धानी चूनर / मंजरी शुक्ला

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हमेशा की तरह अपने दस बाई दस के रूम में बैठा हुआ पुरानी मैगज़ीन को सुबह से पाँचवी बार पढ़ रहा था और हर बार पता नहीं कैसे उसमें से एक नई खबर चुपके से निकल कर आ जाती थी मानों मेरे भाग्य के साथ-साथ इस मैगज़ीन ने भी मुझसे लुका छिपी करने की सोची हो I

बार बार उन्हीं नन्हें-नन्हें काले अक्षरों के बीच से गुज़रते हुए भी मेरी आँखें तो थक रही थी पर मन था कि जैसे अथाह जलराशि में डूबते और उतराते हुए भी अपनी कल्पनाएँ बुन रहा था I पता नहीं मन इतना चंचल क्यों होता है हम उसको मजबूती से पकड़ने की पूरी कोशिश करते है, पर वह हँसता हुआ यादों के पंख लगाए उड़ता ही जाता हैं और उसे पकड़ते हुए रोकने के लिए उसके पीछे घिसटने पर भी सिवा दर्द और तकलीफ के कुछ हासिल नहीं होता, क्योंकि वह नहीं रुकता...जैसे ही उसे बांधों उसके विशाल पंख पूरे आकाश में चा जाते है और वह जोरों से हँसता हुआ आगे उड़ने लगता है और हम अपनी यादों की धुंध में लिपटे हुए उसके पीछे दौड़ते रहते है...एक अंतहीन यात्रा ...ज़िंदगी का सारा गणित मुझे न जाने कितनी बार महसूस हुआ कि सिर्फ़ और सिर्फ़ मन का ही है...इसी तरह की उलझनों में फंसा हुआ में लाख कोशिश करने के बाद भी किसी भी काम में अपना मन नहीं लगा पा रहा था, क्योंकि आज मेरा सिविल सर्विसेस की मुख्य परीक्षा का रिज़ल्ट आना था तभी अचानक दरवाज़े पर दस्तक हुई

खनकती चूड़ियों की आवाज़ मेरे कानों में मुझे किसी मंदिर की घंटियों की मधुर झंकार-सी महसूस हुई और कोई दिन होता तो मैं दरवाज़ा खोलने के लिए बेकरार हो उठता पर आज तो जैसे दिल, दिमाग और शरीर तीनों ने ही काम करना बंद कर दिया था वरना क्या ऐसा हो सकता था कि मकान मालिक की बेटी राधा... इस नितांत अपरिचित शहर में मेरी एकमात्र हमदम...मेरी हमउम्र दोस्त और मेरे सपनों की शहज़ादी मुझे बुलाने आये और मैं उसे देखने में पल भर की भी देर लगाऊँ

मैं अपने ही ख्यालों में गुम था कि अचानक दोबारा चूड़ियों की खनखनाहट सुनकर जैसे मैं नींद से जागा

मैं बदहवास-सा दरवाज़े की ओर भागा और झटके से मैंने चिटकनी खोल दी

गर्म हवा के भभके से मेरा मुँह जैसे सुलग उठा

जलते हुए सूरज की तपिश में लरजती सूनी सड़क मानों आज किसी परछाई को ना पाकर प्रतीक्षारत थी

मैंने झट से दरवाज़ा बंद करते हुए थोड़ा गुस्से से कहा-इस दोपहरी में तुम नंगे पैर दौड़ी चली आ रही हो...कहीं तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है I

राधा तुरंत अंदर आकर धम्म से बिस्तर पर बैठ गई और अपने तलवों पर हाथ रखकर मेरी तरफ देखने लगी

राधा का गोरा चेहरा सुर्ख लाल होकर तमतमा गया था और वह पसीने से तरबतर थी I

मेरी बात पूरी होने से पहले ही राधा उसकी धानी रंग की् चुनरी से चेहरा पोंछते हुए मुस्कुराते हुए बोली-राहुल, रिज़ल्ट आया है तुम्हारा ...उसी परीक्षा का...।जिसकी तैयारी में तुमने आँखों को लालटेन बनाकर दिन रात जलाया है I और कोई दिन होता तो शायद उसकी इस उपमा पर मैं दिल खोलकर हँसता पर आज तो जैसे उसके हाथ में लिफ़ाफ़ा देखकर मैं चेतना शून्य हुआ जा रहा था और एकटक उसकी ओर ताकता ही चला जा रहा था

मुझे यूँ घूरते देख वह थोड़ी-सी असहज हो गई और अपनी चुन्नी सँभालते हुए बोली-अब ये आखें फाड़-फाड़ कर मुझे देखते ही रहोगे या हीरा हलवाई की चाशनी में डूबी हुई जलेबियाँ भी खिलाओगे I

उसके इस एक वाक्य से जैसे मेरे अंदर कोई भूचाल-सा आ गया I

भावातिरेक में मैंने उसका हाथ पकड़ा और जब मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया तो मैंने उसका हाथ अपने दिल पर रख दिया और कहा-देखो, मेरा दिल कितनी ज़ोरो से धड़क रहा है

धत, कहते हुए राधा शर्माती हुई हौले से मुस्कुराई और लिफ़ाफ़ा मेरे पलंग पर ही छोड़ कर हिरणी-सी कुचालें भर हुए भाग गई I

उसे आज पहली दफ़ा मैं चाहकर भी नहीं रोक सका ...शायद उसके आगे कमज़ोर नहीं दिखना चाहता था

डबडबाई आखों और काँपतें हाथों से मैंने वह लिफ़ाफ़ा उठाया, मेरे हाथ लगातार काँप रहे थे I आज इतने वर्षों में पहली बार बचपन का सुना मुहावरा चरितार्थ हो आया था ......मास्टरजी के कई बेंत पड़ने के बाद भी कभी "जिस तन लगे वही तन जाने" जो कभी याद ही नहीं हुआ था वह आज इस तरह से याद आएगा कभी कल्पना भी नहीं की थी मैंने ...लिफाफे के अंदर से झांकते अखबार के पुर्जे को मैंने धीरे से निकाला ...दो भाग में कागज़ को सीधा करना जैसे मुझे कई युगों के सामान लग रहा था

अख़बार के खुलते ही मेरी नज़र मज़मून पर पड़ी ...सामने लाल स्याही के अंदर मेरा रोल नंबर था...में राधा के प्यार के आगे नतमस्तक हो उठा और धम्म से पलंग पर बैठ गया ...ख़ुशी के मारे समझ में ही नहीं आ रहा था कि जीवन के सबसे बड़ी उपलब्धि किसके साथ साझा करू ...दुःख और सुख दोनों ही सिक्के के दो पहलू हैं पर उनके अनुभव बांटने के लिए सही व्यक्ति का मिलना बहुत ज़रूरी होता है

पर मैं वाकई खुशनसीब हूँ क्योंकि राधा शायद मुझसे भी कहीं ज़्यादा खुश थी, वरना ज्येष्ठ की भरी दुपहरी में पगली नंगे पैर दौड़ी चली आई I इसका मतलब वह मुझसे प्यार करती है, मैं भी तो उससे कितना प्यार करता हूँ, अचानक बाबूजी का ध्यान आया...बाबूजी को तो अपने रिज़ल्ट के बारे में बताऊँ ...पर कैसे बताऊँ...फोन करने में जितने पैसे खर्च होंगे उतने में तो बस का किराया लगाकर गाँव ही पहुँच जाऊँगा

जब भी पड़ोस वाली चाची के घर फ़ोन करो तो वह कभी काटने नहीं देती बल्कि होल्ड पर ही रखवाती है अगर गलती से मीटर की रफ़्तार देखकर फोन काट दो तो फ़ोन का तार निकालकर कहती है फ़ोन खराब हो गया और फिर कई दिन तक बात नहीं करवाती ...बाबूजी सब समझते है...पर आज के ज़माने के हिसाब से उनके दो सबसे बड़े दुर्गुण है...पहला सज्जनता और दूसरी गरीबी...जिसके चलते वे चाची के हाथों में फोन का तार देखकर भी हमेशा आँखें पोंछते हुए सिर झुकाकर चले जाते

बाबूजी की याद के साथ ही उनके झुर्रीदार चेहरे पर चश्मे के मोटे फ्रेम से पीछे झाँकती दो उदास आखों ने मुझे अंदर तक भिगो दिया और मेरा हाथ तुरंत कुर्ते की जेब में तेज़ी से चला गया ...पर उँगलियों ने कुछ सिक्कों को पहचान कर जैसे मेरी गाँव जाने की उम्मीद पर घड़ों पानी फेर दिया

मैंने बैचेनी से पूरा कमरा तलाशना शुरू कर दिया

कभी किसी पुस्तक के पन्नों के बीच में, कभी गद्दे के नीचे और कभी माँ की तरह टाढ़ में रुपया या पैसा खोस देना मेरी पुरानी आदत थी...

मैं हमेशा अपने पैसे छुपा देता हूँ क्योंकि बाद में जब अचानक ही एक दो या दस रुपये का नोट मिले तो ऐसा लगे कि मेरे हाथ जैसे कोई छिपा हुआ खज़ाना लग गया हो...तभी बाबूजी की कही बात याद आ गई, जो वे अधिकतर मेरे एक या दो रुपये पाने की ख़ुशी को देखकर कहते ...वे कहते थे...बिटवा ...ख़ुशी का पैसा भी अलग होता है...तुम एक रुपये में सारा गाँव नाच रहे हो और अमीर का बिटवा सौ रुपये सुनकर जम्भाई भी ना ले

मै ऊँगली से गिनना शुरू करता पर सौ का नोट मेरी नन्ही हथेली के साथ-साथ मेरी किस्मत से भी बहुत बड़ा था, इसलिए मैं हँसता हुआ अपनी पतंग और माँझा लेकर दोस्तों के साथ दौड़ता हुआ खेतों में जाकर पतंग उड़ाता ...तभी मुट्ठी भर जाने पर लगा कि अब गिन कर तो देख लू पूरा किराया हुआ भी या नहीं...पर आज मेरे इस ख़ज़ाने में केवल तीस रुपये थे

जब हल्का-सा सर घूमता महसूस हुआ तो याद आया सुबह से चिंता के मारे कुछ खाया ही नहीं था

मैं हिसाब जोड़ने लगा ...छह रुपये की चाय और अगर समोसा भी खाता हूँ तो पांच रुपये से क्या कम आएगा ...दो समोसे तो कम से कम इतने बड़े शरीर को चाहिए ही, इसका मतलब दस रुपये और छह रुपये...कुल मिलाकर हुए सोलह रुपये ...बस का किराया सत्रह रुपये मतलब टोटल हुए-३३ रुपये...और मेरे पास तो सिर्फ़ तीस ही रुपये है...कोई बात नहीं, मैं एक ही समोसा खा लूँगा...गाँव पहुंचकर बाबूजी खाना बना देंगे

माँ के ना रहने पर सालों से बाबूजी ने ही तो बाहर के साथ-साथ घर का चूल्हा भी सँभाल लिया था...आँखों में मोतियाबिंद होने के कारण बेचारे सूखी और गीली लकड़ी में भेद ना कर पाते और खाँसते-खाँसते बेदम हो जाते...उन्हें पानी देता हुआ मैं उनसे पूछता-बाबूजी...चाची कहती हैं, तुम्हारी आखँ में तारा टिमटिमाता हैं, इस कारण तुम्हें सब धुंधला दिखता हैं...और उसका ऑपरेशन करवाने के बाद तुम्हें सब अच्छे से दिखने लगेगा, तो तुम क्यों नहीं करवा लेते ऑपरेशन

बाबूजी कहते-तू ही तो है मेरी आखों का तारा और मुझे सीने से लगा लेते

मै कुर्ते की आस्तीन से आँसूं पोंछता हुआ उठ खड़ा हुआ, तभी राधा दरवाज़े से अंदर आती दिखाई दी...साफ़ सुथरे सफ़ेद कपड़े से ढकी थाली भी घी में बघारीं दाल और बैंगन के भरते की ख़ुशबू रोक नहीं पा रही थी

वो बोली-खाना खा लो फिर चले जाना...मेरा दिल भर आया

खाना ख़त्म करके मैं निकलने को हुआ तो-तो वह मुझसे लिपट गई और फूट-फूट कर रोते हुए बोली-बाबू मेरी शादी की बात कर रहे है...लड़का सरकारी दफ्तर में कलर्क है...बहुत बड़ी पोस्ट है

मैंने उसे चुप कराते हुए कहा-" इस लिफ़ाफ़े को संभाल कर रखना...जब बाबू शादी की बात करे तब दिखा देना... कह देना एक दिन कलेक्टर बनकर लौटूंगा तुम्हें हमेशा-हमेशा के लिए अपने साथ ले जाने के लिए मैं वापस आऊंगा तुम्हें लेने...इस बार ना वह शरमाई और ना कुछ बोली...बस सुबकते हुए उसने अपनी चुन्नी खोलकर उसमें से सौ के कुछ गुड़ी मुड़ी करे हुए नोट निकाले और पथराई आखों से देखते हुए मेरी दाएँ हाथ की हथेली में पकड़ा दिए... मुझे उसकी तरफ नज़रें उठाकर देखने की भी हिम्मत नहीं हुई, ऐसा लगा जैसे मेरी हथेली में सैकड़ों मन बोझ लदा हो

वहां से गाँव पहुंचा तो बाबूजी के साथ सारा गाँव मेरे सिविल सर्विसेस क्लियर करने की ख़ुशी में जैसे पागल हो उठा था...आज बाबूजी गाँव के हीरो थे...कुछ ही दिनों बाद मैं ट्रेनिंग करने के लिए चला गया और फिर उसी जिले में कलेक्टर बनकर लौटा I

वहीँ किसी भ्रष्ट आदमी ने मुझे कानून और मुकदमों के चक्कर में ऐसा उलझाया कि दो साल कब बीत गए मैं जान ही नहीं पाया...खैर सच की हमेशा जीत होती है सो मेरी भी हुई

पहली ही फ़ुर्सत में मैं राधा से किया अपना वादा निभाने के लिए उससे मिलने के लिए निकल पड़ा ...रास्ते से हीरा हलवाई की देसी घी में डूबी दो किलो जलेबी और एक टोकरी फ़ल खरीद कर मैंने ड्राइवर से कार की डिक्की में रखवा लिए I

राधा को देखने की बात तो दूर उसका घर देख कर ही मेरा दिल जोरो से धड़कने लगा था

कार से उतरते समय मैंने काला चश्मा पहन लिया कि कहीं राधा मेरे आँसूं ना देख ले I ड्राइवर और मैंने सावधानी से फल की टोकरी उठाई और अंदर जाकर आँगन में रख दी ...ड्राइवर समझदार था सो तुरंत बाहर चला गया I

सामने के कमरे से बाबूजी निकलते दिखाई दिए ...दो वर्ष में ही वह बहुत ज़्यादा बूढ़े और थके हुए लग रहे थे

मैंने जैसे ही झुककर उनके पैर छुए, वह भरभराकर रोते हुए मेरे गले से लग गए

किसी अनहोनी आशंका से मेरा दिल काँप उठा

मैंने बाबूजी को दिलासा देते हुए पूछा-क्या हुआ बाबूजी...और राधा नहीं दिखाई दे रही हैं कहीं

वो भाग गई...कहते हुए निढाल से बाबूजी खटिया पर पसर गए

मेरी आखों के आगे जैसे अँधेरा छा गया

मैं उनके पैरों के पास ज़मीन पर ही बैठ गया...बहुत देर तक हम दोनों चुपचाप बैठे रहे

चश्मा उतारकर आस्तीन से आँसूं पोंछते हुए वह सुबकते हुए बोले-"मुझे क्या पता था कि वह तुझसे प्यार करती है ...मैंने उसकी शादी तय कर दी...बस तभी से गुमसुम रहने लगी थी ...बस दिन रात एक अख़बार के टुकड़े को देखती रहती थी ...एक दिन उसी पुर्चे को ले आई और बोली-" वह आएगा मुझे लेने ...कलेक्टर बनकर...ये आपको दिखने को कह गया है

मैंने देखा तो उसमें तुम्हारा रोल नंबर था...पर ना तो तुम्हारा पता था और ना ही फ़ोन नंबर ...दो साल तक हम तुम्हारी राह देखते रहे...फिर मुझे लगा कि अब तुम नहीं आओगे और मेरे मरने के बाद वह बिलकुल अकेली रह जायेगी, इसलिए उसका रिश्ता एक अच्छी जगह तय कर दिया...पर शादी के एक दिन पहले ही वह भाग गई

कहते हुए बाबूजी का गला रूंध गया

मेरे हाथ से दोना गिर गया ...मैंने थूक निगलते हुए पूछा-कहाँ गई पर वो... किसी ने तो कहीं देखा होगा

बाबूजी का काँपता झुर्रीदार हाथ अपने हाथ में थामते हुए पूछा I

बाबूजी ने मुझ पर एक भरपूर निगाह डाली और सामने देखने लगे I

उन निगाहों ने मुझे अंदर तक झंझोर दिया और मैं आत्मग्लानि से भर उठा...बाबूजी के पैर छूकर मैं जैसे ही उठने को हुआ तो बाबूजी धीरे से बोले-" ये जलेबी और फल वापस ले जाना बेटा

इसके आगे मुझसे कुछ सुना नहीं गया और मैं वापस कार में बैठ गया I

मैं बाबूजी से अपनी सारी मजबूरी बताना चाहता था, मैं उन्हें कहना चाहता था कि मैं एक पल को भी राधा को नहीं भूल सका था...मुझे मेरा वादा याद था...पर मैं शहर छोड़ कर नहीं जा सकता था वरना शायद मैं उस झूठे मुकदमें से ज़िंदगी भर बाहर नहीं निकल सकता था I

मै कार में बैठकर जोर-जोर से रो रहा था ...मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे कारण राधा की ज़िंदगी बर्बाद हो जायेगी...कहाँ गई होगी...इतनी सीधी लड़की...कोई भी बहला फुसलाकर अपने साथ ना ले गया I

कब घर आ गया मैं जान ही ना पाया

राधा की तलाश करने में मैंने दिन रात एक कर दिए, पर उसका कहीं पता नहीं चला

कोई भी सुख मेरे लिए कपूर की भाँति था जो पल भर भी ना ठहरता था I

मैंने सरकारी काम के अलावा लोगो से बिलकुल मिलना जुलना छोड़ दिया ...एक दिन मेरा सहकर्मी मुझे जबरदस्ती अपने घर चाय पर ले गया...मैं बेमन से चाय पी ही रहा था कि उसकी पत्नी की कर्कश आवाज़ किचन से आई, जो बुरी तरह से नौकरानी को डाँट रही थी...राधा ठीक से बर्तन मल, वरना अभी निकाल दूँगी तुझे...राधा सुनते ही मेरे हाथ से चाय का प्याला छलक उठा।

मित्र शर्मिंदा होते हुए समझा कि मैं उसकी पत्नी के व्यवहार से घबरा गया हूँ इसलिए वह

धीरे से बोला-अरे, मेरी पत्नी भी क्या करे, ये लड़की इतना धीमे काम करती है...और सपने तो देखो ज़रा...घर छोड़कर भागी है...किसी कलेक्टर की तलाश में...जिसका ना नाम पता है ना घर I

मेरे रोएँ खड़े हो गए ...मैंने जोर से चिल्लाना चाहा "राधा" पर शब्द किसी मरने वाले की अंतिम प्रार्थना की तरह अस्फुट स्वर में निकले I

गर्म चाय से बुरी तरह जलने के बावजूद भी मैं लगभग दौड़ता हुआ किचन के अंदर पहुँच गया...

बर्तनों के ढेर के आगे राधा सर झुकाए, अपनी उसी धानी चुन्नी से आखें रगड़ते हुए बर्तनों पर तेजी से हाथ चला रही थी I