धरती की ममता / स्टीफन ज्विग / यशपाल जैन

Gadya Kosh से
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सन १९१८ की गर्मियों की एक रात को एक मछुवे ने स्विट्जरलैण्ड के छोटे–से विलेन्व्यू कस्बे के पास जिनेवा झील में अपनी नाव पर से पानी की सतह पर कुछ अजीब-सी चीज देखी। जब वह उसके नजदीक पहुंचा तो उसे पता चला कि वह शहतीरों को उल्टा-सीधा बांधकर बनाया हुआ बेड़ा है, जिसे एक नंगा आदमी एक तख्ते की मदद से जैसे-तैसे चलाने की कोशिश कर रहा है। वह आदमी जाड़े से अकड़ रहा था और थकान से चूर-चूर हो रहा था। चकित मछुवे के दिल में दया उपजी। उसने ठिठुरते आदमी को अपनी नाव पर ले लिया। उसे पास जालों को छोड़ और कुछ नहीं था। इसलिए कुछ जालों से ही उसके बदन को ढक दिया और उससे बातचीत करने की चेष्टा करने लगा, लेकिन नाव की तेली में सिकुडे बैठे उस अजनबी ने ऐसी जबान में जवाब दिया कि उसका एक अक्षर भी मछुवा नहीं समझ पाया। हारकर उसने अपनी कोशिश छोड़ दी, जाल समेटा और किनारे की ओर चल दिया।

जब सबेरे के उजाले में दिखाई देने लगा तो वह नंगा आदमी पहले की निस्तब कुछ ज्यादा खुश मालूम हुआ। उसके मुंह पर, जो आधा बेतरतीब उगी घनी मूंछों और दाढ़ी में छिपा था, मुस्कराहट खेलने लगी। वह किनारे की ओर इशारा करके कुछ जिज्ञासा और कुछ खुशी से बार-बार एक शब्द बोलने लगा जो सुनने में 'रोशिया' जैसा लगता था। नाव ज्यों-ज्यों जमीन के निकट आती गई उसकी आवाज में विश्वास और उल्लास बढ़ने लगा। आखिरकार नाव किनारे पर आकर लग गई। मछुओं की औरतें रात को पकड़ी गई चीजों को उतारने के लिए आई लेकिन चौंककर चीख उठीं।

मछुवे को झील में जो मिला था, उसकी अजीबो गरीब खबरें फैलते ही गांव के दूसरे लोग वहां जमा हो गये। उनमें उस छोटी–सी जगह का महापौर भी था। उसे भले आदमी ने, जी अपने को न जाने क्या समझता था और पद की जिसमें दमक थी, उन सारे कानून-कायदों को याद किया, जो लड़ाई कि चार सालों के दरमियान सदर मुकाम से जारी किये गए थे। यह मानकर कि नवागन्तुक झील के फ्रांसीसी किनारे से भागकर आया होगा, उसने फौरन जाब्ते की जांच करने की कोशिश की, लेकिन तत्काल एक ऐसी रुकावट समाने आ गई, जिससे वह हैरान हो गया। वे एक-दूसरे को समझ नहीं सकते थें। जो भी सवाल उस अजनबी से (जिसे किसी गांववाले ने लाकर पुराना कोट और पतलून पहना दिया था) किये जाते थे, उनका वह दयनीय तथा बिखरी आवाज में सिवा अपने सवाल 'रोशि?', 'रोशिया?' के और कोई जवाब नहीं देता था। अपनी असफलता से कुछ खिन्न होकर, उस शरणर्थी को पीछे आने का इशारा करके, महापौर कचहरी की ओर चला। युवकों के, जो वहां इकट्ठे हो गये थे, कोलाहल के बीच किसी दूसरे के ढीले-ढाले हवा में फड़फड़ाते कपडे पहने वह आदमी नंगे पैर उसके पीछे चल दिया। वे लोग अदालत पहुंचे और वहां उसे सुरक्षा अधिकारी को सौंप दिया गया। अजनबी ने आनाकानी नहीं की और न मुंह से एक शब्द ही निकाला, लेकिन उसके चेहरे पर दु:ख की रेखाएं उभर आई। बड़े डर से वह झुका, मानों उसे लग रहा हो कि अब उसकी ठुकाई होगीं।

आसपास के होटलों में भी मछुवे की इस विशेष उपलब्धि की खबर आनन-फानन में फैलगई। इस बात से खुश होकर कि उन्हें कुछ ऐसी जानकारी मिलेगी, जिससे उनका एक घंटा मजे में कट जायगा, पैसे वाले लोग उस जंगली आदमी की जांच पड़ताल के लिए आये। एक स्त्री ने उसे कुछ मिठाइयां दीं। लेकिन बन्दर की भांति संदेह से उसने उन्हें छूने तक से इन्कार कर दिया। एक आदमी कैमरा लेकर आया और उसकी एक तस्वीर खींच ली। उस विचित्र आदमी को घेर कर लोग बड़े आनन्द से बातें करने लगे। अंत में वहां पास के एक बहुत बड़े होटल का मैनेजर आया। वह बहुत-से देशों में रह चुका था और कई भाषांए अच्छी तरह जानता था। उसने जर्मन, इतालवी, अंग्रेजी और आखिर में रुसी, इस तरह एक के बाद एक बोली में उस अजनबी से, जो अब विस्मित और आंतकित हो उठा था, बात करने का प्रयत्न किया। रुसी भाषा का पहला शब्द सुनते ही उस बेचारे में हिम्मत आ गई उसका चेहरा मुस्कराहट से चमक उठा। बड़े विश्चास के साथ उसने फौरन अपना इतिहास सुनाना आरम्भ कर दिया। वह इतिहासह लम्बा था और उलझा हुआ था। पूरी तरह समझ में नहीं आता था। फिर भी कुल मिलाकर कहानी इस प्रकार थी:

उसने रुस में लड़ाई लड़ी। एक दिन दूसरे हजार आदमियों के साथ उसे रेल के डिब्बे में ठूंस दिया गया और उसकों ट्रेन से बड़ा लम्बा तय करना पड़ा। इसके बाद उसे एक जहाज पर चढ़ाया गया और पहले से और भी लम्बा सफर कराया गया। यह सफर ऐसे समुद्र में हुआ कि मारे गर्मी के उसे छठी का दूध याद आ गया। अंत में वे लोग जमीन पर उतरे और फिर रेल से चले। जैसे ही वे रेल से उतरे कि उन्हें एक पहाड़ी को उड़ाने के लिए भेजा गया। इस लड़ाई के बारे में वह आगे कुछ नहीं बता सका, क्योंकि शुरु में ही वह टांग में गोली लगने के कारण गिर गया था।

उसने जो कुछ कहा, उससे इतना स्पष्ट हो गया कि वह शरणार्थी उस रुसी दस्ते का था, जो साइबेरिया भेजा गया था। और जिसे ब्लाडीवोस्टोक से फ्रांस के लिए जहाज द्वारा रवाना किया गया था।

हर आदमी कुतूहल और द्रवित भाव से जानना चाहता था कि वह आदमी उस सफर के लिए कैसे प्रेरित हुआ, जो उसे उस झील में लेकर आया।

मुक्त भाव से मुस्कराते, फिर भी चतुराई दिखाते उस रुसी ने बताया कि अपने घाव के कारण जब वह अस्पताल में था, उसने पूछा कि रुस किधर है? और उसे उसके घर की आम दिशा बात दी गई। जैसे ही वह चलने लायक हुआ, वह वहां से निकल पड़ा और सूरज तथा सितारों से दिशा का अंदाज करता घर की ओर बढ़ा। वह रात को चला दिन को चला और गश्त करनेवालों को चकमा देने के लिए घास के ढेर में छिपता रहा। खाने के लिए उसने कुछ फल इकट्ठे कर लिये। यहां-वहां से रोटी भी मांग लेता था। आखिर उस रातें चलने के बाद वह इस झील पर पहुंचा।

अब आगे की कहानी फिर उलझ गई। वह साइबेरिया का किसान था। उसका घर बेकाल झील के पास था। वह जेनेवा झील के दूसरे किनारे की कल्पना कर सकता था। और उसने सोचा, वह जरुर रुस होगा। उसने एक झोंपड़ी से दो शहतीर चुराये और उनके ऊपर झील पार की और वहां आया, जहां मछुवे ने उसे उत्सुकता से यह पुछते हुए अपनी कहानी समाप्त की, "क्या मैं कल घर पहुंच सकता हूं?"

इस सवाल के तर्जुमें से वे लोग बड़े जोर से हंस पड़े, जिन्होंने पहले सोचा कि वह निरा बुद्धू है, लेकिन बाद में सोचने पर वे हमदर्दी से भर उठे और सबने थोड़ा-थोड़ा पैसा उस डरपोक और रुआंसे भगोड़े के लिए इकट्ठा कर दिया।

लेकिन अब पुलिस का एक ऊंचा अफसर जिसे फोन करके मोंत्रू से बुलाया गया था, वहां आया और बड़ी कठिनाई से उसने रिपोर्ट तैयार की। छानबीन के दौरान ने सिर्फ वह दुभाषिया प्राय:हैरान हो उठा, बल्कि उस साइबेरियावासी के शिष्टाचार के तौर तरीके न जानने से उसके दिमाग और पश्चिमी देशों के लोगों के बीच खाई पैदा हो गई। उसे अपने बारे में अधिक जानकारी नहीं थी। सिवा इसके कि उसका नाम बोरिस था। वह अपनी पत्नी और तीन बच्चों के साथ उस विशाल झील से कुछ ही फासले पर रहता था। वे लोग प्रिंस मैचस्की के गुलाम थे। वह 'गुलाम' शब्द का ही प्रयोग कर रहा था, हालांकि पचास वर्ष पहले रूस में गुलामी का खात्मा हो चुका था।

अब उसके भाग्य को लेकर बहस-मुबाहिसा होने लगा। बेचारा आदमी अपने कंधे झुकाये और बुझे चेहरे से उन बहस करने वालों के बीच खड़ा था। कुछ ने सोचा कि उसे बर्न के रुसी दूतावास में भेज देना चाहिए, लेकिन दूसरों ने इस पर आपत्ति करते हुए कहा कि इसका नतीजा यह होगा कि उसको फिर फ्रांस भेज दिया जायगा। पुलिस के अफसर ने बताया कि यह फैसला करना कितना मुशिकल होगा कि आया उसको एक भगोड़ा माना जाय या बिना परिचय-पत्रों के एक परदेशी समझा जाय। जिले के राहत अधिकारी ने कहा कि उस यायावर का स्थानीय जमात के खर्च पर खाने और रहने का हक नहींहो सकता। एक फ्रांसीसी ने उत्तेजित होकर दखल देते हुए कहा कि उस बदकिस्मत भगोड़े का मामला बहुंत साफ है। काम पर लगाओं या सीमा के बाहर भेज दो। दो महिलाओं ने प्रतिवाद किया कि उस बेचारे का उसके दुर्भाग्य के लिए दोष नहीं दिया जा सकता। लोगों को उनके घरों से दूर करना और दूसरे देश में भेज देना अपराध है। जब एक बुजुर्ग डेनमार्क-निवासी ने अचानक कहा कि आगामी पूरे सप्ताह के लिए वह उस अजनबी का खर्चा दे देगा और इस बीच नगर निगम रुसी दूतावास से बात कर ले तो ऐसा दीख पड़ा मानो राजनैतिक झगड़ा उठ खड़ा होगा। इस अप्रत्याशित समाधान से सरकारी परेशानी दूर हो गई और बहस करनेवालों के मतभेद भुला दिये गए।

जिस समय बहसें जोरों से चल रही थीं, उस भगोड़े की डरपोक आंखें होटल के मैनेजर के होठों पर जमी थीं। उस भीड़ में वहीं एक आदमी था, जो उसकी किस्मत का निबटारा कर सकता था। भगोड़े के वहां आने से जो जटिलाताएं पैदा हो गई थीं, उन्हें वह कम ही समझ पाता जान पड़ता था। जब कोलाहल थम गया तो उसने अपने जुड़े हुए हाथ मैनेजर के चेहरे की ओर याचना के रूप में उठाये जैसे कोई स्त्री किसी देवता की अभ्यर्थना कर रही हो। उसके इस संकते से सबके दिल भर आये। मैनेजर ने आत्मीयता से उसे भरोसा दिलाया कि वह अपने मन पर से सब तरह के बोझ को उतार दे। उसे कुछ दिन यहां रहने दिया जायगा। उसको कोई भी हानि नहीं पहुंचा सकेगा और उसकी जरुरतें उस गांव के होटल से पूरी कर दी जायेगी। रुसी ने मैनेजर का हाथ चूमना चाहा लेकिन मैनेजर ने आभार के इस अपरिचित रूप को स्वीकार नहीं किया। वह शरणार्थी को सराय में ले गया जहां उसके खाने-पीने और रहने की व्यवस्था होनी थी। उसने एक बार फिर उसे आश्वस्त किया कि सबकुछ ठीक होगा और विदाई के रुप में आखिरी बार सिर झुकाकर होटल को वापस चला गया।

भगोड़ा मैनेजर को जाते हुए देखता रहा। उसका चेहरा एक बार फिर उस आदमी के चले जाने से दुखी हो उठा, जो उसकी बात समझ सकता था। उन लोगों की चिन्ता के किये बिना जो उसके विचित्र व्यवहार पर मनोरंजन कर रहे थे, । वह अपने मित्र की तबतक देखता रहा, जबतक कि वह कुछ ऊंची पहाड़ी पर बने होटल में उसकी आंखों से ओझल न हो गया।

अब एक दर्शक ने उस रूसी के कंधे पर दया-भाव से हाथ रक्खा और सराय के दरवाजे की ओर इशारा किया। सिर झुकाये वह उसे अस्थायी आवास में घुसा। उसे एक कमरा दिखा दिया गया और मेज पर बिठा दिया गया। उसे एक गिलास ब्रांडी दी गई। यहां उसने बड़ी बेचैनी में सबेरे का बाकी समय गुजारा। गांव के बच्चे बराबर खिड़की से उसकी ओर झांक रहे थे। वे हंसते थे और कभी-कभी उसकों जोर से पुकारते थे। लेकिन उसने परवा नहीं की। ग्राहक उत्सुकता से उसकी ओर देखते थे; लेकिन वह सारे समय शर्म और संकोच से मेज पर निगाह जगाये बैठा रहा। जब रात का खाना परोसा गया, तो कमरा हंसी-खुशी से बातें करते लोगों से भर गया। लेकिन वह रूसी उनकी बातचीत का एक शब्द भी नहीं समझ सका। इस अनुभूति से वह दुखी था। कि वह उन अजनबियों में एक अजनबी है। वह उन आदमियों के बीच गूंगे-बहरे की तरह था, जो मजे में अपनी बातें कर सकते थे। उसके हाथ इतने कांप रहे थे कि वह अपना शोरबा भी नहीं पी सकता था। एक आंसू उसके गाल पर होकर मेज पर गिर पड़ा। उसने कातर भाव से अपने चारों ओर देखा। मेहमानों ने उसकी वेदना को समझा। सारे समाज पर खामोशी छा गई। मारे शर्म के उसका सिर इतना झुक गया कि काली लकड़ी की मेज से सट गया।

शाम तक वह कमरे में रहा। लोग आये और चले गये, लेकिन न उसे उनका पता, चला और न उन्हें इसका। वह स्टोव की छाया में बैठा रहा। उसके हाथ मेज पर टिके रहे। उसकी मौजूदगी को हर कोई भूल गया। अचानक वह उठा और बाहर चला गया तब भी किसी का ध्यान उसकी ओर नहीं गया। मूक पशु की भांति वह भारी मन से पहाड़ी के होटल में गया और बड़ी विनम्रता से, टोपी हाथ में लिये, सदर दरवाजे के बाहर खड़ा हो गया। पूरे एक घंटे वह वहां खड़ा रहा, पर किसी ने उसे देखा तक नहीं। अंत में रोशनी में चमकते होटल के दरवाजे पर पेड़ के तने की तरह खड़े उस अजनबी आदमी पर एक बोझी की निगाह गई और वह मैनेजर को बुलाने चला गया। उस साइबेरियावार्स के चेहरे पर आंनद की लहर दौड़ गई, जब मैनेजर ने आकर प्यार से कहा:

"कहो, बोरिस, तुम्हें क्या चाहिए?"

"क्षमा... करिये" रूक-रूकक कर भगोड़े ने कहा, "मैं बस इतना जानना चाहता हूं। कि... आया मैं घर जा सकता हूं?"

"कल?"

मैनेजर गंभीर हो उठा। यह शब्द उसने इतनी दयनीयता मे साथ कहा था कि मैनेज की हंसी काफूर हो गई।

"नहीं बोरिस, अभी नहीं... जबतक युद्ध समाप्त न हो जाय तबतक नहीं।"

"कबतक? युद्ध कब समाप्त होगा?"

"भगवान जाने! कोई भी आदमी यह नहीं बात सकता।"

"क्या मुझे इतने दिन रुकना ही होगा? क्या मैं जल्दी नहीं जा सकता?"

"नहीं, बोरिस।",

"क्या मेरा घर बहुत दूर है?"

"हां।"

"कई दिन का सफर है?"

"हां, बहुत, बहुत दिनों का।"

"लेकिन मैं वहां पैदल जा सकता हूं। मैं बहुत मजबूत हूं। थकूंगा नहीं।"

"तुम ऐसा नहीं कर सकते, बोरिस!आगे एक सरहद और है, जिसे घर पहुंच से पहले तुम्हें पार करना होगा।"

"एक सरहद?" उसने हैरान होकर उसकी ओर देखा। यह शब्द उसकी समझने से परे था।

इसके बाद बड़े ही आग्रह से उसने आगे कहा, "मैं तैर कर वहां जा सकता हूं।"

मैनेजर मुश्किल से हंसी रोक पाया, लेकिन वह उसकी हालत से दूखी हो गया।

उसने धीरे-से कहा, "नहीं, बोरिस, तुम ऐसा नहीं कर पाओगे सरहद का मतलब होता है दूसरा देश। वहां के लोग तुम्हें उस देश से नहीं गुजरने देगें।"

"लेकिन मैं उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाऊंगा। मैंने अपनी बंदूक फेंक दी है। वे क्यों मुझे अपनी स्त्री के पास जाने की इजाजत देने से इन्कार कर देगें, जबकि मैं ईस के नाम पर गुजरने की प्रार्थना करुंगा?"

मैनेजर का चेहरा और भी गंभीर हो गया। उसकी आत्मा बेचैन हो गई।

"नहीं", उसने कहा, "वे तुम्हें नहीं जाने देंगें, बोरिग, ईसा के नाम पर भी नहीं आदमी अब ईसा के शब्द नहीं सुनते।"

"लेकिन मैं अब क्या करुं? मैं यहां नहीं रह सकता। मैं क्या कहता हूं। कोई नहीं समझता, न मैं लोगों की बात समझता हूं।"

"तुम कुछ ही दिनों उनकी बात समझना सीख लोगे।"

"नहीं, " उसने सिर हिलाया, "मैं कभी नहीं सीख पाऊंगा। मैं धरती जोत सकता हूं और कुछ नहीं कर सकता। यहां मैं क्या करुंगा? मैं घर जाना चाहता हूं। मझे कोई रास्ता बता दो।"

"कोई रास्ता नहीं हैं, बोरिस।"

"लेकिन वे लोग मुझे अपनी स्त्री-बच्चे के पास वापस जाने से नहीं रोक सकते अब मैं सैनिक नहीं हूं।"

"ठीक हैं, बोरिस, पर वे रोक सकते है।"

"लेकिन जार? वह जरुर ही मेरी मदद करेगा।" यह विचार अचानक उसके मन में आया था। आशा से वह थरथर कांपने लगा और जार का नाम उसने बड़े आदर से लिया।

" बोरिस, अब जार नहीं रहा। उसे गद्दी से उतार दिया गया।"

"अब जार नहीं है?" उसने शून्य आंखों से मैनेजर की ओर देखा। आशा की आखिरी किरण भी लुप्त हो गई थी। उसकी आंख से भी चमक जाती रही। उसने पस्त होकर कहा, "अच्छा, तो मैं घर नहीं जा सकता?"

"अभी नहीं, बोरिस तुम्हें रुकना होगा।"

"क्या बहुत दिन तक?"

"मैं नहीं जानता।

अधंकार में वह चेहरा और भी निराशा हो गया।

"मैं इतने दिन रुका रहा हूं। अब मैं और अधिक कैसे रुक सकता हूं? मुझे रास्ता बता दो। मैं कोशिश करुंगा।"

"बोरिस, रास्ता कोई भी नहीं है। वे तुम्हें सरहद पर गिरफ्तार कर लेगें तुम यहीं रहो। हम तुम्हारे लिए कुछ काम खोज देंगे।"

"यहां लोग मेरी बात नहीं समझते, मैं उनकी बात नहीं समझ सकता।" उसने टूटे शब्दों में कहा, " मैं यहां नहीं रह सकता। मेरी मदद कीजिये।"

"मैं कुछ नहीं कर सकता, बोरिस।"

"ईसा के नाम पर मेरी मदद कीजिये, नहीं तो मेरे लिए कोई उम्मीद नहीं है।"

"मैं तुम्हारी मदद नहीं कर सकता, अब आदमी एक-दूसर की मदद नहीं कर सकता।"

वे दोनो एक-दूसरे की ओर ताकते खड़े रहे। बोरिस अपनी उंगलियों के बीच टोपी को मरोड़ता रहा।

"वे मुझे घर से क्यों ले गये थे? उन्होंने कहा था कि मुझे रुस के लिए और का उन्होंने क्या किया है?"

"उन्होंने उसे गद्दी से उतार दिया है।"

"गद्दी से उतार दिया है?" उसने रुखाई से इन शब्दों को दोहराया, "लेकिन मैं अब क्या करुं? मुझे जरुर घर जाना है। मेरे बच्चे मेरे लिए बिलख रहे होंगे। मैं यहां नहीं रह सकता कृपा करके मेरी मदद कीजिये।"

"मैं कुछ नहीं कर सकता, बोरिस।"

"कोई भी मेरी मदद नहीं कर सकता।

"नहीं।"

रुसी ने और भी दुखी होकर अपना सिर झुका लिया। अचानक उसने मंद स्वर में कहा:

"धन्यवाद!" इतना कहकर वह मुड़ा और चल दिया।

धीरे-धीरे वह पहाड़ी के नीचे उतरा। मैनेजर उसे जाते देखता रहा। उसे यह देखकर अचरज हुआ कि वह सराय में क्यों नहीं गया, झील को जाने वाले रास्ते पर आगे बढ़ गया। एक आह भरकर वह बेचारा रहमदिल दुभाषिया मैजेजर होटल में अपने काम पर चला गया।

संयोग से उसी मछुवे को, जिसने उस जिन्दा साइबेरिया के निवासी को बचाया था, दूसरों के पहनाये कोट और पतलून की तह करके टोपी के साथ किनारे पर रख दिये थे और पानी में कूद पड़ा था, ठीक वैसे ही निर्वस्त्र जैसे कि वह पानी में से निकला था।

चूंकि उस परदेशी का नाम कोई नहीं जानता था। इसलिए उसका स्मारक तो बन नहीं सकता था। उसकी समाधि पर बस बिला नाम का लकड़ी का एक सलीब लगायाजा सकता था।