धूर्तोपाख्यान / राधावल्लभ त्रिपाठी

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क्लेश को दूर करने वाले श्रेष्ठ जिनेन्द्र को नमस्कार करके विद्वज्जनों के बोधनार्थ मैं धूर्ताख्यान कहता हूँ। सुन्दर सम्पन्न लोगों से भरी रहने वाली, स्वर्ग से भी बढ़ी-चढ़ी उज्जयिनी नाम की नगरी है। उस नगरी के उत्तर की ओर अनेक प्रकार के फूलों-पौधों और लताओं से भरा हुआ, भ्रमरों के गुंजन से युक्त नन्दनकानन जैसा एक उद्यान है। उस उद्यान में कहीं से घूमते-घामते पाँच धूर्त आ मिले। वे अनेक प्रकार की माया में निपुण, कुकृत्य में लगे रहने वाले, निर्दय और लोगों को ठगने में प्रवीण थे। ये पाँच धूर्त थे-मूलश्री, कण्डरीक, एलाषाढ़, शश तथा खण्डपाना। एक-एक धूर्त के साथ पाँच-पाँच सौ अनुयायी थे और खण्डपाना के साथ भी पाँच सौ धूर्त स्त्रियाँ थीं। वे लोग उस उद्यान में निवास कर रहे थे, तभी वर्षा का समय आ गया। सूर्य और चन्द्रमा का कहीं पता न चलता। बिजली लगातार चमकती रहती, बादल गरजते रहते। एक सप्ताह निरन्तर वर्षा ऐसी चली कि सारे कुएँ और तालाब भर गये। गलियों, रास्तों में ऐसी कीच मची कि आना-जाना कठिन हो गया। ऐसे में भूख से व्याकुल वे पाँचों धूर्त सलाह करने लगे कि हमें अब भोजन कौन देगा? (1-11)।

मूलदेव ने कहा, “हम सब धूर्त इकट्ठे होकर जिसने जो सुना और अनुभव किया, उसे बताएँ। हममें से प्रत्येक के किस्से पर जिसे विश्वास न हो, जो उसे असत्य वचन माने, उसे हम सबको भात-पानी देना पड़ेगा। जो पुराण, महाभारत, रामायण और श्रुति के वचनों के आधार पर उस किस्से को सही सिद्ध करके सबको सबसे अच्छी तरह उसकी सत्यता का विश्वास दिला देगा, वह हम धूर्तों में सबसे बली और बुद्धिमान कहा जाएगा, उसे किसी को कुछ भी नहीं देना होगा।”

मूलदेव के ऐसा कहने पर सब बोले, “यह तो बहुत अच्छा है। ऐसा ही किया जाए। पर सबसे पहले तुम अपनी आपबीती सुनाओ।” (12-16)।

मूलदेव की कथा

मूलदेव ने कहा, “मैंने युवावस्था में जो अनुभव किया युक्तिपूर्वक उसे बताता हूँ। आप लोग सावधान होकर सुनिए। जब मैं तरुण था तो मेरी सुख-सम्पदा पाने की बड़ी इच्छा थी। मेरे मालिक ने कहा कि यदि छः मास गंगा को माथे पर रखो तो मैं तुम्हें बड़ी सम्पदा दूँगा। मैंने छत्र और कमण्डलु हाथ में लिया, कम्बल पीठ पर रखा और चल पड़ा। रास्ते में पर्वत के बराबर बड़ा मतवाला एक हाथी मिला। उस जंगली हाथी को देखकर मैं घबरा गया। सोचा-इससे बचने के लिए कहाँ छिपूँ? तो मैं अपने हाथ में लिये कमण्डलु में जा घुसा। पर वह जंगली हाथी भी मेरा पीछा करता हुआ मेरे कमण्डलु के पास आ पहुँचा और मैं कमण्डलु की नली के भीतर घुस आया। मैं लुकने की जगह ढूँढ़ता हुआ छः महीने उस कमण्डलु के भीतर भटकता रहा। अन्त में मैं उस कमण्डलु के गले से बाहर निकल आया और मेरे पीछे-पीछे वह हाथी भी उस कमण्डलु से बाहर निकलने लगा तो कमण्डलु के छेद में फँसे मेरे बाल के सिरे में अटक गया। बाहर निकलते ही मुझे आकाश गंगा बहती दिखी। उसकी तरंगें ऊपर उछल रही थीं। फेन के द्वारा वह अट्टहास करती प्रतीत होती थी। उसमें तैरते जंगली हाथी उसके किनारे ढहा रहे थे। मछली, मगर, घड़ियाल और कछुए उसमें भरे पड़े थे। मैंने उस नदी को तैरकर ऐसे पार किया जैसे गाय के खुर से बने गड्ढे को पार किया हो। फिर भूख-प्यास सहता हुआ मैं छः मास गंगा को सिर पर धारे रहा। उसके बाद मैंने उसे उतारा, शंकरजी की वन्दना की और वहाँ से चलकर उज्जयिनी आ गया, जहाँ तुम लोगों से भेंट हो गयी। अब इस किस्से को सच माने, वह इसकी सच्चाई सिद्ध करे, यदि इसे कोई झूठ माने, तो सारे धूर्तों को भात दे। (17-30)।

कण्डरीक ने कहा, “कौन कहता है कि तुमने झूठा किस्सा सुनाया है? महाभारत, पुराण और रामायण का कोई भी जानकार इसे झूठा नहीं कहेगा।”

मूलदेव ने कहा, “हाथी कमण्डलु में कैसे समा गया, वह छः महीने कमण्डलु के भीतर कैसे भटकता रहा, कैसे मैं और वह हाथी कमण्डलु के जरा से छिद्र से बाहर निकल आये? और बाहर आता-आता हाथी केश के सिरे में कैसे अटक गया? कैसे इतनी विशाल गंगा को मैं पार कर गया और कैसे छः मास भूखा-प्यासा उसे सिर पर धरे रहा?” (31-34)

कण्डरीक का मूलदेव की कथा पर उत्तर

तब कण्डरीक ने कहा, “जो महाभारत और पुराण को सुनकर उन्हें सच मानता है वह तुम्हारी बात को सच ही मानेगा। ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण; बाहु से क्षत्रिय, ऊरू से वैश्य, चरण से शूद्र निकले हैं। यदि इस ब्रह्मा के शरीर में इतना सारा जन-समूह समा सकता है तो एक कमण्डलु में जंगली हाथी क्यों नहीं समा सकता? और भी सुनो-ब्रह्मा और विष्णु दोनों ऊपर और नीचे दिव्य सहस्र वर्षों तक भागते रहे पर वे शिवलिंग का ओर-छोर न पा सके, वही विराट् शिवलिंग उमा के शरीर में कैसे समा गया? तब कमण्डलु में हाथी समा गया, इसमें क्या दोष? और भी सुनो-महर्षि व्यास ने महाभारत में बताया है कि बाँस के एक पोर में सौ बाँस उगे, उनसे कीचक वंश के सौ भाई जन्मे। उनकी बहन विराट राजा की पटरानी थी। उसके कोई सन्तान नहीं थी। उसने आश्रम में पहुँचकर ऋषि की आराधना की तो ऋषि ने उसे चरु दिया और कहा-इस चरु को खाने से तुझे सौ पुत्र होंगे। उसने कुडंग में जाकर चरु खाया। इसी बीच गागलि नाम के ऋषि बाँस की नली में रहकर पद्म सरोवर के तट पर तप कर रहे थे। उन्होंने अप्सरा को नहाते देखा। उनका कामभाव क्षुब्ध हुआ तो उनका जो शुक्र बिन्दु बाँस पर गिरा, उससे महाबलशाली पहला कीचक उत्पन्न हुआ। फिर तो जैसे-जैसे मुनि अत्यन्त रूप लावण्यवती उस अप्सरा को देखते गये, वैसे-वैसे बीज गिरते गये और उनसे सौ कीचक उत्पन्न हो गये। फिर वे उस बाँस की नली को त्यागकर अपने निवास पर चले गये और उस नली को राजा ले आये। उससे निकले सौ पुत्र उसकी रानी के बेटे हो गये। यदि सौ कीचक वीर बाँस की नली में रह सकते हैं तो तुम कमण्डलु में समा गये, इसमें क्या आश्चर्य? सहस्र वर्ष तक गंगा शंकर की जटाओं में भटकती रही, तो तुम उस कमण्डलु में छः महीने भटकते रहे, यह सत्य है। जो कमण्डलु के छिद्र से बाहर आने और हाथी के बाल में लिथर जाने की बात कही तो उसका भी पुराणोक्त प्रमाण सुनो। जगतकर्त्ता विष्णु क्षीरसागर में सोये थे। उनकी नाभि से कमल निकला जिसमें दण्डकमण्डलुधारी ब्रह्मा थे। (35-59)।

एक बार सूर्य कुन्ती के रूप से उन्मत्त हो गये। उन्होंने उससे संयोग किया। कुन्ती की कुक्षि में गर्भ रह गया जिससे कवचधारी कर्ण उसके कान से बाहर निकला तो क्या तुम कमण्डलु की टोंटी से नहीं निकल सकते थे? और यह जो तुमने कहा कि अपार गंगा को तुमने कैसे पार कर लिया, इसका विश्वास दिलाने के लिए रामायण का प्रसंग बतलाता हूँ। सीता का पता लगाने के लिए राम ने हनुमान को भेजा था। उन्होंने लंकापुरी पहुँचने के लिए हाथों से तैरकर समुद्र पार कर लिया था। यदि वानर होकर वे दुस्तर महासागर को तैरकर पार कर सकते थे, तो तुम नरश्रेष्ठ होकर गंगा को पार क्यों नहीं कर सकते? और यह जो कहा कि छः मास तक मैंने गंगा को कैसे मस्तक पर धारण किया, तो इसका विश्वास दिलाने के लिए भी पौराणिक प्रसंग बतलाता हूँ। लोकहित के लिए देवताओं ने गंगा से प्रार्थना की कि मनुष्यलोक में अवतार लो। गंगा ने कहा कि मुझे धारण कौन करेगा, तो उन्होंने बताया कि पशुपति धारण करेंगे। तब गंगा नीचे गिरी, पशुपति उसे एक हजार दिव्य वर्ष मस्तक पर धारण किये रहे, तो तुम छः महीने गंगा को सिर पर धारण क्यों नहीं कर सकते?”

कण्डरीक की कथा

मूलदेव ने हार मानकर कण्डरीक से कहा, “अब तुमने जो देखा, सुना, अनुभव किया उसे तुम बताओ।”

कण्डरीक ने कहा, “मैं बचपन से ही बड़ा ढीठ था। माता-पिता मुझ पर अंकुश नहीं रख सके तो उन्होंने क्रोध में भरकर मुझे घर से निकाल दिया। घूमता-घामता मैं एक गाँव पहुँचा। गाँव गायों, भैंसों, बकरियों, भेड़ों, गधों और खच्चरों से भरा हुआ था। चारों ओर फूलों, फलों से भरे बगीचे थे। गाँव में सैकड़ों समृद्ध घर थे। बीचों-बीच एक मनोहर वटवृक्ष था। सैकड़ों पक्षी उस पर बसेरा डाले हुए थे। उस वटवृक्ष के ऊपर एक यक्ष का भी वास था। वह बड़ा गुणी यक्ष था। वह सुन्दर स्त्रियों को वर प्रदान करता रहता था। (1-6)।

(मैं जब उस गाँव में पहुँचा, तो) यक्ष की यात्रा का उत्सव था। लोगों की बड़ी भीड़ वहाँ जुटी थी। धूप, बलिपुष्प लेकर लोग खड़े हुए थे। भिन्न प्रकार से सुन्दर वस्त्र उन्होंने पहन रखे थे, अलंकार धारण कर रखे थे, तथा देह पर चन्दन लगा रखा था। (यह सब देखकर) कौतुक के साथ मैं भी भीड़ में जा मिला। यक्ष की मैंने वन्दना की। तभी वहाँ चीखते-चिल्लाते, कवच बाँधे, अस्त्र-शस्त्र उठाये चोर आ पहुँचे। यह देखकर बच्चे, बूढ़े, स्त्री, पुरुष, पशु आदि सब-के-सब एक ककड़ी में जा घुसे।

चोर अपने घोड़ों से उतरे, उन्होंने देखा कि सारा गाँव ही गायब है, तो वे ‘गाँव तो नष्ट हो गया’-यह कहते हुए चले गये। इधर गाँव के सारे पशु उस ककड़ी के भीतर चरते रहे, तभी एक बकरी ने उस ककड़ी को निगल लिया और फिर एक अजगर ने उस बकरी को निगल लिया। उस अजगर को एक बगुला ही निगल गया और एक ऊँचे विशाल वटवृक्ष पर जा बैठा। उस पेड़ के नीचे एक राजा ने डेरा डाला और किसी सेवक ने उस बगुले के पैर को वृक्ष की मोटी डाली समझकर उससे एक मदमत्त हाथी को बाँध दिया। बाँधते ही बगुले ने अपना पाँव सिकोड़कर ऊपर खींचा तो हाथी भी चिंघाड़ता हुआ ऊपर खिंच गया। महावत लोग चिल्लाने लगे कि किसी ने हाथी को पेड़ के ऊपर खींच लिया। उनकी पुकार सुनकर शब्दवेधी बाण चलाने वाले योद्धा तीर-कमान लेकर चिल्लाते हुए दौड़े। हाथी तो बगुले के पंखों में छिप गया था। उन्होंने पंख काट डाले तो बगुला चीखता हुआ पहाड़ के शिखर पर जा गिरा। उसका पेट फट गया तो उसमें से अजगर बाहर आ गया। राजा ने कहा, इस अजगर को चीरा जाए, इसके भीतर स्त्री-पुरुष होंगे। उसको चीरा तो उसमें से वह विशाल बकरी निकली। उस बकरी का पेट चीरने पर उसमें से विशाल ककड़ी निकली और जब तक राजा चिल्लाता कि देखो कितनी बड़ी ककड़ी है, उसमें से लोग ऐसे निकलने लगे जैसे बिल में से पतिंगे बाहर आते हैं। सब लोगों ने श्रेष्ठ जिनेन्द्र की वन्दना की और अपने-अपने स्थान चले गये। मैं इस नगरी में आ पहुँचा। तो मैंने इसी मनुष्यलोक में प्रत्यक्ष इस सारी घटना का अनुभव किया है जिसको विश्वास न हो वह हम धूर्तों को भात दे।”

एलाषाढ द्वारा कण्डरीक की कथा का उत्तर

एलाषाढ ने कहा, (कण्डरीक की इस सारी कथा पर) “हमें पूरा विश्वास है। इसमें (हमें) कोई सन्देह नहीं है।”

कण्डरीक ने प्रतिप्रश्न किया, “(एक समूचा) गाँव ककड़ी में कैसे समा गया?”

एलाषाढ ने उत्तर दिया, “यह तो पुराण और महाभारत में सुप्रतिपादित बात है। क्या तुमने विष्णुपुराण नहीं सुना? पहले इस संसार में कुछ भी नहीं था, मात्र एक गह्वर था, जो समुद्र में मिला हुआ था। उसी जल में विशाल अण्डा लहरों में थपेड़े खाता हुआ बहुत देर तक यहाँ-वहाँ तिरता रहा। दुर्भाग्य की बात कि वह अण्डा फूट गया तो उसके आधे से भूमि बन गयी। उसी में से देवता, राक्षस, मनुष्य, चौपाये-ये सब निकले। तो ये सब जब एक अण्डे में समा सकते थे, तो एक ककड़ी में सारा गाँव क्यों नहीं समा सकता? और सुनो, आरण्यकपर्व में धर्मपुत्र (युधिष्ठिर) को मार्कण्डेय ने स्वानुभूत वृत्तान्त बताया था, जिसके अनुसार प्रलय के समय जब सारा संसार सागर में समा गया, तो वे भी लहरों में थपेड़े खाते सागर में भटक रहे थे। उन्होंने मन्दर पर्वत के समान ऊँचा और सागर के समान विस्तीर्ण वट का वृक्ष उसी समुद्र में देखा। उसके एक तने पर एक सुन्दर बालक था। वह अत्यन्त मृदुल गात्र वाला था और उसके एक-एक अवयव से आभा फूट रही थी। ऋषि ने अपना हाथ फैलाया और कहा, ‘बेटा, आ जा, आ जा! मेरे कन्धे पर उतर आ, नहीं तो इस समुद्र में बहकर मर जाएगा। बच्चा ऋषि का हाथ पकड़ने के लिए उनकी ओर पलटा तो ऋषि क्या देखते हैं कि उस बच्चे के पेट में पर्वत, जंगल सब समाये हुए हैं। ऋषि भी उस बच्चे के पेट में समा गये। एक हजार दिव्य वर्ष तक वे ऋषि उस बच्चे की कोख में भटकते रहे, और उन्हें उसका कहीं अन्त नहीं मिला तो वे बाहर निकल आये। हे कण्डरीक, यदि बच्चे के पेट में देव, असुर, मनुष्य (आदि के साथ सारा जगत्) समा गया तो एक ककड़ी में गाँव क्यों नहीं समा सकता? अब पूछो कि बकरी के पेट में ककड़ी और वह बकरी अजगर के पेट में कैसे समा गयी? तो सुनो, देवकी की कमर इतनी पतली थी कि कोई मुट्ठी से उसे नाप ले। उस देवकी की कोख में केशव आ रहे और केशव के भीतर तो शैल, वन, कानन से भरी सारी पृथ्वी थी।” (26-41)

कण्डरीक ने पूछा, “अच्छा तो उस ककड़ी के भीतर गाँव के सब लोग मर क्यों नहीं गये? इसका जवाब दो तो जानूँ।”

एलाषाढ ने कहा, “जिस तरह कृष्ण के उदर में पृथ्वी थी, उसमें कृषि, व्यवसाय, युद्ध तथा जन्म, विवाह आदि के उत्सव चलते रहे, वैसे ककड़ी के भीतर सब चलता रहा। इस विषय में एक बार ब्रह्मा और विष्णु के बीच विवाद भी हो गया था। ब्रह्मा ने कहा कि मैं बड़ा हूँ क्योंकि मेरे मुख, बाहु, जंघा तथा चरण से चारों वर्ण निकले हैं। विष्णु ने उनका उपहास करते हुए कहा-तुम मेरे दास के बराबर हो। ऐसा

कहना तुम्हारे लिए ठीक नहीं है। मेरा कण्ठ भूमि है, पर्वत डाढ़ें हैं और समुद्र जिह्वा है। जल में जब मैं सो रहा था तो तुम मेरी नाभि से निकले कमल से ही उत्पन्न हुए हो, इसलिए हे ब्रह्मा, अपने गुरुजन के आगे तुम्हारा यों कहना शोभा नहीं देता।” (42-49)

एलाषाढ ने जब इस प्रकार कण्डरीक की कथा का समाधान कर दिया तो कण्डरीक ने कहा, एलाषाढ, अब तुम अपनी आपबीती कहो।”

एलाषाढ की कथा

एलाषाढ ने कहा, “मैं युवावस्था में धन कमाने की लालसा से सारी दुनिया में घूमता रहता था। यहाँ बिल है, इसमें रस (पारा) होगा, यहाँ पर्वत है, इसमें धातु होगी-इस प्रकार खोजबीन करता मैं भटकता रहता। एक बार मुझे पता चला कि पूर्व दिशा में सहस्र योजन दूर चलने पर एक पहाड़ मिलेगा। उसमें सहस्र-वेधी रस है। एक योजन (8 मील) लम्बी शिला से वह बिल ढका है जिसमें रस है। उस शिला को उघाड़ कर सोने के कुण्ड से रस निकालना है। आशा के पाश में बँधा हुआ मैं सौ योजन चलकर पर्वत तक पहुँचा, उस शिला को उघाड़कर मैंने रस निकाला, फिर उस बिल को शिला से ढका और रस लेकर अपने घर आ गया। उस रस के कारण मेरे पास कुबेर के जैसा वैभव हो गया। मैं सुन्दरियों से घिरा रहता, सैकड़ों मागध मेरी स्तुति करते रहते। सुन्दर नर्तकियाँ नृत्य, नाट्य से मेरा मन बहलाती रहतीं। अप्सराओं से घिरे धनपति (कुबेर) की तरह मैं विलास करता रहा। भिक्षुओं, साधुओं को मैं खूब दान देता। कुबेर के जैसे मेरे वैभव की यशोगाथा सुनकर एक बार रात को चोरों ने मेरे घर धावा बोल दिया। वे कवच बाँधे हुए थे, हथियार लिये हुए थे। उन्होंने घर घेर लिया। वे मेरा सारा संचित धन लूटने लगे। मैंने सोचा कि इस तरह मेरा अपने भुजबल से उपार्जित सारा धन चला जाएगा। तो मैं धनुष और एक हजार बाण लेकर मैदान में आ गया। चोरों के साथ मेरा भीषण युद्ध होने लगा। एक-एक बाण से मैं सात, आठ, दस, बारह चोरों को एक साथ मार गिराता। सौ चोर तो मैंने एक मुहूर्त भर में मार गिराये। जो बचे, वे एक साथ मिलकर मेरे ऊपर चढ़ दौड़े। उन्होंने मेरे टुकड़े-टुकड़े करके मेरा सिर धड़ से काट डाला और उसको एक बेर के पेड़ पर लटकाकर सम्पत्ति लेकर चलते बने। मेरे सिर से खून टपक रहा था, उसके कानों में कुण्डल लटक रहे थे। वह मरा सिर आराम से उस पेड़ पर लटका मुँह बढ़ा-बढ़ा कर उस पेड़ के बेर खाता रहा। सूर्योदय होने पर लोगों ने मेरा सिर बेर के पेड़ पर बेर खाता हुआ देखा तो उन्होंने कहा कि यह तो जीवित है। तो उन्होंने वह सिर उतारा मेरे सारे अंग भी खोजकर इकट्ठे करके जोड़े और उनसे सिर जोड़ दिया जिससे मैं फिर से अपूर्व सौन्दर्य वाला बन गया। यह मैंने स्वयं इस मनुष्यलोक में अनुभव किया है, इस पर जो विश्वास न करे, वह धूर्त जनों को भात दे।” (1-19)

शश द्वारा एलाषाढ की कथा का समाधान

शश ने कहा, “तुमने जो स्वानुभूत वृत्तान्त बताया है, उस पर किसको शंका हो सकती है और कौन उसे झूठ कह सकता है, यदि पुराण, श्रुति, महाभारत और रामायण में आस्था है? जमदग्नि नाम के ऋषि थे, उनकी पत्नी का नाम रेणुका था। वह इतनी शीलवती थी कि फूलों से लदे पेड़ उसको झुक-झुककर नमन करते। एक बार उसने राजा अश्वपति को देखा, तो उसका मन क्षुभित हो गया। फिर वृक्षों ने उसके आगे झुकना बन्द कर दिया। तब जमदग्नि ने क्रुद्ध होकर अपने बेटे परशुराम को आदेश दिया, ‘इस दुष्टशीला का सिर काट डालो।’ उसने भी पिता का आज्ञापालक होने से झट से उसका सिर काट डाला। तब जमदग्नि ने कहा, ‘हे पुत्र! तुम्हें जो इष्ट हो, वह वर माँगो।’ उसने कहा, ‘मेरी माँ फिर से जीवित हो जाय।’ और रेणुका फिर से जीवित हो गयी। यदि पहले ऐसा हुआ है तो तुम (सिर कट जाने पर) फिर से जीवित हो गये-यह सत्य है। समर में पराक्रम दिखाने के लिए प्रख्यात राजा जरासन्ध था। उसको जरा नामक राक्षसी ने दो टुकड़े मिलाकर जोड़ा था, उसमें एक हजार राजाओं से अधिक बल था। और सुनो-सुन्द और निसुन्द नाम के दो शूर थे। वे बड़े वीर थे। स्वर्ग में उनके कारण भय छा गया था। तब देवताओं ने उनको लुभाने के लिए अपने-अपने देह से एक-एक तिल (के बराबर अंश) निकालकर तिलोत्तमा (अप्सरा) की रचना की। वह अंगोपांग सभी में सुगठित लावण्य और गुणों की आगार तथा अनुपम थी। सागर से जैसे लक्ष्मी निकली थी, ऐसे ही वह प्रकट हुई थी। खिले हुए नीलकमल के समान नयनों वाली उस अप्सरा ने सविनय देवताओं को प्रणाम करके कहा, ‘आज्ञा दीजिए, क्या करना है।’ देवताओं ने उससे कहा, ‘देवताओं के लिए सुन्द और निसुन्द दो काँटे हैं, उन्हें उखाड़ फेंको।’ हार, केयूर आदि से विभूषित सब के मन को हरने वाली (वह अप्सरा) वहाँ पहुँचकर उन दोनों को लुभाने लगी। तो वे दोनों कामवश होकर उसके लिए युद्ध करने लगे और एक-दूसरे पर शस्त्र से प्रहार करते हुए दोनों अपने प्राण गँवा बैठे। तो जब देवता उस तिलोत्तमा अप्सरा को (तिल के बराबर टुकड़े जोड़कर) बना सकते थे, तो तुम्हारे अंग जोड़ने पर भला क्यों कर न जुड़ेंगे? एक कथा और ऐसी ही सुनी जाती है कि बचपन में पवनतनय (हनुमान्) ने अपनी माता अंजना से पूछा कि मैं भूखा हूँ, मेरे लिए क्या आहार है? माता ने बताया कि जंगल के लाल फल तुम्हारा आहार हैं। तब हनुमान् सूर्य को (पका फल समझकर) पकड़ने के लिए ऊपर उड़े। सूर्य ने भी उन्हें एक चाँटा मारा। उससे हनुमान् के टुकड़े-टुकड़े हो गये। जननी अपने पति पवन के पास जाकर शोकातुर होकर करुण विलाप करने लगी (20-40)। तब पवन क्रुद्ध होकर पाताल में जा घुसा। पवन के रुक जाने से सुरासुर सहित सारा जगत् कष्ट पाने लगा। तब देव पाताल पहुँचकर पवन को मनाने लगे और उसके पुत्र (हनुमान्) के अंग जोड़कर उसे फिर से जिला दिया। बस उनका हनु (ठुड्डी) कहीं नहीं मिली, तो दूसरी ठुड्डी जोड़ने से वे हनुमान् कहलाये। यदि पवनपुत्र का खण्ड-खण्ड होकर फिर से अक्षत और जीवित हो जाना सत्य है तो तुम्हारे फिर से अक्षत देह और सजीव होने में क्या शंका हो सकती है? रामायण में सीता देवी के हरण की कथा आती है। उसमें राम सीता को खोजने लंकाद्वीप पहुँचे। राम और रावण का भीषण युद्ध हुआ। रावण के द्वारा चलाए गये बाणों, तलवार, परशु आदि के प्रहार से छिन्न-भिन्न अंगों वाले लक्ष्मण शक्ति के प्रहार से निष्प्राण होकर भूमि पर गिरे पड़े। राम शोकाकुल विलाप करने लगे। तब पवनतनय ने द्रोणगिरि पर जाकर प्रकाशमान् जड़ी-बूटियाँ लाकर दीं, जिनके प्रभाव से शक्ति निकल गयी और राक्षसों के प्रहार से जो वानर छिन्न-भिन्न देह वाले होकर मृत पड़े थे, वे भी जी उठे। वे वानर जिस तरह टुकड़े-टुकड़े होकर भी जीवित हो गये, हे एलाषाढ, उसी तरह तुम भी सहस्रों टुकड़ों में टूटकर फिर जीवित हो गये। (42-52)

एलाषाढ ने कहा, “कटे हुए मस्तक से बेर कैसे खाए जा सकते हैं?”

शश ने कहा, “राहु भी छिन्न मस्तक वाला है। वह आकाश में घूमता हुआ सूर्य और चन्द्रमा को खा जाता है।”

एलाषाढ ने फिर कहा, “सौ योजन की दूरी इतने कम समय में पार कैसे की जा सकती है?”

शश ने उत्तर दिया, “बलि से दान में पायी पर्वतों सहित सारी धरती को विष्णु ने तीन कदमों में नाप लिया तो तुमने सौ योजन क्षण भर में पार कर लिये, इसमें क्या दोष है?”

एलाषाढ ने फिर कहा, “उस विशाल भारी शिला को मैंने कैसे उठाया होगा, इसका विश्वास दिलाओ।”

शश ने कहा, “तुमने क्या रामायण की कथा नहीं सुनी? राम और रावण का संग्राम चल रहा था तब कुमार लक्ष्मण के गिर जाने पर हनुमान ऊँचे द्रोण पर्वत को समूल उखाड़कर उठाकर लाये थे। उस महान शिलासंघात को एक वानर ने जब उठा लिया तो एक योजन लम्बी शिला को तुम भी उठा सकते हो, इसमें सन्देह नहीं। वराहरूपधारी विष्णु ने शैल, वन, कानन से युक्त सागर में डूबी सारी पृथ्वी को उठा लिया था। यदि वे सारी धरती को उठा सकते हैं तो तुम भी एक शिला को उठा सकते हो।”

इस प्रकार शश के द्वारा बातें बनाकर प्रपंच में डाला गया एलाषाढ उससे बोला, “तो अब तुम अपना देखा सुना सब बताओ।” (87-98)

शश की कथा

शश ने कहा, “शरत् काल के समय मैं अपने खेत में गया था। मेरा खेत गाँव से दूर पहाड़ की ढलान से लगा हुआ था। मैं खेत में घूम रहा था कि पर्वत से एक मतवाला हाथी उतरकर मेरी ओर दौड़ा। ‘अरे अरे इसने मुझे पकड़ लिया।’-यह सोचकर भय से काँपता मैं जहाँ-तहाँ भागने लगा। तभी मैंने एक विशाल तिल का पेड़ देखा। जंगली हाथी के डर से काँपता मैं उसके ऊपर जा चिपटा। हाथी भी वहाँ आ गया और क्रुद्ध होकर चिंघाड़ता हुआ कुम्हार के चाक की तरह उस तिल के पेड़ को घुमाने लगा। उसके घुमाने पर उस तिल के पेड़ से तिल इस तरह टपकने लगे जैसे मूसलाधार

वर्षा हो रही हो। उस हाथी ने वे सारे तिल ऐसे रौंद डाले जैसे तिलचक्र (घानी) से पीसे हों। उसकी खली के कीचड़ में फँसा वह हाथी न कुछ खा सका, न पी सका और भूख से मर गया। हाथी के डर से अब तक उसी तिल के पेड़ पर दुबका हुआ मैं अपने को मरकर जीवित हुआ मानकर किसी तरह दिन ढलने पर उस तिल के पेड़ से नीचे उतरा। उस हाथी की खाल उतारकर मैंने उसकी मशक बनायी और सारा तेल उसमें भर लिया। बचे हुए तेल के दस घड़े मैं पी गया और खली भी खा गया। फिर तेल से भरी उस मशक को उठाकर गाँव पहुँचा। उस मशक को एक पेड़ की शाखा पर लटकाकर मैं घर गया और अपने बेटे को मशक लाने भेजा। उसको पेड़ पर कहीं मशक नहीं दिखी, तो पेड़ उखाड़कर वह उसे उठाकर घर ले आया। इस मनुष्य लोक में मैंने यह स्वयं अनुभव किया, जो इस पर विश्वास न करे, वह धूर्तों को भात दे।” (1-13)

खण्डपाना द्वारा शश की कथा का समाधान

तब समस्त कलाओं में निपुण धूर्त खण्डपाना शश से बोली, “मुझे भी महाभारत और रामायण का पक्का ज्ञान है।”

शश ने उससे कहा, “तो बताओ, महाभारत, रामायण या पुराण में ऐसी बात कहाँ आयी है? क्या इतना बड़ा तिल का पेड़ हो सकता है, या तिलों से ऐसी महानदी बह सकती है? क्या कोई दस घड़े तेल पी सकता है या उतनी खली खा सकता है?

खण्डपाना ने कहा कि तुम तो सचमुच दुनिया के बाहर रहते हो। बच्चा भी जानता है कि पाटलिपुत्र नगर एक पाटल के पेड़ से बना है। जब इतना बड़ा पाटल का पेड़ हो सकता है तो तिल का पेड़ क्या उतना बड़ा नहीं हो सकता? महाभारत में सुना जाता है कि हाथियों के माथे से बहने वाले मदजल से महानदी बहने लगी जिसमें हाथी, घोड़े, रथ बह गये (14-19)। यदि हाथियों के मदजल से ऐसी विशाल नदी बह सकती है जिसमें घोड़े, हाथी, रथ बह जाएँ, तो तिलों से तेल की ऐसी नदी क्यों नहीं बह सकती? फिर भीमसेन ने एकचक्रा नगरी में घोर बक राक्षस का वध किया था, तब उसने भात के कई घड़े और एक हजार घड़ों में भरा मद्य पिया था, जो बक राक्षस के लिए वे ले जा रहे थे। यदि बक राक्षस का वह भात भीम अकेला खा गया, तो तुम उतनी खली खा गये। यह भी सुनते हैं कि कुम्भकर्ण जब सोकर उठता था तो वह कई हजार घड़े मद्य तथा कई हजार मनुष्य खा जाता था। यदि कुम्भकर्ण कई हजार घड़े पी सकता है तो तुम्हारे दस घड़े तेल पीने में ऐसी कौन- सी बात है? (21-26)। स्वर्ग से उतरकर शिव की जटाओं से निकली गंगा जब जह्नु ऋषि के आश्रम से होकर निकली, तो वे उसको पी गये, एक हजार वर्ष तक वह उनके पेट में भटकती रही, फिर जह्नु ऋषि ने उसे छोड़ दिया, इसीलिए उसको जाह्नवी कहते हैं। यदि अगस्त्य समुद्र को और जह्नु ऋषि गंगा को पी सकते हैं तो तुम तेल के दस घड़े पी गये, इसमें क्या आश्चर्य?”

शश ने पूछा, “इतनी बड़ी मशक मैंने कैसे उठायी और कैसे मैं उसे गाँव तक ले गया?” खण्डपाना ने जोर से हँसकर कहा, “हे शश, लगता है तुमने गरुड़ की कथा नहीं सुनी। कश्यप ऋषि की पत्नियाँ कद्रू और विनता थीं। उन्होंने एक बार शर्त लगायी। जो शर्त हार जाय, उसे जीतने वाले की आजन्म दासी बनना पड़ेगा या दासत्व से छुटकारे के लिए अमृत देना पड़ेगा। विनता हार गयी, कद्रू ने उसे दासी बना लिया। कद्रू अपनी सौत को बहुत सताती थी। विनता दासत्व के असह्य बोझ से दुःखी हो गयी। उसने तीन अण्डे जने। दासत्व से मुक्ति के लिए उसने एक अण्डा फोड़ दिया। उस अण्डे में से अधूरा बिच्छू निकला। विनता दुःखी होकर सोचने लगी कि मेरा एक अण्डा भी नष्ट हो गया। मैं सोचती कुछ और हूँ, और होता कुछ और है। इस पराधीनता और दासत्व से मुक्ति पाने की दुराशा से मैंने अण्डा फोड़ दिया। इस प्रकार विलाप करके फिर आशान्वित होकर कुछ दिनों बाद विनता ने दूसरा अण्डा फोड़ दिया। उस अण्डे से जंघारहित अरुण का जन्म हुआ। उसने विनता से कहा, ‘माँ, तुमने समय से पहले अण्डा क्यों फोड़ दिया? तुम्हारे मनोरथ को मैं पूरा कर देता, पर क्या करूँ मैं चलने-फिरने से लाचार हूँ। अब तुम इस तीसरे अण्डे की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करो। इसमें से जो कोई निकलेगा, वह तुम्हें मुक्त कराएगा।’ उस ऊरूरहित अरुण को सूर्य ने अपने रथ का सारथि बना लिया। फिर समय आने पर विनता ने तीसरा अण्डा फोड़ा। उसमें से सर्पकुल को भय उत्पन्न करने वाला और विनता के मन को परितोष देने वाला महाबली गरुड़ पैदा हुआ। यह मेरे बच्चों (नागों) को नष्ट कर देगा-यह सोचकर कद्रू विनता को और भी कष्ट देने लगी। एक बार कद्रू के अत्याचार असह्य होने पर विनता रो रही थी तो गरुड़ ने पूछा, ‘माँ, किस कारण से रो रही हो?’ उसने कहा, ‘पुत्र, मैं अपनी सौत की दासी बनकर रहती हूँ। दिन-रात उसकी आज्ञा का पालन करती हूँ।’ गरुड़ ने पूछा, ‘इस दासत्व से तुम कैसे छूटोगी?’ विनता ने बताया कि ‘अमृत लाकर देने से छुटकारा मिल सकता है और अमृत कहाँ से मिलेगा यह पिता बता सकते हैं।’ गरुड़ ने पूछा कि ‘पिता कहाँ हैं?’ तो उसने कहा, ‘बदरिकाश्रम में’। गरुड़ बदरिकाश्रम पहुँचा और अपने पिता के चरणों पर गिर पड़ा। फिर उसने पिता से कहा कि मैं भूखा हूँ। कश्यप ने बताया, ‘बारह योजन लम्बा हाथी और उसी के बराबर का एक कछुआ-ये दोनों महाकाय प्राणी एक सरोवर में युद्ध कर रहे हैं। उनके युद्ध से सरोवर में रात-दिन क्षोभ होता रहता है। हे पुत्र, तुम भूखे मत रहो। तुम जाकर उन दोनों को खा लो।’ गरुड़ वहाँ पहुँचा और एक बार में (हाथी और कछुआ) दोनों को खा गया। वहाँ से लौटकर उसने विशाल शाखाओं वाला महा वटवृक्ष देखा जिस पर प्रलय के महामेघों की तरह पक्षियों का कलरव हो रहा था। उस पेड़ पर उल्टे लटककर बालखिल्य ऋषि उग्र तप कर रहे थे। गरुड़ उस पेड़ पर बैठे तो वह पेड़ कड़कड़ाकर टूट पड़ा। कहीं ऋषिगण मर न जाएँ-इस चिन्ता से गरुड़ ने उस पेड़ को अपनी चोंच में उठा लिया। किन्नर, नर, देवता सब विस्मित होकर देखते रह गये-उसको उठाकर गरुड़ उड़ा और सागर के बीचोंबीच एक विस्तीर्ण रमणीय द्वीप में उस वटवृक्ष को उसने स्थापित कर दिया। वटवृक्ष से अलंकृत होने से वह द्वीप लंका कहलाया जो आगे चलकर निशिचरपति दशमुख रावण का निवास बना। इस प्रकार हाथी और कछुवे को खाकर गरुड़ अपने पिता के पास पहुँचा और कहा कि हाथी और कछुआ खाने से भी मेरी भूख नहीं मिटी है तो क्या खाऊँ? कश्यप ने कहा, ‘निशाचरों को खाओ।’ गरुड़ ने निशाचरों को खाया, फिर पिता से अमृत का ठिकाना पूछा। कश्यप ने कहा, ‘पुत्र, अमृत का कुण्ड पाताल में है, जो आग की ऊँची-ऊँची लपटों से घिरा है, देवता और असुर मिलकर उसकी रखवाली करते हैं,’ गरुड़ ने पूछा, ‘मुझे तो अमृत लेकर आना ही है, उसका क्या उपाय है?’ कश्यप ने कहा, ‘उपाय तो है पर बड़ा दुश्कर है। यदि अग्नि को घी से तृप्त किया जाए तो अमृत का ग्रहण हो सकता है। अमृत मिल जाने पर भी अनेक उपद्रव होंगे।’

कश्यप ऋषि के वचन सुनकर गरुड़ चल पड़ा, उसने पंखों में घी और मधु लपेटकर उनकी वर्षा करके अग्नि को प्रसन्न कर दिया। अग्नि ने प्रसन्न होकर उसे अमृत के कुण्ड में प्रवेश करा दिया। उसने अमृत ले लिया। तभी देवताओं ने घोषणा की-‘इस पक्षी ने अमृतकुण्ड से अमृत चुराया है।’ इस वचन को सुनकर सुर-असुर सभी क्षुब्ध हो उठे, जिसने सुना वह गरुड़ से युद्ध करने को दौड़ पड़ा। मुद्गर, भुशुण्डि, पट्टिश, परशु, भिण्डिपाल, हल, मूसल, लाठी, शूल आदि फेंककर वे गरुड़ को मारने लगे। उनके कोलाहल से आकाश गूँज उठा। ‘मारो, काटो, पकड़ लो, रसातल भी जा पहुँचे, तो छोड़ना मत’-इस प्रकार चिल्लाते हुए सैकड़ों-हजारों देवों ने गरुड़ को घेर लिया और उससे कहा, ‘अरे अमृत का हरण करने वाले, अब तू मारा गया।’ एक तरफ सारा देवलोक और एक ओर अकेला पक्षी। उसने ऐसा संग्राम किया कि कायर भय से काँप उठे। गरुड़ ने अपने पंख के प्रहार से सौ, हजार, लाख और करोड़ देवता यमलोक भेज दिये। विनता-पुत्र तथा देवों के बीच नभ में वह जो तुमुल संग्राम अमृत के लिए हुआ उससे तीनों लोक विस्मित हो गये। फिर गरुड़ के आगे सारे देव समुदाय ने मुँह की खायी, वे सब दीन वदन और दुःखी होकर पराजित युद्धभूमि को छोड़ चले। यह देखकर इन्द्र ने प्रलयाग्नि जैसा अपना वज्र गरुड़ पर छोड़ा। वह वज्र चट्टान के जैसे गरुड़ के शरीर पर लगकर फूट गया। तब इन्द्र ने अत्यन्त भयभीत होकर अपने भाई विष्णु को बुलाया। सच में ही इन्द्र के वज्र का देह पर आघात हुआ है-इसका देवों और असुरों को भरोसा दिलाने के लिए गरुड़ ने अपनी चोंच से स्वयं ही एक अपना पंख उखाड़कर दिखाया। तब विष्णु ने क्रोध से जलते हुए चक्र से गरुड़ का पीछा किया। ऋषिगण भय से व्याकुल होकर हड़बड़ाकर, ‘अरे यह क्या, यह क्या’-कहते हुए उन्हें रोकने लगे और बोले, ‘आप ससुरासुर लोक के स्वामी हैं। आप अपने ही बन्धु पर इस तरह कुपित हो उठे! गरुड़ तो आपका सहचर है। आप दावानल जैसे अपने क्रोध को रोकिए। मूढ की तरह अपने भाई के देह पर प्रहार मत कीजिए।’ ऋषिजनों के वचन सुनकर चक्रधारी विष्णु ने सोचा-कोपाकुल होकर मैं अपने ही स्वजन को मार डालता। ज्ञानी, शास्त्रार्थवेत्ता भी क्रोधाग्नि के जाल में पड़कर कार्याकार्य को नहीं देखता। तब गरुड़ और विष्णु में सन्धि हो गयी। गरुड़ को अमृत दे दिया गया जिससे विनता दासत्व से मुक्त हुई। यदि गरुड़ ने हाथी, कछुवे और वटवृक्ष को उखाड़कर उठा लिया तो तुमने एक मशक उठा ली, यह स्वाभाविक है। कृष्ण ने तो गोवर्धन पर्वत एक सप्ताह तक उठा रखा था तो तुम तेल से भरी मशक क्यों नहीं उठा सकते? वानरों ने सेतु बाँधने के लिए अनेक योजन लम्बे पहाड़ उठा-उठाकर कर समुद्र में फेंके थे। तो तुम्हारे पुत्र ने एक विशालकाय पेड़ उखाड़ लिया इसमें बताओ आश्चर्य क्या है?” (7-10)

हार मानकर शश ने धूर्त खण्डपाना से कहा, “अब तुमने जो अनुभव किया हो वह बताओ।” (094)

खण्डपाना की कथा

मायाविनी तथा उन चारों धूर्तों से बुद्धि में बढ़ी-चढ़ी खण्डपाना ने हँसते हुए उनके वचन से बराबरी करते हुए कहा, “यदि अपने सिर पर मेरे लिए अंजलि बाँधकर मेरे पास बैठो तो मैं सबको भात दूँगी।” उन धूर्तों ने कहा, “हम सारे संसार को अपने आगे कुछ नहीं समझते, तेरे आगे दीन बनकर कैसे बैठ सकते हैं? स्वाभिमानी लोग मर भले ही जाएँ, पर अपमान नहीं सह सकते।”

तब हँसकर खण्डपाना ने कहा, “तो फिर मेरा स्वानुभूत सच्चा वृत्तान्त सुनो। युवावस्था में मैं यौवन, रूप और लावण्य की खान थी। सुन्दरता में अद्वितीय थी। लोगों की आँखों के लिए मैं उत्सव थी। एक बार मैं घर में ऊपर छत पर सुखपूर्वक सो रही थी। मेरे रूप और गुण पर उन्मत्त होकर पवन ने मेरे साथ उपभोग किया। उससे मेरे एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उत्पन्न होते ही वह मेरे देखते-देखते कहीं गायब हो गया। तो बताओ क्या वायु से पुत्र होने की बात सत्य है। यदि सत्य है तो संसार में न कोई राँड है, न निपूती।”

मूलदेव आदि धूर्तों द्वारा खण्डपाना की कथा का समर्थन

मूलदेव ने कहा, “लोकश्रुति में सुना जाता है कि पवन के संयोग से कुन्ती ने भीमसेन को तथा नीला ने हनुमान को जन्म दिया। पराशर के संयोग से मत्स्यकन्या (सत्यवती)का जो पुत्र व्यास हुआ वह माता से-‘काम पड़ने पर मेरा स्मरण करना’-यह कहकर उत्पन्न होते ही कहीं चला गया था। ऋषि के प्रभाव से योजनगन्धा भी फिर से अक्षतयोनि हो गयी और शान्तनु के द्वारा उसने विचित्रवीर्य को जन्म दिया। उसके पुत्र न होने पर योजनगन्धा ने व्यास का स्मरण किया, क्षण भर में व्यास माता के पास आ गये। माता ने उनसे कहा, ‘पुत्र, यह वंश सन्तान न होने से डूबने वाला है। तो वत्स, ऐसा करो जिससे कुल में सन्तान हो जाए।’ व्यास ने वंश का उद्धार कर दिया, उनसे पाण्डु राजा हुए, धृतराष्ट्र भी हुए और महामति विदुर भी। यदि भीम और हनुमान सचमुच पवनसुत हैं और जन्मते ही व्यास माँ को छोड़कर चल दिये, यह भी सत्य है तो तुम्हारा वचन भी सत्य है।” (11-19)

तब खण्डपाना ने पूछा, “तुम लोग मेरा कुल और गोत्र जानते हो?”

मूलदेव ने कहा, “तुम पाटलिपुत्र नगर में नागशर्मा ब्राह्मण के घर जन्मी सोमश्री की लड़की हो, गौतम तुम्हारा गोत्र है।” खण्डपाना ने कहा, “नहीं, वह मैं नहीं हूँ। मिलती-जुलती आकृति होने से तुम्हें भ्रम हो गया। मैं तो एक राजा की धोबन हूँ। हमारा घर बहुत धनधान्य से सम्पन्न राजाओं के ही जैसा है। मेरा नाम दग्धिका है। मैं राजा के सेवकों तथा अन्तःपुर की रानियों के कपड़े हजारों गाड़ियों पर लदवाकर हजारों शिल्पियों से उन्हें धुलवाती थी। एक बार मैं अनेक प्रकार के वस्त्र गाड़ियों पर लदवाकर हजारों पुरुषों के साथ पानी से भरी नदी के तट पर पहुँची। छड़-छड़, शीं-शीं करते हुए वे लोग कपड़े धो-धोकर कुन्द-पुष्प तथा चन्द्रमा जैसे उजले करने लगे। उसी समय बड़ी आँधी उठी। उस पवन ने सब वस्त्रों का हरण कर लिया। मैंने काम करने वालों से कहा, तुम लोग घर जाओ, जो दोष और अपराध होगा वह मुझ पर लगेगा। राजा के भय से मैं गोह का रूप धरकर रात में नगर के उद्यान में निश्चिन्त होकर चारों ओर घूम रही थी। रात के पिछले पहर में मुझे चिन्ता लगी कि गोह के चमड़े और मांस के लिए लोग ताक में रहते हैं, तो उनसे बचने का क्या उपाय है। बहुत विचार करके मैंने गोह का रूप भी त्याग दिया और एक लाल अशोक के पेड़ के पास मैं आम की मंजरी बनकर छिप गयी। दुःशील युवती की भाँति तिमिर के पट में मुँह छिपाये रात चली गयी। कमलवन को खिलाने वाला सूर्य उगा। मैंने नगाड़े की घोषणा सुनी कि राजा ने धोबियों को अभय दे दिया है। वर्षा के नये बादल की गड़गड़ाहट-सा वह पटह का शब्द नगर के भीतर-बाहर गूँज उठा। उसको सुनकर मंजरी का रूप त्यागकर मैं फिर से लावण्य और गुणों से युक्त स्त्री बन गयी। इस बीच हमारी हजारों गाड़ियों की रस्सियाँ रात भर में सियारों ने खा ली थीं। जब मेरे पिता रस्सी ढूँढ़ने चले तो उन्हें चूहे की एक पूँछ मिली। उससे उन्होंने सारी गाड़ियों में रस्सी बाँध ली। अब बताओ, क्या यह सच है?”

शश ने कहा, “ब्रह्मा और विष्णु जब शिवलिंग का ओर-छोर नहीं पा सके तो तुम्हारा वचन कैसे झूठ हो सकता है। रामायण में सुनते हैं कि हनुमान के एक बहुत बड़ी पूँछ थी। उसे बढ़ाने के लिए हजार वर्षों तक तेल से भरे हजारों घड़ों से सींचा गया था। उसी पूँछ से देवलोक सदृश सर्वलोक प्रख्यात लंकापुरी को वायुपुत्र हनुमान् ने जला डाला। तो यदि सचमुच वायुपुत्र हनुमान् के उतनी बड़ी पूँछ थी तो चूहे के इतनी बड़ी पूँछ क्यों नहीं हो सकती, जिससे रस्सियाँ बन जाएँ। पुराण तथा श्रुति में कहा गया यह वचन और सुनो। कुरुवंश में एक महान बल, पराक्रम से सम्पन्न तेजस्वी राजा हुआ, जिसने देवाधिपति इन्द्र को भी युद्ध में परास्त कर दिया था। उसने ऋषियों का अपमान किया। देवताओं के गुरु बृहस्पति ने उसे शाप दे दिया। वह जंगल में अजगर बन गया। राज्य से निर्वासित पाण्डव जब वन में रहते थे, तो एक बार भीमसेन अकेला जंगल में निकल गया। उस अजगर ने भीम को निगल लिया, धर्मपुत्र को पता चला तो वे अजगर के पास आये। उनके कहने से उसने भीम को उगल दिया और उसके शाप का अन्त भी हुआ। यदि यह सत्य है तो तुम्हारा गोह और आम्र की मंजरी बनना तथा फिर स्त्री बनना भी सत्य है।”

खण्डपाना ने कहा, “अरे धूर्तो, अभी भी मेरी बात मान लो, मैं तुम सबको भात दूँगी। यदि तुम लोग सब मिलकर मुझ अकेली से पराजित हो गये तो इस संसार में कानी कौड़ी के बराबर भी तुम्हारा मूल्य नहीं रहेगा।” धूर्त बोले, “हमें कौन जीत सकता है? चाहे मायावी इन्द्र या विष्णु ही क्यों न आ जाएँ।” तब असन्तुष्ट खण्डपाना ने कहा, “ठीक है अब मैं तुम सबको मात देती हूँ। जब राजा के उन कपड़ों के गायब हो जाने पर मैं उन्हें ढूँढ़ने के लिए ग्राम, नगर, पुर सब जगह घूम रही थी, उसी समय मेरे चार सेवक भी गायब हो गये थे। मैं तो उन्हीं सेवकों को खोजती हुई यहाँ आयी हूँ। वे चारों सेवक तुम चारों ही हो और मेरे कपड़े भी तुम्हीं ने चुराये हैं। यदि इस पर कोई विश्वास न करे तो वह सब धूर्तों को भोजन दे।”

तब लज्जित होकर वे धूर्त बोले, “तुमने हम सबको मात दे दी। तुम अपनी बुद्धि से हम सबसे बढ़ी-चढ़ी निकलीं। तो हम तुमसे विनय करते हैं कि तुम्हीं हम सबको भात दो।” (71-81)।

ठीक है, ऐसा कहकर खण्डपाना सियारों, डाकिनियों, प्रेतों, पिशाचों से भरे श्मशान में चली गयी। वहाँ तेजी से वेताल नृत्य कर रहे थे। उनके भयंकर अट्टहास का शब्द वहाँ गूँज रहा था। भयंकर दुर्गन्ध से भरी हवा वहाँ बह रही थी। ऐसे उस श्मशान से खण्डपाना ने अभी-अभी मरा एक बच्चा खोज निकाला, उसे नहलाकर कपड़े पहनाकर उज्जयिनी नगरी में घुसी। वहाँ के श्रेष्ठी के धन-धान्य से सम्पन्न घर में वह पहुँची। श्रेष्ठी कई लोगों से घिरा था। यह उससे बोली, “मैं ब्राह्मण की बेटी हूँ। इस समय विपत्ति में पड़ गयी हूँ। कुछ दिन पहले ही मेरे यह बच्चा हुआ है। मेरा कोई बन्धु-बान्धव नहीं, मैं असहाय हूँ, पति परदेस गया है। तुम तो बड़े प्रभाव वाले हो। मेरे ससुराल का रुपया मुझे दे दो।” श्रेष्ठी का चित्त कार्य में व्याकुल था, खण्डपाना के बार-बार वही बात दोहराने पर उसने अपने सेवकों से कहा, “इसको तुरन्त निकाल बाहर करो।” जब सेवकों ने उसे कहा कि बाहर निकल, तो उसने कहा, “बस बच्चे को तो यहीं रहने दो, जब तक मैं अपना कोई ठिकाना खोजूँ।” जब वह बाहर नहीं निकली, तो सेवकों ने उसे धक्का दिया। वह धरती पर गिरकर चिल्लायी, “अरे, मेरे पुत्र को मार डाला। मैं तो सोचती थी कि यह मुझ अनाथ का आगे चलकर भरण-पोषण करेगा। इन कसाइयों ने मेरा यह मनोरथतन्तु भी तोड़ दिया। अरे लोगो, देखो इस धन के मद में मतवाले वणिक् ने मेरे सब दोषों से रहित बेटे को मरवा दिया।” इस प्रकार वह सिर और छाती पीटती हुई चीखने लगी। सेठ ने कहा कि मेरा ही कपाल फूट गया। फिर तो विलाप करती खण्डपाना को वह अपने सारे परिजनों के साथ मनाने लगा, “हे सुन्दरी, दुःखी मत हो, तेरे पुत्र के बदले में यह अँगूठी तुझे दी। इसे लेकर यहाँ से जा।” खण्डपाना अँगूठी और मृत कलेवर लेकर वहाँ से चल दी। सेठ भी दान देकर निरपराध हो गया।

मृत शिशु को वापस श्मशान में छोड़ खण्डपाना मणि, स्वर्ण, मुक्ता व रत्नों से भरे बाजार में पहुँची। अँगूठी बेचकर उसने धूर्तों के लिए अनेक प्रकार का खाद्य, पेय से युक्त स्वादिष्ट भोजन लिया। भोजन करके हृष्ट और तुष्ट मन से सबने कहा-”तुम्हारा जीवन ही सही जीवन है। तुमने अपने बुद्धि-बल से सारे धूर्तों को जीता, सबको भरपूर भोजन पानी से तृप्त कराया। सुशिक्षित पुरुष भी उस तरह बात बनाना नहीं जानते जैसा अशिक्षित महिलाएँ भी जानती हैं। शास्त्र पढ़कर भी पुरुष उनके अर्थ को नहीं समझ पाते, जबकि महिलाएँ सहज बुद्धि से वैसे ही सब समझती हैं।”