धरती कहे पुकार के बीज बिछाले प्यार के / जयप्रकाश चौकसे

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धरती कहे पुकार के बीज बिछाले प्यार के
प्रकाशन तिथि :21 जनवरी 2019


फिल्मकार और विचारक मंसूर खान का विचार है कि कोयले की खोज और खनन ने आर्थिक खाई को उत्पन्न किया, जिसे पूंजीवादी विचारधारा और उपभोग आधारित जीवनशैली ने और अधिक व्यापक बना दिया। कोयले का खनन 1750 से आरंभ हुआ और 1850 से पेट्रोल का उदय हुआ।

इन दो घटनाओं के पहले समाज में इतनी चौढ़ी, गहरी और व्यापक खाई नहीं बनी थी। यह तो नहीं कह सकते कि कोयले के प्रादुर्भाव के पहले समाजवादी व्यवस्था थी परंतु तब समाज एक ही हाथ की पांच उंगलियों की तरह था, जो अलग-अलग होते हुए भी एक ही मुट्‌ठी का निर्माण करती थी। कोयला खनन सरकार करती थी। अब सरकार से लाइसेंस लेकर निजी क्षेत्र में भी खनन किया जा रहा है परंतु इन दोनों से कहीं अधिक कोयला चोरी हो जाता है और इस क्षेत्र में पाकेटमारी भी होती है। मेघालय में कोयला खनन व्यापक पैमाने पर होता है। 2014 में मेघालय के छात्र संगठन के प्रयासों के कारण नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पर्यावरण की रक्षा की खातिर कोयला खनन को नियमबद्ध करते हुए अवैध खनन के खिलाफ ठोस कदम उठाए थे। एक अनुमान है कि मेघालय की खदानों में लगभग 60 करोड़ टन कोयला संपदा है। कोयले की तरह ही अन्य स्थानों पर हीरे भी धरती से हमें मिलते हैं।

प्राय: कोयला खनन के जान जोखिम में डालने वाले कार्य में मेहनतकश लोग खानों में फंस जाते हैं। इस तरह कई लोग मर चुके हैं। यश चोपड़ा ने सलीम जावेद की पटकथा पर 'काला पत्थर' नामक फिल्म बनाई थी। अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, शशि कपूर अभिनीत इस फिल्म में कुछ और कलाकारों ने भी काम किया था। इस फिल्म में अमिताभ बच्चन द्वारा अभिनीत पात्र 'लार्ड जिम' नामक उपन्यास से प्रेरित था। उस उपन्यास में पानी के जहाज का कप्तान खतरा सूंघकर भाग जाता है। जहाजरानी की संस्कृति में जहाज का कप्तान संकट से बचाने का प्रयास करता हुआ स्वयं भी जहाज के साथ डूब जाता है। इस दायित्व को तज देने वाला व्यक्ति उस क्षेत्र में अछूत हो जाता है और सामाजिक बहिष्कार का शिकार होता है। बहरहाल, यश चोपड़ा ने अपनी इस बहुसितारा फिल्म की अधिकांश शूटिंग के लिए सेट्स राज कपूर के ग्राम लोनी स्थित फार्म हाउस में लगाए थे। यश चोपड़ा ने इस बड़े बजट की फिल्म को लगन से बनाया था। बॉक्स ऑफिस पर इस फिल्म को आशातीत सफलता नहीं मिली। बहरहाल, कोयला खनन में काम करने वाले व्यक्ति की सुरक्षा के लिए कई जतन किए जा सकते हैं परंतु लोभ-लाभ से संचालित व्यवस्था यह करना ही नहीं चाहती, क्योंकि हमारे यहां 'माटी का है मोल परंतु इंसा की कीमत कुछ भी नहीं।' धरती की आंतों में घुसकर कोयला निकाला जाता है। धरती कभी-कभी अनावश्यक कांट-छांट और जुल्म का विरोध करती है। धरती के भीतर कई परतंे हैं और सबसे निचले धरातल पर अग्नि है। मनुष्य धरती से पानी और खनिज पदार्थ प्राप्त करता रहा है परंतु उसी धरती को संपन्न करने के लिए लाखों वृक्ष नहीं लगाता। धरती वृक्ष को स्ट्रॉ बनाकर अपनी खुराक प्राप्त करती है।

कोयला और पेट्रोल सीमित हैं और इनके विकल्प खोजने के लिए भांति-भांति के प्रयास किए जा रहे हैं। सौर ऊर्जा का भरपूर दोहन नहीं किया जा रहा है। इसी तरह वर्षा का पानी भी संचित किया जाना चाहिए। इस कार्य की नारेबाजी की जाती है परंतु मकान की छतों के पानी को पाइप द्वारा धरती में देने का काम कम ही हुआ है। हमें सिर्फ लेने की आदत है और हम वर्षा के पानी के मामले में भी तेरा तुझको अर्पण नहीं करना चाहते। जेम्स कैमरन की 'अवतार' नामक फिल्म में मनुष्यों का एक दल अन्य ग्रह पर जाता है और अपना कैम्प बनाने के लिए वहां के वृक्ष काटता है तब एक पात्र का संवाद था कि किसी भी ग्रह पर वृक्ष काटने से उसकी पीड़ा धरती के वृक्ष को होती है गोयाकि सृष्टि के सारे वृक्षों के बीच एक दर्द का रिश्ता है। हमारे अपने एक वैज्ञानिक का कथन है कि मनुष्य चलता-फिरता वृक्ष है और वृक्ष थमे हुए इंसान हैं।

बहरहाल, कोयला खनन के काम में मजदूरों की मौत होती रहती है परंतु उनकी सुरक्षा पर कोई कुछ खर्च नहीं करना चाहता। जब धरती स्वयं अपनी रक्षा या आराम के लिए करवट बदलती है तो सर्वत्र हाहाकार मच जाता है। हम बार-बार धरती के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं। किसी कवि की पंक्तियां सबकुछ कह रही हैं, 'यह सदी मुझसे छीनकर ले गई मेरा पहाड़, दरख्त और एक बहती हुई नदी।' कवि का नाम याद नहीं आने का खेद है और वे कहीं इसे पढ़ रहे हों तो कमजोर याद के लिए उनसे क्षमा मांगता हूं।