द थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग / आइंस्टाइन के कान / सुशोभित
सुशोभित
स्टीफ़न हॉकिंग के जीवन पर आधारित फ़िल्म "द थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग" में एक बहुत ही दिलचस्प सीक्वेंस आता है।
हॉकिंग के घर में मेहमान के रूप में जोनाथन आए हैं। भोजन की मेज़ पर वे दोनों आपस में बात कर रहे हैं। लेकिन चूंकि स्टीफ़न ठीक से बोल नहीं पाते, इसलिए उनकी पत्नी जेन जोनाथन को स्टीफ़न की फ़ंडामेंडल थिसीस समझाती हैं।
जेन दो फ़ोर्क उठाती हैं। फिर एक फ़ोर्क से अपनी प्लेट में से एक मटर का दाना उठाती हैं। दूसरे फ़ोर्क से एक बड़ा-सा आलू उठाती हैं। और कहती हैं- ये फ़िज़िक्स के दो आधारभूत स्तम्भ हैं- क्वांटम थ्योरी यानी मटर का दाना और जनरल रिलेटिविटी यानी आलू।
क्वांटम थ्योरी बहुत छोटी-छोटी चीज़ों के बारे में बात करती है- पार्टिकल्स, इलेक्ट्रॉन्स, इलेक्ट्रोमैग्नेटिक फ़ील्ड्स। जनरल रिलेटिविटी बहुत बड़ी-बड़ी चीज़ों के बारे में बात करती है- ब्लैक होल्स, ग्रैविटी, एक्सपांडिंग यूनिवर्स।
फिर जेन आगे कहती हैं कि मटर के दाने बहुत अराजकतापूर्ण व्यवहार करते हैं। आप उनके कार्य-व्यवहार और गुणधर्म का पूर्वानुमान नहीं लगा सकते। जबकि इसकी तुलना में आलू शांतचित्त रूप से प्लेट में रखा रहता है। आप आराम से उसका अध्ययन कर सकते हैं। अगर यह दुनिया आलुओं से बनी होती, तो परम रहस्य को समझ पाना बहुत सरल होता, लेकिन दुर्भाग्य से इसमें मटर के दाने भी हैं, और स्टीफ़न अब इन मटर के दानों की पड़ताल करना चाहते हैं।
आधुनिक भौतिकी का इतिहास किस तरह से अल्बर्ट आइंस्टाइन की जनरल रिलेटिविटी से लेकर स्टीफ़न हॉकिंग तक आते-आते क्वांटम थ्योरी की ओर झुक गया है, यह छोटा-सा सीक्वेंस बहुत सरल तरीक़े से इस बारे में बता देता है।
हम जानते हैं कि अल्बर्ट आइंस्टाइन क्वांटम थ्योरी के साथ सहज नहीं थे। यह उनके तमाम इक्वेशंस को गड़बड़ा देती थी। आइंस्टाइन का मन व्याप्तियों में लगा हुआ था। वे बिग बैंग की बात करते थे, एक्सपांडिंग यूनिवर्स की बात करते थे, स्पेसटाइम की बात करते थे, ग्रैविटेशनल वेव्ज़ और टाइम ट्रैवल की बात करते थे। उनकी यात्रा एक दूसरी दिशा में थी। ये और बात है कि आधुनिक भौतिकी अब उस दिशा में प्रवृत्त हो रही है, जहां जनरल रिलेटिविटी और क्वांटम मैकेनिक्स आपस में मिल जाते हैं, जैसे कि हॉकिंग रेडिएशन और क्वांटम ग्रैविटी जैसी अवधारणाएं।
क्वांटम भौतिकी कुछ इस तरह के प्रश्न पूछती है कि जिस तरह से एक पिक्सेल किसी चित्र की सबसे छोटी इकाई होती है, क्या उसी तरह से दूरी की सबसे छोटी इकाई नहीं हो सकती- अ क्वांटम ऑफ़ स्पेस? अपार विस्तार के भीतर सूक्ष्मताओं के अवलोकन की यह एक पूरी तरह से नई दृष्टि है, जिसने मनुष्य की मेधा को द्वैधा से भर दिया है।
अगर हम पृथ्वी को एक गेंद मानें तो हम पाएंगे कि जुपिटर उससे कहीं बड़ी गेंद है। जुपिटर की तुलना में सूर्य बहुत बड़ी गेंद है। अभी तक ज्ञात सौर पिंडों में सबसे बड़ी गेंद का नाम "वी-वाय सानिस मैजोरिस" है, जो सूर्य से सैकड़ों गुना बड़ा सुपरजायंट है। अगर आपको यूनिवर्स में दूरियों, व्यापकताओं और अनंतताओं की यात्रा करना हो, तो यह चाहे जितना असम्भव हो, दुविधा पैदा करने वाला नहीं है। दुविधा तब पैदा होती है, जब आप सबसे छोटी गेंद से पीछे की ओर यात्रा करते हैं और पाते हैं ऋणांक के पीछे भी यूनिवर्स उतना ही फैलता चला गया है, जितना धनांक के आगे।
दुविधा के मूल में यह है कि आपको कहां से यात्रा आरम्भ करना है और किस दिशा में जाना है। और यह भी कि एक बार एक दिशा में यात्रा शुरू करने के बाद आप लौटकर फिर उतनी ही दूरी में पीछे नहीं जा सकेंगे, क्योंकि आपके सामने समय और स्पेस की बाध्यता है।
वास्तव में समूचे कॉस्मिक रिडल का कैप्सूल इस एक चीज़ में निहित है कि आपके पास टाइम और स्पेस की बाध्यता है और आप एक ऐसे कुएं के भीतर हैं, जहां से आप चाहकर भी बाहर का यूनिवर्स नहीं देख सकते। इस भौतिक शरीर से तो हरगिज़ नहीं। स्पेस के तीन डायमेंशन और टाइम का चौथा डायमेंशन, इन्होंने मिलकर जनरल रिलेटिविटी और क्वांटम थ्योरी की परस्पर द्वैधा रची है। यह दुविधा कि दुनिया आलुओं से मिलकर बनी है या मटर के दानों से, और हमें इनमें से किसका अध्ययन वैसे करना चाहिए, कि दूसरे के बारे में भी जान सकें। यह भौतिकी के नियमों से तो सम्भव नहीं है। वास्तव में मनुष्य का प्रबोध ही भौतिकी के नियमों से सम्भव नहीं है। केवल एक ही चीज़ भौतिकी के नियमों के अनुरूप है और वह है भाषा और विचार और अवबोध से कीलित मनुष्य की मेधा का अपार विभ्रम।
ये और बात है कि इस अपार विभ्रम को जान लेना भी कोई कम रौशनी नहीं।