नन्द किशोर नवल के साथ बातचीत / नताशा

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आपके लेखन की शुरुआत कबसे हुई? आलोचना के क्षेत्र में कब गंभीरता से लिखने लगे और इस ओर झुकाव के क्या कारण थे?

मैं तो 1950-51 में ही कवि हो चला था। 1954 में मेरे पच्चीस गीतों का एक संग्रह भी निकला- 'मंजीर'। लेकिन एम॰ ए॰ तक पहुँचते पहुँचते मेरा ध्यान कविता से हटकर आलोचना की तरफ चला गया और 1970 से मैं लगातार पढ़ने और आलोचना लिखने लग गया। लेकिन कविता पूर्णतः मुझसे छूटी नहीं। नई कविता के दौर में मुझे अभिव्यक्ति का उपयुक्त माध्यम मिल गया था,जिससे मैं बहुत ताजगीभरी कविताएं लिखने लगा था। लेकिन खुद मुझे इस बात का पता तब चला जब मित्रों के परामर्श से अपने साठवें जन्मदिन पर मैंने अपनी एक सौ तैंतालीस चुनी हुई कविताओं का संग्रह 'कहाँ मिलेगी पीली चिड़िया' के नाम से प्रकाशित कराया।

इन दिनों आपकी दिनचर्या क्या है? कितना वक़्त लेखन और पठन - पाठन को समर्पित है?

मेरी दिनचर्या साधारण है। सवेरे छः बजे के आस पास उठता हूँ, फिर कुछ पढ़ता हूँ या पिछले दिनों की डायरी लिखता हूँ। डायरी लिखना मैंने इसलिए शुरू किया कि लिखने का अभ्यास न छूट जाए। कारण यह की सर्वाइकल स्पोंडलाइटिस से पीड़ित होने की वजह से अब मैं केवल 'डिक्टेशन' देता हूँ। उच्च रक्तचाप का मरीज होने के कारण जाड़ों में मैं साढ़े सात बजे टहलने निकलता हूँ। साइंस कालेज के मैदान में बैठकर आधे घंटे तक मित्रों से गप्प करता हूँ। फिर सब्जी वगैरह खरीदता घर लौटता हूँ। घर आकर नाश्ता करके अखबार पढ़ता हूँ और बारह बजे से एक घंटे के लिए सो जाता हूँ। जगने पर स्नान,भोजन और पंद्रह मिनटों का विश्राम। फिर तीन-चार बजे से मैं अपनी धर्मपत्नी को अपनी नई पुस्तक का 'डिक्टेशन' देना शुरू करता हूँ,जो रात नौ-दस बजे तक चलता है। मेरी पत्नी ही मेरा 'डिक्टेशन' लेती हैं, क्योंकि वे शुद्ध लिखती हैं और उन्हें सारे फोर्मेट्स मालूम हैं। दस बजे के बाद मैं सो जाता हूँ।

लेखन में परिवेश का कितना महत्व है और आपने परिवार और लेखन के बीच किस प्रकार सामंजस्य बिठाया?

लेखक जहाँ रहता है, वह परिवेश को अपने अनुकूल बना लेता है। वह जब लिखने लगता है तब परिवेश का खयाल नहीं रहता है। मुझे परिवार को लेकर कभी कोई परेशानी नहीं हुई, क्योंकि मेरी धर्मपत्नी श्रीमती रागिनी शर्मा ने अपने साहित्य -प्रेम के कारण मुझे पारिवारिक दायित्वों से बिलकुल मुक्त रखा है। साहित्य के नाम पर मैंने लाखों रुपये लुटाए हैं जिस पर रोक लगाने के बदले उन्होंने मुझे उत्साहित ही किया।

आलोचना में पूर्व सिद्धान्त का होना आवश्यक है या आलोचना करने के क्रम में स्वतः उसका निर्माण होता चला जाता है?

आलोचना लिखने में पहलेकी आलोचना के सिद्धान्त भी सहायक होते हैं और रचना से भी आलोचना के नए नए सिद्धान्त जन्म लेते हैं। कहना चाहिए कि आलोचना अनुगमनात्मक भी होती है और निगमनात्मक भी। लेकिन यह सत्य है कि आलोचना के सिद्धांतों को ध्यान में रखकर कोई आलोचना नहीं लिखी जाती। यदि आलोचना की कोई भूमिका होती भी है तो बहुत अप्रत्यक्ष रूप में।

वर्तमान आलोचना अधिकतर प्रशस्ति - मात्र बन कर रह गई है। इस विषय पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है और आपने स्वयं को इससे कैसे बचाए रखा?

आज हिन्दी में कविता और उपन्यास, इन्हीं दोनों विधाओं की स्थिति संतोषजनक है। कहानी और आलोचना की स्थिति बहुत नाजुक है। कहानी में दलित -विमर्श हो या स्त्री -विमर्श, वह पूरी तरह से सनसनीखेज हो गई है,क्योंकि उस पर व्यावसायिकता हावी है। कविता के व्यवसायीकरण का नमूना पुस्तक -समीक्षा है। इस पर युवाओं ने अपना कब्जा जमा लिया है,जिसमें विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं के संपादक सहायक हैं। वे बिना किसी पुस्तक को पढ़े, व्यक्ति को देखकर और अपने स्वार्थ को ध्यान में रखकर प्रशंसा और निंदापरक समीक्षाएँ लिखते हैं। अपने आलोचनात्मक विवेक को विकसित करने पर उनका ध्यान बिलकुल नहीं है। आलोचनात्मक निबंधों का भी वही हाल है। मैंने अपने आलोचनात्मक लेखन को व्यावसायिक होने से बचाया। वह इस तरह कि मैंने हमेशा रचना के पाठ को महत्व दिया, न कि रचनाका-व्यक्ति को। साथ - साथ अपने विवेक की धार को पैनी करने के लिए शक्ति- भर महान आलोचकों को भी पढ़ने की चेष्टा करता रहा।

आपकी आलोचना की पुस्तकें विद्यार्थियों में बहुत प्रचलित हैं। इसके लिए क्या आप उनके हित को ध्यान में रखकर लिखते हैं या कोई और कारण है?

मैं विद्यार्थियों के लिए मुख्य रूप से नहीं लिखता, लेकिन साधारण पाठक को ध्यान में रखकर अवश्य लिखता हूँ। मेरी बातें उनको सहज ग्राह्य हो सकें, वह मेरी कोशिश रहती है। यदि विद्यार्थी मेरी पुस्तक पसंद करते हैं तो यह मेरा सौभाग्य है।

1980 में आपकी एक किताब आयी थी 'कविता की मुक्ति'। आपके लिए कविता की मुक्ति के मायने क्या हैं। क्या अब तक कविता मुक्त हो पाई है?

जब मैंने वह किताब लिखी थी, तब की तुलना में आज कविता इस दृष्टि से मुक्त है कि वह कहीं भी जा सकती है। वह किसी भी चीज को, छोटी हो या बड़ी, विषय बना सकती है। कविता किसी बंधन को स्वीकार नहीं करती, यह समकालीन कवियों ने सिद्ध कर दिया है।

निराला और मुक्तिबोध पर आपने बहुत काम किया है। किन वजहों से ये कवि आपको आलोच्य लगते हैं?

मैंने कालेज के दिनों में ही ये निश्चय कर लिया था कि मैं खड़ीबोली के तीन सबसे बड़े कवियों का अध्ययन करूँगा। इसमें मैं आगे से पीछे की ओर चला,जिसके अपने फायदे हैं। पहले मैंने मुक्तिबोध पर पुस्तक लिखी, फिर निराला पर और अभी- अभी मैथिलीशरण पर मेरी पुस्तक आई है। ये तीनों हीं आधुनिक कविता के कबीर,सूर और तुलसी हैं।

मुक्तिबोध ने सामाजिक,ऐतिहासिक द्वंद को अपनी कविता में महाकाव्यात्मक रूप में प्रस्तुत किया है,जिसमें गज़ब का रोमांटिक वेग और ' स्वीप ऑफ इमैजिनेशन' है। निराला सबसे विकासशील कवि थे। उन्होने प्रेम - सौंदर्य की विलक्षण कविताएं तो लिखी हीं हैं, छायावाद में बौद्धिकता का समावेश कर यथार्थपरक कविताएं भी लिखीं। उनकी भाषा में आश्चर्यजनक वैविध्य है। वे अभिजन के भी कवि हैं और जन के भी। ' जुही की कली, 'राम की शक्ति-पूजा' और कुकुरमुत्ता उनकी कविता की मंज़िलें हैं। मैथिलीशरण गुप्त ने निराला से भी अधिक गत्यात्मकता का परिचय दिया। वे खड़ीबोली के ऐसे कवि हैं, जिन्होंने हिन्दी कविता में सभी आधुनिक मूल्यों का समावेश कराया।

लंबी कविताओं पर आपने सफल कार्य किया है। कौन - सी ऐसी परिस्थिति होती है जिससे कवि लंबी कविता लिखने को बाध्य हो जाता है। गद्य-विधा कथात्मकता के लिए सुरक्षित है, इसके लिए कविता क्यों?

आधुनिक कविता की सबसे बड़ी उपलब्धि लंबी कविता है। जब कवि अपने आप से लड़ता हुआ बाहरी स्थिति से भी लड़ने की कोशिश करता है, तब लंबी कविताएँ पैदा होती हैं। हिन्दी की लंबी कविताओं की परंपरा में ये कविताएं आएँगी -- 'प्रलय की छाया'(प्रसाद ),'सरोज -स्मृति' और 'राम की शक्ति -पूजा' (निराला),'असाध्य वीणा'(अज्ञेय ), 'अंधेरे में' और 'ब्रह्मराक्षस' (मुक्तिबोध),मुक्ति - 'प्रसंग', (राजकमल चौधरी) और 'बाघ' (केदारनाथ सिंह)।

हिन्दी की लंबी कविताएँ भी कई तरह की है। कोई कविता कथा के सहारे चलती है,कोई स्मृतियों के क्रम -विक्रम के सहारे, तो कोई अनुभवों की विपुलता के सहारे। मुक्तिबोध के बाद हिन्दी में लंबी कविता लिखना एक फैशन हो गया था। हर युवा कवि लंबी कविता लिखने लगा था। इसी में ' पटकथा ' और 'खंड -खंड पाखंड-पर्व ' आदि कविताएं लिखी गयीं। खुशी की बात यह है कि अब वह फैशन खत्म हो चुका है।

राजनीति में मार्क्सवाद को विफल माना जा चुका है, साहित्य में इसका वर्तमान और भविष्य कैसा है?

मार्क्सवादी दर्शन को इतिहास को जो देना था, वह दे चुका है, इसलिए आँख मूंदकर उसका अनुसरण करना उचित नहीं है। साहित्य भी उसकी जकड़बंदी से मुक्त हो रहा है। वह वस्तुतः आत्मिक स्वतन्त्रता का क्षेत्र है। उस क्षेत्र में एक लंबी सुरंग से गुजरने के बाद हम प्रवेश कर रहे हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि मार्क्सवाद ने साहित्य को कुछ नहीं दिया है। आखिर राहुल सांकृत्यायन,यशपाल,नागार्जुन,मुक्तिबोध,यशपाल और भीष्म साहनी मार्क्सवाद की ही तो देन हैं।

अपने पूर्ववर्ती किन आलोचकों को आपने अपना आदर्श माना और उनसे प्रभावित रहे और क्यों?

पहले मैं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और डा॰ रामविलास शर्मा से बहुत प्रभावित था। धीरे -धीरे मैं आचार्य शुक्ल की जगह आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और डा॰ शर्मा की जगह डा ॰ नामवर सिंह के निकट आ गया।

विश्व के आलोचकों में मैंने लूकाच,काडवेल,हाऊवार्ड, फास्ट,अर्न्स्ट,फिशर, ब्रेख्त, हाउथौर्न, रेमंड विलियम्स,टेरी, ईग्लटन,और एडोर्नो को यथासंभव पढ़ा है। आइ॰ए॰ रिचार्ड्स,इलियट और कई अमेरिकी न्यू क्रिटिसिज्म के कई आलोचक मेरी स्मृति में बसे हुए हैं। यहाँ मुझे नामवरजी की बात याद आती है कि जब आप आलोचना लिखने बैठते हैं, तो कोई आलोचक आपका साथ नहीं देता, सिर्फ आपका विवेक आपकी मदद करता है।

भारतीय और पाश्चात्य आलोचकों का अध्ययन करते वक़्त आपने दोनों के मध्य कौन - सा फर्क महसूस किया, जिससे दोनों की विभाजन - रेखा स्पष्ट होती है?

भारतीय यानी संस्कृत काव्यशास्त्र एक तो क्रमबद्ध है और दूसरे, अतिशय सूक्ष्म है। इसकी तुलना में पाश्चात्य आलोचना में न कोई क्रम है, न वैसी बारीकी। ऐसा कहते समय मेरे ध्यान में प्लेटो, अरस्तू, लोंजाइनस और होरेस से लेकर शिकागो स्कूल के आलोचक तक हैं। यदि भारतीय काव्यशास्त्र में जिस शब्द -शक्ति का विवेचन हुआ है वह पश्चिम में पहुँचता तो रिचार्ड्स को सेमेंटिक्स की तरफ जाने की जरूरत नहीं होती। इसी तरह संस्कृत का ध्वनि -सिद्धान्त पश्चिम में पहुँचता,तो उसका उत्तर-आधुनिकतावादी'थ्योरी ऑफ डिकंट्रक्शन' एक हास्य बनकर रह जाता। संस्कृत के अलंकारशास्त्र के आगे पश्चिमी आलोचक 'फिगर ऑफ स्पीच ' ढूँढते हुए अँधेरे में टटोलते दिखाई पड़ते हैं। हँसी तब आती है,जब उपमा को देरीदा कविता का आधार बतलाते हैं और समझते हैं कि वे एक नायाब बात कह रहे हैं।

अपने समकालीन आलोचकों के संबंध में आपके क्या विचार हैं और आप किसे पढ़ना पसंद करते हैं?

मेरे जो भी समकालीन आलोचक हैं, वे अपनी क्षुद्र धारणाओं में बँधे हुए हैं,या व्यक्तिगत लाभ -हानि को ध्यान में रखकर लिख रहे हैं। डा॰ मैनेजर पांडेय के लेखन का मैं प्रशंसक हूँ, क्योंकि उन्होंने जो भी सैद्धांतिक आलोचना लिखी है, वह पश्चिमी ग्रन्थों पर आधारित होने के बावजूद बहुत साफ -सुथरी और उपयोगी है। आजकल कवि लोग अपना नोटबुक लिख रहे हैं,जैसे वे महान हों और तुच्छ हिन्दीभाषिओं पर अपने वचनामृत का छिड़काव कर रहे हों। उनके सामने निराला, अज्ञेय और मुक्तिबोध की तरह सृजन - संबंधी कोई समस्या नहीं।

आपकी कौन - सी वो कृति है जिसकी रचना के बाद आपको एक तरह की अभिव्यक्ति की संतुष्टि महसूस हुई?

ऐसी कृति मेरी 'तुलसीदास' नामक पुस्तक है, जो अगले वर्ष राजकमल से प्रकाश्य है। लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी इस कृति से मुझे जो संतुष्टि मिली है, वह पाठकों को नहीं मिलेगी, क्योंकि यह पुस्तक तुलसीदास के काव्य के प्रति मेरी नितांत निजी प्रतिक्रिया है।

उदारीकरण, भूमंडलीकरण, बजारवाद और ग्लोबल -विलेज की परिकल्पना पर आपकी आलोचनात्मक दृष्टि क्या कहती है?

भूमंडलीकरण, विश्व-ग्राम, बाजारवाद आदि अर्थशास्त्र के विषय हैं। मैं उनके बारे में विशेष नहीं जनता, लेकिन उनका प्रभाव जो हमारे जीवन पर पड़ रहा है,उसे अवश्य अनुभव करता हूँ। हमारे राष्ट्र की अस्मिता और भाषा की निजता खतरे में है। बाजार उपभोक्ता-सामग्री से भरा हुआ है,जबकि महँगाई बढ़ती जा रही है। हमारे संबंध औपचारिक होते जा रहे हैं और सहृदयता समाज से लुप्त होती जा रही है।

नए उभरते समीक्षकों में आप किसमें संभावनाओं के बीज देखते हैं?

नए समीक्षकों में मुझे कभी - कभी किसी युवतर समीक्षक की समीक्षा पसंद आ जाती है। उदाहरण के लिए दिल्ली के राकेश, हाजीपुर के रकेश रंजन और पटना के योगेश। कभी दिल्ली के राधेश्याम तिवारी की समीक्षा भी मुझे पसंद आती थी लेकिन अब नहीं। दिल्ली के वेंकेटेश भी अपने को अपने माहौल से बचाने में लगे हुए हैं। और भी कुछ नए समीक्षक जैसे विपिन कुमार शर्मा,वे कम छपते हैं।

'चौथा स्तम्भ' कही जाने वाली पत्रकारिता क्या आज अपने उद्देश्य से भटक गई है?

आज की हिन्दी पत्रकारिता की स्थिति निराशाजनक है। अंग्रेज़ी पत्रकारिता के आगे वह दो नंबर की पत्रकारिता है, जबकि उसकी लोकप्रियता अधिक है। हिन्दी पत्रकारिता की दयनीय स्थिति का कारण उसके मालिकों द्वारा उसे दो या तीन नंबर की सुविधाएँ उपलब्ध कराना है। इसका प्रत्यक्षीकरण मुझे तब होता है, जब मैं हिन्दी के अखबारों में भाषा की मामूली भूलें देखता हूँ। प्रश्न है कि अँग्रेजी अखबारों में ऐसी भूलें क्यों नहीं होतीं?

'साहित्यिक खेमेबाजी' और पुरस्कारों कि राजनीति से 'जेनुइन साहित्य' या साहित्यकार को कितना नुकसान पहुँचा है?

पुरस्कारों और खेमेबाजी से नए लेखकों को बहुत क्षति पहुँच रही है। खेमेबाजी दूसरे खेमे के लेखकों को नकारकर अपने खेमे के कमजोर लेखकों को भी उछालती है। किसी नए लेखक को पाँच सौ रूपए का भी पुरस्कार मिल जाता जाता है, तो उसकी बुद्धि का कपाट बंद हो जाता है। वह सोचने लगता है कि अब तो मैं स्थापित हो गया, मुझे न तो सीखने की जरूरत है, न अपने को विकसित करने की। अब तो मैं जिस चीज को छू दूँगा, वह साहित्य बन जाएगी। ताज्जुब नहीं की आज पुरस्कारों के मारे हुए एक लेखक इसी पटने में चेहरा लटकाए हुए घूमते हैं। वे मुद्रा अख़्तियार करते हैं उच्चभाव की, जो वस्तुतः अभिव्यक्ति होती है हीन भाव की।

कौन - सी पत्रिकाएँ पसंद करते हैं?

आजकल हिन्दी पत्र -पत्रिकाओं की हालत भी बहुत नाजुक है, फिर भी जो पत्रिकाएँ मैं देख लेता हूँ वे हैं -- नया ज्ञानोदय, आलोचना, वागर्थ, पूर्वग्रह, हंस, कथादेश, वसुधा और तदभव। कोई लघुपत्रिका मेरा ध्यान नहीं खींच रही, लेकिन कभी - कभी उनमें भी महत्वपूर्ण रचनाएँ निकाल आती हैं। नए लेखकों के लिए लघु पत्रिकाओं का महत्व असंदिग्ध है।