नम्बर दस / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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सवेरे रतन के मन में बहुत मिठास रही हो, ऐसी बात तो नहीं थी, लेकिन अब शाम को वह कड़वाहट से भर गया था। सवेरे और नहीं तो एक खुलापन तो था, मिठास के प्रति एक अनुमति - भाव कि ले तू आती है तो आ जा, मैं मना नहीं करता’, लेकिन शाम को उसने रस के प्रति अपने-आपको एकदम बन्द कर लिया था। और बन्द करने से ही मालिन्य और भी बढ़ता जा रहा था। जैसे आग खुली हो तो जल लेती है, लेकिन बन्द कर दी जाए तो खूब धुआँ देने लगती है।

रतन का दिन बहुत लम्बा बीता था। सवेरे जिस समय वह जेल से निकला, उस समय से वह दर-दर, गली-गली, चौक-मुहल्ले फिर आया था, कहीं उसका रुकने का मन नहीं हुआ था-कहीं उसने ऐसी जगह ही नहीं पायी थी जहाँ वह रुक सके। चलते-चलते वह थक गया था, लेकिन उन काग़ज़ के खिलौनों की तरह, जो भीतर के जलते दिए के धुएँ से घूमते जाते हैं, वह भी अनथक घूमता जा रहा था। उसके भीतर एक अभूतपूर्व संघर्ष हो रहा था, ‘मैं जेल में नहीं हूँ’, और दूसरी ओर एक प्रतिध्वनि-सी, जो असली ध्वनि से भी तीखी ही थी, पुकार उठती थी, ‘तुम सज़ायाफ़्ता चोर हो, सज़ायाफ़्ता चोर हो’ और इस दुहरी मार से पिटता हुआ वह रुक नहीं सकता था, और भटकता जा रहा था, भटकता जा रहा था...

सूर्यास्त के समय के क़रीब वह जुमना के किनारे एक घाट पर पहुँच गया। अपने आगे उसे चमकते हुए पानी का विस्तार देखकर मन में, दिन-भर में पहली बार, कुछ ऐसा बोध हुआ कि वह दुनिया में आ नहीं गया है, उससे उसका कुछ नाता भी है...

वह क्षण-भर के लिए रुक गया। तब जैसे आस-पास की दुनिया धीरे-धीरे उसके भीतर प्रवेश करने लगी, और उसके भीतर का धुआँ, कुछ-कुछ फूट निकलने लगा। वह घाट की सीढ़ी पर बैठ गया।

फरवरी के दिन थे। शीत की कठोरता का ज़माना बीत चुका था और विकल्प का ज़माना आ गया था, जिसमें कभी वह कठोर होने की इच्छा से भरकर धुँधला हो जाता था, कभी मृदुता के आवेश में हल्की-सी पीली धूप में निखर-सा आता था। रतन के देखते-देखते नदी के ऊपर एक धुन्ध छाने लगी और धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी। कुछ देर में उसी बादल में सूर्य ने उदास होकर मुँह छिपा लिया। बादल में अरुणाई नहीं आयी, एक श्वेत परदा-सा आकाश पर तन गया, और उसके ऊपर जमुना-किनारे की एक मिल की चिमनी से उठता हुआ धुआँ कुछ लिखत लिखने लगा।

देखते हुए रतन को वह लिखत अच्छी नहीं लगी। उसे लगा कि जिस तरह यह उस परदे की स्वच्छता को बिगाड़ रही है, उसी तरह पृथ्वी को भी मानव की लिखत ने बिगाड़ रखा है। नहीं तो जेल क्यों होते?

फिर एक कड़वाहट की बाड़-सी आयी और रतन उसमें डूबते-उतराने लगा। उसे याद आया कि जेल से बाहर आते समय जब उससे पूछा गया कि उसका घर कहाँ है, ताकि उसे लौटाने के लिए पैसे दिऐ जाएँ, तब उसने पैसे लेने से इनकार कर दिया था। उसे लगा था कि जिसने उसे सज़ा दी थी, उसी संगठन से पैसे लेकर वह घर जाएगा, तो घर जिसके पास जा रहा है उसे मुँह दिखाने लायक़ नहीं रहेगा। उस संगठन के प्रति उसके मन में जलन थी। चोरी उसने अवश्य की थी, लेकिन अभी तक अपने को अपराधी वह नहीं मान पाया था। चोरी करते समय उसके मन से भी कभी भी यह बात ओझल नहीं हुई थी कि वह चोरी कर रहा है। पर यह जानते हुए भी कि चोरी अनुचित है, वह यह भी देख रहा था कि रुपया लेना अनुचित नहीं है, और ज़रूरी भी है, और उसे नहीं मिल रहा है, यद्यपि वह उसके बदले में अपना पसीना देने को तैयार है। बल्कि, उस दिन तो वह अपना खून देने के लिए भी तैयार था...

तब? आज जब उसे रुपये मिल रहे थे, तब उसने क्यों नहीं लिए? क्यों नहीं लिए? आज क्या उसे कुछ कम ज़रूरत है? और क्या आज उनका मिलन कुछ अधिक आसान है जब कि वह ‘सज़ायाफ़्ता चोर’ की उपाधि पा चुका है।

उस बात को छः महीने हो गये। छः महीने पहले उसकी बहिन यशोदा बहुत बीमार थी -क्योंकि अब पता नहीं वह कैसी है - है भी या नहीं। उसे बचाने के लिए बेकार रतन ने भरसक कोशिश की थी, और अन्त में अपनी जमा की हुई पूँजी खत्म पाकर हर तरह के काम के लिए हर तरह के यत्न किये थे... जब उसे कोई काम नहीं मिला-दवा की क़ीमत पाने का कोई साधन नहीं मिला - तब उसने अपनी बुद्धि के आसरे कुछ पा लेने की कोशिश की, तो क्या बुरा किया? उसने अपनी बहिन की रक्षा के लिए रुपये चुराए, सो भी ऐेसे आदमी के, जिसके लिए उतने रुपये खो देना कोई बड़ी बात नहीं थी। तब?

हो सकता है कि उसका यह मोह ही ग़लत रहा हो। वह कौन होता है बहिन की रक्षा के लिए अपने को ज़िम्मेदार समझने वाला? खुदा ने जिसको बनाया है, उसको जिलाएगा भी। नहीं भी जिलाएगा तो उनका स्थान लेने के लिए और बना देगा। रतन खुदा का काम हथियाने वाला कौन, और हथिया कर वह कितनों को दवा-दारू पहुँचा सकेगा? बहुत से लोग बिना दवा के मरेंगे, बहुत-से बिना रोटी के मरेंगे, बहुत-से बिना कपड़ों के मरेंगे, बहुत-से बिना किसी वज़ह से यों ही मर जाएँगे। क्यों रतन यह दम्भ करे कि उसकी बहिन बचने की ज्यादा अधिकारिणी है?

क्यों नहीं करे वह दम्भ? उसकी बहिन है। दूसरों के भी जो भाई हैं, वे उनके लिए दम्भ करें।

लेकिन जिनका कोई नहीं है...

सरकार? लेकिन सरकार ने किसी के रुपये की रक्षा का दम्भ तो किया ही है, तब तो सरकार ठीक है, और वह... वह भी ठीक है...

लेकिन - मैं ठीक हूँ तो सरकार भी ठीक है। मैं नहीं ‘हूँ’ तो सरकार भी नहीं। यानी मैं चोर नहीं हूँ, तो चोर हूँ, तो नहीं हूँ पागल हूँ मैं! जेल ने दिमाग़ खराब कर दिया है।

लेकिन पागल कहने से छुट्टी मिल जाती है? मैंने सवेरे वे रुपये क्यों नहीं लिए? जिस ममता की बात सोच रहा हूँ, उसकी रक्षा क्या उसी तरह नहीं होती? यशोदा शायद जीती है -शायद बाट देख रही है। उसने दिन गिने होंगे, और आज शायद ओर उस बेवकूफ़ ने झूठे अहंकार में रुपये नहीं लिये, और...

अँधेरा हो चला था। घाट पर जो एक-आध आदमी आता-जाता भी था, वह भी अब बन्द हो गया था। घाट बिलकुल सूना था। आसपास मन्दिरों में घंटे बज रहे थे। कहीं-कहीं दियों का क्षीण प्रकाश भी झलक जाता था...

पहले तो घंटा-नाद रतन को बहुत खटका था। लेकिन धीरे-धीरे वह कुछ आकृष्ट-सा हुआ -उसे उस स्वर में एक विचित्र चीज मालूम हुई। ये घंटे दिन और रात न जाने कब से ऐसे ही बजते आते हैं, इसी स्वर से, इसी गूँज से, इसी सम्पूर्ण तन्मयता से और इसी उपेक्षा से... कोई मरता है, कोई पैदा होता है, कोई मिलता है, कोई बिछुड़ता है, पर इनमें कोई फ़र्क नहीं होता, ये वैसे ही गूँजते रहते हैं... ये प्रार्थना के घंटे हैं-और प्रार्थना के जो मन्त्र कभी गये ज़माने में दुहराए जाते थे, वही आज भी हैं। हमारी ज़रूरतें क्यों नहीं बदलती हैं? ईश्वर क्यों नहीं बदला है?

लेकिन यशोदा वहाँ बैठी है। और मैं यहाँ हूँ - मैंने उसके लिए चोरी भी की थी, लेकिन मिलता हुआ रुपया नहीं लिया। और यहाँ बैठा हुआ ईश्वर की बात सोच रहा हूँ। क्या मैं यशोदा के पास जाना नहीं चाहता? क्या मैं ईश्वर के पास जाना चाहता हूँ?

ये घंटे जड़ हैं, मैं जीता हूँ। तभी इनका स्वर नहीं बदलता।

मैं क्यों जीता हूँ? यशोदा के लिए मैं जेल गया था, लेकिन अब यहाँ बैठा हूँ, दिन-भर में एक बार भी मैंने नहीं सोचा है कि उसके पास लोटूँ। क्या यह जीना है?

मैं स्वाधीन कहाँ हूँ? अब भी जेल में हूँ? चाह कर भी मैं नहीं जा सकता उसके पास। रेल में पकड़ा जाऊँगा, तो फिर वही जेल। मैं जेल से डरता नहीं, मैं अपराधी नहीं हूँ। पर...

जीना। घंटे। जड़ता। मैं भी जीता न होता, तो इतना निकम्मा न होता। इतना परवश, विवश। मरना छुटकारा है।

इस एक शब्द पर आकर रतन का तन अटक गया - छुटकारा! छुटकारा!!

जहाँ वह बैठा था, वहाँ धुन्ध घनी हो चली थी। आकाश में किसी तरह का प्रकाश नहीं था, इसलिए नदी का पानी भी अब तक नहीं दीख रहा था। रतन धीरे-धीरे घाट की सीढ़ियाँ उतरने लगा। पानी के तल के दो-तीन सीढ़ी ऊपर ही, जब उसे सील-सी मालूम हुई, तब उसने ध्यान से नीचे देखा, और जाना कि कुछ ही आगे जमुना का पानी बहा चला जा रहा है, घाट को निःशब्द स्वर से छूता है और आगे बढ़ जाता है। मानो कह जाता है, ‘लो, मैं मेहमान बनकर आया तो हूँ, लेकिन तुम्हारी शान्ति भंग नहीं करता, मिल तो लिया ही, अब जाता हूँ।’ और प्रणत प्रणाम करता हुआ चल देता है।

और एक हम हैं कि आते हैं तब रोना-चिल्लाना और दर्द; जाते हैं तब रोना-पीटना और तड़पन; रहते हैं तब झींकना-कल्पना और हो-हल्ला।

और जेलखाने ओर पगली घंटी। और हथकड़ियाँ, बेड़ियाँ, और पैसे की कमी। और...

छुटकारा। छुटकारा।

यशोदा वहाँ है - थी। है या थी, इससे मुझे क्या ? मैं वहाँ नहीं जा सकता हूँ, उसके लिए कुछ नहीं कर सकता हूँ।

क्यों जी रहा हूँ मैं?

और उसे लगा, जमुना भी अपनी बड़ी-बड़ी काली आँखें खोले उसकी ओर विस्मय से देख रही है, मानो कह रही है, हाँ, मैं भी सोच रही हूँ कि क्यों जी रहे हो तुम...

छुटकारा...

रतन उठकर दो सीढ़ी और उतरा। अगली सीढ़ी पर पानी था। वह अपना फटा जूता उतारने को हुआ कि पानी में पैर डाले, फिर एकदम से उसे जूता उतारने के मोह पर हँसी-सी आयी और वह जूतों-समेत दो सीढ़ियाँ और उतर गया।

बहुत ठंडा था पानी। लेकिन रतन का ध्यान उधर गया ही नहीं। वह घंटा-नाम सुनता जाता था। और प्रत्येक चोट पर उस एक आकर्षक शब्द को दुहराता जाता था - छुटकारा, छुटकारा।

एक सीढ़ी और उतरकर वह ठिठक गया। क्या वह छुटकारा है - सचमुच छुटकारा है? मेरी चोरी की सज़ा धुल जाएगी? किसी का भी कोई भी बन्धन ढीला हो जाएगा?

मुझे किसी के बन्धन से क्या? मरना तो है ही मुझे। डूब मरूँगा, तो कोई पूछेगा नहीं। किसी को क्या?... पूछेगा तो। हाज़िरी नहीं दूँगा, तब खोज़ होगी। तब...

एकदम से उसे याद आया, जब वह जेल से छुटा था, तब उसे आज्ञा दी गयी थी कि पुलिस में नाम लिखाए और हफ़्ते में एक दिन रिपोर्ट दिया करे। वह थाने गया था। बाहर ही एक मुटियल बूढ़े सिपाही ने उसे टोका था, और यह जानकर कि रतन अपना नाम दस नम्बर में लिखाने आया है, उसे नसीहत देना शुरू की थी। रतन वह नहीं सह सका था, और झल्लाये स्वर में कह उठा था, “तुम्हें मतलब? तुम अपना काम देखो, मैं रिपोर्ट न दूँ, तब जी में आये सो करना। अभी अपनी नसीहत रखो अपने पास!” इस गुस्ताखी से कुछ चकित और कुछ क्रुद्ध कांस्टेबल ने अपनी बुच्ची दाढ़ी हिलाकर अनुभव से भारी स्वर में कहा था, “ऐं हैं! ये नखरे तब तो जल्दी ही जाओगे, जल्दी!”

जल्दी। कहाँ आऊँगा?

डूबकर मर जाऊँगा, तो खोज होगी। लाश मिलेगी, तो किसी के दिल में दर्द होगा? दुनिया जानेगी, तो कहेगी, ‘अजी होगा। दस नम्बरिया बदमाश था साला। मर गया, अच्छा हुआ। कहीं इधर-उधर आँख लड़ गयी होगी, काम नहीं बना होगा, बस। बदमाशों के हौसला थोड़े ही होता है।’

इतना-भर दुनिया उसे देगी। इतना भी खूसट कंजूस की तरह घिसघिस करके।

इसी दुनिया के लिए मैं फ़िक्र में पड़ा हूँ-इसी के लिए मर रहा हूँ? इसी हृदयहीन दुनिया के लिए मैं अपने जिगर का ख़ून दे रहा हूँ?

ऐसी-की-तेसी दुनिया की! सोच ही सब रोगों की जड़ है, वही तो है जिससे छुटकारा लेना चाहिए। पाप-पुण्य क्या है? सोचें तो चोरी है, सोचें तो ठीक हैं। सब चोर हैं, सब भले हैं।

आज मैंने दस चोरियाँ और की होतीं-कौन कह सकता है कि पकड़ा ही जाता? घर भी जाता, यशोदा से भी मिलता, जो जी में आता करता - न होता तो जेल ही तो आता, जहाँ हो आया हूँ? जैसा अब हूँ, इससे जेल क्या बुरी है?

रतन दृढ़ कदमों से घाट की सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। मन का बोझा इतना हल्का हो गया था कि वह अपने पैरों की चाप के साथ-साथ ताल देकर कहने लगा, “ऐसी-तैसी दुनिया की!”

घाट के ऊपर तक पहुँचते-पहुँचते उसने तय कर लिया था कि वह फिर चोरी करेगा, और फिर जेल जाएगा। पहली बार चोरी करने के लिए जेल गया था, अब की बार जेल जाने के लिए चोरी करेगा।

2

तब शायद साढ़े बारह बजे थे। रतन अपनी गाढ़े की धोती से फाड़े हुए एक टुकड़े में कुछ नोट और कुछ रुपये बाँधे उस छोटी-सी पोटली को एक मुट्ठी में मज़बूती से थामे हुए, दूसरे हाथ में जूते उठाये, एक ऊँचे घर की दीवार के साथ सटता हुआ दबे-पैर एक ओर को हट रहा था।

दूरी कहीं आधा घंटा धड़का टन्-ढम्। सरदी की धुँधली रात में उस स्वर ने रतन को चौंका दिया। उसके बाद ही उसे लगा कि पास कहीं खटका हो रहा है। शायद लोग जाग उठे हैं। शायद अभी उसकी चोरी पकड़ी जाएगी। शायद...

वह लपककर सड़क के पार हो लिया। वहाँ एक छोटी-सी झोंपड़ी थी, जिसके छोटे-से झरोखे से टिमटिमाती-सी रोशनी बाहर झाँकने की कोशिश कर रही थी। रतन जानता था कि प्रकाश की ओट में अँधेरा अधिक मालूम होता है, वहाँ पड़ी चीज़ दिखती नहीं, इसलिए वह झरोखे से ज़रा आगे बढ़कर ही, फूस के छप्पर के नीचे दुबककर बैठ रहा।

पहले तो उसे लगा कि वह यों ही डर गया। अपने हृदय की धक्-धक् के सिवाय कोई स्वर उसे नहीं सुन पड़ा। लेकिन बैठे-बैठे जब वह धड़कन ज़रा कम हुई तब उसे जान पड़ा कि सचमुच कहीं कोलाहल हो रहा है। पर वह बहुत दूर पर है, जिस मकान में रतन ने चोरी की है उससे बहुत आगे कहीं। उस शोर का रतन से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता।

पर-यह स्वर तो बहुत पास नहीं है। रतन ने सुनने की कोशिश की कि वह किधर से आ रहा है, पर ऐसा लगता था, मानो सभी ओर से धीरे-धीरे की जा रही बातचीत का स्वर आ रहा हो-कोई खास दिशा उसकी जान नहीं पड़ रही थी...

क्या मैं सो तो नहीं रहा-स्वप्न तो नहीं देख रहा? रतन ने अपने को कुछ हिलाया, ज़रा आगे बढ़कर झरोखे के बिलकुल पास आकर देखने की कोशिश करने लगा।

आगे झुकते ही स्वर साफ़ हो गया, रतन ने जान लिया कि वह झरोखे में से होता हुआ झोंपड़ी के भीतर से आ रहा है। और वह बिना खास चेष्टा किये हुए भी ध्यान से सुनने लगा।

एक पुरुष का स्वर, जो अपने से ही बात करता मालूम होता है। उस स्वर में दुख है, निराशा है, थोड़ी-सी कुढ़न भी है।

“मैं और क्या करूँ अब। अब तो उधार भी नहीं मिलता। ताने मिलते हैं सो अलग।”

थोड़ी देर बाद एक दूसरा स्वर-क्षीण, कुछ उदास, लेकिन साथ ही जैसे एक वात्सल्य भाव लिये : “तुम भी क्यों फिक्र किये जाते हो? ऐसे तो तुम भी बीमार हो जाओगे। मेरी दवा का क्या है? सरकारी अस्पताल से ले आया करो - वहाँ तो मुफ़्त मिल जाती है।”

“पिछली बार वहीं से तो लाया था। पर फायदा नहीं होता। हो कैसे, डॉक्टर देखे मरीज़ को तब न दवा हो? वह यहाँ आता नहीं, बुलाने को पैसे नहीं हैं।”

“डॉक्टर को बुलाकर क्या होगा। अब तो मुझे मरना ही है। मेरे करम ही खोटे थे - तुम्हारी सेवा तो की नहीं, उलटे दुख इतना दिया। यही था, तो पहले ही मर जाती, तुम्हें इतना तंग भी न करती और-”

“ऐसी बात मत करो, प्रेम। मैं-”

काफ़ी देर तक मौन रहा। आगे कुछ बात हो, इसकी प्रतीक्षा में बैठे-बैठे रतन जब ऊब गया, तब उसने झरोखे के और पास सरककर भीतर झाँका। एक ही झाँकी में भीतर का दृश्य देखकर वह एकदम से पीछे हट गया-डरकर नहीं, कुछ सहमा हुआ-सा...

एक टुटियल चारपायी पर एक स्त्री लेटी हुई थी। उसका सब शरीर और चारपायी का काफी-सा हिस्सा, एक मैली लाल गाढ़े की रजाई से ढका हुआ था, केवल नाक और सिर बाहर दीखते थे। नाक की पीली पड़ी हुई त्वचा प्रकाश में अजब तरह से चमक रही थी। पीछे हटाये हुए बहुत रूखे और और उलझे हुए बालों के भूरेपन के कारण माथा बहुत सफेद और बहुत चौड़ा लग रहा था। और आँखें-आँखें एक स्थिर, खुली, अर्थभरी दृष्टि से सिरहाने बैठे पुरुष के मुँह पर लगी हुई थीं।

और पुरुष उस स्त्री के सिर के पास, दोनों पैर समेटकर चारपायी की बाँही पर बैठा हुआ था। एक हाथ उसका घुटनों पर था जिस पर उसने ठोड़ी टेक रखी थी, दूसरा जैसे निरुद्देश्य, भूला हुआ-सा, स्त्री के सिरहाने पड़ा हुआ था।

रतन सहमा हुआ-सा बैठा था। उसका मन न जाने कहाँ-कहाँ दौड़ने लगा था, बिजली के तीव्र वेग से, पर बाहर से वह बहुत शान्त स्तब्धत-सा हो गया था। जैसे लट्टू जब बहुत तेजी से घूमता है तब धुरी पर बिलकुल स्थिर हो जाता है, वैसे ही रतन का मन अतीत और भविष्य में पागल-सा भटकता हुआ एक धुरी पर स्थिर हो गया था उस स्त्री प्रेमा की आँखों पर जिसमें मानो सरस्वती बस रही थी इतनी अर्थपूर्ण हो रही थीं वे...

उस सारगर्भित मौन में रतन ने एक लम्बी साँस की आवाज़ सुनी। उसके बाद फ़ौरन ही पुरुष का स्वर आया-अब पहले-सा शिथिल नहीं, अब जैसे प्रबल आवेग से भरा हुआ, गूँजता हुआ-सा-

“प्रेमा, कभी जी में आता है कहीं, डाका डालूँ - ये जो पड़ोस में मोटे लाला लोग रहते हैं, इनको मार डालूँ और इनकी हवेलियाँ लूट लूँ या उस सरकारी डॉक्टर को चुटिया पकड़कर घसीट लाऊँ, जिसने आने की बात पर अकड़ कर कहा था कि सरकरी डॉक्टर कोई रास्ते की धूल नहीं है जो हर कोई उठा ले जाए। कभी सोचता हूँ कि... लेकिन फिर ख़याल आता है, जो लोग सरकारी डॉक्टर को बुला सकते हैं, वे भी तो कभी कुढ़ते होंगे कि विलायत से डॉक्टर बुलाकर शायद इलाज ठीक हो सकता। यह रोग तो ऊपर से नीचे तक लगा है, मैं एक लाला को लूटकर क्या कर लूँगा? पर प्रेमा, किसी तरह तुम्हें अच्छा कर सकूँ तो-”

पुरुष एकदम चुप हो गया। रतन ने फिर झाँककर देखा-प्रेमा का एक हाथ पुरुष के कन्धे पर था और शायद उसके ओठों को छूने की कोशिश कर रहा था। रतन फिर पीछे को हट गया, और शून्य की ओर देखने लगा।

पुरुष का स्वर फिर बोला, “प्रेमा, अगर चोरी करके या लूटकर तुम्हें अच्छा भी कर लूँगा, तो भी सुखी नहीं होऊँगा, मुझे लगता है-”

थोड़ी देर रुककर फिर “शायद हमारे मन में पाप का झूठा डर होता है - डर ही से पाप बनते हैं। पर जाता भी नहीं वह। मैं सोचता हूँ-मैं जान देकर तुम्हें अच्छा कर दूँ-” इस बीच में स्वर फिर रुक गया, मानो किसी ने मुँह के आगे हाथ रख दिया हो - “पर एक छोटी-सी चोरी नहीं होती।”

एक शब्द सुनकर रतन ने फिर झाँककर देखा। पुरुष उठ खड़ा हो गया था। एक हाथ से सिरहाना पकड़ते हुए, दूसरे से अपना माथा, वह सिर उठाकर छत की ओर देख रहा था। एकाएक उसने कहा - “भगवान!” उसके हाथ शिथिल-से हो गये, कन्धे लटक गये और वह एक ओर को हटने लगा। तभी प्रेमा ने हाथ बढ़ाकर, गर्दन ज़रा मोड़कर, आर्द्र स्वर में पुकार कर कहा, “मेरे पास आओ!” गर्दन मोड़ने से दिये का पूरा प्रकाश उसके मुँह पर चमक उठा।

एक ज़रा-सी बात से मानो रतन का हृदय हजारों और करोड़ों बरसों का व्यवधान पार कर गया-एक ही बहुत बड़ी-सी धड़कन में वह रतन का हृदय न रहकर उस आदम का हृदय हो गया हो जो अपने पाप के लिए दण्ड पाकर अँधियारे मे अपनी आदिम प्रेयसी की खोज़ रहा था - और उसे लगा कि सारा संसार उस स्त्री की आवाज़ में चीख कर पुकार उठा है, “मेरे पास आओ!” उस स्त्री की, जो सुन्दरी नहीं है, लेकिन जिसकी उस दृष्टि के लिए रतन एक बार नहीं, हजार बार चोरी कर सकता है और दण्ड भी भुगत सकता!

रतन ने अपने को सँभालने के लिए झरोखे का चौखट पकड़ लिया - और फ़ौरन ही छोड़ दिया। जिस हाथ से उसने चौखट पकड़ा था, उसी में नौटों और रुपयों की पोटली थी।

रतन ने एक बार उस पोटली की ओर देखा, एक बार प्रेमा की ओर, एक बार उस पुरुष की ओर, फिर धीरे से कहा, “नालायक़!”

फिर उसने पोटली झरोखे में रख दी। एक बार चारों ओर झाँककर देखा, और लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ वहाँ से हट गया।

रतन का शरीर ढीला पड़ गया। वह इस हद तक खुश भी हो गया कि किसी किस्म की कोई फ़िक्र उसके मन में न रही। एक हलवाई की दुकान के बाहर पड़ा हुआ तख्त देखकर वह रुक गया। तख़्त पर बैठकर उसने अपने गीले जूते उतारे, उन पर अपनी चादर का एक छोर रखकर, इस तकिये पर सिर रखकर वह लेट गया। बाक़ी चादर अपने ऊपर ओढ़कर वह आकाश की ओर देखने लगा।

तारे थे। बहुत साफ़ नहीं दिखते थे, धुन्ध के कारण कभी छिप भी जाते थे, पर थे। कभी, पाँच, कभी चार, कभी आठ-दस-वे दीखते और मिट जाते, मिटते और फिर दीखने लगते। धुन्ध के इस खेल में मानो रतन भी घुलने लगा। उसकी आँख लग गयी।

नालायक़ वह?

चौंककर रतन उठ बैठा। क्या उसने कुछ देखा, या कुछ सोचा, या कुछ याद आ गया? कोड़े की मार से आहत-सा वह उठ बैठा।

नालायक़ वह? और मैं नहीं नालायक़, जिसने एक तो चोरी की, दूसरे अपनी बहिन को भुलाया और तीसरे हाथ आयी दौलत फेंक दी?

चोर। दस नम्बर का बदमाश। और बेवकूफ़।

चोरी मैंने किसलिए की थी? यशोदा के लिए? क्या चोरी करने ही के लिए नहीं की, मैंने चोरी? और फिर रुपये वहाँ क्यों पटक आया? उस आदमी को दे आया जो-जो प्रेमा को मरती देख सकता है और हाथ-पैर नहीं हिलाता?

उसका कुछ उसूल तो था। नहीं करता चोरी, तो नहीं करता। फिर चाहे कोई मर जाए। कुछ बात तो हुई। प्रेमा की शक्ल यशोदा से मिलती थी। झूठ। प्रेमा तो ऐसी कुरूप थी। लेकिन उसका गर्दन मोड़कर पुकारना-यशोदा भी तो ऐसे ही पुकार उठती थी जब मैं पास नहीं होता था।

मेरे पास फिर रुपये आते, तो मैं फिर दे देता - सौ बार दे देता।

हाँ, क्यों नहीं दे देता। चोरी के ही तो थे रुपये। चोरी के रुपये से पुण्य

कमाना चाहता हूँ। कुछ कमाकर दिये होते, तब भी बात होती।

दिये भी कब मैंने यशोदा की याद को? मैंने प्रेम को दिये, प्रेमा की आँखों को दिये, उस प्रेमा को, जो मेरी बहिन नहीं, किसी दूसरे की घरवाली है। पाप को दिये।

लेकिन प्रेमा सुन्दरी कब थी। पाप करने में अक्ल खर्च होती है। मैंने रुपयें फेंक दिये। नालायक़ी की। बेवकूफ़ी की। चोरी तो की थी, पकड़ा भी नहीं गया था। रुपये पास रखता, कई दिन काम आते। अच्छी तरह रहता, मौज करता, दुनिया को दाँत दिखाता, उस बुच्ची दाढ़ी वाले सिपाही को भी दाँत दिखाता, सबकी ऐसी-तेसी करता जो मुझे दस नम्बर का बदमाश समझते हैं। और जब चुक जाते तो जेल तो कहीं गया नहीं था-या शायद बच जाता...

लेकिन प्रेमा की आँखें वैसी क्यों थीं!

नहीं थीं आँखें। रतन ही अंधा था, अंधा है। लेकिन...

गलियों में चक्कर काटते हुए रतन ने फ़ैसला कर दिया कि वह लौटकर जाएगा और अपनी पोटली वहाँ से उठा लाएगा जहाँ उसे छोड़ आया था। अभी रात ख़त्म नहीं हुई थी - अभी पोटली किसने उठा ली होगी? दिन निकलने के बाद, बल्कि और भी देर से, जब घर की सफ़ाई होने लगेगी, तभी कोई उसे उठाएगा, यही सोचकर वह उलटे-पाँव लौट पड़ा।

लेकिन इन पिछले दो घंटों में वह कितनी गलियों में से होता हुआ भटक आया था, इसका उसे कुछ अनुमान नहीं था। यह याद करने की कोशिश करता, कहाँ से वह किधर को मुड़ा था, ताकि उसी रास्ते-लौटे, लेकिन जिस गली कोई और रास्ता है, दायीं ओर को जो हरे किवाड़ हैं वे तो उसके रास्ते में नहीं आये थे, या बायीं ओर को जो बहुत बड़ा-सा साइनबोर्ड किस वैद्य का लगा हुआ है वह तो उसने नहीं देखा था, और सामने की दीवार से जो बड़े-बड़े अक्षर मानो मुँह-बाये अपने काले हलक से यह सूचना दे रहे हैं कि अमुक तेल सब चर्म-रोगों की अचूक दवा है, उसे देखकर कोई क्या भूल सकता? फिर भी मुट्ठियाँ भींचकर अपनी थकान को वश में कर लेने की कोशिश करता हुआ रतन चलता जा रहा था और सोच रहा था कि कभी तो वह झोंपड़ी मिलेगी ही।

धीरे-धीरे रात का रंग बदल चला। हवा में एकाएक शीतलता भी बढ़ गयी और नमी भी, उस स्पर्श से मानो एकाएक रात ने जान लिया कि वह नंगी है और लज्जित होकर, कुछ सिहर कर, धुँध के आवरण में छिप गया। मैला-सा कुहासा रतन की नसों में भरने लगा, आँखों में चुभने लगा। उसने एक बार आँख मल कर सामने देखा, वह यह समझ कर कि अब सवेरा होने ही वाला है और उस झोंपड़े की तलाश बेकार है, वह एक ओर मुड़ने को हुआ ही था कि उसने देखा, उसकी बग़ल में वही मकान है जिसमें उसने चोरी की थी।

वह अब पहचाने हुए पथ पर जल्दी-जल्दी झोंपड़े की ओर बढ़ने लगा। चारों ओर कुछ अस्पष्ट-सा शोर था-शहर जाग रहा था। ऐसे समय कोई आता-जाता किसी का ध्यान आकृष्ट नहीं करेगा, यह सोच कर रतन बढ़ा जा रहा था।

झोंपड़ी से कुछ दूर पर ही कोलाहल सुन कर रतन ठिठक गया। आँखें सिकोड़ कर सामने देख कर उसने पहचाना-झोंपड़े के आगे भीड़ लग रही है - चोरी का पता लग गया है, चोर भी पकड़ा गया है।

रतन स्तम्भित रह गया।

लेकिन फ़ौरन ही एक विद्रूप की लहर-सी उस पर छा गयी - बहुत ठीक हुआ। यही होना चाहिए था। साले में इतनी हिम्मत थी कि प्रेमा की जान बचाये - चोरी करने से डरता था। मेरी चोरी का माल उसे पचता कैसे - भुगते अब!

प्रेमा की आँखें - मैंने चोरी करके अपनी जान जोखिम में डाली थी, उसका फल वह कैसे लेता? वह तो नालायक़ है, बेवकूफ़ है, हिजड़ा है। चोर पकड़ा गया है, चोरी की सजा काटे। प्रेमा का पति होने का दावा करता है - प्रेमा का-पति? यह?

रतन ने लपककर चौकी के सिपाही के हाथ से उस आदमी का हाथ छुड़ाकर सिपाही को पीछे धकेलते हुए उद्धत और कर्कश स्वर में कहा, “हटो तुम! चोरी मैंने की थी। वह पोटली मैं यहाँ भूल गया था और अब लेने आया हूँ।”

सिपाही हक्का-बक्का-सा हो गया। रतन की बाँह पकड़ने की कोशिश करते हुए किसी तरह उसने कहा - “तुम पागल हो क्या?” लेकिन इससे पहले रतन अपने भिचे हुए दाँतों को पीस कर कहे, “हाँ, हूँ पागल।” उस सिपाही की आँखों में पहचान की एक बिजली-सी दौड़ गयी और उसने एकदम से अपनी बुच्ची दाढ़ी लटका कर ढीले मुँह से कहा, “अच्छा तुम!”

(मेरठ, मार्च 1937)