द एवॅल्यूशन ऑफ़ ब्यूटी / आइंस्टाइन के कान / सुशोभित

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द एवॅल्यूशन ऑफ़ ब्यूटी
सुशोभित


येल यूनिवर्सिटी के पक्षीविज्ञानी रिचर्ड प्रुम ने एक दिलचस्प किताब लिखी है, जिसका शीर्षक है- 'द इवोल्यूशन ऑफ़ ब्यूटी।' प्रुम कहते हैं कि प्राणियों के भीतर सुंदर दिखने की जो लालसा होती है, वह ज़रूरी नहीं कि उनके जीवन की रक्षा करने में मददगार ही हो। उल्टे, वह तो उन्हें और निष्कवच और वेध्य बनाती है। किंतु इसके बावजूद प्राणी जगत में नर जातियाँ विपरीतलिंगी को लुभाने के लिए ना केवल सौंदर्य की परिकल्पनाएँ करती हैं, बल्कि उनके प्रतिमान भी बदलते रहते हैं।

सर्वाइवल प्राणी-जगत की बड़ी रूढ़ि है। किंतु सौंदर्य की लालसा आत्मरक्षा के इस उद्यम में बाधा उत्पन्न कर देती है। तब प्रश्न यही उठता है कि अगर वह उपयोगी नहीं तो फिर प्राणियों में सौंदर्य की चेतना ही क्यों होती है? पक्षी विज्ञानी होने के नाते रिचर्ड प्रुम ने अनेक ऐसे पक्षियों का अध्ययन किया है, जो सुंदर दिखने की लालसा में और वेध्य हो जाते हैं। वे मादा को लुभाने में नाहक़ ऊर्जा व्यय करते हैं और शिकारियों की नज़र में आने का जोखिम उठाते हैं। इसके बावजूद वे सुंदर दिखने का लोभ संवरण नहीं कर पाते।

जब प्राणियों की यह अवस्था है, तो मनुष्यों की तो बात ही क्या करें? मनुष्य की चेतना एक ऐसा दोराहा है, जहां सत्य और सुंदर का आत्मसंघर्ष अनवरत और अहर्निश चलता रहता है। निरे निपट सत्य से मनुष्य की आत्मा की भूख मिटती नहीं, वह सौंदर्य का भूखा है। और सौंदर्य उसे हताहत करता है, तब भी वह उस दिशा में चल पड़ता है, मरीचिका के मृग की तरह।

प्राणी जगत में सुंदर दिखने का ज़िम्मा नर का है, मनुष्यों में स्त्री और पुरुष दोनों ही एक-दूसरे के लिए सुंदर दिखने का जतन करते हैं, शायद स्त्रियाँ पुरुषों की तुलना में अधिक ही। और इसमें क्या संदेह है कि बहुधा यह सुंदर दिखना उनके लिए जोख़िम भरा सिद्ध होता है। सर्वाइवल के लिए जैसा फ़िटेस्ट होना चाहिए, तब उसके मानक लड़खड़ा जाते हैं। क्योंकि फ़िट होने का मतलब शिकारी की नज़र में नहीं आने का कौशल है।

परिहास के स्वर में वॉलस्ट्रीट जर्नल ने इसे सर्वाइवल ऑफ़ द प्रिटीएस्ट कहा है। उन्होंने फ़िट को प्रिटी से बदल दिया। जो सुंदर है, वही सक्षम भी है।

इसके उद्गम भी चार्ल्स डार्विन ही हैं। उनकी एक भुला दी गई थ्योरी है- एस्थेटिक मैट-च्वॉइस। डार्विन ने कहा था एक सुंदर साथी का चयन भी एवॅल्यूशनरी बदलाव को आगे बढ़ाने वाला एक स्वतंत्र इंजिन है, जिसके मूल में सुंदरता से सुख पाने की वृत्ति है। डार्विन ने यह भी कहा था कि एक एवॅल्यूशनरी-फोर्स के तौर पर नेचरल सिलेक्शन की अपनी सीमाएँ हैं और वह सदैव ही जैविक दुनिया के सत्यों की विवेचना नहीं कर सकता है। अगर नेचरल सिलेक्शन ही उद्विकास का इकलौता डायनेमिक्स होता तो हम जैविक दुनिया में सुंदरता और अलंकारों और आभूषणों और रंगों और वर्णों की इतनी विविधताएँ नहीं देखते।

यह अकारण नहीं है कि डार्विन मोरपंख को देखकर दुविधा में पड़ जाते थे। एवॅल्यूशन में उस सजीले मोरपंख की कोई ज़रूरत नहीं थी, फिर भी वह विकसित हुआ है। भला क्यों?

जैविकी की कहानी उपयोगी और सशक्त साथी चुनने के साथ ही सुंदर साथी चुनने के पूर्वग्रह को अपने भीतर समाविष्ट किए बिना पूरी नहीं हो सकती थी। उसके बिना प्राणी-जगत की वृत्तियों का मूल्यांकन सम्भव नहीं था। जैविकी का विकास-क्रम सौंदर्य के मानकों के विकास-क्रम से एक ना एक दिन टकराना ही था, सो वह जा टकराया है। क्योंकि, आख़िर यह मनुष्य ही तो है, जिसने यौनचेष्टा को संतति के प्रजनन की प्रणाली से आगे ले जाकर सुख और सौंदर्य की ऐंद्रिक अनुभूति में रूपांतरित कर दिया है। उसके गुणसूत्र भले इस बात से राज़ी न हों, किंतु अकसर वह जेनेटिकली सुसंगत साथी के बजाय एस्थेटिकली सुंदर साथी चुन बैठता है।

एवॅल्यूशन ऑफ़ ब्यूटी इसी तरह से आकार ग्रहण करती है।

आपको पता है, मनुष्य की मेधा का बुनियादी उद्यम क्या है? वह है सुस्थापित सत्यों और सिद्धांतों में विविध सरणियाँ खोजकर नई दुविधाओं का सृजन कर देना। यही दूसरे शब्दों में उस सत्य की तलाश भी है, जिसे लॉन्जाइनस ने सब्लाइम कहा है, जिसको वेर्नर हरसोग एक्सटेटिक ट्रुथ कहता है।

सत्य का सुंदर होना भी आवश्यक है और सुंदरता आपको नष्ट करेगी, यह जानकर भी जीवन के आत्मनाश का वरण आपने करना है, सजग मेधा इस बात को देर-सबेर समझ ही लेती है!