धर्म बनाम परंपरा / सिद्धार्थ सिंह 'मुक्त'

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धर्म बनाम परंपरा धर्म और परम्परा का तुलनात्मक विवेचन करना कठिन है किन्तु करना आवश्यक हो गया है क्योंकि अधिकांश लोग परम्पराओं को ही धर्म समझ लेते हैं।धर्म और परंपरा की तुलना करना क्यों कठिन है? क्योंकि दोनों में कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है।परंपरा धरती है तो धर्म आकाश है और यदि परम्परा पुष्प है तो धर्म सुगंध है।अब धरती की तुलना मंगल या शुक्र से की जा सकती है कि कौन बड़ा कौन छोटा? कौन गरम कौन ठंडा? परन्तु आकाश से धरती की तुलना कैसे करें? गुलाब की तुलना कमल से हो सकती है परन्तु सुगंध से कैसे तुलना करेंगे? धर्म और परंपरा के विषय में भी यही सत्य है।धर्म सूक्ष्म है और परंपरा स्थूल।परम्परा कुछ संस्कारों और विचारों का जोड़ है जबकि धर्म विचारों के पार है। कई शताब्दियों से धर्म को सम्प्रदाय अथवा कुछ विशिष्ट परम्पराओं के समूह के रूप में प्रचारित किया जाता रहा है इससे सावधान रहने की आवश्यकता है। धर्म संप्रदाय नहीं है। धर्म वह सार्वभौमिक और रहस्यमयी नृत्य है जो ब्रह्मांड के कण कण में संलग्न है।गौतम बुद्ध ने धर्म को उन अंतर्संबंधित तत्वों का मूल कहा जो अनुभवजन्य विश्व का निर्माण करते हैं।महावीर ने धर्म को शाश्वत वस्तु (द्रव्य) का एक सहायक माध्यम माना है जो मनुष्य को आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।

आजकल समाज में एक ऐसा वर्ग तैयार हो रहा है जो स्पष्ट रूप से कहता है कि धर्म एक पाखंड और अंधविश्वास है जो समाज को विभाजित करने और द्वेषपूर्ण बनाने का काम करता है।ये सत्य है कि धर्म के नाम पर सदियों से शोषण होता आया है किन्तु क्या ये निष्कर्ष कि, 'धर्म एक पाखंड और अंधविश्वास है', सही है? आईये एक उदाहरण लें।राजनीति के संबंध में धारणा है कि ये षडयंत्र, शोषण और भ्रष्टाचार की एक व्यवस्था है।क्या ये धारणा सत्य है? अथवा ऐसा है कि भ्रष्ट मानसिकता वालों ने इसकी बागडोर संभाल ली है इसलिए ऐसा प्रतीत होता है? राजनीति तो वो व्यवस्था है जिसके माध्यम से राजनीतिज्ञ समाज की समस्याओं का समाधान करके लोगों का सर्वांगीण विकास करने का प्रयास करता है।राजनीति ऐसे लोगों के लिए है जो साहसी, दूरदर्शी, समाजसेवी और संवेदनशील व्यक्तित्व वाले हों।परन्तु कायर, अदूरदर्शी, स्वार्थी और क्रूर लोगों ने राजनीति पर अधिकार कर लिया है इसलिए ये दुर्घटना घटी कि राजनीति के विषय में नकारात्मक धारणा बनी।ठीक ऐसी ही दुर्घटना धर्म के साथ भी घटी है।धर्म न तो अन्धविश्वास है, न किसी शोषण का उपक्रम और न ही कोई प्रवंचना।कुछ अत्यंत साहसी मनुष्य होते रहे हैं जिन्होंने जीवन को उसके शुद्धतम रूप में जानने के लिए समाज में प्रचलित सभी धारणाओं को छोड़ दिया था और धारा के विपरीत बहने का साहस किया था।उन्होंने जीवन के रहस्य को समझने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया और तब उन्हें जो अनुभूति हुई उसे संसार से साझा किया।किन्तु दुर्भाग्यवश उनकी मृत्यु के पश्चात् कुटिल लोगों ने उनके नाम पर अपना व्यापार चलाना आरम्भ कर दिया और उनके कथनों की अपने लाभ के लिए अपने ढंग से व्याख्या की।धर्म एक गहरी अनुभूति है, कोई अंधविश्वास नहीं।अन्धविश्वास तो एक मानसिक कायरता है और कायरों का धर्म में कोई स्थान ही नहीं। धर्म की आलोचना इस आधार पर हो रही है कि कुछ प्राचीन पुस्तकों में ऐसे तथ्य लिखे हैं जो आज गलत सिद्ध हो चुके हैं, आउटडेटेड हैं, या अजीबो-गरीब हैं जो तार्किक मालूम नहीं पड़ते, जैसे- धरती का चपटा होना, कबूतर से चिट्ठी भेजना, क़यामत का दिन, स्वर्ग का प्रलोभन, नरक का डर आदि।परन्तु भला इनका धर्म से क्या संबंध? ये तो उस समय के लोगों के अनुमान थे। अनुमान तो आज भी लगाये जाते हैं कि विश्व की आयु कितने अरब वर्ष है? तारों का निर्माण कैसे हुआ होगा? धरती के अलावा कौन से ग्रह पर जीवन हो सकता है? एक मनुष्य के शरीर में अन्य जीवों की विशेषताएं कैसे आ सकती हैं? आदि।अब अनुमानों को धर्म समझना कहाँ तक उचित है? वैसे भी आज धरती के इलिप्स्वायड होने का पता हम इसलिए लगा सके क्योंकि हमारे पूर्वजों ने धरती के आकार के बारे में अनुमान लगाने का पहला कदम उठा दिया था, अन्यथा आज वो काम, यानी धरती के चपटे होने का अनुमान, हम कर रहे होते।

किन्तु इन सबका धर्म से क्या संबंध?

चाहे धरती गोल हो या चपटी, चाहे संदेश कबूतर ले जाये या इंटरनेट, मनुष्य दुखी है। इसी दुख का कारण जानने और इसका समाधान खोजने समय-समय पर कुछ साहसी लोग निकलते रहे हैं। अपने गहन अनुभव से उन्होनें दुख का मूल कारण खोजा और ध्यान तथा प्रेम की मानसिक अवस्थाओं द्वारा समाधान का मार्ग भी दिया। और यह भी स्पष्ट किया उनकी कही बातें धर्म नहीं हैं अपितु धर्म के अनुभव के मार्ग में एक छोटी सी सहायता भर हैं क्योंकि धर्म को केवल स्वयं अनुभव किया जा सकता है, किसी सिद्धांत से नहीं।स्वयं को बुद्धिजीवी और नास्तिक कहने वाले लोग शब्दों से भरी पुस्तकों के आधार पर धर्म की आलोचना किये जाते हैं परन्तु धर्म शब्दों में नहीं होता ही नहीं।नास्तिक पूछते हैं कि कुछ भी शाश्वत कैसे हो सकता है? मैं कहता हूँ कि दुख का कारण अर्थात 'वस्तु के साथ स्वयं को बांध कर रखना' और उसके निवारण पर होने वाली अनुभूति का स्वाद कल भी वही था और आज भी वही है।इसलिए धर्म शाश्वत है।संतों ने इसी बात को बार बार कहा है कि धर्म (अर्थात वो स्वाद) शाश्वत है लेकिन इसी को इस भांति प्रचारित किया जाने लगा कि पुरातन किताबों में लिखी अटकलें शाश्वत हैं।ये समझ लेना अति आवश्यक है कि धर्म की न कोई किताब है और न ही कोई पाठ्यक्रम।

यदि मैं आपको हाथ जोड़कर प्रणाम करूँ तो संभव है कि 'हाथ जोड़ने के दृश्य' को ही लोग सम्मान समझ लें।ऐसे लोगों को अपने चतुर्दिक विभिन्न प्रकार के 'सम्मान' दिखाई देने लगेंगे क्योंकि सम्मान व्यक्त करने की कई परिपाटियाँ हो सकती हैं।संभव है कि लोग वाद-विवाद करें कि कौन सी परिपाटी श्रेष्ठ है? बात बढ़ सकती है और मार-पीट की स्थित आ सकती है, गोलियां भी चल सकती हैं।तब कोई समाज सुधारक उठ खड़ा होगा और कहेगा कि 'सम्मान' इस समाज के लिए विष है।वो कहेगा कि देखो सम्मान के कारण कितना द्वेष उत्पन्न हुआ, कितने कितना उपद्रव हुआ! वो लोगों से सम्मान का बहिष्कार करने का आह्वान करेगा।कुछ लोग उसके अनुयायी बन जायेंगे और सम्मान करना छोड़ देंगे।

परन्तु क्या इस सब उपद्रव का कारण सम्मान था?

नहीं।सम्मान को तो लोग समझे ही नहीं।सम्मान प्रकट करने की परिपाटी सम्मान नहीं थी।जीवन में जो भी बहुमूल्य है वो अप्रकट ही होता है और उसे अनुभव करने के लिए प्रकट के पीछे झाँकने की दृष्टि चाहिए।सम्मान भी प्रकट परिपाटी के पीछे छिपी भावना है जो अप्रकट है।परिपाटी कोई भी हो वो पीछे उपस्थित है।जिन बातों पर लोग लड़ गए वो तो बस बाह्य अभिव्यक्ति थी।लेकिन मनुष्य ने अपनी समझ और विवेक की कमी के कारण 'सम्मान' को ही दोषी ठहरा दिया।इसी भांति धर्म भी एक अनुभूति है जिसके कोई प्रकार नहीं होते।धर्म के नाम पर विवाद, युद्ध और शोषण के कृत्य धर्म के अनुभव से भरे लोगों ने नहीं किये अपितु उन लोगों ने किये जिन्होंने परम्पराओं को ही धर्म समझ लिया।परन्तु जिस प्रकार किसी अयोग्य चिकित्सक द्वारा औषधि के स्थान पर विष देने से जीव विज्ञान की महत्ता पर आंच नहीं आती है उसी प्रकार किसी के द्वारा धर्म के नाम पर मूर्खतापूर्ण विचार व्यक्त करने अथवा अनुचित कृत्य करने से धर्म की गरिमा भी कम नहीं होती।जीव विज्ञान को समझना हो या इसकी समालोचना करनी हो तो हमें वाटसन, क्रिक या अलेक्जेंडर फ्लेमिंग जैसे जीव वैज्ञानिकों के सिद्धांतों को आधार बनाना होगा, हम किसी अयोग्य चिकित्सक की अक्षमता को जीव विज्ञान के झूठे होने का प्रमाण नहीं मान सकते। धर्म के विषय में भी कुछ ऐसा ही है। धर्म की आलोचना करने के लिए मूर्खों दवारा बनाई सामाजिक परंपराओं को अपना आधार न बनाओ। यदि धर्म को समझना है तो बुद्ध, कृष्ण, कबीर, फरीद, लाओत्से जैसे संतो को आधार मानना होगा।

परमाणु ऊर्जा से बम बना लेने पर ये नहीं सिद्ध होता कि परमाणु ऊर्जा विध्वंसक है, हाँ ये अवश्य सिद्ध होता है कि मनुष्य विध्वंसक है।परमाणु ऊर्जा से बिजली भी बन सकती है। ध्यान रहे कि मनुष्य पात्र है, पात्र गन्दा होगा तो इसमें जो भी आयेगा गन्दा हो जायेगा। ज्ञान आयेगा तो विध्वंस बन जायेगा और धर्म आयेगा तो शोषण बन जायेगा। लेकिन मनुष्य स्वयं को दोष नहीं देना चाहता। कुछ विज्ञान के विरोधी हैं वो चिल्लाते हैं कि विज्ञान से दुनिया नष्ट होने की स्थिति में आ गई है क्योंकि विज्ञान से परमाणु विस्फोटक बनाए जा रहे हैं।परन्तु सच तो ये है कि मनुष्य हिंसक है इसलिए विस्फोटक बना रहा है।जब बम बनाने की तकनीकी नहीं थी तब धनुष बाण और तलवार बनाता था।जब केवल पत्थर थे पास तो पत्थर फेंक कर मारता था, आज मिसाईल है तो उसे फेंक कर मारता है और कल कुछ और होगा तो उसे भी फेंकेगा मारने के लिए।दूसरी ओर धर्म के विरोधी चिल्लाते हैं कि धर्म के कारण सब बंटे हुए हैं, भेदभाव है, अंधविश्वास है आदि आदि। पर कोई ध्यान नहीं देता कि समस्या मनुष्य में है। हम वर्गो में रहना पसंद करते हैं इसलिए बंटे हैं, हिंदू, मुस्लिम ये वर्ग समाप्त हो जाये तो कोई और वर्ग बना लेंगे- तभी तो हिंदू के भीतर कई जातियां बन गई फिर उनकी उपजातियाँ बनी और अब उपजातियों की भी उपजातियां बन रही हैं। जैसे- हिंदू का एक वर्ग शूद्र, शूद्र का एक उपवर्ग दलित और अब उसका भी उपवर्ग महादलित निर्मित हो रहा है। अतः मनुष्य की मूर्खता का दोष उन महान सत्यों पर मढ़ना उचित नही जिनका अन्वेषण हम विज्ञान के अंतर्गत और अनुभव धर्म के अंतर्गत करते हैं।

परंपरायें विभिन्न मार्ग हैं जिनका निर्माण भिन्न भिन्न समाजों ने अपनी समझ के आधार पर इस उद्देश्य से किया है कि मनुष्य सुचारू रूप से जीवन जीते हुए धर्म को उपलब्ध हो सके।परन्तु दुर्भाग्य से परम्पराएँ न केवल मनुष्य-मनुष्य के मध्य बाधा हैं अपितु मनुष्य और धर्म के मध्य की भी प्राचीर हैं।यूँ समझना चाहिए जैसे धरती पर रेंगने वाला सोचे कि मैं धरती से भी चिपका रहूँ और आकाश में भी उड़ने लगूं तो ये संभव नहीं है।आकाश में उड़ने के लिए धरती को नीचे छोड़ना ही होगा।पर मनुष्य जीवन भर परम्पराओं में जकड़ा हुआ, अपनी परम्परा को श्रेष्ठ और अन्य को हीन सिद्ध करने के प्रयास में लगा रहता है और इस प्रकार धर्म से वंचित रह जाता है।