धत ! दकियानूस नहीं हूँ / मनोज श्रीवास्तव

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जब मुंशी जी अपने चैंबर से बाहर निकले तो उनके कोट के पाकेट रुपयों के भारी बंडलों के कारण लटक रहे थे। उनके इशारे पर ड्राइवर गाड़ी से निकलकर उनके पास आया

मुंशी जी ने उसके कान से अपना मुँह सटा दिया, "बर्खुरदार, जब तुम कार से बाहर आते हो तो खाली अटैची भी साथ लाया करो..." ड्राइवर "सारी" कहते हुए फिर वापस कार में से अटैची निकालकर मुंशी जी के हाथों में थमा दिया। मुंशी जी ने एक कोने में खड़े-खड़े नोटों के बंडलों को अटैची में ज़ब्त कर उसे ड्राइवर को सौंप दिया, "दर बैठकर अच्छी तरह गिन लेना। कुल डेढ़ लाख हैं..." मुंशी जी को जितना भरोसा अपने ड्राइवर पर है, उतना तो उन्हें अपनी बीवी पर भी नहीं है। वरना, इतनी बड़ी रक़म वह सीधे अपने बीवी के बटुए में ही डालते या बैंक खाते में।

वह निश्चिंत होकर वापस चैंबर में आकर अपनी चेयर पर बैठ गए। तभी अर्दली ने आकर उन्हें सलाम दाग़ा, "हज़ूर, पंडिज्जी आए हैं।" पंडितजी के आगमन की ख़बर सुनकर उनके चेहरे की झुर्रियाँ मुस्कराने के अंदाज़ में सिमट गई और उनके गालों पर कुल खाया-पीया माल-मलाई नज़र आने लगा। उन्होंने झट फाइल बंद कर और गिलास के पानी की घूँट हलक से नीचे उतारकर जैसे ही किसी अपने आत्मीय जन से बतरस का मजा लेने का मूड बनाया, एक अज़ीबोगरीब ताज़गी उनके व्यक्तित्व में घुलने लगी। गालों के उभार का रंग सूर्ख लाल हो गया और आँखों में बल्ब जल उठा।

पंडित जी के आते ही उन्होंने उठकर उन्हें गले लगाया और उन्हें सामने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। फिर, उठकर ए.सी. का टेम्परेचर डाउन करते हुए नौकर को गुहार लगाई, "मियाँ मुसुद्दी! पंडिज्जी को मलाई मारके अदरख की निखालिस दूध वाली चाय पिलाओ।" पंडित जी चाय की चुस्कियाँ लेने लगे। उन्हें मुसलमान के हाथ की बनी चाय पीने में अब कोई एतराज़ नहीं है। हाँ, उन्होंने पहली बार अपना एतराज़ ज़रूर दर्ज़ कराया था, "मुंशी जी, मैं शांडिल्य ब्राह्मण हूँ जबकि आप एक मुसलमान के हाथ की बनी चाय पिलाकर मेरा धरम भ्रष्ट कर रहे हैं और मेरा परलोक बिगाड़ रहे हैं।"

तब मुंशी जी ने फलसफाना अंदाज़ में जाति और धर्म के ख़िलाफ जो तर्क-कुतर्क का बवंडर चलाया, उससे पंडित जी का सनातनी संस्कार धूल की माफिक उड़ गया। फिर, उनकी दोबारा हिम्मत नहीं हुई कि मियां मुसुद्दी की चाय का तिरस्कार कर सकें। उस वाकया के कोई हफ्ते भर बाद मुंशी जी ने मुसुद्दी मियां के खानदानी कद का लेखा-जोखा फिर पेश किया, "पंडित जी, मुसुद्दी के पुरखे ठाकुर जमींदार थे। उनकी आठ सौ गांवों की मनसबदारी थी। पर, कालचक्र ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। औरंगज़ेब के सल्तनत में सियासी फायदा उठाने के लिए उन्होंने इस्लाम कबूल किया था। वरना, तुम क्या, काशी के विश्वनाथ बाबा मठाधिराज को भी उसके हाथ का पानी पीकर फ़ख्र होता। आज इतने रईस खानदान का वारिस तुम जैसे फक्कड़ पंडित को चाय पिला रहा है तो तुम्हें गुरेज हो रहा है..." मुंशी जी ठठाकर हंसने लगे। पंडित जी के माथे पर पसीने की बूंदें छलछला उठीं। लेकिन, उनकी आँखों से उनका जातीय अहं अभी भी चटख रहा था। वे एकदम से मुँह बिचकाने लगे, "यों तो सभी हिंदुस्तानी मुसलमान मूल रूप से हिंदू हैं; लेकिन, इसका यह मतलब तो नहीं है कि इन मांसभक्षियों के साथ हम ख आन-पान जैसा संबंधों बनाएं।"

मुंशी जी बेतहाशा फट पड़े, "देखो पंडित जी! मांस-मछरी तो हमलोग भी खाते हैं। चलो, हम तो ठहरे ठाकुर बिरादरी के जिसका खान-पान मांस-मदिरा ही होता है। लेकिन, मैंने तो अस्सी फीसदी खांटी बांभनों को चिकेन-लेग चिचोरते देखा है। अपनी रसोई में तो प्याज-लहसुन का छिलका भी दिख जाए तो तुमलोग तरह-तरह के ढोंग़-पाखंड और फलाना-ढमकाना करने लगते हो। लिहाजा, हाई-फाई स्टार होटलों में तुम्हें नान-वेज़ डिश मंगाने में कोई हिचक नहीं होती। तुम्हाड़े भी कोई अस्सी फीसदी रिश्तेदार मांसखोर ही होंगे; तो क्या तुम उनके यहाँ जाकर इसी तरह परहेज़ करते हो या, उनसे अपनी रिशेदारी तोड़ देते हो?"

"बेशक, पर हम सनातनी हिंदू गायखोरों को अपना दुश्मन ही मानते हैं और मानते आएंगे," पंडित जी का मेहराया चेहरा थोड़ा तल्ख हो गया। "देखो पंडिज्जी! इंग्लैंड-अमेरिका जाकर ये सारे पाखंडी शांडिल्य क्या खाते होंगे, यह तुमसे ज़्यादा कौन जानता होगा? तुम्हारे दोनों बेटे भी तो विदेश में हैं। अरे, बड़के ने तो ईसाईन से ब्याह तक रचा डाला है। उसके इंडिया आने पर तुम उसकी कितनी खातिरदारी करते हो, यह बात मुझसे नहीं छिपी है। अच्छा, तुम्हीं बताओ, क्या तुम उसकी थाली में फ्राई फिश और मटन कबाब नहीं परोसते होगे?" "लेकिन, मुंशी जी, कुछ भी हो, गौमांस भक्षण करके तो हर हिंदू आज भी तिरस्कृत होता है..." पंडित जी ने बड़े गुमान से अपने माथे पर हाथ फेरा।

मुंशी जी पीकदान में तांबूलरस उड़ेलते हुए ताव खाने लगे, "पंडिज्जी! हर मुसलमान गायखोर नहीं होता। मैं बताऊँ, बहुतेरे मुसलमान तो प्याज-लहसुन से भी परहेज करते हैं। तुम कश्मीरी मुसलमानों का ही मिसाल ले लो। वहाँ के नब्बे फीसदी मुसलमान ब्रहमिन-कनवर्टेड हैं। अभी भी वहाँ ऐसे मुसलमानों की तादात काफी है जो सुबह उठकर एक-दूसरे का स्वागत 'राम-राम' करके ही करते हैं। उनके यहाँ आज भी मांस-भक्षण नहीं होता।" उनके मुंह में पान का लबार फिर भर गया। उन्होंने हाथ उठाकर पंडित जी को बोलने से रोकते हुए और पीकदान को दोबारा कृतार्थ करते हुए अपनी बात जारी रखी,"सुनो पंडिज्जी! मांसखोरी अब फैशन में शुमार होने लगा है। जो लोग इससे नाक-भौंह सिकोड़ते हैं, उन्हें उजड्ड और देहाती समझा जाता है और ऐसे लोग हैं कितने! दावतों और मेहफिलों में तो पूजा-पाठ कराने वाले पंडितों को मैंने चुपके से मीट-मछली उड़ाते देखा है..." उस दिन पंडित जी ने घुटने टेक दिए। मुंशी जी से मन-मुटाव पैदा करने की कुव्वत उनमें कहाँ थी; आख़िर, वे ही तो उनके सारे मुकदमों की पैरवी कर रहे थे। चाहे पंचायत की जमीन कब्ज़ाने वाला मुकदमा हो या अपनी साली की आबरू पर हाथ डालने का लफड़ा; वेलफेयर सोसायटी के फंड से घोटाला करने का केस हो या सड़क-निर्माण के ठेके में ग्राम-पंचायत को चूना लगाने का जग-जाहिर मुआमला, पंडित जी तो चारो और से घनघोर घिरे हुए हैं। अगर मुंषी जी के हाथ में पंडित जी की डगमाती नाव का पतवार नहीं होता तो वे कभी के डूब चुके होते। सो, उन्होंने अपनी नइया के खेवनहार की सारी लंबी ख़ामोशी का बर्फ़ीला पानी उड़ेल दिया और ठंडी चाय की चुस्की ऐसे सुड़क-सुड़क कर लेने लगे जैसेकि अब तक उन्होंने ऐसी जायकेदार चाय कभी पी ही न हो जिसमें मियां मुसुद्दी ने बेशक, अमृत घोल रखा है।

पंडित जी को मुंशी जी की काबलियत पर बेहद भरोसा है। उन्हें कोई बड़ा कांड करने में कोई हिचक नहीं होती और मुंशी जी को उनका केस हैंडिल करने में तनिक झिझक नहीं होती है। इसकी एक बड़ी वज़ह यह है कि मुंशी जी की वक़ालत जमाने में उन्होंने एड़ी-चोटी के जतन-जुगत भिड़ाए हैं। उन्होंने ही उन्हें सफलता के सारे नुस्खे बताए है कि इस पेशे में मुवक्किलों के साथ किसी प्रकार का बेदभाव उनकी तरक्की में ग्रहण लगा सकता है। इसलिए, मुंशी जी ने अपने चैंबर की दीवारों पर सभी धर्मों की बाकायदा महंगी फ्रेमों में सजी तस्वीरें लगा रखी हैं। अपनी रिवाल्विंग चेयर के ठीक पीछे गणपति बप्पा की भव्य तस्वीर लटका रखी है। उसके बाईं और अमृतसर के स्वर्णमंदिर की और दाईं और पाक मदीने की मस्ज़िद की तस्वीरें समानान्तर लगी हुई हैं। सामने मेज पर क्रूस पर लटकते हुए ईसामसीह की संगमरमरी मूरत और उसी से आसन्न न्याय की प्रतीक, आँखों पर पट्टी-बंधी, तराजू लिए स्त्री की बेहद मनमोहक भाव-भंग़िमा वाली चाँदी की कीमती स्टैच्यू।

भले ही पंडित जी ने मियाँ मुसुद्दी की चाय पर एतराज फरमाया हो, यह उन्हीं के अचूक मशविरे का बेहद असरकारी नतीजा है कि भारत के संविधान, दूसरे देशों के संविधानों और वक़ालत की उर्दू, अंग्रेजी और हिंदी वाली मोटी-मोटी पुस्तकों के बीच सुनहरे ज़िल्दों में क़ुरआन शरीफ़, गीता, ज़ेंद अवेस्ता, रामायण, तालमुद, गुरुग्रंठ साहिब, पवित्र बाइबिल और अथर्व वेद जैसे महान ग्रंठ रंग़ीन मखमली आसन पर बड़े सलीके-करीने से विराजमान किए गए हैं। ये सारे मुंशीजी की प्रकांड विद्वता पर मुहर लगाते हैं।

मुंशीजी और पंडितजी गाढ़े समय में एक-दूसरे पर मर-मिटने वाले ऐसे मिसालिया दोस्त हैं कि उन्हें एक-दूसरे की परछाहीं कहना बेजा न होगा। अगर मुंशीजी की वक़ालत पंडितजी के बदौलत चमकी है तो पंडितजी के गोरखधंधे को इज़्ज़तदार जामा पहनाने में मुंशीजी ने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है। बहरहाल, वक़ालत के पेशे में मुंशीजी को खानदानी तज़ुर्बा है। उनके वालिद अंग्रेजों के जमाने के जाने-माने वकील थे और उनके वालिद के वालिद यानी नरेंद्र प्रताप बेशक, एक बड़े मुख्तार थे। उस दौर में हिंदुस्तान में जबकि मुग़ल सल्तनत और अंग्रेजी हुकूमत साथ-साथ चल रहे थे, बड़े मुख्तार साहब की अपनी मुकदमेबाजी की हुनर के चलते अंग्रेजों की नई-नई रियासतों में बर्तानी सरकार की तरफ़ से हिंदुस्तान की आज़ादी के दीवानों के खिलाफ़ पैरवी करने में बड़ी दिलचस्पी थी। उनकी पैरवी ज़बरदस्त हो या कमजोर, जीत उन्हीं की होती थी क्योंकि अंग्रेजों को जो अपना साम्राज्य-विस्तार करना होता था।

बड़े मुख्तार साहब बड़े फ़ायदे में थे। अंग्रेज अफ़सरों ने शहर के एक अहम हिस्से में उन्हें पाँच सौ गज में बनी बड़ी आलीशान कोठी मुहैया कराने के अलावा माली, फराश और घरेलू नौकर-चाकर भी उनकी खिदमत में तैनात कर रखे थे। कुल मिलाकर उनका रुतबा बर्तानिया से आए किसी आला अफ़सर से कम न था। कचहरी में उनके चैंबर में जो बाबू तैनात था, उसने उन्हें दफ़्तर के झंझटों से निज़ात दे रखा था। वह सारे ज़रूरी कागजात लेकर रोज शां को कोठी में हाजिरी लगाता था और उनसे ज़रूरी दस्तखत, डिक्टेशन और हिदायतें लेकर अगली सुबह, कचहरी स्थित उनके चैंबर में दूसरे दिन के काम में लग जाता था। इस तरह बड़ॆ मुख्तार साहब नियत दिनों को हीयानी जब किसी मुकदमें की पैरवी करनी होती थी या जब कोई बड़ा अंग्रेज़ अफ़सर उनसे मुलाकात की ख़्वाहिश ज़ाहिर करता था तो वे कोर्ट में अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ कराते थे और वह भी मोटर गाड़ी से जिसके खर्चे का बंदोबस्त भी अंग्रेज़ी खर्चे से होता था।

पर, इसे क्या कहा जाए, ऊपर वाले की मर्जी या किस्मत का बदा कि बड़े मुख्तार साहब के साथ सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था कि एक दिन अचानक उनकी सड़क हादसे में मौत हो गई। लिहाजा, उनकी अकाल मौत के बाद अंग्रेज़ों की ख़िदमत करने की ज़िम्मेदारी उनके सुपुत्र के कंधों पर आ गई जो अभी-अभी बिलायत से वक़ालत पढ़कर हिंदुस्तान वापस आए थे। यों तो उनकी मंशा बर्तानिया में ही प्रैक्टिस करने की थी, लेकिन वे अपने वालिद के काम को अधूरा कैसे छोड़ सकते थे? इसलिए, मजबूरन ही सही, बड़े मुख्तार साहब के लायक बेटे वकील साहब अपने वालिद के नक्शे-कदम पर चलते हुए उन सभी ऐशो-आराम के ताउम्र हक़दार बने रहे जो उनके वालिद को मुहैया थी।

बहरहाल, जिस मनहूस घड़ी में आज़ादी का ऐलान हुआ, उसने बड़े मुख्तार साहब के ख़ानदानी ऐश पर फुफुंद उगा दिए। वकील साहब को आज़ादी के ऐलान का जो सदमा लगा, उसके चलते वे बेड पर पड़े तो उठ न सके। कोई बारह साल तक वे रुग्ण घिसटते रहे। अव्वल बात ये थी कि इस दरम्यान उनकी तीमारदारी उनके पुत्र मुंशीजी ने ही की जिन्होंने अपने पिता ख़िलाफ ताउम्र बग़ावत का झंडा गाड़ रखा था।

आख़िरकार, अस्सी सेर से छटाँक भर रह गए वकील साहब ने दुनिया को अलविदा कहने से पहले मुंशीजी को बुलाकर कुछ गुरुमंत्र दिए--"माय सन! इन ज़ाहिल औ' कमबख़्त हिंदुस्तानियों की ख़िदमत करना हमारे ख़ानदानी उसूलों के ख़िलाफ रहा है। हमारी डायरी में कुछ रहम-दिल अंग्रेज़ अफसरों के नाम-पते हैं। तुमसे गुज़ारिश है कि तुम अपना ग़ुरूर छोड़कर उनसे संपर्क करना, मदद की दर्ख़्वास्त करना। अगर उनसे मदद मिलती है तो सीधे बिलायत जा-बसना।"

मुंशीजी को अपने वालिद के मशविरे से बदहज़मी हो गई। जहाँ तक उनका अपने वालिद से बाप-बेटे जैसे ताल्लुकात का संबंध रहा, वह कभी नार्मल नहीं रहा। उन्हें फ़रमान मिला था कि वे बिलायत जाकर तालीम हासिल करें। लेकिन, वे तो हिंदुस्तान की आज़ादी के लिए आवारगी ही करते रहे। उन्हें शादी करके घर बसाने का सबक दिया गया तो वे किसी बिस्मिल्ल का कोई 'सरफ़रोशी की तमन्ना' वाला जुमला सुनाकर सिर पर बंधे कफन की और इशारा कर देते। उन्हें बार-बार सख़्त हिदायतें दी गईं कि वे अपना दोस्ताना सिर्फ़ अंग्रेज़ लौंडों से निभाएं। पर, जब भी वे सैर-सपाटे से दो-तीन दिनों बाद चंद घंटों के लिए घर में नज़र आते तो उनकी गलबहियाँ में कुछ मुसलमान या सिख नौजवान होते। उस वक़्त, वकील साहब का मुँह गुस्से से फूलकर कुप्पा हो जाता। बेशक! इतना बेकहन कपूत इनके रईस ख़ानदान में पिछले सात पुश्तों से पैदा नहीं हुआ था।

मुंशीजी की आवारगी की लत आज़ादी के बाद भी नहीं छूटी। लेकिन, उन्होंने एक काम अपने वालिद के कहे मुताबिक किया। कोई चालीस साल की उम्र में उन्होंने शादॊ का फैसला किया--बाक़ायदा अपने पिता की आदमक़द तस्वीर के सामने संकल्प लेते हुए--"बाबूजी! आप हमेशा हमारे कौम के ख़िलाफ फिरंगी हुक़ूमत की तरफदारी करते रहे। यही बात मुझ पर बेजा गुजरती थी। दरअसल, मुझे अपने वतन से बेइंतेहां मुहब्बत रही है और इसलिए, हमारा आपसे और दादाजी से छत्तीस का आँकड़ा रहा है। हमें इस बात का पूरा इल्म है कि हमारी ख़ुदगर्ज़ी के चलते आपकी रूह आज भी बेचैन होगी। आपकी इसी बेचैनी को दूर करने के लिए आपके मन-मुताबिक मैं शादी करने जा रहा हूँ।"

उनके फैसले से वकील साहब की आत्मा को कितना सुकून मिला होगा, इस बारे में कोई पुख़्ता सबूत नहीं दिया जा सकता। लेकिन, चूँकि मुंशीजी ने बयालीस साल की एक विधवा से इश्क़ फरमाया था, इसलिए उनके बाबूजी की रूह को सुकून के बजाय बेकरारी ही हुई होगी।

शादी के बाद मुंशीजी की ज़िंदगी में बदलाव का खुशनुमा बयार बहने लगा। उन्हें उस उम्र में दो-दो सुपुत्र पैदा हुए। उनके लड़कपन के बारे में सुनकर तो पत्थर को भी रोना आ जाता है जबकि उनके स्वर्गीय पिता उन्हें उस वक़्त भी दिल पर नश्तर चलाने वाली नसीहतें देने से बाज नहीं आते थे जबकि उनके पेट में एक भी दाने का जुगाड़ नहीं रहता था। उनके बदन को ढंकने के लिए चिथड़े भी नहीं होते थे और पैरों में डालने को एक जोड़ी चमरौधा चप्पल भी नहीं। कुल मिलाकर उनकी हालत वकील साहब के नौकर-चाकरों से भी बदतर थी। लेकिन, वे इसई हालत में आज़ादी के दीवानों की टोली में बड़ी तबीयत से शरीक़ हो जाते थे--किसी गाँधी, किसी नेहरू, किसी नेताजी की आवाज़ पर।

लेकिन, उन पर मोहल्ले के एक रईस की रहम-दिल नज़र भी थी। नाम था--सेठ रज्जूमल। उस रईस ने उन्हें रहने के लिए एक कमरा दे रखा था और गद्दी में बैठकर मुंशीगिरी करने की मामूली आमदनी वाली नौकरी भी। यहीं से उन्हें मुंषीजी का तगमा मिला; वरना, मुख्तार साहब अर्थात महेंद्र प्रताप को मुंशीजी पुकारना उनके भारी-भरकम ख़ानदान पर कींचड़ उछालने जैसा था।

मातृभूमि की कसम खाकर फिरंगी हुकूमत को उखाड़ फेंकने की बदतमीज़ी उनके ज़ेहन में तब समाई जबकि वे मिडिल पास कर चुके थे। जब वे पहली बार इन्क़लाबियों की जमात में शामिल हुए थे उनकी उम्र रही होगी कोई चौदह साल की। उन्होंने देखा कि इन्क़लाबियों पर बेरहमी से लाठियाँ बरसाई गईं थी और उन्हें फिरंगी जूतों से रौंदा गया था। पर, उन्हें यानी महेंद्र प्रताप को इन्क़लाबियों के झुंड में देखते हुए कोतवाल आगस्टिन चींख उठा, "अरे! ये तो वकील साहब का छोकरा है।"

वकील साहब के बेटे को सिरक्षित वापस सौंपते हुए कोतवाल ने फरमाया, "वकील सा'ब! अपने बेटे पर लगाम कसिए, वरना, उसकी कमसिन उम्र गोलियों की खुराक बन जाएगी।"

वकील साहब के पैरों तले जमीन खिसकती-सी नज़र आई। उन्होंने पहली बार अपने बेटे के गाल पर झन्नाटेदार तमाचा जड़ा, "हम तुम्हें अपनी जागी-ज़ायदाद से बेदखल कर देंगे। ख़बरदार! अगर तुम्हारे कदम उजड्ड हिंदुस्तानियों की पंगत में बढ़े तो हम उनकी खाल उधेड़ देंगे।" वकील साहब को क्या मालूम था कि कि उनका तमाचा उनके और उनके बेटे के बीच एक ऐसा दरार बना देगा जिसे कभी नहीं भरा जा सकेगा। सो, महेंद्र प्रताप, मुंशीजी के नाम से मकबूल होने तक अपने पिता से ताउम्र बग़ावत करते रहे। बहरहाल, अगर ये कहा जाए कि उन्हें अपने पिता से प्यार नहीं था तो यह बात सोलह आने सच नहीं है। अपने पिता की मौत पर वे फूट-फूट कर रोए थे और जब चिता पर सवार उनकी लाश को मुखाग्नि दे रहे थे तो वे पागलों की भाँति चींखने-चिल्लाने लगे थे। दरवक़्त, अगर भीड़ के असंख्य हाथ उन्हें थां न लिए होते तो वे अपने पिता की जलती चिता में छलांग लगाकर लगभग मौत को गले लगा ही चुके थे। आज मुंशीजी के बारे में लोगबाग इस घटना पर बतकही करते हुए सुने जाते हैं। बेशक! इसी कारण घर-बाहर मुंशीजी को बड़ी इज़्ज़त और तरज़ीह दी जाती है। इसकी एक अहम वज़ह यह भी है कि उनकी राष्ट्रभक्ति के किस्से बच्चे-बच्चे की जुबान पर हैं। लोग यह भी जानते हैं कि उनके सिवाय उनके बाप-दादा बेहद अंग्रेज़भक्त थे और हिंदुस्तान की आज़ादी के ख़िलाफ थे। उनके पिता सुरेंद्र प्रताप उनकी राष्ट्रभक्ति पर यहाँ तक ताने कसा करते थे कि हो न हो उनकी माँ ने किसी गाँधी या नेहरू के साथ...तभी तो उन्हें इतना नालायक बेटा पैदा हुआ।

ख़ैर, वह जमाना था जबकि औरतें होठ सीए रहती थीं और पति के हर तरह के लांछन को सहने का दमखम रखती थीं। मुंशीजी अपने पिता के अपनी साध्वी माता के ख़िलाफ ज़ुल्मों पर एकदम बौखला उठते थे। लिहाजा, उन्होंने कभी अपने पिता के ख़िलाफ कोई नागवार हरकत या प्रतिक्रिया नहीं की थी। हाँ, दोनों के बीच जो कोल्डवार छिड़ा, उसने कभी थमने का नाम नहीं लिया।

हिंदुस्तान की आज़ादी के कोई सात साल पहले सुरेंद्र प्रताप उर्फ़ वकील साहब ने यह तय कर रखा था कि वे अपनी सारी ज़मीन-ज़ायदाद अपनी नालायक औलाद के बजाय फिरंगी सरकार के सुपुर्द कर देंगे। इसी कारण, उन्होंने वसीयत का पन्ना कोरा रखा था और जब उनका अचानक इंतकाल हुआ तो आज़ाद हिंदुस्तान की सरकार ने उनकी अकूत संपत्ति की ज़ब्ती फरमान जारी कर दिया। ऐसे में, मुंशीजी के नाम तो बस फुटपाथ रह गई थी।

मुंशीजी बेघर तो हो गए; लेकिन, उनकी बहस-पैरवी करने की महारत पुश्तैनी थी जिससे उनका वास्तविक संरक्षक सेठ रज्जूमल भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। जो उनके पिता की मौत के बाद भी जिंदा रहे। सेठजी ने ही उन्हें सलाह दी थी, "महेंद्र! मेरी जान-पहचान के एक प्रिंसिपल साहब अपने कालेज में मुख्तारी का कोर्स चलाते हैं। अगर तुम वह कोर्स पास कर लो तो जिला कोर्ट में तुम वक़ालत का पेशा शुरू कर सकते हो। मेरी जिला कोर्ट में भी पैठ है। मैं तुम्हें वहाँ जगह दिला दूंगा। वैसे भी, कोर्ट में तुम्हारे पुरखों की बड़ी साख है।"

उस जमाने में हाईस्कूल पास तो विरले ही मिलते थे। सो, मिडिल पास को मुख्तारी के कोर्स में ऐडमीशन में कोई ख़ास एतराज़ नहीं था। इसका फायदा मुंशीजी को भी मिला और वह साल गुजरते-गुजरते मुख्तार साहब बन गए। उन्हें सदर कोर्ट में वकील की हैसियत से रजिस्टर्ड भी कर लिया गया। बहरहाल, वे कोर्ट में भी मुंशीजी के नाम से ही विख्यात हैं। उम्र पचहत्तर की, लेकिन मुदमेबाजी का ज़ज़्बा उनमें पूरी रवानगी पर है। उन्होंने सफलता के कई मंजर देखे हैं और कानूनी दांव-पेंचों और तिकड़मों ने उन्हें यही सबक सिखाया है कि बदलते जमाने के हिसाब से अपना रंग बदलना कोई नामुराद हरकत नहीं है। वे अपने मुव्वकिलों से खुलेआम ऐलान करते हैं, "हमें दकियानूस बने रहना बिल्कुल बर्दाश्त नहीं है। बदलते जमाने के हिसाब से ख़ुद को बदलने में फायदा ही होगा, नुकसान नहीं।"

इसलिए जब हिंदुस्तान ग़ुलाम था, मुंशीजी उस समय भी आवाम का फायदा ही देखते हुए आज़ादी के जंग में भागीदारी करते रहे और आज जबकि मुल्क में हर कोई अपना उल्लू सीधा करने पर तुला हुआ है, इस चलन से भी वह परहेज़ नहीं करते हैं। फर्क बस, इतना है कि ग़ुलामी के दौर में उन्होंने आवाम का फायदा चाहा जबकि आज वह अपना फायदा देख रहे हैं। कहीं न कहीं उनमें अपने पुरखों की नस्ल का तासीर साफ नज़र आता है। वरना, वह पहले की तरह सीधी चाल चलने से कतई बाज नहीं आते। बिलाशक! आज की तारीख़ में सेठ रज्जूमल ज़िंदा होते तो वह उन्हें कैसी नसीहतें देते, इसका अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। क्योंकि सेठजी तो इनकी वतनपरस्ती पर ही फिदा होकर इनकी तहे-दिल से मदद किया करते थे।

जहाँ तक वक़ालत के पेशे का वास्ता है, मुंशीजी अपने कुछेक चहेते दोस्तों को छोड़कर सभी मुवक्किलों के साथ बराबरी का सलूक करते हैं--चाहे लेन-देन का मामला हो या राय-मशविरा देने का। सीधे मुँह वह तब तक बात करना अपनी औक़ात के खिलाफ समझते हैं जब तककि मियां मुसुद्दी के मार्फ़त नया मुर्गा आते ही पहले से नीयत फीस से उनकी मुट्ठी गरम न कर दे। गत तीन-चार सालों से उनकी जिला मेयर नसीब ख़ान के साथ खूब छनने लगी है। मुंशीजी ने उनके कई मुकदमों में बेहद दिलचस्पी दिखाते हुए उन्हें फ़तह पर फ़तह दिलाई है और मेयर साहब ने उनके अहसानों को चुकाने के लिए उनकी नज़दीकियाँ एम.पी.--खनेजा सा'ब से बनाकर उनकी किस्मत में चार चाँद लगा दिए हैं। जिस मुकदमें की वे निर्णायक पैरवी कर रहे होते हैं, खनेजा सा'ब सीधे जज को फोन मिलाते हैं, "मुंशीजी के फलां-फलां केस के पक्ष में ही तुम्हें फैसला देना होगा; वरना, तुम्हारा तबादला किसी अंटापुर में कराकर तुम्हें सारे ऐशो-आराम का मुहताज़ बना दिया जाएगा।" इस तरह उनके मुव्वकिलों की शर्तिया जीत से सफलता उनके कदम चूम रही है। सो, गुलामी के दिनों में उनके पुरखे जो रबड़ी-मलाई उड़ा रहे थे, वही आज़ादी के इस खुशनुमा माहौल में मुंशीजी उड़ा रहे हैं। अब उनमें पुराने मुंशीजी को तलाशना बड़ा मुश्किल हो गया है क्योंकि वह कुछ ऐसे बदल गए हैं कि उनके बारे में लोगबाग तरह-तरह की उलटी-सीधी बातें करने लगे हैं कि...उनकी आज़ादी की लड़ाई के सारे किस्से मनगढ़ंत हैं...वे तो वही करेंगे जो उनके पुरखे करते आए हैं, यानी अंग्रेज़ों की मुखबिरी और उनकी कारिस्तानियों की तारीफ और अपने देशवासियों की पीठ में छूरा भोंकना...उन्होंने तिकड़मी चाल बेशक, अंग्रेज़ों से सीखी है, जवानी के दिनों में तो वह देशभक्त बनने की नौटंकी ही खेला करते थे...वे दरिद्र हिंदुस्तानियों का शोषण उसी प्रकार कर रहे हैं, जिस तरह अंग्रेज़ किया करते थे...वे अगर सचमुच वतनपरस्त होते तो अपने बेटों को तालीम दिलाने के बहाने इंग्लैंड नहीं भेजते...अब तो वे मुस्तकिल तौर पर विदेश में बसने की योजना पर गंभीरता से अमल भी कर रहे हैं क्योंकि बड़े बेटे ने स्वीटजरलैंड की नागरिकता ले रखी है और छोटे साहबज़ादे ने अमरीका की...छोटे ने कैलीफोर्निया में अच्छी ख़ासी मिल्कियत भी बना रखी है जबकि बड़े का स्वीटज़रलैंड में भारी-भरकम बैंक-बैलेंस है...वगैरह, वगैरह...

मुंशीजी, पंडितजी से कुछ इस तरह फरमाते हैं, "यार, इस ज़ाहिल मुल्क में क्या रखा है? तुम तो पहले से ही कई मुकदमों में फँसे हो। मेरी राय मानो, तुमने गाहे-ब-गाहे जो जमीन-जायदाद बटोर रखी है, उसे औने-पौने दाम में बेचोगे भी तो कम से कम चार-पाँच करोड़ रुपए मिल ही जाएंगे। वरना, मेरे विदेश में बस जाने के बाद तुम्हारी ग़ैर-कानूनी संपत्ति पर गहण भी लग सकता है। मतलब ये है कि मेरी ज़ोरदार पैरवियों के बदौलत ही तुम और तुम्हारी मिल्कियत महफ़ूज़ है, उन सब से तुम आनन-फानन में हाथ धो बैठ सकते हो और जेल की चक्की भी पीसनी पड़ सकती है। ऐसा करो कि मैं तुम्हारे बाल-बच्चों को स्वीटज़र लैंड की नागरिकता दिलाने के लिए सोर्स-सिफ़ारिश भिड़ाता हूँ। अपने लाडले को अभी फोन मिलाता हूँ। मैं सियासी तिकड़म भी लगा सकता हूँ--आख़िर, नसीब खान कब और किस काम आएंगे? प्रेसीडेंट और पी.एम.तक से अपना टाँका भिड़ा हुआ है। बस, तुम्हारी रज़ामंदी की ज़रूरत है। स्वीटज़र लैंड की खुशनुमा वादियों में हम सब मिलकर खूब मौज उड़ाएंगे, खूब ऐश करेंगे..."

ताजा ख़बर ये है कि मुंशीजी अपनी सारी जमीन-ज़ायदाद बेच दी है और बैंक की सारी रक़म भी स्वीटज़र लैंड के बैंक में ट्रांसफर करा दी है। परसों उनकी फ्लाइट है जबकि पंडितजी का और उनके परिवारवालों का वीज़ा और पासपोर्ट बस दो-चार दिनों में ही तैयार होने वाला है। आज सुबह उन्हें मुंशीजी की गलबहियाँ में देखा गया है। कह रहे थे, "तूँ चल मैं आता हूँ।" दोनों को यूँ अट्टहास करते हुए पहले कभी नहीं देखा गया गोयाकि उन्हें यह देश काट-खाने को दौड़ रहा है और वे इसे तत्काल गुड बाय करने को बेताब हैं।

अब जाकर मुंशीय़ी के वालिद की रूह को सुकून भी मिलने वाला है। बेशक! परसों जैसे ही मुंशीजी अपनी बेग़म के साथ स्वीटज़र लैंड के लिए उड़ान भरेंगे वैसे ही उनके वालिद की बेचैन रूह भी ज़न्नत में तशरीफ़ ले जाएगी। वह भी ज़ाहिल हिंदुस्तानियों की शोहबत से उकता चुकी थी क्योंकि उसे अपनी मौत के बाद भी जो यहाँ रहना पड़ रहाथा--अपने बेटे के हृदय-परिवर्तन के लिए।