नचनियाँ चोखेलाल / जयनन्दन

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हमेशा महफिलों और प्रशंसकों की भीड़ में रहनेवाला चोखेलाल नचनियाँ अब बिल्कुल अकेला रह गया था। घरवाली तक छोड़ कर चली गई थी। उसके चले जाने के बाद उसने बहुत प्रयत्न किए, किसी ने उससे शादी करना स्वीकार नहीं किया। उसके कमरे में अगर अब भी साथ देने के लिए कोई मौजूद था तो वे थे उसके हारमोनियम, सारंगी, तबला, बाँसुरी, मजीरा और घुँघरू। कई बार उसे लगता था कि ये महज साज नहीं बल्कि उसके परिवार के सदस्य हैं। जब अकेलापन उसे काटने लगता और जिंदगी निस्सार लगने लगती तो उसकी उँगलियाँ हारमोनियम के कीबोर्ड पर दौड़ने लगती या फिर तबले पर थाप देने लगती या फिर बाँसुरी आ लगती उसके होठों से या फिर मजीरा उसके हाथों में आ कर मचलने लगता या फिर घुँघरू पैरों में बँध कर झनझना उठते। जैसे सबकी अपनी अपनी ध्वनि, अपने-अपने नाद... वैसे ही उन सबसे जुड़ी हुई स्मृतियाँ भी अलग-अलग। वे पाँचों ही साज मानो उसकी कहानी के सूत्रधार हों।

उन दिनों लौंडा नाच का खूब प्रचलन था। बारात में तो इसकी अत्यंत धूम रहती थी और बारातियों की शोभा का यह एक अनिवार्य हिस्सा बन गया था। जिस बारात में लौंडा नाच न हो उसे लोग शान और ठाटबाट की बारात नहीं मानते थे। चोखे ऐसे मौकों के लिए मानो मनोरंजन का विशेषज्ञ माना जाता था। शादी से संबंधित, भाँड़ी, फक्कड़, बधाई, विदाई, ताना-मसला, छेड़-छाड़, प्यार-मोहब्बतवाले सारे फिल्मी और गैरफिल्मी गीत उसके खजाने में भरे होते थे। वह सुननेवालों को लोटपोट कर देता था और खासखास लोगों को अँचरा ओढ़ा-ओढ़ा कर कायल बना देता था। एक बार किसी गाँव में एक ही दिन दो बारात आ गई। एक बारात में नाचनेवाला चोखेलाल था, जबकि दूसरी में एक खूबसूरत बाईजी थी। चोखेलाल मन ही मन भयभीत था कि आज उसका शो फ्लॉप हो कर रहेगा। मगर वह अचंभित रह गया कि उसके शामियाने में खचाखच भीड़ आ जुटी। लौंडा नाच का यह जलाल था, वह भी अगर चोखेलाल का हो तो लोग जैसे पागल ही हो उठते थे। उसने जब तान छेड़ा - पिया अब न सहल जाला राउर बिरहा... न अइब त छोड़ के भाग जाइब तोहरा... कुछ ही दूर पर बाईजी का शामियाना था, जो भी वहाँ सौ-दो सौ लोग थे, उनमें आधा इस स्वरलहरी को सुन कर इस तरफ आ गए।

बारात के अलावा भी कोई काज-परोज हो, छठियारी, घरहेली, मूड़न, जनेऊ, नौटंकी तो इलाके भर से सट्टा पाने के मामले में वह सबकी पहली पसंद था। कहते हैं एक बार जिसने भी उसके नाच का जादू देख लिया वह उसे भुला नहीं सकता था। लोग उसका लड़की के रूप में मेकअप देख हैरान रह जाते थे। अपनी कमनीयता और कशिश के कारण वह एक कँटीली, रसीली और सेक्सी औरत में तब्दील हो जाता था। रूप में जहाँ यह कयामत थी वहीं उसके गले में भी सरस्वती का निवास था। न सिर्फ वह सुरीला था बल्कि राग-रागिनियों की बारीक समझ भी उसे थी।

चोखेलाल के इन्हीं रूपगुणों पर छनौनवाले सातो सिंह फिदा हो गए। उसमें जो बात थी, उस पर मन ही मन फिदा हो जाना या रीझ जाना किसी के लिए भी स्वाभाविक था, शायद लोग रीझते भी रहे थे, भले ही उनके मन की लगी मन ही में बुझ जाती रही थी, लेकिन सातो सिंह में आशिकमिजाजी का आग्रह कुछ ज्यादा ही प्रबल था और वे अपने को रोक न सके थे। इलाके में जहाँ भी चोखे का प्रोग्राम होता वे उसमें जरूर हाजिर हो जाते। सबने इसे लक्ष्य कर लिया... चोखे भी भला अपने ऐसे घनघोर कद्रदान से बेपरवाह कैसे रहता। उसके भीतर भी कुछ नरम-गरम अँकुराने लगा।

एक दिन जब शो खत्म हो गया तो वह स्टेज के पीछेवाले दालान के कमरे में मेकअप उतारने की तैयारी कर रहा था। सातो सिंह कमरे के अंदर आ गए। कुछ देर तक मुग्धभाव से उसे देखते रहे और फिर कहा, 'हम छनौन गाँव के सातो सिंह हैं।'

'मुझे मालूम है, नाचते वक्त हमारे सामने भले ही सैकड़ों लोग होते हैं, जिनमें एकबारगी सबको पहचाना नहीं जा सकता, लेकिन उनमें कुछ ऐसे चेहरे, जिनकी आँखों में विशेष कद्र और उत्साह भरा एक लगाव समाया हो, वे एक बार में ही पहचान में आ जाते हैं। अगर वह चेहरा बारबार दिखे, फिर तो उससे अनजान कोई रह ही नहीं सकता।'

सातो की आँखों में कृत्तज्ञता की परछाई तैरने लगी। उन्होंने उसकी ओर एक पैकेट बढ़ाते हुए कहा, 'मैं तुम्हारे लिए अपनी पसंद के कुछ कपड़े लाया हूँ, अगली बार इसे पहन कर नाचना, और भी ज्यादा खिलोगे।'

बख्शीश लेने की उसकी आदत थी, वह मना न कर सका। कभी नाचते-गाते वक्त कुछ लोग मुग्ध हो कर, खुश हो कर, आकर्षित हो कर अपने-आप ही बख्शीश देते थे, कभी वह बख्शीश की चाह में स्टेज से नीचे उतर कर चुने हुए लोगों को अँचरा ओढ़ाने लगता था, वे न चाहते हुए भी लोक-लाज से कुछ देने के लिए विवश हो जाते थे। उसे कई बार लगता था कि इस नृत्यकर्म का अभिप्राय आजीविका चलाने से ज्यादा चाहनेवालों की अनंत खोज भी है। उसे लगता था कि प्रशंसा या वाहवाही उसे आगे बढ़ाते हैं, उसकी प्यास को नई तृप्ति देते हैं और तृप्ति को नई प्यास।

सातो सिंह के रूप में उसे अनायास एक नई तृप्ति और एक नई प्यास देनेवाला दीवाना मिल गया था। सातो ने कहा, 'मैंने कई लौंडों को नाचते हुए देखा है, लेकिन तुम उन सबमें बेमिसाल और अलग हो... सुर-ताल का, सुंदरता का और गले में मिठास का जो सामंजस्य तुममें है वह किसी में नहीं। तुम्हें देखते-सुनते हुए तो मेरा मन ही नहीं भरता। तुम अगर लड़की होते और नाचते तो शायद मैं तुम्हारा इतना प्रशंसक नहीं होता। शायद मैं तब भी तुम्हारा इतना प्रशंसक नहीं होता जब तुम पुरुष हो कर स्त्री की तरह मुकम्मल अदा और अंदाज नहीं देते... शायद मैं तब भी तुम्हारा प्रशंसक नहीं होता जब तुम कुछ भी होते, स्त्री या पुरुष और सुरताल का तुममें मणिकांचन संयोग न होता।'

'मेरा अहोभाग्य सातो सिंह जी कि आप संगीत के पारखी हैं और मुझे इतना पसंद करने लगे हैं। मुझे किसी ने बताया कि आपने उस्ताद इरशाद अली पिलानी से बजाब्ता गायिकी की तालीम ली हुई है और उनके साथ शागिर्दी भी की है। मौशिकी की इतनी बड़ी शख्सियत के साथ रहने का आपको मौका मिला, आप बड़े खुशनसीब हैं सातो सिंह जी।'

'क्या खुशनसीब हैं चोखे? तुम जिसे बड़ी शख्सियत कहते हो उसे इस इलाके में किसी ने दो कौड़ी का नहीं समझा। उनकी संगति में जाने को मेरे बाबू जी ने एक नालायकी की संज्ञा दी और फिर जबरन मुझे वहाँ से वापस बुला लिया। मैं संगीत की दुनिया में ही खुद को रखना चाहता था, लेकिन इसे घरवालों ने मुमकिन नहीं होने दिया।'

'नृत्य-संगीत की जिसे समझ न हो उनका ऐसा ही बर्ताव होता है सातो सिंह जी। लोग भले ही मेरे नाच-गाने का लुत्फ उठाते हैं, मजा लेते हैं लेकिन वे मेरे वजूद को हिकारत और उपहास की नजर से देखते हैं।'

'जानता हूँ चोखे... लौंडा नाच, मतलब उनके खयाल में एक निकृष्ट और गंदा काम। कुछ हद तक यह ठीक भी है कि ज्यादातर धंधेबाजों ने एक फूहड़ता और अश्लीलता के प्रदर्शन को ही लौंडानाच मान लिया है। लेकिन तुम इस पर ध्यान मत देना, मैं जानता हूँ कि तुम घर से भाग कर रामलीला पार्टी में कई साल रहे और नाचगाने की बारीकी को बहुत करीब से देखा... इसलिए तुझमें एक शालीनता, समझदारी और कलात्मकता है। तुम्हारी प्रस्तुति में वो बात है कि कोई लगातार अवलोकन करे तो उसकी रुचि परिष्कृत हो जाए।'

'सातो जी, मेरे नाच-गाने को इस गाँव-देहात में कोई इतना बड़ा अर्थ देनेवाला मिल जाएगा, मैंने इसकी कल्पना तक नहीं की थी। आपने तो मेरे अंदर जमा हो रहे हीन भावना के टीले को ही मानो ध्वस्त कर दिया।'

सातो सिंह ने उसे यों देखा जैसे टापू की नीरवता में अकेली लंबी भटकन के बाद कोई साथी मिल गया, 'तुम्हें समर्थन और प्रोत्साहन दे कर दरअसल मैं अपनी खुशी और अधूरी साध की लौ को प्रज्ज्वलित कर रहा हूँ। कला की लगातार गैरमौजूदगी के कारण जो मेरे भीतर एक मरुभूमि बन गई है वह तुम्हारे सान्निध्य में आ कर सिंचित हो सकेगी, इसलिए मुझे इजाजत दो चोखे कि मैं तुम्हें अपना कह सकूँ।'

'सातो जी, जहाँ सारे अपने पराए और विमुख हो रहे हों, वहाँ कोई पराया अपना होना चाहता है, यह जरूर प्रकृति का ही हिसाब-किताब है, जो हमेशा लेना-देना बराबर कर देता है। विभिन्न गाँवों में संपन्न पिछले दस-बारह आयोजनों में आपकी उपस्थिति को देखते हुए जहाँ मैंने आपके बारे में सब कुछ पता कर लिया था, वहीं आपके नजदीक आने की मुझे प्रतीक्षा भी रहने लगी थी। चलिए, आज प्रतीक्षा खत्म हुई... मैं आपको अपना कह सकूँ, यह परिस्थिति सदा बनी रहे, मैं इसका पूरा खयाल रखूँगा।'

दोनों के बीच अपनापन की गाँठ लगातार मजबूत होती गई। सभी लोग धीरे-धीरे जानने लगे कि सातो सिंह और चोखेलाल में गाढ़ी अंतरंगता है। जैसा कि फितरत है आदमी की, इसके कई अर्थ दिए जाने लगे, कई गंध सूँघी जाने लगी।

दोनों दो गाँव के रहनेवाले थे। दोनों एक दूसरे के गाँव जाते और घर में ठहरते। चोखे आता तो सातो अपने दालान में ही एक-दो घंटे के लिए नाच का प्रोग्राम रख देते। खुद हारमोनियम पर बैठ जाते और संगत के लिए गाँव के किसी ढोलकिया को बुला लेते। चोखे समाँ बाँध देता। सातो इस तरह खिल उठते जैसे कोई बेशकीमती खजाना मिल गया हो।

सातो सिंह जब उसके गाँव जाते तो अपने साथ मन-दो मन चावल, गेहूँ, आलू, प्याज या अपने खेतों में होनेवाली ऐसी ही दूसरी चीजें ले लेते। उनकी अच्छी खेती-बारी थी और इफरात उपज होती थी। वे जानते थे कि चोखे को हमेशा इन चीजों की जरूरत है। देख कर लोग हैरान रह जाते कि इतना तो कोई अपने सगे के लिए भी नहीं करता है। मतलब में कुछ और भी मतलब जुड़ जाता।

दोनों ही इस स्थिति को अच्छी तरह ताड़ गए कि उनके मिलने से आसपास एक खुसुर-फुसुर होने लगती है और लोगों की आँखों में एक संशय उतर आता है। सातो सिंह के बेटे ने एक बार उन्हें टोक दिया, 'बाउजी, यह अच्छा नहीं लगता कि नाती-पोतेवाली इस उम्र में आप चोखवा के लिए पगलाए रहते हैं। गाँववाले जब इस बारे में हमें कुरेद कर छेड़ते हैं तो शर्म से हमारी गर्दन झुक जाती है।'

सातो अपने बेटे को क्या स्पष्टीकरण दें, उन्हें समझ में नहीं आया। जानते थे कि कितना भी वे कह लें, लोग मानेंगे नहीं, वे अपने ही चश्मे से देखेंगे इस रिश्ते को। किसी तरह अपने बेटे को समझा भी लें तो उससे सबका मुँह बंद नहीं हो जाएगा। उन्होंने कहा, 'जिसे जो समझना है, समझते रहें, मुझे किसी को भी अपनी सफाई देने की जरूरत नहीं है। किसी के मुझे बुरा या भला मान लेने से न मुझे कुछ तमगा मिलता है और न कोई जागीर छिनती है, फिर हम इसकी परवाह क्यों करें? जब बाउजी की चलती थी तो वे इरशाद अली की देहरी से मुझे जबर्दस्ती घसीट लाए थे। अब जब फिर फन के जादू से मैं खिंच गया हूँ और अपनी नीरस होती उम्र में कुछ खुशियाँ जोह लेना चाहता हूँ तो अब तुम बेटे हो कर मुझे नियंत्रित कर रहे हो।'

बेटे ने कहा, 'बाउजी, जिसे इस समाज में रहना है उसे इसकी परवाह तो करनी ही होती है। लोगों की नजरों में गिरने के कई बुरे अंजाम होते हैं। आखिर उठना-बैठना, रिश्ता-नाता, मरना-जीना सब आपको इसी समाज में करना होता है। आप सबकी घृणा, उपेक्षा और अवमानना ले कर कैसे खुशहाल रह सकते हैं? सामाजिक लोकलाज ही तो वह नकेल है जो आदमी को मर्यादित और सीमित करती है।'

सातो सिंह को लगा कि आज उनके सामने एक बार फिर बेटे के रूप में वेश बदल कर उनके पिता बोलने लगे हैं। पिता जब उन्हें बरजते थे तो उनके समर्थन में पीछे माँ, चाचा-चाची और परिवार के ज्यादातर लोग खड़े दिखते थे। आज बेटा तलब कर रहा है तो इसके स्वर में खुद उनकी पत्नी, अन्य बेटे-बेटियाँ और परिवार के कई अन्य लोगों के स्वर भी शामिल हैं। उन्हें पहली बार लगा कि जब दुनिया आपके साथ न हो तो आप खुद को अपने बेटे के बाप के रूप में भी पेश नहीं कर सकते। उन्हें यह भी लगा कि फन के मामले में यह समाज पिता के समय जहाँ था आज बेटे के समय भी वहीं है।

अंततः अपनी मरजी और अपने घर का मालिक हो कर भी उन्हें यह तय करना पड़ा कि चोखे से मिलने के तरीके अब उन्हें बदलने होंगे।

इधर चोखे के घर-परिवार में भी ऐसी ही प्रतिक्रिया थी। जब वह भाग कर रामलीला में चला गया तो कई बरस बाद उसका बड़ा भाई ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उस तक पहुँचा और किरिया-कसम तथा सबके मोह-लगाव का वास्ता दे कर वापस ले आया। आते ही उसने शादी करवा दी कि दुनियादारी से बँध कर भागेगा नहीं। शादी करके उसे अच्छा लगा। रामलीला सिर्फ मर्दों की एकरस दुनिया थी, जहाँ मर्द ही औरत की भूमिका करते थे और इनके कृत्रिम औरताना आवभाव से मर्द अपने मन बहलाव का सिरा जोड़ना चाहते थे। यहाँ औरत का मौलिक साहचर्य पा कर उसके भीतर एक नया रससंचार होने लगा। उसके सामने एक अलग तरह की हसीन और मजेदार दुनिया उभरने लगी। मगर यह दुनिया ज्यादा लंबी नहीं खिंची। हारमोनियम, घुँघरू, नृत्यकला और औरताना किरदार निभाने की आदतें वह एक बहुमूल्य कमाई के रूप में अपने साथ ले कर आया था और वह इन्हें छोड़ नहीं सकता था। उसकी नई-नवेली औरत जमुनियाँ, जो अपने साथ अनेक मासूम हसरतें ले कर आई थी, अपने पति को शुद्ध मर्द के रूप में देखना चाहती थी, मगर उसने देखा कि इसे मर्द से ज्यादा औरत होने में मजा आता है। कोई आभूषण या प्रसाधन-सामग्री उसे पसंद आती तो वह खरीद कर अपने लिए रख लेता, कोई अच्छी साड़ी जँच जाती तो वह अपने लिए छाँट लेता।

जमुनियाँ को उसका औरत बन कर नाचना जरा-सा भी अच्छा नहीं लगा। औरत बन कर क्या, मर्द के वेश में भी वह नाचता यह भी उसे स्वीकार्य नहीं था। वह जिस संस्कार से आई थी उसमें किसी का भी नाचना एक आवारागर्दी और नालायकी का काम माना जाता था। मगर चोखे का जुनून ऐसा था जैसे वह सिर्फ और सिर्फ नाचने के लिए ही बना है। घुँघरू पैरों में नहीं बँधते और हारमोनियम-तबले की धुनें हृदय की गहराई में उतरे बिना कई दिन हो जाते तो उसे लगता मानो दुनिया बेसुरी हो कर एक ही जगह रुक गई है। वह मचल उठता नाचने के लिए। उसकी यह लगन ही थी कि उसका सिक्का चल निकला इलाके में और वह एक बहुआमंत्रित नचनियाँ बन गया। जमुनियाँ यहाँ तक तो झेल गई, मगर जब सातो सिंह चोखे के नजदीक आते-आते इतना नजदीक आ गए कि बीच में कोई खाली जगह नहीं रह गई तो उसे लगा कि उसकी निजी अंतरंगता और अधिकार का भी अतिक्रमण हो गया। उसने देखा कि चोखे के पुरुषत्व के लिए सबकी आँखें एक कठघरा बन गईं। उसके साथ चोखे के पतिवाले निर्वहनों के बारे में अपने घर-परिवारवाले भी उससे सवाल पूछने लगे। जमुनियाँ क्या कहती? पौरुष की कमी का एहसास तो उसे पहले दिन ही हो गया था। उसने महसूस किया कि किसी का मर्द जब ऐसा निकल आए तो औरत का कोई भी मान-सम्मान और वजन नहीं रह जाता। उसे यह भी महसूस हुआ कि पुरुषत्व और स्त्रीत्व के प्रदर्शन में जितना शारीरिक बनावट का महत्व है, उससे कहीं ज्यादा मानसिकता का है। जमुनियाँ इसे अच्छी तरह समझती चली गई कि कोई पुरुष हो कर भी लगातार स्त्री की धारणा में जिए तो उसकी प्रकृति और लक्षण लगभग नारीवादी ही हो जाता है।

सातो सिंह ने अब जरा मिलने-जुलने की शैली बदल दी। अनाज के बोरे भेजने होते तो जन-मजूर से भिजवा देते। अपने आते तो कोशिश करते किसी की नजरों पर न चढ़ें। मगर वे जमुनियाँ की नजरों से कैसे बचते? वह दोनों के बीच लाग-लपेट को और भी सघन होते देख कर आजिज आ गई और उसमें एक निराशा बढ़ती गई कि चोखे में मर्दपन लौटने की जगह औरतपन ही दिन व दिन बढ़ता जा रहा है। चोखे और सातो के बारे में जो चर्चा फैल गई थी, उस पर वह विश्वास नहीं करना चाहती थी, मगर अविश्वास करने की भी तो कोई ठोस वजह उसे नहीं मिल रही थी।

जैसे एक औरत प्रशंसा की चिरआकांक्षी होती है, उसी तरह यह चोखे भी अपने श्रृंगार की, सुंदरता की, नृत्य की एवं अपने गायन की वाहवाही सुनने के लिए सातो सिंह का एकदम मुरीद होता जा रहा था। जमुनियाँ को लगा कि कहीं वह कल सातो सिंह के एहसानों के बोझ से इतना न दब जाए कि उसे भी उपहार में परोस दे। उसकी ओर कुछ उँगलियाँ इस आशंका को सोच कर उठने भी लगी थीं। जिंदगी तो ऐसे ही बेरंगत हो गई है, ऐसी नौबत आ गई तब तो पूरा नर्क ही बन जाएगी। उसने तय किया कि अभी उसके सामने पूरा जीवन पड़ा है, इसके पहले कि और देर हो जाए, उसे रास्ता बदल लेना चाहिए... और वह चोखे को सदा-सदा के लिए छोड़ कर चली गई।

चोखे के लिए यह एक गहरा झटका था। वह घर में हर काम के लिए जमुनियाँ पर पूरी तरह आश्रित और अपने सारे क्रिया-कलाप में उसकी उपस्थिति का अभ्यस्त हो गया था। उसका अपनापन, उसकी मासूमियत, उसकी सहृदयता, उसके स्त्रियोचित व्यवहार और गृहिणीपन उसे उत्साहित और गतिशील रखने में बहुत मदद करते थे।

भाइयों ने बहुत पहले उसे तब अलग कर दिया था जब लाख मना करने पर भी न मानने के बाद उन्हें लगने लगा कि नचनियाँ-बजनियाँवाले काम के कारण समाज उन्हें दुरदुराहट की नजर से देखने लगा है। जमुनियाँ के रहने से भाइयों का अलग होना उसे कुछ खास नहीं अखरा था। मगर अब जब वह भी उसे ठुकरा गई, लगा कि जैसे किसी ने उससे उत्सव छीन कर हाथ में मातम पकड़ा दिया। सातो सिंह ने उसकी अधीरता को यों थामने की कोशिश की जैसे किसी धराशायी होनेवाली लतर को रसरी का सहारा मिल जाता है। उन्होंने कहा, 'तुम्हारा नहीं, उसका दुर्भाग्य था चोखे जो तुम्हारे जैसे हीरे को वह पहचान नहीं पाई। इस दुनिया में लड़कियों की कोई कमी नहीं है, बहुत ऐसे बाप मिल जाएँगे जो अपनी बेटी के लिए वर ढूँढ़ने में अपने तलवे घिस-घिस कर पस्त हो गए होंगे। देखना, तुम्हें जमुनियाँ से भी सुंदर और सुघड़ लड़की मिल जाएगी। तुम भरोसा रखो।'

चोखे ने भरोसा कर लिया... सातो सिंह जब कहते हैं तो वह निराधार हो ही नहीं सकता।

तलाश होने लगी... अच्छी, सुघड़, सुंदर... एक भी न मिली। चोखे का नाम-ग्राम सुनते ही काम वे जान जाते और उनके मुँह पर इनकार का कपाट लग जाता। इसके बाद थोड़ी कुरूप, कामचलाऊ और मंद बुद्धि पर भी सुलह कर लेने की राय बनी, इस पर भी कोई तैयार नहीं। कोई विकलांग लड़की मिल जाए तो चलो वह भी चलेगी... घर और चौका ही तो सँभालना है। अब भी कोई तैयार नहीं। सबका तात्पर्य यही था कि ऐसे आदमी से रिश्ता करने से क्या फायदा जो कोई काम नहीं करता, सिर्फ नाचता-गाता है और जो मर्द कम और औरत ज्यादा है।

अंततः चोखे इस फैसले पर पहुँच गया कि दुनिया में लड़कियों की कोई कमी नहीं है तो ऐसा भी नहीं है कि वह हर किसी के लिए आसानी से उपलब्ध है। ठीक वैसे ही जैसे दुनिया में दौलत की भी कोई कमी नहीं है, कुदरत ने बेइंतहा नियामतें बख्शी हैं, फिर भी ज्यादातर देश और ज्यादातर आदमी गरीब हैं और गिने-चुने देश एवं लोग ही दौलतमंद हैं।

चोखे को अब सातो सिंह के सान्निध्य की तलब और भी बढ़ गई थी। उसे अब घर में रहने का जरा भी मन नहीं होता और इच्छा होती कि बिना नागा उसे कार्यक्रम मिले जिसमें वह पूरी तरह खुद को खपा दे।

लौंडानाच का उम्र से और शरीर से सीधा ताल्लुक होता है। यौवन ज्योंही उतरने लगा कि चाहनेवालों की संख्या घटने लगी। उम्र जहाँ 28-30 तक हुई कि न वो तेजी रह गई और न वो चमक। चोखे ने देखा कि दाढ़ी बनाने के बाद भी उसका स्याहपन गाढ़े मेकअप के बावजूद छुप नहीं पाता। कपोलों की कसी हुई त्वचा भी ढीली हो गई और गले में भी जो एक खनक थी वो एक भारीपन में बदल गई। सातो सिंह पहले ही उसे सावधान कर चुके थे, 'एक नाचनेवाले के नाचने की मियाद ज्यादा से ज्यादा आठ-दस साल होती है, इसलिए जितना कुछ करना है चोखे, इसी बीच कर लो।'

उन्होंने आगे कहा था, 'जमाना भी बहुत तेजी से करवट ले रहा है, कल हो सकता है लोग नाच की जगह टीवी, वीडियो या सीडी चलाने को ज्यादा बेहतर समझने लगें।'

ठीक यही हुआ... गाँव में नौटंकी का प्रचलन दम तोड़ने लगा। पहले प्रायः गाँवों में साल में एक या दो बार तीन-चार रातों के लिए नौटंकी जरूरी होती थी और उसमें लौंडा नाच एक अनिवार्य फिलर के रूप में इस्तेमाल होता था। चोखे ने कुछ गाँवों में अपनी ऐसी जगह बना ली थी कि नौटंकी की तैयारी ढीली-ढाली भी हो तो अपने नृत्य से वह रात को यादगार बना देता था। उसे याद पड़ता है कि कई लड़के-लड़कियाँ इतने रीझ जाते थे उस पर कि अपना कुछ भी निछावर करने के लिए तैयार हो जाते थे। भीखू गाँव में मुखिया की एक लड़की थी। वह उसके इस गाने पर 'अँचरा भींज गइले नैना के नीर से, ना जाने कउना पीर से ना' इतना सम्मोहित हो गई थी कि अपने हाथ से सोने का कंगन उतार कर उसके हाथों में पहना दिया था। बिटरुआ गाँव के एक लड़के ने उसे एक जापानी कैमरा दे दिया था और कहा था, 'आप अपना हर प्रोग्राम का फोटो खिंचवाना और मुझे उसकी एक-एक कॉपी भिजवा देना। आप एक बहुत बड़ी हस्ती हो दोस्त। आनेवाले समय में आपके ये फोटो संग्रहालय में रखने लायक एक धरोहर बन जाएँगे।'

चोखे को अपने बारे में ऐसे ऊँचे ख्यालात पर हँसी आ गई थी। जहाँ इस काम को ही ज्यादातर लोग दोयम दर्जे का समझते हों, वहाँ लोग कल उसे याद करेंगे?

एक और सम्मान उसकी स्मृति में खुद गया था। जैतपुर गाँव में एक किसान ने उसे अपनी एक बाछी दे दी थी और कहा था, 'यह बाछी गाय बन कर तुम्हें वर्षों दूध पिलाए और तुम स्वस्थ रह कर सालों-साल अपने नाच-गाने के फन से हम किसानों के दुखदर्द को कम करते रहो।'

काश, ऐसा हो पाता और उसका क्रेज इसी तरह बना रहता। मगर एक तो देशकाल ने अपना नया अध्याय शुरू कर दिया... और दूसरा उम्र ने अपना जलवा दिखा दिया। आमंत्रण कम होता गया और उसकी अदाकारी फीकी होती गई। एक दौर ऐसा आ गया कि वह एकदम बेकाम हो गया। दर्शक गुम हो गए, साजिंदे चले गए... सिर्फ साज रह गए उसकी बेबसी पर मातमी धुन गाने के लिए। सातो सिंह से भी संपर्क विरल होता गया और दूरी बढ़ती गई। सातो एक बेअख्तियार पड़ाव पर आ गए थे। जब उनका अख्तियार था तो अपने मन की चला लेते थे। अब बेटों ने उन्हें अनुशासन के सख्त दायरों में रहने के लिए विवश कर दिया था।

चोखेलाल भी अब इतना असहाय हो गया कि उसे अपने भतीजों की शरण में जाना पड़ गया।

एक दिन बिटरुआ गाँव का वह लड़का, जिसने उसे कैमरा दिया था, चोखे को ढूँढ़ते हुए उसके गाँव आया। उसने कहा था कि उसके काम और नाम संग्रहालय में रखने की पात्रता प्राप्त करेंगे। उसने देखा कि चोखेलाल जीते जी एक हास्यास्पद म्यूजियम में बदल गया है। खेत में गेहूँ की कटनी चल रही थी। वह हँसुए से गेहूँ काट रहा था। थोड़ी ही देर में वह पसीने से तरबतर हो कर हाँफने लगा और पास ही में एक मेड़ पर स्थित पीपल की छाँव में आ कर बैठ गया। छाँव में बहुत लोग बैठे थे... कुछ राहगीर और कुछ आसपास के खेतों में काम करनेवाले बनिहार। कैमरावाले लड़के को एक ग्रामीण अपने साथ ले कर यहाँ आ गया था। उसने ही इशारे से बताया कि यही है चोखेलाल। देख कर वह हैरान रह गया, बिना बताए उसे पहचानना मुश्किल था। वह सिर्फ हडि्डयों का एक ढाँचा भर रह गया था। कहाँ तो उसकी देह से एक समय बिजलियाँ किलकती थीं और गदराए-कसे जिस्म का आकर्षण दूर से ही खींच लेता था।

उसे छाँव में आता देख उसका भतीजा उसे डाँटने लगा, 'एक घंटा भी आपसे काम नहीं होता। काम कहाँ से होगा जिंदगी भर तो आपने कमर डोला कर मउगागिरी की? तब हवा में उड़ते थे। मजा लेने के लिए कोई लौंडेबाज जरा पीठ सहला देता था, बस आपका मिजाज आसमान में चढ़ जाता था। भाँड़-भड़ैती के काम में कुछ नहीं रखा है, सब कुछ गँवा देने के बाद यह आपको अब जा कर मालूम हुआ। आज कोई आपकी तरफ झाँकने भी नहीं आता। अंत में अपना ही परिवार काम में आया, नहीं तो खाने के लिए भी तरस जाते। इस बात को जरा समझिए और काम में मन लगाइए।'

चोखे ने कोई जवाब नहीं दिया, जैसे उसके कंठ में कोई आवाज ही न हो। कैमरावाले लड़के को लगा कि वह उसकी इस हालत पर फूट-फूट कर रो पड़े। जिस आदमी के गले में इतनी आवाज थी कि चार-चार घंटे तक लगातार गाता रहता था और सामने बैठे सैकड़ों लोग चुपचाप सुनते रहते थे... देश, दुनिया और समाज की कितनी ही बुराइयों और विकृतियों को वह अपने गाने का विषय बना लेता था, आज वह अपना ही बचाव करने में असमर्थ हो गया है और अपने लिए भी दो लाइन बोलने के लायक नहीं रह गया है।

कैमरावाले लड़के से रहा न गया। उसने उसके भतीजे को संबोधित किया, 'सुनो भाई! चोखेलाल को चाहनेवालों की आज भी कमी नहीं है, देखो, मैं आया हूँ इन्हें देखने। तुम इन्हें जिस तरह कोस रहे हो वह न्यायोचित नहीं है। तुम्हें शायद मालूम न हो कि इनकी यह दशा इसीलिए हो गई कि तुम जैसे जाहिलों और गँवारों के बीच ये फँस कर रह गए। अनाड़ियों ने इन्हें कोयला समझ लिया और इनकी परख करने के लिए जौहरी इन्हें मिला नहीं। इनमें वो सिफत थी कि बड़े घर में पैदा होते तो बिरजू महाराज बन जाते, जिसे भारत सरकार पद्मश्री से सम्मानित करती और कई बड़े शहरों में इनकी नृत्यशालाएँ चलतीं। इन्हें पंडित जी कह कर पुकारा जाता और इनसे सीखनेवालों की लाइनें लगी रहतीं। लोग इनसे सीख-सीख कर धन्य-धन्य महसूस करते। टीवी पर इनका गुणगान और इंटरव्यू प्रसारित होता, अखबारों में आए दिन इनके बयान छपते, इनकी छींक-खाँसी भी खबर बन जाती। बड़े मंचों पर इनका गायन होता और 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' में इनके भी चेहरे दिखाए जाते। अवसर और पहुँच का नाम बिरजू महाराज, लता मंगेशकर और किशोर कुमार होता है दोस्त, वरना इस देश में हजारों बिरजू महाराज, लता मंगेशकर और किशोर कुमार विभिन्न गलियों में, झोपड़ियों में, खोलियों में इसी तरह तुम जैसे अपने सगे लोगों द्वारा प्रताड़ित हो कर बर्बाद हो जाते हैं।'

विशाल पीपल की परिधि में जितने लोग बैठे थे उनमें अधिकांश आसपास के गाँवों के ही खेतिहर थे और वे चोखे को अच्छी तरह जानते थे। वे रोज भतीजों द्वारा उसके नाच-गाने को निशाना बना कर की जानेवाली दुत्कार-फटकार सुनने के अभ्यस्त हो गए थे। आज चोखे के पक्ष में किसी को बोलते सुन उन सबका ध्यान बरबस ही इधर खिंच गया। सबको अच्छा लगा कि आज भी चोखे की तरफदारी करनेवाले कुछ लोग मौजूद हैं। चोखे का भतीजा भी अचंभित आँखों से कैमरेवाले अजनबी लड़के को देखता रह गया था। जो बातें कही गई थीं उसके प्रतिवाद की औकात उसमें नहीं थी। उसने ताड़ लिया कि जो आदमी यह बात कह रहा है वह कोई मामूली आदमी नहीं है। दरअसल कैमरावाला लड़का अब लड़का नहीं बल्कि एक अच्छी डीलडौल और वेशभूषा में एक भरापूरा रौबदार व्यक्ति था, जिसके व्यक्तित्व में भव्यता और शिष्टता का समावेश स्पष्टतः महसूस किया जा सकता था।

उसने बेहद श्रद्धा भरी नजरों से चोखेलाल को निहारा और कोमलता से पुकारा, 'चोखेलाल जी, आपने मुझे पहचाना नहीं होगा... कहाँ पहचानेंगे, अब तो आप अपने-आपको भी शायद नहीं पहचानते। मैं बिटरुआ गाँव का लोचन प्रसाद हूँ। हर साल मैं नौटंकी में पाठ करता था। आपका घनघोर प्रशंसक था और अगर आपको याद हो तो मैंने आपको एक कैमरा दिया था।'

कुछ देर अपनी सूनी आँखों से उसे अपलक देखता रहा चोखेलाल। अनायास आँखें आँसुओं से डबडबा गईं, 'मुझे सब कुछ याद है लोचन भैया, मुझे सब कुछ याद है। मुझे जो कुछ मिला था, सब बिक गया, लेकिन तुम यकीन नहीं करोगे, उस कैमरे को मैंने आज तक बचा कर रखा है, चूँकि उस कैमरे को देते वक्त तुमने अपनी कल्पना से मेरे भविष्य का एक चित्र खींचा था, वह चित्र मैं भुलाए नहीं भूलता। कहो, कैसे आना हुआ, लगता है तुम कोई बड़ा आदमी बन गए हो।'

'बड़ा आदमी तो क्या बनूँगा चोखेलाल जी, हाँ एक अच्छी नौकरी मिल गई है। प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा चयनित हो कर एक प्रखंड का अधिकारी हो गया हूँ। मेरी बड़ी हसरत थी कि अपनी शादी में बड़े धूमधाम से आपका नृत्य करवाऊँ। शादी तय हो गई है। मैं पहले सातो सिंह जी के पास पहुँचा। उन्हें निमंत्रण कार्ड दिया। वे बहुत बूढ़े हो गए हैं। बेटों ने उनके कहीं भी आने-जाने पर सख्ती कर दी है। फिर भी उन्होंने कहा है कि अगर चोखे हाँ कर दें तो वे किसी भी तरह जरूर पहुँच जाएँगे। मगर यहाँ आपकी अवस्था देख कर लगता है यह संभव नहीं है।'

दोनों के संवाद को सभी बड़े ध्यान से सुन रहे थे, उसका भतीजा भी। चोखेलाल कुछ देर सोचता रहा, फिर कहा, 'मैं तुम्हारी शादी में नाचूँगा लोचन, तुम मुझे इसी वक्त अपने साथ ले चलो।'

वहाँ उपस्थित सारी आँखें ताज्जुब से फैली रह गईं। उसका भतीजा तो जैसे एकदम फनफना उठा, 'चाचा, अगर तुम गए तो सोच लो, दोबारा तुम्हारे लिए मेरे घर में कोई जगह नहीं होगी। किसी भी मदद के लिए घिघियाते-रिरियाते रहोगे, फिर भी मुझे कोई दया नहीं आएगी। एक टुकड़ा रोटी के लिए मोहताज हो जाओगे।'

चोखे ने इसे एकदम अनसुना कर दिया, जबकि लोचन एक असमंजस में घिर गया। चोखे ने अपने पैरों में स्फूर्ति भर कर कहा, 'चलो लोचन, जरा घर से साज-श्रृंगार ले लें।'

चोखे ने अपनी ढही-ढनमनाई कुठरिया से लोचन की जीप में हारमोनियम, तबला तथा अपने मेकअप का बक्सा लदवाया। बक्से में घुँघरू और तहाई हुई साड़ियाँ आदि रखी थीं। आगे की सीट पर वह बैठ गया तो लोचन ने जीप स्टार्ट कर दी। धूल उड़ाती हुई जीप चल पड़ी, गाँव के सारे लोग उसे जाते हुए देखते रहे, उसका भतीजा भी।