द्वितीय दृश्‍य / नदी प्यासी थी / धर्मवीर भारती

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द्वितीय दृश्‍य

[दो सप्‍ताह बाद अपने कमरे में बैठी हुई पद्मा मुसम्‍मी निचोड़ रही है। उसका चेहरा क्‍लान्‍त है और बाल बिखरे हुए हैं। मुद्रा गंभीर और चिन्‍तामग्‍न है। अन्‍दर से कृष्णा आता है। हाथ में स्‍टेथेस्‍कोप और सूटकेस, साथ में शंकर।]

पद्मा: क्‍यों, क्‍या रीडिंग है?

कृष्णा: बहुत अच्‍छी है तबियत अब तो। दस दिन में आधा मर्ज चला गया।

शंकर: इसका सेहरा तो पद्मा के सिर बँधना चाहिए। उसने दिन-रात एक कर दिया कृष्णा! मैं नहीं समझता था कि ये इतनी सुश्रूषा कर सकती हैं।

पद्मा: अरे जीजा, इतनी तारीफ न करो, नजर लग जायगी! हाँ तो कृष्णा, तुमने कुछ एनालाइज किया?

कृष्णा: हाँ बताते हैं अभी, शंकर भइया। उन्‍हें आप इसी कमरे में ले आइए। उसका वातावरण बहुत मनहूस है।

[शंकर जाता है]

पद्मा: हाँ तो बताओ कृष्णा!

कृष्णा: डाक्‍टर से ज्‍यादा तो शायद तुम मरीज के बारे में जानने के लिए आतुर हो [गहरी साँस ले कर] दस दिन में जिन्‍दगी का चक्र कितना घूम गया है पद्मा!

पद्मा: कृष्णा: , कृष्णा: ! बोली न बोला करो। तुम्‍हारा मन इतना छोटा है, यह मैं नहीं जानती थी।

कृष्णा: तुम्‍हारा मन इतना अस्थिर है, यह मैं नहीं जानता था पद्मा! इन दस दिनों में जैसे दुनिया बदल गई है। मेरा सब कुछ खो गया पद्मा! अब तुम्‍हें मेरे बारे में कोई दिलचस्‍पी ही नहीं रही। वह न्‍यूराटिक, आत्‍मघाती तुम्‍हारे लिए सब कुछ हो गया।

पद्मा: कृष्णा: , कृष्णा: ! इस तरह की बातें सुनने की मैं आदी नहीं। वह कुछ भी हों मैं उन्‍हें श्रद्धा करती हूँ, ममता करती हूँ, प्रेम... [रुक जाती है।]

कृष्णा: प्रेम करती हूँ! कहो न! आखिर हो न औरत! बदलते देर नहीं लगती।

पद्मा: आखिर हो न पुरुष! अधिकार की प्‍यास जायगी थोड़े। ब्‍याह हो गया होता तो जाने क्‍या करते... [कृष्णा: स्‍तब्‍ध रह जाता है ... एकटक पद्मा: की ओर देखता है, धीरे-धीरे कुर्सी पर बैठ जाता है। माथे पर हाथ रख कर, सोचने लगता है। पद्मा उठती है और धीरे-धीरे कुर्सी के पीछे खड़ी हो जाती है। बालों में उँगलियाँ डाल कर -] नाराज हो गए कृष्णा [चुप रहता है... कन्‍धा झकझोर कर] बोलो! सचमुच मैं अपने को समझ नहीं पाती कृष्णा , मुझे क्‍या हो गया है। मैं जानती हूँ तुम्‍हारे मन में मेरे लिए क्‍या है, लेकिन क्‍या करूँ कृष्णा! उनके मन के दर्द को जिस दिन पहचाना है उस दिन से जैसे उसने मन को बाँध लिया है। लगता है जैसे उनके दर्द का एक जर्रा मेरे सारे व्‍यक्तित्‍व, सारे प्रेम से बड़ा है। मेरा प्रेम अब भी तुम्‍हारे लिए है, लेकिन लगता है यदि उनके दर्द में जरा-सी कमी हो सके तो मेरा सारा व्‍यक्तित्‍व सार्थक हो जाय। यकीन मानो कृष्णा: , मैं उन्‍हें प्‍यार नहीं करती। उनकी आँखों में इतनी अँधेरी गहराइयाँ हैं कि उनमें झाँकते हुए मुझे डर लगता है, लेकिन जाने कैसा जहरीला जादू है उनमें कि डूब जाती हूँ। मुझे कुछ अपने ऊपर बड़ा गुस्‍सा आता है और जब वह मुझ से नहीं सम्‍हल पाता तो तुम पर उतर जाता है कृष्णा: ! ...बोलो... [कृष्णा: केवल आँख उठा कर देखता है और चुपचाप सर नीचे कर लेता है]... माफ कर दो कृष्णा: ! थोड़े दिन में तो वे यहाँ से चले जाएँगे, तब तक उनकी सेवा कर लेने दो! मुझे लगता है कि...

कृष्णा: मैं जानता हूँ मैं बहुत नीरस हूँ पद्मा: । तुम्‍हारे योग्‍य नहीं। लेकिन, मैं क्‍या करूँ। अगर मेरी जिन्‍दगी में कोई है जिसकी वजह से मैंने कुछ ऊँचाई पाई है तो वह तुम हो...लेकिन खैर........

पद्मा: तुम्‍हारी इसी बात से मेरा मन भर आता है! [एक आँसू टप से गिर पड़ता है, गला भर आता है।] मैं क्‍या करूँ? [रोने लगती है।]

कृष्णा: अरे रोओ मत। बैठो! आँसू पोंछो। तुम जैसी भी हो मुझे स्‍वीकार हो पद्मा: ! काश कि तुम समझ पातीं... लेकिन खैर जाने दो! आओ बताएँ उन्‍होंने क्‍या बताया। आँसू पोंछ डालो... हँसो... हाँ ऐसे... तुम्‍हें मालूम है? वे इसलिए इतने निराश हैं, इसलिए आत्‍महत्‍या करना चाहते हैं कि वह लड़की उन्‍हें मिल न सकी जिसे वह...

पद्मा: [चीख कर] छि कृष्णा, उन्‍हें इतने नीचे न घसीटो।

कृष्णा: [कड़े स्‍वर में] तुम्‍हारी पूजा से तो वह ऊँचे हो नहीं जाएँगे।

पद्मा: [और भी कड़े स्‍वर में] तुम्‍हारी व्‍याख्‍या से वह नीचे तो गिरेंगे नहीं। बेवकूफ मत बनाओ मुझे। उन्‍होंने तुमसे पहले मुझे बता दिया है, सब बता दिया है। उन्‍होंने बताया है कि उन्‍होंने और कामिनी ने निश्‍चय किया था कि वे जीवन भर अलग रहेंगे, प्रतिदान न लेंगे। मगर अपने प्‍यार से दोनों एक दूसरे का व्‍यक्तित्‍व सम्‍हालते चलेंगे। पर अब कामिनी धीरे-धीरे मुर्झा रही है और वह रोक नहीं पाते... उनके सामने जीवन का एक अर्थ था। और अब उनका जीवन निरर्थक है। वह जिन्‍दा नहीं रहना चाहते... कितनी गहराई से सोचते हैं वह कृष्णा: ! तुम समझ नहीं सकते।

कृष्णा: तुम तो समझती हो।

पद्मा: हाँ समझती हूँ। और तुम्‍हारे इस तरह बोलने से मैं डर नहीं जाऊँगी। तुम उनके पैरों की धूल भी नहीं हो। तुम इस ऊँचाई से सोच भी नहीं सकते।

कृष्णा: कभी नहीं सोच सकता। ईश्‍वर न करे मैं वहाँ से सोचूँ। औरत जो एक शाम को बदल सकती है, उस औरत के पीछे मैं आत्‍महत्‍या नहीं कर सकता। छि..

[तेजी से निकल जाता है।]

पद्मा: कृष्णा! कृष्णा...सुनो। उफ मुझे क्‍या हो गया है। [मेज पर सिर रख कर रोने लगती है- दाईं ओर से शंकर: का सहारा लिए हुए राजेश: आता है।]

शंकर: पद्मा: ! जरा कुर्सी खिड़की के पास डाल दो।

[पद्मा: जल्‍दी से आँख पोंछ कर उठती है, और कुर्सी डाल देती है। राजेश: बैठ जाता है। शंकर: उसके पैरों पर चादर डाल देता है। पद्मा: मुसम्‍मी का रस ला कर देती है।]

शंकर: अच्‍छा, मैं डिस्‍पेन्‍सरी जा कर दवा ले आऊँ। शीला! ओ शीला ! जरा शीशी दे जाना... पद्मा, तुम्‍हारी आँख क्‍यों लाल है?

पद्मा: सर में दर्द है जीजा!

राजेश: मेरी वजह से। अगर सब से ज्‍यादा मेजबानी किसी पर लदी तो इन पर। मुर्दे को लोग मरने भी तो नहीं देते।

पद्मा: मरें आपके दुश्‍मन! आपके बिना हमारे जीजा नहीं विधवा हो जाएँगे।

[शंकर: और राजेश हँसते हैं। शीला ला कर शीशी देती है... शंकर: ले कर जाता है।]

राजेश: बैठो भाभी।

शीला: दूध चढ़ा आई हूँ, उतार आऊँ।

पद्मा: अरे बैठो भी दीदी। [हाथ पकड़ कर बिठाल लेती है]

शीला: राजेश: बाबू! अब शादी कर लो तुम। ये सब तो हर एक की जिन्‍दगी में होता है। शादी कर लो। बिखरा हुआ मन बँध जायगा और धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।

राजेश: [हाथ जोड़कर] क्षमा करो भाभी। क्‍या इतना प्रायश्चित काफी नहीं है?

पद्मा: अच्‍छा तो है राजेश: बाबू, शादी कर लीजिए, इतना डरते क्‍यों हैं?

राजेश: डरते क्‍यों हैं? बुरा न मानना, मैंने सुना था अफ्रीका में एक नरभक्षी पेड़ होता है। जहाँ कोई उसके समीप गया कि उसके पत्ते उसे झुक कर लपेट लेते हैं। और उसके बाद वह अपने जहरीले रेशमी काँटों से बूँद-बूँद खून चूस कर हड्डियाँ फेक देते हैं। औरत भी बिल्‍कुल ऐसी ही है। किसी भी जीनियस को देखते ही वह अपनी बाँहों में कस लेती है और फिर व्‍यक्तित्‍व को बूँद-बूँद चूस कर उसे फेंक देती है।

शीला: अच्‍छा तो इसका मतलब तुम्‍हारे मित्र का व्‍यक्तित्‍व मैंने खत्‍म कर दिया है। जाइए, जनाब, मैं न होती तो...।

पद्मा: अरे दीदी, वह जीनियस की बात कर रहे हैं! जीजा कहाँ के जीनियस थे? [राजेश और शीला हँस पड़ते हैं]

शीला: तो यह किसी जीनियस लड़की से शादी कर लें।

राजेश: जीनियस और लड़की। यह सर्वथा अन्‍तर्विरोध है। औरत जीनियस हो ही नहीं सकती। उसके लिए जिन्‍दगी का बाह्य सब से प्रमुख होता है। कामिनी के ही बारे में मैंने आपको बताया था। बाह्य परिस्थितियाँ उसके अन्‍तर के सौन्‍दर्य को नष्‍ट कर रही हैं और वह चुपचाप है। यह कोई प्रतिभा है। प्रतिभा विद्रोह करती है, सृजन करती है। नारी केवल प्रसव करती है या प्रसाधन, प्रसव की भूमिका... क्षमा कीजिएगा। यही है पद्मा ! इनकी मेज पर कामायनी रक्‍खी है। लेकिन कामायनी के ऊपर क्‍या है? पाउडर का डिब्‍बा।

शीला: [सहसा चौंक कर] दूध जल रहा है। मैं अभी आई।

[चली जाती है, पद्मा: उठती है और पाउडर का डिब्‍बा उठा कर फेंक देती है। राजेश: चौंक जाता है।]

राजेश: अरे यह क्‍या? आप बुरा मान गईं। मैंने तो उदाहरण दिया था। मैं क्‍या आपको समझता नहीं हूँ!

पद्मा: समझते हैं आप! खूब समझते हैं। जहाँ नारी दुर्बल है, कमजोर है, वहाँ उसे गाली दे लीजिए, लेकिन जहाँ वह ममता दे देती है, अपना सब कुछ दे देती है, वहाँ भी आप लोग कहने से नहीं चूकते।

राजेश: गलत समझीं आप पद्मा जी! आपको क्‍या मैंने समझा नहीं! आप ही ने तो मेरी जान बचाई है।

पद्मा: देखिए आप होंगे आप! मैं तो तुम हूँ!

राजेश: [गहरी साँस ले कर] तुम सही पद्मा । लेकिन तुम इतनी ममता से बात न किया करो! तुम नहीं समझतीं कि प्‍यार न मिलने से मन में एक घाव होता है, लेकिन एक घाव और होता है जो प्‍यार मिलने से बुरी तरह कसक उठता है। तुम क्‍यों, क्‍यों इतनी ममता बढ़ा रही हो?

पद्मा: पता नहीं क्‍यों। मैं खुद नहीं समझ पाती। जाने कैसा मंत्र-सा छा गया है मुझ पर। लगता है जैसे मैं आपे में नहीं हूँ।

राजेश: लेकिन यह बुरी बात है।

पद्मा: जानती हूँ यह गलत बात है, फिर भी आप कभी नहीं समझ सकते आप मेरे लिए क्‍या हो गए हैं। लगता है मेरी जिन्‍दगी का अर्थ मेरे सामने खुल गया है। कोई छाया थी जो बार-बार सपनों में आती थी। मैं पुकारती रहती थी, वह चली जाती थी, आपको पा कर मैं उस छाया को पा गई हूँ।

राजेश: [आवेश से] पद्मा ! क्‍या कह रही हो तुम?

पद्मा: कह लेने दीजिए मुझे। फिर कभी न कहूँगी, लेकिन जो कुछ कह रही हूँ वह अक्षर-अक्षर सही है। मैं आज तक कविताएँ गाती थी। आप को पा कर उन गीतों की आत्‍मा पा गई हूँ। आप को खुद नहीं मालूम कि आते ही आपने क्‍या किया था। आते ही मेरा चित्र उलट दिया था। मेरा व्‍यक्तित्‍व उलट दिया था; बताइए क्‍यों किया था आपने? क्‍यों? क्‍यों आपने उन गहराइयों में उतार दिया, जहाँ आपके सिवा कोई नहीं है?

राजेश: लेकिन पद्मा ... डाक्‍टर?

पद्मा: मैं स्‍वयं नहीं जानती उनके लिए क्‍या करूँ। आज लगता है जैसे वे मेरे प्‍यार की पगडण्‍डी थे, जिसे मैं छोड़ आई हूँ। आप मंजिल हैं जहाँ मैं पहुँचना चाहती हूँ।

[सहसा शीला का प्रवेश।]

शीला: पद्मा! जरा जा कर धोबी को कपड़े दे आओ! जल्‍दी जाओ [पद्मा: जाती है] राजेश: बाबू, आज शाम को नाश्‍ते के लिए क्‍या बनाऊँ?

राजेश: [गम्‍भीर विचार में] कुछ नहीं! चाहे जो बना दो।

शीला: मूँग का हलुआ अच्‍छा लगता है। [राजेश स्‍वीकृति में सिर हिला देता है।]

[डाक्‍टर आता है, अस्‍तव्‍यस्‍त!]

कृष्णा: भाभी इनसे कुछ बातें करनी हैं एकान्‍त में... अगर...।

शीला: हाँ, हाँ। मैं जाती हूँ। [जाती है]

राजेश: [उत्‍सुकता से डाक्‍टर की ओर देखता है] क्‍या है डाक्‍टर?

कृष्णा: [कुछ देर चुप रह कर] राजेश: बाबू [बहुत कड़े स्‍वर में] मैंने तुम्‍हारी जान बचाई है... और... और तुमने... [सहसा धीमे पड़ कर, गहरी साँस ले कर] जाने दो मुझे यह कहना भी उचित नहीं है। लेकिन मैं तुम्‍हें ऐसा नहीं समझता था। [सहसा तेज हो कर] लेकिन तुम चुप हो जैसे कुछ जानते ही नहीं, तुम चुप रह कर...।

राजेश: लेकिन मेरा क्‍या दोष?

कृष्णा: तुम्‍हारा क्‍या दोष? दोष है तुम्‍हारी उल्‍टी-सीधी बातों का, जिनमें आदमियों को बेहोश बनाने का नशा है। माना मुझ में इन्‍टेलेक्‍ट नहीं है। मैं लच्‍छेदार बातें नहीं कर पाता, मेरे व्‍यक्तित्‍व में आग नहीं, इसके मतलब यह नहीं कि मेरा सब कुछ छिन जाय। तुमने यह काँटे बोए हैं, तुमने यह जहर घोला है। जहर... जानते हो... मैं सब कुछ खो कर भी स्‍वयं नहीं मरूँगा... लेकिन यह देखते हो... [बैग से एक शीशी निकाल कर] दवा में इसकी एक बूँद तुम्‍हारे लिए काफी है... मैं नष्‍ट होना नहीं जानता, मैं कायर नहीं हूँ...

राजेश: [हाथ बढ़ाकर] कितने मेहरबान हो कृष्णा: तुम। इसी दवा की तो मुझे तलाश है। काश कि तुम समझ पाते कि कितनी बेचैनी है इस हृदय में! कब से मैं धधक रहा हूँ। मैं खुद तुम लोगों की जिन्‍दगी के बीच से हट जाना चाहता हूँ। मुझे किसी का मोह नहीं रहा, जिसे प्राणों से बढ़ कर प्‍यार किया जब उसी... लाओ दो, शीशी दो!...

कृष्णा: [उठ कर] कभी नहीं, मेरा काम जिलाना है, मैं डाक्‍टर हूँ, मैं जहर नहीं दे सकता हूँ, मैं दवा देता हूँ [खिड़की के पास जा कर शीशी फेंक देता है, मुड़ कर पद्मा: के चित्र को देख कर] काश कि तुम कभी भी समझ पाती मैं जीनियस नहीं हूँ, मगर तुच्‍छ भी नहीं हूँ... [लौट कर, राजेश: के कन्‍धे पर हाथ रख कर] मगर मैं क्‍या करूँ। कोई भी तो मेरे दर्द को नहीं...

राजेश: [हाथों में उसके हाथ ले कर] मैं समझता हूँ डाक्टर, मैं समझता हूँ। मैं कितना तुच्‍छ हूँ। कैसा फूटा नसीब है मेरा कि जो मेरे संसर्ग में आता है उसी को आग लग जाती है। मैं समझता हूँ... मैं तुम्‍हारे रास्‍ते से हट जाऊँगा। कृष्णा: ... मैं समझता हूँ...

कृष्णा: [गमगीन आवाज में] मुझे कोई नहीं समझता... कोई नहीं... [धीरे-धीरे चला जाता है। राजेश: कमरे में टहलने लगता है।

राजेश: जिन्‍दगी का कुछ अर्थ नहीं रहा मेरे सामने। एक प्रेतात्‍मा की तरह जिस वातावरण में रहता हूँ वही अभिशप्‍त हो जाता है। मौत में इतनी तकलीफ तो नहीं होगी, इतनी उलझन तो नहीं होगी। जिन्‍दगी तो मुझे नीच साबित करने पर तुली है। अब मुझे जाना ही पड़ेगा। मुझे कोई नहीं रोक सकता [मुट्ठी तान कर] कोई नहीं... दुनिया मेरे लिए बहुत छोटी है, जिन्‍दगी बहुत सँकरी है। [खिड़की से उतर जाता है। उतरने में पैर लग कर पद्मा: की तस्‍वीर गिर कर टूट जाती है।]

[पर्दा गिरता है।]