बिजली जाने पर और भी अच्छी तरह पढ़ाई कर डालता।

छोटू इसी बहाने बिजलीघर के चार चक्कर लगा आता। उसे छुटपन से बाज़ार घूमने का चस्का था। घर का फुटकर सौदा लाते, पोस्ट ऑफ़िस, बिजलीघर के चक्कर लगाते यह शौक अब लत में बदल गया था। परीक्षा के दिनों में भी वह कभी नई पेंसिल ख़रीदने के बहाने तो कभी यूनीफार्म इस्तरी करवाने के बहाने घर से ग़ायब रहता। जाते हुए कहता, हम अभी आते हैं। लेकिन इससे यह न पता चलता कि हज़रत जा कहाँ रहे हैं। जैसे मराठी में, घर से जाते हुए मेहमान यह नहीं कहता कि मैं जा रहा हूँ, वह कहता है 'मी येतो' अर्थात मैं आता हूँ। यहाँ गुजरात में और सुंदर रिवाज है। घर से मेहमान विदा लेता है तो मेज़बान कहते हैं, आऊ जो। यानी फिर आना।

यह ठीक है कि पवन घर से अठारह सौ किलोमीटर दूर आ गया है। पर एम.बी.ए. के बाद कहीं न कहीं तो उसे जाना ही था। उसके माता पिता अवश्य चाहते थे कि वह वहीं उनके पास रह कर नौकरी करे पर उसने कहा, पापा यहाँ मेरे लायक सर्विस कहाँ? यह तो बेरोज़गारों का शहर है। ज़्यादा से ज़्यादा नूरानी तेल की मार्केटिंग मिल जाएगी। माँ बाप समझ गए थे कि उनका शिखरचुंबी बेटा कहीं और बसेगा।

फिर यह नौकरी पूरी तरह पवन ने स्वयं ढूँढ़ी थी। एम.बी.ए. अंतिम वर्ष की जनवरी में जो चार पाँच कंपनियाँ उनके संस्थान में आई उनमें भाईलाल भी थी। पवन पहले दिन पहली इंटरव्यू में ही चुन लिया गया। भाईलाल कंपनी ने उसे अपनी एल.पी.जी. यूनिट में प्रशिक्षु सहायक मैनेजर बना लिया। संस्थान का नियम था कि अगर एक नौकरी में छात्र का चयन हो जाए तो वह बाकी के तीन इंटरव्यू नहीं दे सकता। इससे ज़्यादा छात्र लाभान्वित हो रहे थे और कैंपस पर परस्पर स्पर्धा घटी थी। पवन को बाद में यही अफ़सोस रहा कि उसे पता ही नहीं चला कि उसके संस्थान में विप्रो, एपल और बी.पी.सी.एल जैसी कंपनियाँ भी आई थीं। फिलहाल उसे यहाँ कोई शिकायत नहीं थी। अपने अन्य कामयाब साथियों की तरह उसने सोच रखा था कि अगर साल बीतते न बीतते उसे पद और वेतन में उच्चतर ग्रेड नहीं दिया गया तो वह यह कंपनी छोड़ देगा।

सी.पी. रोड चौराहे पर खड़े होके उसने देखा, सामने से शरद जैन जा रहा है। यह एक इत्तफ़ाक़ ही था कि वे दोनों इलाहाबाद में स्कूल से साथ पढ़े और अब दोनों को अहमदाबाद में नौकरी मिली। बीच में दो साल शरद ने आई.ए.एस. की मरीचिका में नष्ट किए, फिर कैपिटेशन फीस दे कर सीधे आई.आई.एम. अहमदाबाद में दाखिल हो गया। उसने शरद को रोका, कहाँ? यार पिज़ा हट चलते हैं, भूख लग रही है। वे दोनों पिज़ा हट में जा बैठे। पिज़ा हट हमेशा की तरह लड़के-लड़कियों से गुलज़ार था। पवन ने कूपन लिए और काउंटर पर दे दिए। शरद ने सकुचाते हुए कहा, मैं तो जैन पिज़ा लूँगा। तुम जो चाहे खाओ। रहे तुम वहीं के वहीं साले। पिज़ा खाते हुए भी जैनिज़्म नहीं छोड़ेंगे।

अहमदाबाद में हर जगह मेनू कार्ड में बाकायदा जैन व्यंजन शामिल रहते जैसे जैन पिज़ा, जैन आमलेट, जैन बर्गर।

पवन खाने के मामले में उन्मुक्त था। उसका मानना था कि हर व्यंजन की एक ख़ासियत होती है। उसे उसी अंदाज़ में खाया जाना चाहिए। उसे संशोधन से चिढ़ थी। मेनू कार्ड में जैन पिज़ा के आगे उसमें पड़ने वाली चीज़ें का खुलासा भी दिया था, टमाटर, शिमला मिर्च, पत्ता गोभी और तीखी मीठी चटनी। शरद ने कहा, कोई ख़ास फ़र्क तो नहीं है, सिर्फ़ चिकन की चार-पाँच कतरन उसमें नहीं होगी, और क्या? सारी लज़्ज़त तो उन कतरनों की है यार। पवन हँसा। मैंने एक दो बार कोशिश की पर सफल नहीं हुआ। रात भर लगता रहा जैसे पेट में मुर्गा बोल रहा है कुकडूँकूँ। तुम्हीं जैसों से महात्मा गांधी आज भी साँसें ले रहे हैं। उनके पेट में बकरा में-में करता था। शरद ने वेटर को बुला कर पूछा, कौन-सा पिज़ा ज़्यादा बिकता है यहाँ। जैन पिज़ा। वेटर ने मुसकुराते हुए जवाब दिया। देख लिया, शरद बोला, पवन तुम इसको एप्रिशिएट करो कि सात समंदर पार की डिश का पहले हम भारतीयकरण करते हैं फिर खाते हैं। घर में ममी बेसन का ऐसा लज़ीज़ आमलेट बना कर खिलाती हैं कि अंडा उसके आगे पानी भरे। मैं तो जब से गुजरात आया हूँ बेसन ही खा रहा हूँ। पता है बेसन को यहाँ क्या बोलते हैं? चने का लोट।

पता नहीं यह जैन धर्म का प्रभाव था या गाँधीवाद का, गुजरात में मांस, मछली और अंडे की दुकानें मुश्किल से देखने में आतीं। होस्टल में रहने के कारण पवन के लिए अंडा भोजन का पर्याय था पर यहाँ सिर्फ़ स्टेशन के आस-पास ही अंडा मिलता। वहीं तली हुई मछली की भी चुनी दुकानें थीं। पर अक्सर मेम नगर से स्टेशन तक आने की और ट्रैफ़िक में फँसने की उसकी इच्छा न होती। तब वह किसी अच्छे रेस्तराँ में सामिष भोजन कर अपनी तलब पूरी करता। वे अपने पुराने दिन याद करते रहे, दोनों के बीच में लड़कपन की बेशुमार बेवकूफ़ियाँ कॉमन थीं और पढ़ाई के संघर्ष। पवन ने कहा, पहले दिन जब तुम अमदाबाद आए तब की बात बताना ज़रा। तुम कभी अमदाबाद कहते हो कभी अहमदाबाद, यह चक्कर क्या है। ऐसा है अपना गुजराती क्लायंट अहमदाबाद को अमदाबाद ही बोलना माँगता, तो अपुन भी ऐसाइच बोलने का। मैं कहता हूँ यह एकदम व्यापारी शहर है, सौ प्रतिशत। मैं चालीस घंटे के सफ़र के बाद यहाँ उतरा। एक थ्री व्हीलर वाले से पूछा, आई.आई.एम. चलोगे? किदर बोलने से, उसने पूछा। मैंने कहा, भाई वस्त्रापुर में जहाँ मैनेजरी की पढ़ाई होती है, उसी जगह जाना है। तो जानते हो साला क्या बोला, टू हंड्रेड भाड़ा लगेगा। मैंने कहा तुम्हारा दिमाग़ तो ठीक है। उसने कहा, साब आप उदर से पढ़ कर बीस हज़ार की नौकरी पाओगे, मेरे को टू हंड्रेड देना आपको ज़्यादा लगता क्या? तुम्हारा सिर घूम गया था? बाई गॉड। मुझे लगा वह एकदम ठग्गू है। पर जिस भी थ्री व्हीलर वाले से मैंने बात की सबने यही रेट बताया। मुझे याद है, शाम को तुमने मुझसे मिल कर सबसे पहले यही बात बताई थी। सच्ची बात तो यह है कि अपने घर और शहर से बाहर आदमी हर रोज़ एक नया सबक सीखता है। और बताओ, जॉब ठीक चल रहा है? ठीक क्या यार, मैंने कंपनी ही ग़लत चुन ली। बैनर तो बड़ा अच्छा है, स्टार्ट भी अच्छा दिया है? पर प्रॉडक्ट भी देखो। बूट पॉलिश। हालत यह है कि हिंदुस्तान में सिर्फ़ दस प्रतिशत लोग चमड़े के जूते पहनते हैं। बाकी नब्बे क्या नंगे पैर फिरते हैं? मज़ाक नहीं, बाकी लोग चप्पल पहनते हैं या फ़ोम शुज़। फ़ोम के जूते कपड़ों की तरह डिटरजेंट से धुल जाते हैं और चप्पल चटकाने वाले पॉलिश के बारे में कभी सोचते नहीं। पॉलिश बिके तो कैसे? पवन ने कौतुक से रेस्तराँ में कुछ पैरों की तरफ़ देखा। अधिकांश पैरों में फ़ोम के मोटे जूते थे। कुछ पैरों में चप्पलें थीं। अभी हेड ऑफ़िस से फ़ैक्स आया है कि माल की अगली खेप भिजवा रहे हैं। अभी पिछला माल बिका नहीं है। दुकानदार कहते हैं वे और ज़्यादा माल स्टोर नहीं करेंगे, उनके यहाँ जगह की किल्लत है। ऐसे में मेरी सनशाइन शू पॉलिश क्या करें? डीलर को कोई गिफ़्ट ऑफ़र दो, तो वह माल निकाले। सबको सनशाइन रखने के लिए वॉल रैक दिए हैं, डीलर्स कमीशन बढ़वाया है पर मैंने खुद खड़े हो कर देखा है, काउंटर सेल नहीं के बराबर है। पवन ने सुझाव दिया, कोई रणनीति सोचो। कोई इनामी योजना, हॉलिडे प्रोग्राम? इनामी योजना का सुझाव भेजा है। हमारा टारगेट उपभोक्ता स्कूली विद्यार्थी हैं। उसकी दिलचस्पी टॉफी या पेन में हो सकती है, हॉलिडे प्रोग्राम में नहीं। हाँ, यह अच्छी योजना है। बाइ गॉड, अगर पब्लिक स्कूलों में चमड़े के जूते पहनने का नियम न होता तो सारी बूट पॉलिश कंपनियाँ बंद हो जातीं। इन्हीं के बूते पर बाटा, कीवी, बिल्ली, सनशाइन सब ज़िंदा हैं। इस लिहाज़ से मेरी प्रॉडक्ट बढ़िया है। हर सीज़न में हर तरह के आदमी को गैस सिलेंडर की ज़रूरत रहती है। लेकिन यार जब थोक में प्रॉडक्ट निकालनी हो, यह भी भारी पड़ जाती है। पवन उठ खड़ा हुआ, थोड़ी देर और बैठे तो यहाँ डिनर टाइम हो जाएगा। तुम कहाँ खाना खाते हो आजकल। वहीं जहाँ तुमने बताया था, मौसी के। और तुम? मैं भी मौसी के यहाँ खाता हूँ पर मैंने मौसी बदल ली है। क्यों? वह क्या है यार मौसी कढ़ी और करेले में भी गुड़ डाल देती थीं और खाना परोसने वाली उसकी बेटी कुछ ऐसी थी कि झेली नहीं जाती थी। हमारी वाली मौसी तो बहुत सख़्त मिज़ाज है, खाते वक्त आप वॉकमैन भी नहीं सुन सकते। बस खाओ और जाओ। यार कुछ भी कहो अपने शहर का खस्ता, समोसा बहुत याद आता है।

शहर में जगह-जगह घरों में महिलाओं ने माहवारी हिसाब पर खाना खिलाने का प्रबंध कर रखा था। नौकरी पेशा छड़े (अविवाहित) युवक उनके घरों में जा कर खाना खा लेते। रोटी सब्ज़ी, दाल और चावल। न रायता न चटनी न सलाद। दर तीन सौ पचास रुपए महीना, एक वक्त। इन महिलाओं को मौसी कहा जाता। भले ही उनकी उम्र पचीस हो या पचास। रात साढ़े नौ के बाद खाना नहीं मिलता। तब ये लड़के उडुपी भोजनालय में एक मसाला दोसा खा कर सो जाते। इतनी तकलीफ़ में भी इन युवकों को कोई शिकायत न होती। अपने उद्यम से रहने और जीने का संतोष सबके अंदर।

घर गृहस्थी वाले साथी पूछते, जिंदगी के इस ढंग से कष्ट नहीं होता? होता है कभी-कभी। अनुपम कहता, सन 84 से बाहर हूँ। पहले पढ़ने की ख़ातिर, अब काम की। कभी-कभी छुट्टी के दिन अनुपम लिट्टी चोखा बनाता। बाकी लड़के उसे चिढ़ाते, तुम अनुपम नहीं अनुपमा हो। वह बेलन हाथ में नचाते हुए कहता, हम अपने लालू अंकल को लिखूँगा इधर में तुम सब बुतरू एक सीधे सादे बिहारी को सताते हो।

जब आप अपना शहर छोड़ देते हैं, अपनी शिकायतें भी वहीं छोड़ आते हैं। दूसरे शहर का हर मंज़र पुरानी यादों को कुरेदता है। मन कहता है ऐसा क्यों है वैसा क्यों नहीं है? हर घर के आगे एक अदद टाटा सुमो खड़ी है। मारुति 800 क्यों नहीं? तर्क शक्ति से तय किया जा सकता है कि यह परिवार की ज़रूरत और आर्थिक हैसियत का परिचय पत्र है। पर यादें हैं कि लौट-लौट आती हैं सिविल लाइंस, एलगिन रोड और चैथम लाइंस की सड़कों पर जहाँ माचिस की डिबियों जैसी कारें और स्टियरिंग के पीछे बैठे नमकीन चेहरे तबियत तरोताज़ा कर जाते। ओफ, नए शहर में सब कुछ नया है। यहाँ दूध मिलता है पर भैसें नहीं दिखतीं। कहीं साइकिल की घंटी टनटनाते दूध वाले नज़र नहीं आते। बड़ी-बड़ी सुसज्जित डेरी शॉप हैं, एयरकंडीशंड, जहाँ आदमकद चमचमाती स्टील की टंकियों में टोटी से दूध निकलता है। ठंडा, पास्चराइज्ड। वहीं मिलता है दही, दुग्ध ना पेड़ा और श्रीखंड।

यही हाल तरकारियों का है। हर कालोनी के गेट पर सुबह तीन चार घंटे एक ऊँचा ठेला तरकारियों से सजा खड़ा रहेगा। वह घर-घर घूम कर आवाज़ नहीं लगाता। स्त्रियाँ उसके पास जाएँगी और ख़रीदारी करेंगी। उसके ठेले पर ख़ास और आम तरकारियों का अंबार लगा है। हरी शिमला मिर्च है तो लाल और पीली भी। गोभी है तो ब्रोकोली भी। सलाद की शक्ल का थाई कैबेज भी दिखाई दे जाता है। ख़ास तरकारियों में किसी की भी कीमती डेढ़ दो सौ रुपए किलो से कम नहीं। ये बड़े-बड़े लाल टमाटर एक तरफ़ रखे हैं कि दूर से देखने पर प्लास्टिक की गेंद लगते हैं। ये टमाटर क्यारी में नहीं प्रयोगशाला में उगाए गए लगते हैं। कीमत दस रुपए पाव। टमाटर का आकार इतना बड़ा है कि एक पाँव में एक ही चढ़ सकता है। दस रुपए का एक टमाटर है। भगवान क्या टमाटर भी एन.आर.आई. हो गया। शिकागो में एक डॉलर का एक टमाटर मिलता है। भारत में टमाटर उसी दिशा में बढ़ रहा है। तरकारियाँ विश्व बाज़ार की जिन्स बनती जा रही हैं। इनका भूमंडलीकरण हो रहा है। पवन को याद आता है उसके शहर में घूरे पर भी टमाटर उग जाता था। किसी ने पका टमाटर कूड़े करकट के ढेर पर फेंक दिया, वहीं पौधा लहलहा उठा। दो माह बीतते न बीतते उसमें फल लग जाते। छोटे-छोटे लाल टमाटर, रस से टलमल, यहाँ जैसे बड़े बेजान और बनावटी नहीं, असल और खटमिट्ठे।

शहर के बाज़ारों में घूमना पवन, शरद, दीपेंद्र, रोज़विंदर और शिल्पा का शौक भी है और दिनचर्या भी। रोज़विंदर कौर प्रदूषण पर प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार कर रही है। कंधे पर पर्स और कैमरा लटकाए कभी वह एलिस ब्रिज के ट्रैफ़िक जाम के चित्र उतारती है तो कभी बाज़ार में जैनरेटर से निकलने वाले धुएँ का जायज़ा लेती है। दीपेंद्र कहता है, रोजू तुम्हारी रिपोर्ट से क्या होगा। क्या टैंपो और जेनरेटर धुआँ छोड़ना बंद कर देंगे? रोजू सिगरेट का आख़िरी कश ले कर उसका टोटा पैर के नीचे कुचलती है, माई फुट! तुम तो मेरे जॉब को ही चुनौती दे रहे हो। मेरी कंपनी को इससे मतलब नहीं है कि वाहन धुएँ के बग़ैर चलें। उसकी योजना है हवा शुद्धिकरण संयंत्र बनाने की। एक हर्बल स्प्रे भी बनाने वाली है। उसे एक बार नाक के पास स्प्रे कर लो तो धुएँ का प्रदूषण आपकी साँस के रास्ते अंदर नहीं जाता। और जो प्रदूषण आँख और मुँह के रास्ते जाएगा वह? तो मुँह बंद रखो और आँख में डालने को आइ ड्राप ले आओ। पवन के मुँह से निकल जाता है, मेरे शहर में प्रदूषण नहीं है। आ हा हा, पूरे विश्व में प्रदूषण चिंता का विषय है और ये पवन कुमार आ रहे हैं सीधे स्वर्ग से कि वहाँ प्रदूषण नहीं हैं। तुम इलाहाबाद के बारे में रोमांटिक होना कब छोड़ोगे? रोजू हँसती है, वॉट ही मीन्स इज वहाँ प्रदूषण कम है। वैसे पवन मैंने सुना है यू.पी. में अभी भी किचन में लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनता है। तब तो वहाँ घर के अंदर ही धुआँ भर जाता होगा? इलाहाबाद गाँव नहीं शहर है, कावल टाउन। शिक्षा जगत में उसे पूर्व का ऑक्सफोर्ड कहते हैं। शिल्पा काबरा बातचीत को विराम देती है, ठीक है, अपने शहर के बारे में थोड़ा रोमांटिक होने में क्या हर्ज़ है।

पवन कृतज्ञता से शिल्पा को देखता है। उसे यह सोच कर बुरा लगता है कि शिल्पा की ग़ैर मौजूदगी में वे सब उसके बारे में हल्केपन से बोलते हैं। पवन का ही दिया हुआ लतीफ़ा है शिल्पा काबरा, शिल्पा का ब्रा।

'विश्वास नी जोत घरे-घरे— गुर्ज़र गैस लावे छे' यह नारा है पवन की कंपनी का। इस संदेश को प्रचारित प्रसारित करने का अनुबंध शीबा कंपनी को साठ लाख में मिला है। उसने भी सड़कें और चौराहे रंग डाले हैं।


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(दूसरा भाग)

एल.पी.जी. विभाग में काम करने वालों के हौसले और हसरतें बुलंद हैं। सबको यकीन है कि वे जल्द ही आई। ओ.सी. को गुजरात से खदेड़ देंगे। निदेशक से ले कर डिलीवरी मैन तक में काम के प्रति तत्परता और तन्मयता है। मेम नगर में जहाँ जी.जी.सी.एल. का दफ़्तर है, वह एक खूबसूरत इमारत है, तीन तरफ़ हरियाली से घिरी। सामने कुछ और खूबसूरत मकान हैं जिनके बरामदों में विशाल झूले लगे हैं। बगल में सेंट ज़ेवियर्स स्कूल है। छुट्टी की घंटी पर जब नीले यूनीफार्म पहने छोटे-छोटे बच्चे स्कूल के फाटक से बाहर भीड़ लगाते हैं तो जी.जी.सी.एल. के लाल सिलिंडरों से भरे लाल वाहन बड़ा बढ़िया कांट्रास्ट बनाते हैं लाल नीला, नीला लाल।

अटैची में कपड़े, आँखों में सपने और अंतर में आकुलता लिए न जाने कहाँ-कहाँ से नौजवान लड़के नौकरी की ख़ातिर इस शहर में आ पहुँचे हैं। बड़ी-बड़ी सर्विस इंडस्ट्री में कार्यरत ये नवयुवक सबेरे नौ से रात नौ तक अथक परिश्रम करते हैं। एक दफ़्तर के दो तीन लड़के मिल कर तीन या चार हज़ार तक के किराये का एक फ्लैट ले लेते हैं। सभी बराबर का शेयर करते हैं किराया, दूध का बिल, टायलेट का सामान, लांड्री का खर्च। इस अनजान शहर में रम जाना उनके आगे नौकरी में जम जाने जैसी ही चुनौती है, हर स्तर पर। कहाँ अपने घर में ये लड़के शहज़ादों की तरह रहते थे, कहाँ सारी सुख सुख-सुविधाओं से वंचित, घर से इतनी दूर ये सब सफलता के संघर्ष में लगे हैं। न इन्हें भोजन की चिंता है न आराम की। एक आँख कंप्यूटर पर गड़ाए ये भोजन की रस्म अदा कर लेते हैं और फिर लग जाते हैं कंपनी के व्यापार लक्ष्य को सिद्ध करने में। ज़ाहिर है, व्यापार या लाभ लक्ष्य इतने ऊँचे होते हैं कि सिद्धि का सुख हर एक को हासिल नहीं होता। सिद्धि, इस दुनिया में, एक चार पहिया दौड़ है जिसमें स्टियरिंग आपके हाथ में है पर बाकी सारे कंट्रोल्स कंपनी के हाथ में। वही तय करती है आपको किस रफ़्तार से दौड़ना है और कब तक।

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक के तीन जादूई अक्षरों ने बहुत से नौजवानों के जीवन और सोच की दिशा ही बदल डाली थी। ये तीन अक्षर थे एम.बी.ए.। नौकरियों में आरक्षण की आँधी से सकपकाए सवर्ण परिवार धड़ाधड़ अपने बेटे बेटियों को एम.बी.ए. में दाखिल होने की सलाह दे रहे थे। जो बच्चा पवन, शिल्पा और रोज़विंदर की तरह कैट, मैट जैसी प्रवेश परीक्षाएँ निकाल ले वह तो ठीक, जो न निकाल पाए उसके लिए लंबी-चौड़ी कैपिटेशन फीस देने पर एम.एम.एस. के द्वार खुले थे। हर बड़ी संस्था ने ये दो तरह के कोर्स बना दिए थे। एक के ज़रिए वह प्रतिष्ठा अर्जित करती थी तो दूसरी के ज़रिए धन। समाज की तरह शिक्षा में भी वर्गीकरण आता जा रहा था। एम.बी.ए. में लड़के वर्ष भर पढ़ते, प्रोजेक्ट बनाते, रिपोर्ट पेश करते और हर सत्र की परीक्षा में उत्तीर्ण होने की जी तोड़ मेहनत करते। एम.एम.एस. में रईस उद्योगपतियों, सेठों के बिगड़े शाहज़ादे एन.आर.आई. कोटे से प्रवेश लेते, जम कर वक्त बरबाद करते और दो की जगह तीन साल में डिग्री ले कर अपने पिता का व्यवसाय सँभालने या बिगाड़ने वापस चले जाते।

शरद के पिता इलाहाबाद के नामी चिकित्सक थे। संतान को एम.बी.बी.एस. में दाखिल करवाने की उनकी कोशिशें नाकामयाब रहीं तो उन्होंने एकमुश्त कैपिटेशन फीस दे कर उसका नाम एम.एम.एस. में लिखवा दिया। एम.एम.एस. डिग्री के बाद उन्होंने अपने रसूख से उसे सनशाइन बूट पॉलिश में नौकरी भी दिलवा दी पर इसमें सफल होना शरद की ज़िम्मेवारी थी। उसे अपने पिता का कठोर चेहरा याद आता और वह सोच लेता नौकरी में चाहे कितनी फजीहत हो वह सह लेगा पर पिता की हिक़ारत वह नहीं सह सकेगा। कंपनी के एम. डी. जब तब हेड ऑफ़िस से आ कर चक्कर काट जाते। वे अपने मैनेजरों को भेज कर जायज़ा लेते और शरद व उसके साथियों पर बरस पड़ते, पूरे मार्केट में बिल्ली छाई हुई है। शो रूस से ले कर होर्डिंग और बैनर तक, सब जगह बिल्ली ही बिल्ली है। आप लोग क्या कर रहे हैं। अगर स्टोरेज की किल्लत है तो बिल्ली के लिए क्यों नहीं, सनशाइन ही क्यों? शरद और साथी अपने पुराने तर्क प्रस्तुत करते तो एम.डी. ताम्रपर्णी साहब और भड़क जाते, बिल्ली पालिश क्या फोम शूज़ पर लगाई जा रही है या उससे चप्पलें चमकाई जा रही हैं।

इस बार उन्होंने शरद और उसके साथियों को निर्देश दिया कि नगर के मोचियों से बात कर रिपोर्ट दें कि वे कौन-सी पॉलिश इस्तेमाल करते हैं और क्यों? एम.डी. तो फूँ-फाँ कर चलते बने, लड़कों को मोचियों से सिर खपाने के लिए छोड़ गए। शरद और उसके सहकर्मी सुबह नौ से बारह के समय शहर के मोचियों को ढूँढ़ते, उनसे बात करते और नोट्स लेते। दरअसल बाज़ार में दिन पर दिन स्पर्धा कड़ी होती जा रही थी। उत्पादन, विपणन और विक्रय के बीच तालमेल बैठाना दुष्कर कार्य था। एक-एक उत्पाद की टक्कर में बीस-बीस वैकल्पिक उत्पाद थे। इन सबको श्रेष्ठ बताते विज्ञापन अभियान थे जिनके प्रचार प्रसार से मार्केटिंग का काम आसान की बजाय मुश्किल होता जाता। उपभोक्ता के पास एक-एक चीज़ के कई चमकदार विकल्प थे।

रोज़विंदर ने पुरानी कंपनी छोड़ कर इंडिया लीवर के टूथपेस्ट डिवीजन में काम सँभाला था। उसे आजकल दुनिया में दाँत के सिवा कुछ नज़र नहीं आता था। वह कहती, हमारी प्रोडक्ट के एक-एक आइटम को इतना प्रचारित कर दिया गया है कि अब इसमें बस साबुन मिलाने की कसर बाकी है। रेडियो और टी.वी.पर दिन में सौ बार दर्शक और श्रोता की चेतना को झकझोरता विज्ञापन मार्केटिंग के प्रयासों में चुनौती और चेतावनी का काम करता। उपभोक्ता बहुत ज़्यादा उम्मीद के साथ टूथपेस्ट ख़रीदता जो एकबारगी पूरी न होती दिखती। वह वापस अपने पुराने टूथपेस्ट पर आ जाता बिना यह सोचे कि उसे अपने दाँतों की बनावट खान-पान के प्रकार और प्रकृति और वंशानुगत सीमाओं पर भी ग़ौर करना चाहिए।

शरद को लगता बूट पालिश बेचना सबसे मुश्किल काम है तो रोज़विंदर को लगता ग्राहकों के मुँह नया टूथपेस्ट चढ़वाना चुनौतीपरक है और पवन पांडे को लगता वह अपनी कंपनी का टारगेट, विक्रय लक्ष्य, कैसे पूरा करे। खाली समय में अपने-अपने उत्पाद पर बहस करते-करते वे इतना उत्पात करते कि लगता सफलता का कोई सट्टा खेल रहे हैं। पवन म्यूज़िक सिस्टम पर गाना लगा देता, ये तेरी नज़रें झुकी-झुकी, ये तेरा चेहरा खिला-खिला। बड़ी किस्मत वाला है - 'सनी टूथपेस्ट जिसे मिला' रोज़विंदर गाने की लाइन पूरी करती।

ऐनाग्राम फाइनेंस कंपनी के सौजन्य से शहर में तीन दिवसीय सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन हुआ। गुजरात विश्वविद्यालय के विशाल परिसर में बेहद सुंदर साज़-सज्जा की गई। गुजरात वैसे भी पंडाल रचना में परंपरा और मौलिकता के लिए विख्यात रहा है, फिर इस आयोजन में बजट की कोई सीमा न थी। पवन, शिल्पा, रोजू, शरद और अनुपम ने पहले ही अपने पास मँगवा लिए। पहले दिन नृत्य का कार्यक्रम था, अगले दिन ताल-वाद्य और पंडित भीमसेन चौरसिया का बाँसुरी वादन और शिवकुमार शर्मा का संतूर वादन। अहमदाबाद जैसी औद्योगिक, व्यापारिक नगरी के लिए यह एक अभूतपूर्व संस्कृति संगम था।

आयोजन का समस्त प्रबंध ए.एफ.सी. के युवा मैनेजरों के ज़िम्मे था। मुक्तांगन में पंद्रह हज़ार दर्शकों के बैठने का इंतज़ाम था। परिसर के चार कोनों तथा बीच-बीच में दो जगह विशाल सुपर स्क्रीन लगे थे जिन पर मंच के कलाकारों की छवि पड़ रही थी। इससे मंच से दूर बैठे दर्शकों को भी कलाकार के समीप होने की अनुभूति हो रही थी। दर्शकों की सीटों से हट कर, परिसर की बाहरी दीवार के क़रीब एक स्नैक बाज़ार लगाया गया था। सांस्कृतिक कार्यक्रम में प्रवेश निःशुल्क था हालाँकि खान-पान के लिए सबके पचास रुपए प्रति व्यक्ति के हिसाब से कूपन खरीदना अनिवार्य था।

दूसरे दिन पवन भीमसेन जोशी को सुनने गया था। सुपर स्क्रीन पर भीमसेन जोशी महा भीमसेन जोशी नज़र आ रहे थे। 'सब है तेरा' अंतरे पर आते-आते उन्होंने हमेशा की तरह सुर और लय का समा बाँध दिया। लेकिन पवन को इस बात से उलझन हो रही थी कि आसपास की सीटों के दर्शकों की दिलचस्पी गायन से अधिक खान-पान में थी। वे बार-बार उठ कर स्नैक बाज़ार जाते, वहाँ से अंकल चिप्स के पैकेट और पेप्सी लाते। देखते ही देखते पूरे माहौल में राग अहीर भैरव के साथ कुर्र-कुर्र चुर्र-चुर्र की ध्वनियाँ भी शामिल हो गईं। अधिकांश दर्शकों के लिए वहाँ देखे जाने के अंदाज़ में उपस्थिति महत्वपूर्ण थी।

पवन ने अपने शहर में इस कलाकार को सुना था। मेहता संगीत समिति के हाल में खचाखच भीड़ में स्तब्ध सराहना में सम्मोहित. इलाहाबाद में आज भी साहित्य संगीत के सर्वाधिक मर्मज्ञ और रसज्ञ नज़र आते हैं। वहाँ इस तरह बीच में उठ कर खाने-पीने का कोई सोच भी नहीं सकता।

अपने शहर के साथ ही घर की याद उमड़ आई। उसने सोचा प्रोग्राम ख़त्म होने पर वह घर फ़ोन करेगा। माँ इस वक्त क्या कर रही होंगी, शायद दही में जामन लगा रही होंगी- दिन का आख़िरी काम। पापा क्या कर रहे होंगे, शायद समाचारों की पचासवीं किस्त सुन रहे होंगे। भाई क्या कर रहा होगा। वह ज़रूर टेलीफ़ोन से चिपका होगा। उसके कारण फ़ोन इतना व्यस्त रहता है कि खुद पवन को अपने घर बात करने के लिए भी पी.सी.ओ पर एकेक घंटे बैठना पड़ जाता है। अंततः जब फ़ोन मिलता है सघन से पता चलता है कि माँ पापा की अभी-अभी आँख लगी है। कभी उनसे बात होती है, कभी नहीं होती। जब माँ निंदासे स्वर में पूछती हैं, कैसे हो पुन्नू, खाना खा लिया, चिठ्ठी डाला करो। वह हर बात पर हाँ-हाँ कर देता है। पर तसल्ली नहीं होती। उसका अपनी माँ से बेहद जीवंत रिश्ता रहा है। फ़ोन जैसे यंत्र को बीच में डाल कर, सिर्फ़ उस तक पहुँचा जा सकता है, उसे पुनर्सृजित नहीं किया जा सकता। वह माँ के चेहरे की एक-एक ज़ुंबिश देखना चाहता है। पिता हँसते हुए अद्भुत सुंदर लगते हैं। इतनी दूर बैठ कर पवन को लगता है माता पिता और भाई उसके अलबम की सबसे सुंदर तस्वीरें हैं। उसे लगा अब सघन किस से उलझता होगा। सारा दिन उस पर लदा रहता था, कभी तक़रार में कभी लाड़ में। कई बार सघन अपना छुटपन छोड़ कर बड़ा भइया बन जाता। पवन किसी बात से खिन्न होता तो सघन उससे लिपट-लिपट कर मनाता, भइया बताओ क्या खाओगे? भइया तुम्हारी शर्ट आयरन कर दें? भइया हमें सिबिल लाइंस ले चलोगे।

साहित्य प्रेमी माता पिता के कारण घर में कमरे किताबों से अटे पड़े थे। स्कूल की पढ़ाई में बाहरी सामान्य किताबें पढ़ने का अवकाश नहीं मिलता था फिर भी जो थोड़ा बहुत वह पढ़ जाता था, अपने पापा और माँ के उकसाने के कारण। उन्होंने उसे प्रेमचंद की कहानियाँ और कुछ लेख पढ़ने को दिए थे। 'कफ़न', 'पूस की रात' जैसी कहानियाँ उसके जेहन पर नक्श हो गई थीं लेकिन लेखों के संदर्भ सब गड्ड-मड्ड हो गए थे।

अध्ययन के लिए अब अवकाश भी नहीं था। कंपनी की कर्मभूमि ने उसे इस युग का अभिमन्यु बना दिया था। घर की बहुत हुड़क उठने पर फ़ोन पर बात करता। एक आँख बार-बार मीटर स्क्रीन पर उठ जाती। छोटू कोई चुटकुला सुना कर हँसता। पवन भी हँसता, फिर कहता, अच्छ छोटू अब काम की बात कर, चालीस रुपए का हँस लिए हम लोग। माँ पूछती, तुमने गद्दा बनवा लिया। वह कहता, हाँ माँ बनवा लिया। सच्चाई यह थी कि गद्दा बनवाने की फ़ुर्सत ही उसके पास नहीं थी। घर से फोम की रजाई लाया था, उसी को बिस्तर पर गद्दे की तरह बिछा रखा था। पर उसे पता था कि 'नहीं' कहने पर माँ नसीहतों के ढेर लगा देंगी, गद्दे के बग़ैर कमर अकड़ जाएगी। मैं यहाँ से बनवा कर भेजूँ? अपना ध्यान भी नहीं रख पाता, ऐसी नौकरी किस काम की। पब्लिक सेक्टर में आ जा, चैन से तो रहेगा।

अहमदाबाद इलाहाबाद के बीच एस.टी.डी. कॉल की पल्स रेट दिल की धड़कन जैसी सरपट चलती है 3-6-9-12 पाँच मिनट बात कर अभी मन भी नहीं भरा होता कि सौ रुपए निकल जाते। तब उसे लगता 'टाइम इज़ मनी'। वह अपने को धिक्कारता कि घर वालों से बात करने में भी वह महाजनी दिखा रहा है पर शहर में अन्य मर्दों पर इतना खर्च हो जाता कि फ़ोन के लिए पाँच सौ से ज़्यादा गुँजाइश बजट में न रख पाता।

शनि की शाम पवन हमेशा की तरह अभिषेक शुक्ला के यहाँ पहुँचा तो पाया वहाँ माहौल अलग है। प्रायः यह होता कि वह, अभिषेक, उसकी पत्नी राजुल और उनके नन्हे बेटे अंकुर के साथ कहीं घूमने निकल जाता। लौटते हुए वे बाहर ही डिनर ले लेते या कहीं से बढ़िया सब्ज़ी पैक करा कर ले आते और ब्रेड से खाते। आज अंकुर ज़िद पकड़े था कि पार्क में नहीं जाएँगे, बाज़ार जाएँगे। राजुल उसे मना रही थी, अंकुर पार्क में तुम्हें भालू दिखाएँगे और खरगोश भी। वो सब हमने देख लिया, हम बजाल देखेंगे।

हार कर वे बाज़ार चल दिए। खिलौनों की दुकान पर अंकुर अड़ गया। कभी वह एयरगन हाथ में लेता कभी ट्रेन। उसके लिए तय करना मुश्किल था कि वह क्या ले। पवन ने इलेक्ट्रानिक बंदर उसे दिखाया जो तीन बार कूदता और खों-खों करता था। अंकुर पहले तो चुप रहा। जैसे ही वे लोग दाम चुका कर बंदर पैक करा कर चलने लगे अंकुर मचलने लगा, बंदर नहीं गन लेनी है। राहुल ने कहा, गन गंदी, बंदर अच्छा। राजा बेटा बंदर से खेलेगा। हम ठांय-ठांय करेंगे हम बंदर फेंक देंगे। फिर से दुकान पर जा कर खिलौने देखे गए। बेमन से एयरगन फिर निकलवाई। अभी उसे देख, समझ रहे थे कि अंकुर का ध्यान फिर भटक गया। उसने दुकान पर रखी साइकिल देख ली। छिकिल लेना, छिकिल लेना। वह चिल्लाने लगा। अभी तुम छोटे हो। ट्राइसिकिल घर में है तो। राजुल ने समझाया। अभिषेक की सहनशक्ति ख़त्म हो रही थी, इसके साथ बाज़ार आना मुसीबत है, हर बार किसी बड़ी चीज़ के पीछे लग जाएगा। घर में खिलौने रखने की जगह भी नहीं है और ये ख़रीदता चला जाता है।

बड़े कौशल से अंकुर का ध्यान वापस बंदर में लगाया गया। दुकानदार भी अब तक उकता चुका था। इस सब चक्कर में इतनी देर हो गई कि और कहीं जाने का वक्त ही नहीं बचा। वापसी में वे ला गार्डन से सटे मार्केट में भेलपुरी, पानीपूरी खाने रुक गए। मार्केट ग्राहकों से ठसाठस भरा था। अंकुर ने कुछ नहीं खाया उसे नींद आने लगी। किसी तरह उसे कार में लिटा कर वे घर आए। अभिषेक ने कहा, पवन तुम लकी हो, अभी तुम्हारी जान को न बीवी का झंझट है न बच्चे का। राजुल तुनक गई, मेरा क्या झंझट है तुम्हें? मैं तो जनरल बात कर रहा था। यह जनरल नहीं स्पेशल बात थी। मैंने तुम्हें पहले कहा था मैं अभी बच्चा नहीं चाहती। तुमको ही बच्चे की पड़ी थी। पवन ने दोनों को समझाया, इसमें झगड़े वाली कोई बात नहीं है। एक बच्चा तो घर में होना ही चाहिए। एक से कम तो पैदा भी नहीं होता, इसलिए एक तो होगा ही होगा। अभिषेक ने कहा, मैं बहुत थका हुआ हूँ। नो मोर डिस्कशन। लेकिन राजुल का मूड ख़राब हो गया। वह घर के आख़िरी काम निपटाते हुए भुनभुनाती रही, हिंदुस्तानी मर्द को शादी के सारे सुख चाहिए बस ज़िम्मेदारी नहीं चाहिए। मेरा कितना हर्ज हुआ। अच्छी भली सर्विस छोड़नी पड़ी। मेरी सब कलीग्स कहती थीं राजुल अपनी आज़ादी चौपट करोगी और कुछ नहीं। आजकल तो डिंक्स का ज़माना है। डबल इनकम नो किड्स (दोहरी आमदनी, बच्चे नहीं)। सेंटिमेंट के चक्कर में फँस गई। किसी तरह विदा ले कर पवन वहाँ से निकला।

कंपनी ने पवन और अनुपम का तबादला राजकोट कर दिया। वहाँ उन्हें नए सिरे से ऑफ़िस शुरू करना था, एल.पी.जी. का रिटेल मार्केट सँभालना था और पुरे सौराष्ट्र में जी.जी.सी. संजाल फैलाने की संभावनाओं पर प्रोजेक्ट तैयार करना था।

तबादले अपने साथ तकलीफ़ भी लाते हैं पर इन दोनों को उतनी नहीं हुई जितनी आशंका थी। इनके लिए अहमदाबाद भी अनजाना था और राजकोट भी। परदेसी के लिए परदेस में पसंद क्या, नापसंद क्या। अहमदाबाद में इतनी जड़ें जमी भी नहीं थीं कि उखड़े जाने पर दर्द हो। पर अहमदाबाद राजकोट मार्ग पर डीलक्स बस में जाते समय दोनों को यह ज़रूरी लग रहा था कि वे हेड ऑफ़िस से ब्रांच ऑफ़िस की ओर धकेल दिए हैं।

गुर्ज़र गैस सौराष्ट्र के गाँवों में अपने पाँव पसार रही थी। इसके लिए वह अपने नए प्रशिक्षार्थियों को दौरे और प्रचार का व्यापक कार्यक्रम समझा चुकी थी। सूचना, उर्जा, वित्त और विपणन के लिए अलग-अलग टीम ग्राम स्तर पर कार्य करने निकल पड़ी थी। यों तो पवन और अनुपम भी अभी नए ही थे पर उन्हें इन २६ प्रशिक्षार्थियों के कार्य का आकलन और संयोजन करना था। राजकोट में वे एक दिन टिकते कि अगले ही दिन उन्हें सूरत, भरूच, अंकलेश्वर के दौरे पर भेज दिया जाता। हर जगह किसी तीन सितारा होटल में इन्हें टिकाया जाता, फिर अगला मुकाम।

सूरत के पास हजीरा में भी पवन और अनुपम गए। वहाँ कंपनी के तेल के कुएँ थे। लेकिन पहली अनुभूति कंपनी के वर्चस्व की नहीं अरब महासागर के वर्चस्व की हुई। एक तरफ़ हरे-भरे पेड़ों के बीच स्थित बड़ी-बड़ी फैक्टरियाँ, दूसरी तरफ़ हहराता अरब सागर।

एक दिन उन्हें वीरपुर भी भेजा गया। राजकोट से पचास मील पर इस छोटे से कस्बे में जलराम बाबा का शक्तिपीठ था। वहाँ के पूजारी को पवन ने गुर्ज़र गैस का महत्व समझा कर छह गैस कनेक्शन का ऑर्डर लिया। कुछ ही देर में जलराम बाबा के भक्तों और समर्थकों में ख़बर फैल गई कि बाबा ने गुर्ज़र गैस वापरने (इस्तेमाल करने) का आदेश दिया है। देखते-देखते शाम तक पवन ओर अनुपम ने २६४ गैस कनेक्शन का आदेश प्राप्त कर लिया। वैसे गुर्ज़र गैस का मुक़ाबला हर जगह आई.ओ.सी. से था। लोग औद्योगिक और घरेलू इस्तेमाल के अंतर को महत्व नहीं देते। जिसमें चार पैसे बचें वहीं उन्हें बेहतर लगता। कई जगह उन्हें पुलिस की मदद लेनी पड़ी कि घरेलू गैस का इस्तेमाल औद्योगिक इकाइयों में न किया जाय।

किरीट देसाई ने चार दिन की छुट्टी माँगी तो पवन का माथा ठनक गया। निजी उद्यम में दो घंटे की छुट्टी लेना भी फ़िजूलखर्ची समझा जाता था फिर यह तो इकठ्ठे चार दिन का मसला था। किरीट की ग़ैरहाजिरी का मतलब था एक ग्रामीण क्षेत्र से चार दिनों के लिए बिल्कुल कट जाना। आख़िर तुम्हें ऐसा क्या काम आ पड़ा? अगर मैं बताऊँगा तो आप छुट्टी नहीं देंगे। क्या तुम शादी करने जा रहे हो? नहीं सर। मैंने आपको बोला न मेरे को ज़रूर जाना माँगता।


3


(तीसरा भाग)

बहुत कुरेदने पर पता चला किरीट देसाई सरल मार्ग के कैंप में जाना चाहता है। राजकोट में ही तेरह मील दूर पर उसके स्वामी जी का कैंप लगेगा। जो काम तुम्हारे माँ बाप के लायक है वह तुम अभी से करोगे। पवन ने कहा। नहीं सर, आप एक दिन कैंप के मेडिटेशन में भाग लीजिए। मन को बहुत शांति मिलती है। स्वामी जी कहते हैं, मेडिटेशन प्रिपेर्स यू फॉर योर मंडेज। (ध्यान लगाने से आप अपने सोमवारों का सामना बेहतर ढंग से कर सकते हैं।) तो इसके लिए छुट्टी की क्या ज़रूरत है। तुम काम से लौट कर भी कैंप में जा सकते हो। नहीं सर। पूजा और ध्यान फुलटाइम काम है।

पवन ने बेमन से किरीट को छुट्टी दे दी। मन ही मन वह भुनभुनाता रहा। एक शाम वह यों ही कैंप की तरफ़ चल पड़ा। दिमाग़ में कहीं यह भी था कि किरीट की मौजूदगी जाँच ली जाए।

राजकोट जूनागढ़ लिंक रोड़ पर दाहिने हाथ को विशाल फाटक पर ध्यान शिविर सरल मार्ग का बोर्ड लगा था। तक़रीबन स्वतंत्र नगर वसा था। कारों का काफ़िला आ और जा रहा था। इतनी भीड़ थी कि उसमें किरीट को ढूँढ़ना मुमकिन ही नहीं था। जिज्ञासावश पवन अंदर घुसा। विशाल परिसर में एक तरफ़ बड़ी-सी खुली जगह वाहन खड़े करने के लिए छोड़ी गई थी जो तीन चौथाई भरी हुई थी। वहीं आगे की ओर लाल पीले रंग का पंडाल था। दूसरी तरफ़ तरतीब से तंबू लगे हुए थे। कुछ तंबुओं के बाहर कपड़े सूख रहे थे। उस भाग में भी एक फाटक था जिस पर लिखा था प्रवेश निषेध।

पंडाल के अंदर जब पवन घुसने में सफल हुआ तब स्वामी जी का प्रवचन समापन की प्रक्रिया में था। वे निहायत शांत, संयत, गहन गंभीर वाणी में कह रहे थे, प्रेम करो, प्राणिमात्र से प्रेम करो। प्रेम कोई टेलीफ़ोन कनेक्शन नहीं है जो आप सिर्फ़ एक मनुष्य से बात करें। प्रेम वह आलोक है जो समूचे कमरे को, समूचे जीवन को आलोकित करता है। अब हम ध्यान करेंगे। ओम्। उनके 'ओम्' कहते ही पाँच हज़ार श्रोताओं से भरे पंडाल में सन्नाटा खिंच गया। जो जहाँ जैसा बैठा था वैसा ही आँख मूँद कर ध्यानमग्न हो गया।

आँखें बंद कर पाँच मिनट बैठने पर पवन को भी असीम शांति का अनुभव हुआ। कुछ-कुछ वैसा जब वह लड़कपन में बहुत भाग दौड़ कर लेता था तो माँ उसे ज़बरदस्ती अपने साथ लिटा लेती और थपकते हुए डपटती, बच्चा है कि आफत। चुपचाप आँख बंद कर, और सो जा। उसे लगा अगर कुछ देर और वह ऐसे बैठ गया तो वाकई सो जाएगा।

उसने हल्के से आँख खोल कर अगल-बगल देखा, सब ध्यानमग्न थे। देखने से सभी वी.आई.पी. किस्म के भक्त थे, जेब में झाँकता मोबाइल फ़ोन और घुटनों के बीच दबी मिनरल वाटर की बोतल उन्हें एक अलग दर्जा दे रही थी। सफलता के कीर्तिमान तलाशते ये भक्त जाने किस जैट रफ़्तार से दिन भर दौड़ते थे, अपनी बिजनेस या नौकरी की लक्ष्य पूर्ति के कलपुर्जे बने मनुष्य। पर यहाँ इस वक्त ये शांति के शरणागत थे।

कुछ देर बाद सभा विसर्जित हुई। सबने स्वामी जी को मौन नमन किया और अपने वाहन की दिशा में चल दिए। पार्किंग स्थल पर गाड़ियों की घरघराहट और तीखे मीठे हार्न सुनाई देने लगे। वापसी में पवन का किरीट के प्रति आक्रोश शांत हो चुका था। उसे अपना स्नायु मंडल शांत और स्वस्थ लग रहा था। उसे यह उचित लगा कि आपाधापी से भरे जीवन में चार दिन का समय ध्यान के लिए निकाला जाय। स्वामी जी के विचार भी उसे मौलिकता और ताज़गी से भरे लगे। जहाँ अधिसंख्य गुरुजन धर्म को महिमा मंडित करते हैं, किरीट के स्वामी जी केवल अध्यात्म पर बल देते रहे। चिंतन, मनन और आत्मशुद्धि उनके सरल मार्ग के सिद्धांत थे।

सरल मार्ग मिशन के भक्त उन भक्तों से नितांत भिन्न थे जो उसने अपने शहर में साल दर साल माघ मेले में आते देखे थे। दीनता की प्रतिमूर्ति बने वे भक्त असाध्य कष्ट झेल कर प्रयाग के संगम तट तक पहुँचते। निजी संपदा के नाम पर उनके पास एक अदद मैली कुचैली गठरी होती, साथ में बूढ़ी माँ या आजी और अंटी में गठियाये दस बीस रुपए। कुंभ के पर्व पर लाखों की संख्या में ये भक्त गंगा मैया तक पहुँचते, डुबकी लगाते और मुक्ति की कामना के साथ घर वापस लौट जाते। संज्ञा की बजाय सर्वनाम वन कर जीते वे भक्त बस इतना समझते कि गंगा पवित्र पावन है और उनके कृत्यों की तारिणी। इससे ऊपर तर्कशक्ति विकसित करना उनका अभीष्ट नहीं था।

पर किरीट के स्वामी कृष्णा स्वामी जी महाराज के भक्त समुदाय में एक से एक सुशिक्षित, उच्च पदस्थ अधिकारी और व्यवसायी थे। कोई डॉक्टर था तो कोई इंजीनियर, कोई बैंक अफ़सर तो कोई प्राइवेट सेक्टर का मैनेजर। यहाँ तक कि कई चोटी के कलाकार भी उनके भक्तों में शुमार थे। साल में चार बार वे अपना शिविर लगाते, देश के अलग-अलग नगरों में। समूचे देश से उनके भक्त गण वहाँ पहुँचते। उनके कुछ विदेशी भक्त भी थे जो भारतीयों से ज़्यादा स्वदेशी बनने और दिखने की कोशिश करते।

पवन ने दो चार बार स्वामी जी का प्रवचन सुना। स्वामी जी की वक्तृत्वता असरदार थी और व्यक्तित्व परम आकर्षक। वे दक्षिण भारतीय तहमद के ऊपर भारतीय कुर्ता धारण करते। अन्य धर्माचार्यों की तरह न उन्होंने केश बढ़ा रखे थे, न दाढ़ी। वे मानते थे कि मनुष्य को अपना बाह्य स्वरूप भी अंतर्स्वरूप की तरह स्वच्छ रखना चाहिए। उनका यथार्थवादी जीवन दर्शन उनके भक्तों को बहुत सही लगता। वे सब भी अपने यथार्थ को त्याग कर नहीं, उसमें से चार दिन की मोहलत निकाल कर इस आध्यात्मिक हालिडे के लिए आते। वे इसे एक 'अनुभव' मानते। स्वामी जी एकदम धारदार, विश्वसनीय अंग्रेज़ी में भारतीय मनीषा की शक्ति और सामर्थ्य समझाते, भक्तों का सिर देशप्रेम से उन्नत हो जाता। स्वामी जी हिंदी भी बखूबी बोल लेते। महिला शिविर में वे अपना आधा वक्तव्य हिंदी में देते और आधा अंग्रेज़ी में।

सरल मार्ग मिशन आराम करने से पूर्व स्वामी जी पी.पी. के. कंपनी में कार्मिक प्रबंधक थे। मिशन की संरचना, संचालन और कार्य योजना में उनका प्रबंधकीय कौशल देखने को मिलता था। शिविर में इतनी भीड़ एकत्र होती थी पर न कहीं अराजकता होती न शांति भंग। अनजाने में पवन उनसे प्रभावित होता जा रहा था। पर किसी भी प्रभाव की आत्यंतिकता उस पर ठहर नहीं पाती क्योंकि काम के सिलसिले में उसे राजकोट के आसपास के क्षेत्र के अलावा बार-बार अहमदाबाद भी जाना पड़ता। अहमदाबाद में दोस्तों से मिलना भी भला लगता। अभिषेक के यहाँ जा कर अंकुर की नई शरारतें देखना सुख देता।

अभिषेक जिस विज्ञापन कंपनी में काम करता था उसमें आजकल अक अन्य कंपनी की टक्कर में टूथपेस्ट युद्ध छिड़ा हुआ था। दोनों के विज्ञापन एक के बाद एक टी.वी. के चैनलों पर दिखाए जाते। एक में डेंटिस्ट का बयान प्रमाण की तरह दिया जाता तो दूसरे में उसी बयान का खंडन। दोनों टूथपेस्ट बहुराष्ट्रीय कंपनियों के थे। इन कंपनियों का जितना धन टूथपेस्ट के निर्माण में लग रहा था लगभग उतना ही उसके प्रचार में। टूथपेस्ट तक़रीबन एक से थे, दोनों की रंगत भी एक थी पर कंपनी भिन्न होने से उनकी भिन्नता और उत्कृष्टता सिद्ध करने की होड़ मची थी। इसी के लिए अभिषेक की कंपनी क्रिसेंट कॉर्पोरेशन को नब्बे लाख का प्रचार अभियान मिला था। अभिषेक ने विजुअलाइज़र से आइडिया समझा। स्क्रिप्ट लिखी गई। अब विज्ञापन फ़िल्म बननी थी। उन्हें ऐसी माडल की तलाश थी जिसके व्यक्तित्व में दांत प्रधान हों, साथ ही वह खूबसूरत भी हो। इसके अलावा दो एक पंक्ति के डायलाग बोलने का उसे शऊर हो। उनके पास माडल्स की एक स्थायी सूची थी पर इस वक्त वह काम नहीं आ रही थी। मुश्किल यह थी किसी भी उत्पाद का प्रचार करने में एक माडल का चेहरा दिन में इतनी बार मीडिया संजाल पर दिखाया जाता कि वह उसी उत्पाद के विज्ञापन से चिपक कर रह जाता। अगले किसी उत्पाद के विज्ञापन में उस माडल को लेने से विज्ञापन ही पिट जाता। नए चेहरों की भी कमी नहीं थी। रोज़ ही इस क्षेत्र में नई लड़कियाँ जोखम उठाने को तैयार थीं पर उन्हें माडल बनाए जाने का भी एक तंत्र था। अगर सब कुछ तय होने के बाद कैमरामैन उसे नापास कर दे तब उसे लेना मुश्किल था।

आजकल अभिषेक के ज़िम्मे माडल का चुनाव था। वह एक ब्यूटी पार्लर की मालकिन निकिता पर दबाव डाल रहा था कि वह अपनी बेटी तान्या को माडलिंग करने दें। इस सिलसिले में वह कई बार 'रोजेज' पार्लर में गया। इसी को ले कर पति पत्नी में तनाव हो गया।

राजुल का मानना था कि रोजेज अच्छी जगह नहीं है। वहाँ सौंदर्य उपचार की आड़ में ग़लत धंधे होते हैं। उसका कहना था कि विज्ञापन फ़िल्म बनाने का काम उनकी कंपनी को मुंबई इकाई करे, यहाँ अहमदाबाद में अच्छी फ़िल्म बनना मुमकिन नहीं है। अभिषेक का कहना था कि वह बंबइया विज्ञापन फ़िल्मों से अघा गया है। वह यहीं मौलिक काम कर दिखाएगा। यों कहो कि तुम्हें माडल की तलाश में मज़ा आ रहा है। राजुल ने ताना मारा। यही समझ लो। यह मेरा काम है, इसी की मुझे तनख़्वाह मिलती है। मज़े हैं तनख़्वाह भी मिलती है, लड़की भी मिलती है। अभिषेक उखड़ गया, क्या मतलब तुम्हारा। तुम हमेशा टेढ़ा सोचती हो। जैसे तुम्हारे टेढ़े दाँत हैं वैसी टेढ़ी तुम्हारी सोच है।

राजुल का, ऊपर नीचे का एक-एक दाँत टेढ़ा उगा हुआ था। विशेष कोण से देखने पर वह हँसते हुए अच्छा लगता था। शुरू में इसी बाँके दाँत पर आप फिदा हुए थे। राजुल ने कहा, आज आपको यह भद्दा लगने लगा। फिर तुमने ग़लत शब्द इस्तेमाल किया। बाँका शब्द दाँत के साथ नहीं बोला जाता। बाँकी अदा होती है, दाँत नहीं। शब्द अपनी जगह से हट भी सकते हैं। शब्द पत्थर नहीं हैं जो अचल रहें। तुम अपनी भाषा की कमज़ोरी छुपा रही हो। कोई भी बात हो, सबसे पहले तुम मेरे दोष गिनाने लगते हो। तुम मेरा दिमाग़ ख़राब कर देती हो। अच्छा सारी पर अब तुम निकिता के यहाँ नहीं जाओगे। इससे अच्छा है तुम यूनिवर्सिटी की छात्राओं में सही चेहरा तपाश करो। तपास नहीं तलाश करो। तलाश सही पर तुम रोजेज नहीं जाओगे।

जब से राजुल ने नौकरी छोड़ी उसके अंदर असुरक्षा की भावना घर कर गई थी। साढ़े चार साल की नौकरी के बाद वह सिर्फ़ इसलिए हटा दी गई क्योंकि उसकी विज्ञापन एजेंसी मानती थी कि घर और दफ्तर दोनों मोर्चे सँभालना उसके बस की बात नहीं। ख़ास तौर पर जब वह गर्भवती थी, उसके हाथ से सारे महत्वपूर्ण कार्य ले कर साधना सिंह को दे दिए गए। अंकुर के पैदा होने तक दफ्तर में माहोल इतना बिगड़ गया कि प्रसव के पश्चात राजुल ने त्यागपत्र ते दिया। पर तब से वह पति के प्रति बड़ी सतर्क और संदेहशील हो गई थी। उसे लगता था अभिषेक उतना व्यस्त नहीं जितना वह नाट्य करता है। फिर विज्ञापन कंपनी की दुनिया परिवर्तन और आकर्षण से भरपूर थी। रोज़ नई-नई लड़कियाँ माडल बनने का सपना आँखों में लिए हुए कंपनी के द्वार खटखटाती। उनके शोषण की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता था।

विज्ञापन एजेन्सी का सारा संजाल स्वयं देख लेने से इधर कई दिनों से राजुल को जो अन्य सवाल उद्वेलित कर रहे थे, उन पर वह अभिषेक के साथ बहस करना चाहती थी। पर अभिषेक जब भी घर आता, लंबी बातचीत के मूड में हरगिज़ न होता। बल्कि वह चिड़चिड़ा ही लौटता। उस दिन वे खाना खा रहे थे। टी.वी. चल रहा था। समाचार से पहले 'स्पार्कल' टूथपेस्ट का विज्ञापन फ्लैश हुआ। इसकी कापी अभिषेक ने तैयार की थी। अंकुर चिल्लाया, पापा का एड, पापा का एड।

यह विज्ञापन आज पाँचवी बार आया था पर वे सब ध्यान से देख रहे थे। विज्ञापन में पार्टी का दृश्य था जिसमें हीरो के कुछ कहने पर हिरोइन हँसती है। उसकी हँसी में हर दाँत मे मोती गिरते हैं। हीरो उन्हें अपनी हथेली पर रोक लेता है। सारे मोती इकट्ठे होकर 'स्पार्कल' टूथपेस्ट की ट्यूब बन जाते हैं। अगले शाट में हीरो हीरोइन लगभग चुंबनबद्ध हो जाते हैं।

अभिषेक ने कहा, राजुल कैसा लगा एड? ठीक ही है। राजुल ने कहा। उसके उत्साहविहीन स्वर से अभिषेक का मूड उखड़ गया। उसे लगा राजुल उसके काम को ज़ीरो दे रही है, ऐसी श्मशान आवाज़ में क्यों बोल रही हो? नहीं, मैं सोच रही थी, विज्ञापन कितनी अतिशयोक्ति करते हैं। सच्चाई यह है कि न किसी के हँसने से फूल झरते हैं न मोती फिर भी मुहावरा है कि लीक पीट रहा है। सचाई तो यह है कि माडल लीना भी स्पार्कल इस्तेमाल नहीं करती हैं। वह प्रतिद्वंद्वी कंपनी का टिक्को इस्तेमाल करती है। पर हमें सच्चाई नहीं, प्राडक्ट बेचनी है। पर लोग तो तुम्हारे विज्ञापनों को ही सच मानते हैं। क्या यह उनके प्रति धोखा नहीं है? बिल्कुल नहीं। आखिर हम टूथपेस्ट की जगह टूथपेस्ट ही दिखा रहे हैं, घोड़े की लीद नहीं। सभी टूथपेस्टों में एक-सी चीज़ें पड़ी होती हैं। किसी में रंग ज़्यादा होता है किसी में कम। किसी में फ़ोम ज़्यादा, किसी में कम। ऐसे में कापीराइटर की नैतिकता क्या कहती है? ओ शिट। सीधा सादा एक प्रॉडक्ट बेचना है, इसमें तुम नैतिकता और सच्चाई जैसे भारी भरकम सवाल मेरे सिर पर दे मार रही हो। मैंने आई.आई.एम. में दो साल भाड़ नहीं झोंका। वहाँ से मार्केटिंग सीख कर निकला हूँ। आइ कैन सैल ए डैड रैट (मैं मरा हुआ चूहा भी वेच सकता हूँ) यह सच्चाई, नैतिकता सब मैं दर्जा चार तक मॉरल साइंस में पढ़ कर भूल चुका हुआ हूँ। मुझे इस तरह की डोज़ मत पिलाया करो, समझी?

राजुल मन ही मन उसे गाली देती बर्तन समेट कर रसोई में चला गई। अभिषेक मुँह फेर कर सो गया। अगले दिन पवन आया। वह अंकुर के लिए छोटा-सा क्रिकेट बैट और गेंद लाया था। अंकुर तुरंत बालकनी से अपने दोस्तों को आवाज़ देने लगा, शुब्बू, रुनझुन जल्दी आओ, बैट बाल खेलना।


अभिषेक अभी ऑफ़िस से नहीं लौटा था। राजुल ने दो ग्लास कोल्ड काफी बनाई। एक ग्लास पवन को थमा कर बोली, तुम्हें विज्ञापनों की दुनिया कैसी लगती है? बहुत अच्छी, जादुई। राजुल, मुल्क की सारी हसीन लड़कियाँ विज्ञापनों में चली गई हैं, तभी राजकोट की सड़कों पर एक भी हसीना नज़र नहीं आती। गम्मत जम्मत छोड़ो, सीरियसली बोलो, ऐसा नहीं लगता कि मार्केटिंग के लिए विज्ञापन झूठ पर झूठ बोलते हैं। मुझे ऐसा नहीं लगता। यह तो अभियान है इसमें सच और झूठ की बात कहाँ आती है? तभी अभिषेक भी आ गया। आज वह अच्छे मूड में था। उसके टूथपेस्ट वाले विज्ञापन को सर्वश्रेष्ठ विज्ञापन का सम्मान मिला था। उसने कहा, राजुल कल तुम मुझे कंडैम कह रही थीं, आज मुझे उसी कापी पर एवार्ड मिला। कांग्रेचुलेशंस। पवन और राजुल ने कहा। कल तो तुम लानतें कस रही थीं। मेरी परदादी की तरह बाल रही थीं। जब एथिक्स की यानी नैतिकता की बात आएगी मैं फिर कहूँगी कि विज्ञापन झूठ बोलते हैं। पर अभि, ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ तुम ऐसा करते हो, सब ऐसा करते हैं। जनता को बेवक़ूफ़ बनाते हैं। जनता को शिक्षा और सूचना भी तो देते हैं। पवन ने कहा। पर साथ में जनता की उम्मीदों को बढ़ा कर उसका पैसा नष्ट करवाते हैं। राजुल ने कहा। हाँ हाँ, आज तक मैंने ऐसा विज्ञापन नहीं देखा जो कहता हो यह चीज़ न ख़रीदिए। अभिषेक ने कहा, विज्ञापन की दुनिया का खर्च और विक्री की दुनिया है। हम सपनों के सौदागर हैं, जिसे चाहिए बाज़ार जाए, सपनों और उम्मीदों से भरी ट्यूब ख़रीद लें। ये विज्ञापन का ही कमाल है कि हमारे तीन सदस्यों वाले परिवार में तीन तरह के टूथपेस्ट आते हैं। अंकुर को धारियों वाला टूथपेस्ट पसंद है, तुम्हें वह षोड़षी वाला और मुझे साँस की बू दूर करने वाला। टूथपेस्ट तो फिर भी गनीमत है, तुम्हें पता है- डिटरजेंट की विज्ञापनबाज़ी में और भी अँधेर है। हम लोग सोना डिटरजेंट की एड फ़िल्म जब शूट कर रहे थे तो सीवर्स के क्लीन डिटरजेंट से हमने बालटी में झाग उठवाए थे। क्लीन में सोना से ज़्यादा झाग पैदा करने की ताक़त है। पवन ने कहा, दरअसल बाज़ार के अर्थशास्त्र में नैतिकता जैसा शब्द ला कर, राजुल, तुम सिर्फ़ कनफ्यूजन फैला रही हो। मैंने अब तक पाँच सौ किताबें तो मैनेजमेंट और मार्केटिंग पर पढ़ी होंगी। उनमें नैतिकता पर कोई चैप्टर नहीं है।

स्टैला डिमैलो इंटरप्राइज कार्पोरेशन में बराबर की पार्टनर थी और उसकी कंपनी गुर्ज़र गैस कंपनी को कंप्यूटर सप्लाई करती थी। पहले तो वह पवन के लिए कारोबारी चिट्ठियों पर महज़ एक हस्ताक्षर थी पर जब कंप्यूटर की दो एक समस्या समझने पवन शिल्पा के साथ उसके ऑफ़िस गया तो इस दुबली पतली हँसमुख लड़की से उसका अच्छा परिचय हो गया।

स्टैला की उम्र मुश्किल से चौबीस साल थी पर उसने अपने माता-पिता के साथ आधी दुनिया घूम रखी थी। उसकी माँ सिंधी और पिता ईसाई थे। माँ से उसे गोरी रंगत मिली थी और पिता से तराशदार नाक नक्श। जीन्स और टाप में वह लड़का ज़्यादा और लड़की कम नज़र आती। उसके ऑफ़िस में हर समय गहमागहमी रहती। फ़ोन बजता रहता, फैक्स आते रहते। कभी किसी फैक्टरी से बीस कंप्यूटर्स का एक साथ ऑर्डर मिल जाता, कभी कहीं कांफ्रेंस से बुलावा आ जाता। उसने कई तकनीशियन रखे हुए थे। अपने व्यवसाय के हर पहलू पर उसकी तेज़ नज़र रहती।

इस बार पवन अपने घर गया तो उसने पाया वह अपने नए शहर और काम के बारे में घर वालों को बताते समय कई बार स्टैला का ज़िक्र कर गया। सघन बी.एससी. के बाद हार्डवेयर का कोर्स कर रहा था। पवन ने कहा, तुम इस बाल मेरे साथ राजकोट चलो, तुम्हें मैं ऐसे कंप्यूटर वर्ल्ड में प्रवेश दिलाऊँगा कि तुम्हारी आँखें खुली रह जाएँगी। सघन ने कहा, जाना होगा तो हैदराबाद जाऊँगा, वह तो साइबर सिटी है। एक बार तुम एंटरप्राइज़ ज्वाइन करोगे तो देखोगे वह साइबर सिटी से कम नहीं। माँ ने कहा, इसको भी ले जाओगे तो हम दोनों बिल्कुल अकेले रह जाएँगे। वैसे ही सीनियर सिटीजन कालोनी बनती जा रही है। सबके बच्चे पढ़ लिख कर बाहर चले जा रहे हैं। हर घर में, समझो, एक बूढ़ा, एक बूढ़ी, एक कुत्ता और एक कार बस यह रह गया है। इलाहाबाद में कुछ भी बदलता नहीं है माँ। दो साल पहले जैसा था वैसा ही अब भी है। तुम भी राजकोट चली आओ। और तेरे पापा? वे यह शहर छोड़ कर जाने को तैयार नहीं है। पापा से बात की गई। उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया। शहर छोड़ने की भी एक उम्र होती है बेटे। इससे अच्छा है तुम किसी ऐसी कंपनी में हो जाओ जो आस-पास कहीं हो। यहाँ मेरे लायक नौकरी कहाँ पापा। ज़्यादा से ज़्यादा नैनी में नूरामेंट की मार्केटिंग कर लूँगा। दिल्ली तकभी आ जाओ तो? सच दिल्ली आना-जाना बिल्कुल मुश्किल नहीं है। रात को प्रयागराज एक्सप्रेस से चलो, सबेरे दिल्ली। कम से कम हर महीने तुम्हें देख तो लेंगे। या कलकत्ते आ जाओ। वह तो महानगर है। पापा मेरे लिए शहर महत्वपूर्ण नहीं है, कैरियर है। अब कलकत्ते को ही लीजिए। कहने को महानगर है पर मार्केटिंग की दृष्टि से एकदम लद्धड़। कलकत्ते में प्रोड्यूसर्स का मार्केट है, कंज्यूमर्स का नहीं। मैं ऐसे शहर में रहना चाहता हूँ जहाँ कल्चर हो न हो, कंज्यूमर कल्चर ज़रूर हो। मुझे संस्कृति नहीं उपभोक्ता संस्कृति चाहिए, तभी मैं कामयाब रहूँगा। माता पिता को पवन की बातों ने स्तंभित कर दिया। बेटा उस उम्मीद को भी ख़त्म किए दे रहा था जिसकी डोर से बँधे-बँधे वे उसे टाइम्स ऑफ इंडिया की दिल्ली रिक्तियों के काग़ज़ डाक से भेजा करते थे।

रात जब पवन अपने कमरे में चला गया राकेश पांडे ने पत्नी से कहा, आज पवन की बातें सुन कर मुझे बड़ा धक्का लगा। इसने तो घर के संस्कारों को एकदम ही त्याग दिया। रेखा दिन भर के काम से पस्त थी, पहले तुम्हें भय था कि बच्चे कहीं तुम जैसे आदर्शवादी न बन जाएँ। इसीलिए उसे एम.बी.ए. कराया। अब वह यथार्थवादी बन गया है तो तुम्हें तकलीफ़ हो रही है। जहाँ जैसी नौकरी कर रहा है, वहीं के कायदे कानून तो ग्रहण करेगा। यानी तुम्हें उसके एटिट्यूड से कोई शिकायत नहीं है। राकेश हैरान हुए। देखो अभी उसकी नई नौकरी है। इसमें उसे पाँव जमाने दो। घर से दूर जाने का मतलब यह नहीं होता कि बच्चा घर भूल गया है। कैसे मेरी गोद में सिर रख कर दोपहर को लेटा हुआ था। एम.ए., बी.ए. करके यहीं चप्पल चटकाता रहता, तब भी तो हमें परेशानी होती।

रेखा का चचेरा भाई भी नागपुर में मार्केटिंग मैनेजर था। उसे थोड़ा अंदाज़ था कि इस क्षेत्र में कितनी स्पर्धा होती है। वह एक फटीचर पाठशाला में अध्यापिका थी। उसके लिए बेटे की कामयाबी गर्व का विषय थी। उसकी सहयोगी अध्यापिकाओं के बच्चे पढ़ाई के बाद तरह-तरह के संघर्षों में लगे थे।