धर्मवीर भारती / परिचय

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जीवन

गम्भीर पत्रकारिता के मानक निर्धारक डॉ0 धर्मवीर भारती

हिन्दी के यशस्वी लेखक सम्पादक डॉ0 धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसम्बर सन् 1926 में तत्कालीन यूनाइटेड प्राविन्स की राजधानी जनपद इलाहाबाद में हुआ था । जन्म प्रयाग में हुआ और शिक्षा प्रयाग विश्वविद्यालय में; प्रथम श्रेणी में एम ए करने के बाद डॉ धीरेन्द्र वर्मा के निर्देशन में सिद्ध साहित्य पर शोध प्रबंध लिखकर पी एच डी की डिग्री प्राप्त की। डा. भारती की शिक्षा-दीक्षा और काव्य-संस्कारों की प्रथम संरचना प्रयाग में हुई। उनके व्यक्तित्व और उनकी प्रारंभिक रचनाओं पर पंडित माखनलाल चतुर्वेदी के उच्छल और मानसिक स्वच्छंद काव्य संस्कारों का काफ़ी प्रभाव है।

इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ही शिक्षा ग्रहण की और वहीं अध्यापन कार्य में लग गये। १९४८ में 'संगम' सम्पादक श्री इलाचंद्र जोशी में सहकारी संपादक नियुक्त हुए। दो वर्ष वहा काम करने के बाद हिंदुस्तानी अकादमी अध्यापक नियुक्त हुए। सन् १९६० तक कार्य किया। प्रयाग विश्वविद्यालय में अध्यापन के दौरान 'हिंदी साहित्य कोश' के सम्पादन में सहयोग दिया। 'निकष' पत्रिका निकाली तथा 'आलोचना' का सम्पादन भी किया। उसके बाद 'धर्मयुग' में प्रधान सम्पादक पद पर बम्बई आ गये। १९८७ में डॉ भारती ने अवकाश ग्रहण किया। १९९९ में युवा कहानीकार उदाय प्रकाश के निर्देशन में साहित्य अकादमी दिल्ली के लिए डॉ भारती पर एक वृत्त चित्र का निर्माण भी हुआ है। वे विभिन्न पत्र पत्रिकाओं से जुडे परन्तु टाइम्स समूह के प्रकाशन ‘धर्मयुग’ से जुड़कर इन्होंने गम्भीर पत्रकारिता के ऐसे मानक निर्धारित किये जो अद्वितीय हैं इन्होंने कविता , उपन्यास, कहानी , निबंध आलोचना , रिपोर्ताज और नाटक आदि विधाओं में लिखकर साहित्य के क्षेत्र में राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है।

यूँ तो उनकी सभी कृतियाँ अद्वितीय हैं परन्तु उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय कृति उपन्याय ‘गुनाहों का देवता / धर्मवीर भारती है जिसके संबंध में कहा जाता है कि सत्तर के दशक की एक पूरी पीढ़ी इसे पढ़कर ही जवान हुयी है। इनका प्रथम काव्य-संग्रह 'ठंड़ा लोहा' और प्रथम उपन्यास 'गुनाहों का देवता' अत्यंत लोकप्रिय हुए।

इनकी प्रमुख रचनाऐं निम्न प्रकार हैंः-

प्रमुख कृतियां

    • कहानी संग्रह : मुर्दों का गाव स्वर्ग और पृथ्वी चाद और टूटे हुए लोग बंद गली का आखिरी मकान सास की कलम से सम्स्त कहानियाँ एक साथ
    • काव्य रचनाएं : ठंडा लोहा, अंधा युग, सात गीत, वर्ष कनुप्रिया, सपना अभी भी, आद्यन्त
    • उपन्यास: गुनाहों का देवता, सूरज का सातवां घोड़ा, ग्यारह सपनों का देश, प्रारंभ व समापन
    • निबंध : ठेले पर हिमालय, पश्यंती

साँस की कलम से, मेरी वाणी गैरिक वसना, कनुप्रिया,सात गीत वर्ष, ठण्डा लोहा, सपना अभी भी, सूरज का सातवाँ घोड़ा, बन्द गली का आखिरी मकान, पश्यन्ती, कहनी अनकहनी, शब्दिता, अन्धा युग, मानव मूल्य साहित्य और गुनाहों का देवता, इसके अतिरिक्त उन्होंने प्रयोग के स्तर पर 'सूरज का सातवां घोड़ा' नामक एक सर्वथा नये ढंग का उपन्यास लिखा। 'चांद और टूटे लोग' तथा 'बंद गली का आखिरी मकान' उनके दो कथा-संग्रह हैं।

ठण्डा लोहा में भारती जी ने जीवन के फलक की व्याख्या करते हुये लिखा है-

‘जीवन है कुछ इतना विराट

इतना व्यापक,

उसमें है सबके लिये जगह,

सबका महत्व’


पत्नी पुष्पा भारती जी को लिखे उनके पत्र अमूल्य साहित्यिक धरोहर है।

१९७२ में पद्मश्री से अलंकृत डा धर्मवीर भारती को अपने जीवन काल में अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए जिसमें से प्रमुख हैं.

१९८४ हल्दी घाटी श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार महाराणा मेवाड़ फाउंडेशन १९८८ र्वश्रेष्ठ नाटककार पुरस्कार संगीत नाटक अकादमी दिल्ली १९८९, भारत भारती पुरस्कार उत्तर प्रदेश, हिन्दी संस्थान १९९०, महाराष्ट्र गौरव, महाराष्ट्र सरकार १९९४, व्यास सम्मान के के बिड़ला फाउंडेशनभारती जी को पद्मश्री , व्यास सम्मान के अतिरिक्त अन्य अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों भी अलंकृत किया गया। साहित्यकारों को दिये जाने वाले सम्मानो के सम्बन्ध में भारती जी का नजरिया मई 1988 में ‘कादम्बिनी’ में प्रकाशित उनके एक लेख में इस प्रकार प्रकट हुआ हैः-

‘मैं सम्मान को एक अलग नजरिये से देखता हूँं। क्या सम्मान एक व्यक्ति का सम्मान होता है? नहीं, मेरा मानना है कि व्यक्ति, चाहे मैं होऊं या कोई और, व्यक्ति केवल प्रतीक है। असल में सम्मान ते उस सृजन -धर्मिता का है, जो आज अनेक दबावों और सृजन-विरोधी परिस्थितियों के जाल में फंसी है, लेकिन फिर भी अपने पंख फैलाकर मनचाही उड़ान भरने के लिये आतुर है। उड़ पाऐ या न उड़ पाऐ पर अपने कमजोर पंखों से आसमान नाप लेने की उसकी तड़प जिंदा है। सचमुच , सृजन की उस तड़प का ही सम्मान होता है।’

, सृजन-धर्मिता से साहित्य का आसमान नाप लेने की तड़प रखने वाले इस महान साहित्यकार ने 4 सितम्बर 1997 को मुम्बई में आखिरी साँस ली परन्तु सृजन-शीलता की जिस पाठशाला को उन्होंने आरंभ किया था वह भौतिक संसार में उनकी अनुपस्थिति के बाद भी गतिमान है।

आलेखः-अशोक कुमार शुक्ला