नरक का मार्ग / प्रेमचंद

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज



रात 'भक्तमाल' पढ़ते-पढ़ते न जाने कब नींद आ गई। कैसे-कैसे महात्मा थे जिनके लिए भगवत्-प्रेम ही सब कुछ था, इसी में मग्न रहते थे। ऐसी भक्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। क्या मैं वह तपस्या नहीं कर सकती? इस जीवन में और कौन-सा सुख रखा है? आभूषणों से जिसे प्रेम हो वह जाने, यहाँ तो इनको देखकर आँखे फूटती है;धन-दौलत पर जो प्राण देता हो वह जाने, यहाँ तो इसका नाम सुनकर ज्वर-सा चढ़ आता है। कल पगली सुशीला ने कितनी उमंगों से मेरा श्रृंगार किया था, कितने प्रेम से बालों में फूल गूँथे थे। कितना मना करती रही, न मानी। आख़िर वही हुआ, जिसका मुझे भय था। जितनी देर उसके साथ हँसी थी, उससे कहीं ज्यादा रोयी। संसार में ऐसी भी कोई स्त्री है, जिसका पति उसका श्रृंगार देखकर सिर से पांव तक जल उठे? कौन ऐसी स्त्री है जो अपने पति के मुँह से ये शब्द सुने—तुम मेरा परलोक बिगाड़ोगी, और कुछ नहीं, तुम्हारे रंग-ढंग कहे देते हैं—और मनुष्य उसका दिल विष खा लेने को न चाहे। भगवान्! संसार में ऐसे भी मनुष्य हैं। आख़िर मैं नीचे चली गई और ‘भक्तिमाल’ पढ़ने लगी। अब वृंदावन बिहारी ही की सेवा करुँगी, उन्हीं को अपना श्रृंगार दिखाऊँगी। वह तो देखकर न जलेंगे। वह तो हमारे मन का हाल जानते हैं

भगवान! मैं अपने मन को कैसे समझाऊँ! तुम अंतर्यामी हो, तुम मेरे रोम-रोम का हाल जानते हो। मैं चाहती हूँ कि उन्हें अपना इष्ट समझूँ, उनके चरणों की सेवा करुँ, उनके इशारे पर चलूँ, उन्हें मेरी किसी बात से, किसी व्यवहार से नाममात्र भी दु:ख न हो। वह निर्दोष हैं, जो कुछ मेरे भाग्य में था वह हुआ। न उनका दोष है, न माता-पिता का। सारा दोष मेरे नसीबों ही का है। लेकिन यह सब जानते हुए भी जब उन्हें आते देखती हूँ, तो मेरा दिल बैठ जाता है, मुँह पर मुर्दनी-सी छा जाती है, सिर भारी हो जाता है, जी चाहता है उनकी सूरत न देखूँ । बात तक करने को जी नही चाहता । कदाचित् शत्रु को भी देखकर किसी का मन इतना क्लांत नहीं होता होगा। उनके आने के समय दिल में धड़कन-सी होने लगती है। दो-एक दिन के लिए कहीं चले जाते हैं तो दिल पर से बोझ उठ जाता है। हँसती भी हूँ, बोलती भी हूँ, जीवन में कुछ आनंद आने लगता है, लेकिन उनके आने का समाचार पाते ही फिर चारों ओर अंधकार!
चित्त की ऐसी दशा क्यों है, यह मैं नहीं कह सकती। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि पूर्वजन्म में हम दोनों में बैर था । उसी बैर का बदला लेने के लिए इन्होंने मुझसे विवाह किया है । वही पुराने संस्कार हमारे मन में बने हुए हैं, नहीं तो वह मुझे देख-देखकर क्यों जलते और मैं उनकी सूरत से क्यों घृणा करती? विवाह करने का तो यह मतलब नहीं हुआ करता!
मैं अपने घर इससे कहीं सुखी थी। कदाचित् मैं जीवनपर्यन्त अपने घर आनंद से रह सकती थी। लेकिन इस लोक-प्रथा का बुरा हो, जो अभागिन कन्याओं को किसी-न-किसी पुरुष के गले में बांध देना अनिवार्य समझती है। वह क्या जानता है कि कितनी युवतियाँ उसके नाम को रो रही हैं, अभिलाषाओं से लहराते हुए कितने कोमल हृदय उसके पैरों तले रौंदे जा रहे हैं? युवती के लिए पति कैसी-कैसी मधुर कल्पनाओं का स्रोत्र होता है । पुरुष में जो उत्तम है, श्रेष्ठ है, दर्शनीय है, उसकी सजीव मूर्ति इस शब्द के ध्यान में आते ही उसकी नज़रों के सामने आकर खड़ी हो जाती है। लेकिन मेरे लिए यह शब्द क्या है। हृदय में उठने वाला शूल, कलेजे में खटकनेवाला कांटा, आँखो में गड़ने वाली किरकिरी, अंत:करण को बेधने वाला व्यंग बाण!
सुशीला को हमेशा हँसते देखती हूँ। वह कभी अपनी दरिद्रता का गिला नहीं करती। गहने नहीं हैं, कपड़े नहीं हैं, भाड़े के नन्हे-से मकान में रहती है। अपने हाथों घर का सारा काम-काज करती है, फिर भी उसे रोते नहीं देखती । अगर अपने बस की बात होती, तो आज अपने धन को उसकी दरिद्रता से बदल लेती। अपने पतिदेव को मुस्कराते हुए घर में आते देखकर उसका सारा दु:ख-दारिद्रय छू-मंतर हो जाता है, छाती गज-भर की हो जाती है। उसके प्रेमालिंगन में वह सुख है, जिस पर तीनों लोक का धन न्योछावर कर दूँ।

आज मुझसे ज़ब्त न हो सका। मैंने पूछा—तुमने मुझसे किस लिए विवाह किया था? यह प्रश्न महीनों से मेरे मन में उठता था, पर मन को रोकती चली आती थी। आज प्याला छलक पड़ा। यह प्रश्न सुनकर कुछ बौखला-से गये, बगलें झाँकने लगे, खीसें निकालकर बोले—घर संभालने के लिए, गृहस्थी का भार उठाने के लिए, और नहीं क्या भोग-विलास के लिए?
घरनी के बिना यह घर आपको भूत का डेरा-सा मालूम होता था। नौकर-चाकर घर की सम्पति उड़ाये देते थे। जो चीज़ जहाँ पड़ी रहती थी, वहीं पड़ी रहती थी। कोई उसको देखने वाला न था।
तो अब मालूम हुआ कि मैं इस घर की चौकसी के लिए लाई गई हूँ। मुझे इस घर की रक्षा करनी चाहिए और अपने को धन्य समझना चाहिए कि यह सारी सम्पति मेरी है। मुख्य वस्तु सम्पत्ति है, मैं तो केवल चौकीदारिन हूँ। ऐसे घर में आज ही आग लग जाये! अब तक तो मैं अनजाने में घर की चौकसी करती थी। जितना वह चाहते हैं, उतना न सही, पर अपनी बुद्धि के अनुसार अवश्य करती थी। आज से किसी चीज़ को भूलकर भी छूने की कसम खाती हूँ। यह मैं जानती हूँ कि कोई पुरुष घर की चौकसी के लिए विवाह नहीं करता और इन महाशय ने चिढ़कर यह बात मुझसे कही। लेकिन सुशीला ठीक कहती है, इन्हें स्त्री के बिना घर सूना लगता होगा, उसी तरह जैसे पिंज़रे में चिड़िया को न देखकर पिंज़रा सूना लगता है। यह है हम स्त्रियों का भाग्य!

मालूम नहीं, इन्हें मुझ पर इतना संदेह क्यो होता है। जबसे नसीब इस घर में लाया है, इन्हें बराबर संदेह-मूलक कटाक्ष करते देखती हूँ। क्या कारण है? ज़रा बाल गुँथवाकर बैठी और यह ओंठ चबाने लगे। कहीं जाती नहीं, कहीं आती नहीं, किसी से बोलती नहीं, फिर भी इतना संदेह! यह अपमान असह्य है। क्या मुझे अपनी आबरु प्यारी नहीं? यह मुझे इतनी छिछोरी क्यों समझते हैं, इन्हें मुझ पर संदेह करते लज्जा भी नहीं आती? काना आदमी किसी को हँसते देखता है, तो समझता है लोग मुझी पर हँस रहे हैं। शायद इन्हें भी यही वहम हो गया है कि मैं इन्हें चिढ़ाती हूँ। अपने अधिकार के बाहर कोई काम कर बैठने से कदाचित् हमारे चित्त की यही वृत्ति हो जाती है। भिक्षुक राजा की गद्दी पर बैठकर चैन की नींद नहीं सो सकता। उसे अपने चारों तरफ शत्रु-ही-शत्रु दिखाई देंगे। मैं समझती हूँ, सभी शादी करने वाले बुड्ढ़ों का यही हाल है।
आज सुशीला के कहने से मैं ठाकुर जी की झाँकी देखने जा रही थी। अब यह साधारण बुद्धि का आदमी भी समझ सकता है कि फ़ुहड़ बहू बनकर बाहर निकलना अपनी हँसी उड़ाना है, लेकिन आप उसी वक्त न जाने किधर से टपक पड़े और मेरी ओर तिरस्कारपूर्ण नेत्रों से देखकर बोले—कहाँ की तैयारी है?
मैंने कह दिया—ज़रा ठाकुरजी की झाँकी देखने जाती हूँ। इतना सुनते ही त्योरियां चढ़ाकर बोले—तुम्हारे जाने की कुछ जरुरत नहीं। जो अपने पति की सेवा नहीं कर सकती, उसे देवताओं के दर्शन से पुण्य के बदले पाप होता है। मुझसे उड़ने चली हो । मैं औरतों की नस-नस पहचानता हूँ।
ऐसा क्रोध आया कि बस अब क्या कहूँ। उसी दम कपड़े बदल डाले और प्रण कर लिया कि अब कभी दर्शन करने न जाऊँगी। इस अविश्वास का भी कुछ ठिकाना है! न जाने क्या सोचकर रुक गई। उनकी बात का जवाब तो यही था कि उसी क्षण घर से चल खड़ी होती, फिर देखती मेरा क्या कर लेते।
इन्हें मेरा उदास और विमन रहने पर आश्चर्य होता है। मुझे मन में कृतघ्न समझते हैं। अपनी समझ में इन्होंने मेरे साथ विवाह करके शायद मुझ पर बड़ा एहसान किया है। इतनी बड़ी जायदाद और विशाल सम्पत्ति की स्वामिनी होकर मुझे फूले न समाना चाहिए था, आठों पहर इनका यशगान करते रहना चाहिये था। मैं यह सब कुछ न करके उलटे और मुँह लटकाए रहती हूँ। कभी-कभी मुझे बेचारे पर दया आती है। यह नहीं समझते कि नारी-जीवन में कोई ऐसी वस्तु भी है, जिसे खोकर उसकी आँखों में स्वर्ग भी नरक-तुल्य हो जाता है।

तीन दिन से बीमार हैं। डाक्टर कहते हैं, बचने की कोई आशा नहीं, निमोनिया हो गया है। पर मुझे न जाने क्यों इसका गम नहीं है। मैं इतनी वज्र-हृदया कभी न थी। न जाने वह मेरी कोमलता कहाँ चली गई। किसी बीमार की सूरत देखकर मेरा हृदय करुणा से चंचल हो जाता था, मैं किसी का रोना नहीं सुन सकती थी। वही मैं हूँ कि आज तीन दिन से उन्हें बगल के कमरे में पड़े कराहते सुनती हूँ और एक बार भी उन्हें देखने न गई, आँखो में आँसू आने का जिक्र ही क्या? मुझे ऐसा मालूम होता है, इनसे मेरा कोई नाता ही नहीं। मुझे चाहे कोई पिशाचनी कहे, चाहे कुलटा, पर मुझे तो यह कहने में लेशमात्र भी संकोच नहीं है कि इनकी बीमारी से मुझे एक प्रकार का ईर्ष्यामय आनंद आ रहा है।
इन्होंने मुझे यहाँ कारावास दे रखा था—मैं इसे विवाह का पवित्र नाम नहीं देना चाहती---यह कारावास ही है। मैं इतनी उदार नहीं हूँ कि जिसने मुझे कैद मे डाल रखा हो, उसकी पूजा करुं, जो मुझे लात से मारे, उसके पैरों को चूमूँ। मुझे तो मालूम हो रहा है, ईश्वर इन्हें इस पाप का दण्ड दे रहे हैं। मै निस्संकोच होकर कहती हूँ कि मेरा इनसे विवाह नहीं हुआ है। स्त्री किसी के गले बांध दिये जाने से ही उसकी विवाहिता नहीं हो जाती। वही संयोग विवाह का पद पा सकता है, जिसमे कम-से-कम एक बार तो हृदय प्रेम से पुलकित हो जाये! सुनती हूँ, महाशय अपने कमरे में पड़े-पड़े मुझे कोसा करते हैं, अपनी बीमारी का सारा बुखार मुझ पर निकालते हैं, लेकिन यहाँ इसकी परवाह नहीं। जिसका जी चाहे जायदाद ले, धन ले, मुझे इसकी जरुरत नहीं!

आज तीन महीने हुए, मैं विधवा हो गई। कम-से-कम लोग यही कहते हैं। जिसका जो जी चाहे कहे, पर मैं अपने को जो कुछ समझती हूँ, वह समझती हूँ। मैंने चूड़ियाँ नहीं तोड़ीं, क्यों तोड़ूँ? माँग में सिंदूर पहले भी न डालती थी, अब भी नहीं डालती। बूढ़े बाबा का क्रिया-कर्म उनके सुपुत्र ने किया, मैं पास न फटकी। घर में मुझ पर मनमानी आलोचनाएं होती हैं, कोई मेरे गुँथे हुए बालों को देखकर नाक सिकोड़ता हैं, कोई मेरे आभूषणों पर आँख मटकाता है, यहाँ इसकी चिंता नहीं। इन्हें चिढ़ाने को मैं भी रंग-बिरंगी साड़ियाँ पहनती हूँ, और भी बनती-संवरती हूँ, मुझे जरा भी दु:ख नहीं हैं। मैं तो कैद से छूट गई।
इधर कई दिन बाद सुशीला के घर गई। छोटा-सा मकान है, कोई सजावट न सामान, चारपाइयां तक नहीं, पर सुशीला कितने आनंद से रहती है। उसका उल्लास देखकर मेरे मन में भी भांति-भांति की कल्पनाएं उठने लगती हैं-उन्हें कुत्सित क्यों कहूँ, जब मेरा मन उन्हें कुत्सित नहीं समझता । इनके जीवन में कितना उत्साह है। आँखे मुस्कराती रहती हैं, ओठों पर मधुर हास्य खेलता रहता है, बातों में प्रेम का स्रोत बहता हुआ जान पड़ता है। इस आनंद से, चाहे वह कितना ही क्षणिक हो, जीवन सफल हो जाता है। फिर उसे भूल नहीं सकता, उसकी स्मृति अंत तक के लिए काफी हो जाती है, इस मिज़राब की चोट हृदय के तारों को अन्नतकाल तक मधुर स्वरों से कम्पित रख सकती है।
एक दिन मैने सुशीला से कहा--अगर तेरे पतिदेव कहीं परदेश चले जायें, तो तू रोते-रोते मर जायेगी?
सुशीला गंभीर भाव से बोली—नहीं बहन, मरुँगी नहीं , उनकी याद मुझे सदैव प्रफुल्लित करती रहेगी, चाहे उन्हें परदेश में बरसों लग जाएं।
मैं यही प्रेम चाहती हूँ। इसी चोट के लिए मेरा मन तड़पता रहता है। मैं भी ऐसी ही स्मृति चाहती हूँ, जिससे दिल के तार सदैव बजते रहें, जिसका नशा नित्य छाया रहे।

रात रोते-रोते हिचकियां बंध गई। न-जाने क्यों दिल भर-भर आता था। अपना जीवन सामने एक बीहड़ मैदान की भांति फैला हुआ मालूम होता था, जहाँ बगुलों के सिवा हरियाली का नाम नहीं। घर फाड़े खाता था, चित्त ऐसा चंचल हो रहा था कि कहीं उड़ जाऊं। आजकल भक्ति के ग्रंथो की ओर ताकने को जी नहीं चाहता, कहीं सैर करने जाने की इच्छा नहीं होती। क्या चाहती हूँ, यह मैं स्वयं नहीं जानती। लेकिन मैं जो नहीं जानती, वह मेरा एक-एक रोम जानता है। मैं अपनी भावनाओं को संजीव मूर्ति हूँ, मेरा एक-एक अंग मेरी आंतरिक वेदना का आर्तनाद हो रहा है। मेरे चित्त की चंचलता उस अंतिम दशा को पहुँच गई है, जब मनुष्य को निंदा की न लज्जा रहती है और न भय। जिन लोभी, स्वार्थी माता-पिता ने मुझे कुएं में ढकेला, जिस पाषाण-हृदय प्राणी ने मेरी मांग में सिंदूर डालने का स्वांग किया, उनके प्रति मेरे मन में बार-बार दुष्कामनाएं उठती हैं। मैं उन्हें लज्जित करना चाहती हूँ। मैं अपने मुँह में कालिख लगा कर उनके मुख में कालिख लगाना चाहती हूँ। मैं अपने प्राण देकर उन्हें प्राणदण्ड दिलाना चाहती हूँ। मेरा नारीत्व लुप्त हो गया है, मेरे हृदय में प्रचण्ड ज्वाला उठी हुई है। घर के सारे आदमी सो रहे है थे। मैं चुपके से नीचे उतरी, द्वार खोला और घर से निकली, जैसे कोई प्राणी गर्मी से व्याकुल होकर घर से निकले और किसी खुली हुई जगह की ओर दौड़े। उस मकान में मेरा दम घुट रहा था।
सड़क पर सन्नाटा था। दुकानें बंद हो चुकी थी। सहसा एक बुढिया आती हुई दिखायी दी। मैं डरी कि कहीं चुड़ैल न हो। बुढिया ने मेरे समीप आकर मुझे सिर से पांव तक देखा और बोली--किसकी राह देख रही हो?
मैंने चिढ़ कर कहा--मौत की!
बुढ़िया--तुम्हारे नसीबों में तो अभी जिन्दगी के बड़े-बड़े सुख भोगने लिखे हैं। अंधेरी रात गुजर गई, आसमान पर सुबह की रोशनी नज़र आ रही है।
मैंने हँसकर कहा--अंधेरे में भी तुम्हारी आँखे इतनी तेज हैं कि नसीबों की लिखावट पढ़ लेती हैं?
बुढ़िया--आँखो से नहीं पढती बेटी, अक्ल से पढ़ती हूँ। धूप में चूँड़े नहीं सफेद किये हैं। तुम्हारे बुरे दिन गये और अच्छे दिन आ रहे हैं। हँसो मत बेटी, यही काम करते इतनी उम्र गुजर गई। इसी बुढ़िया की बदौलत जो नदी में कूदने जा रही थीं, वे आज फूलों की सेज पर सो रही है, जो जहर का प्याला पीने को तैयार थीं, वे आज दूध की कुल्लियाँ कर रही हैं। इसीलिए इतनी रात गये निकलती हूँ कि अपने हाथों किसी अभागिन का उद्धार हो सके, तो करुँ। किसी से कुछ नहीं माँगती, भगवान् का दिया सब कुछ घर में है, केवल यही इच्छा है अपने से जहाँ तक हो सके, दूसरों का उपकार करूँ। जिन्हें धन की इच्छा है, उन्हें धन, जिन्हे संतान की इच्छा है, उन्हें संतान, बस और क्या कहूँ, वह मंत्र बता देती हूँ कि जिसकी जो इच्छा हो, वह पूरी हो जाये। मैंने कहा--मुझे न धन चाहिए, न संतान। मेरी मनोकामना तुम्हारे बस की बात नहीं है।
बुढ़िया हँसी--बेटी, जो तुम चाहती हो, वह मै जानती हूँ। तुम वह चीज़ चाहती हो, जो संसार में होते हुए स्वर्ग की है, जो देवताओं के वरदान से भी ज्यादा आनंदप्रद है, जो आकाश-कुसुम है, गूलर का फूल है और अमावसा का चाँद है। लेकिन मेरे मंत्र में वह शक्ति है, जो भाग्य को भी संवार सकती है। तुम प्रेम की प्यासी हो। मैं तुम्हे उस नाव पर बैठा सकती हूँ, जो प्रेम के सागर में, प्रेम की तंरगों पर क्रीड़ा करती हुई तुम्हें पार उतार दे।
मैंने उत्कंठित होकर पूछा—माता, तुम्हारा घर कहाँ है ?
बुढ़िया--बहुत नजदीक है बेटी। तुम चलो तो मैं अपनी आँखों पर बैठाकर ले चलूँ।
मुझे ऐसा मालूम हुआ कि यह कोई आकाश की देवी है। उसके पीछ-पीछे चल पड़ी।

आह! वह बुढ़िया, जिसे मैं आकाश की देवी समझती थी, नरक की डाइन निकली। मेरा सर्वनाश हो गया। मैं अमृत खोजती थी, विष मिला । निर्मल स्वच्छ प्रेम की प्यासी थी, गंदे विषाक्त नाले में गिर पड़ी । वह वस्तु न मिलनी थी, न मिली। मैं सुशीला का–सा सुख चाहती थी, कुलटाओं की विषय-वासना नहीं। लेकिन जीवन-पथ में एक बार उलटी राह चलकर फिर सीधे मार्ग पर आना कठिन है।
लेकिन मेरे अध:पतन का अपराध मेरे सिर नहीं। मेरे माता-पिता और उस बूढ़े पर है जो मेरा स्वामी बनना चाहता था। मैं यह पंक्तियां न लिखतीं, लेकिन इस विचार से लिख रही हूँ कि मेरी आत्म-कथा पढ़कर लोगों की आँखें खुलें। मैं फिर कहती हूँ, अब भी अपनी बालिकाओं के लिए मत देखो धन, मत देखो ज़ायदाद, मत देखो कुलीनता, केवल वर देखो। अगर उसके लिए जोड़ का वर नहीं पा सकते, तो लड़की को क्वाँरी रख छोड़ो, जहर दे कर मार डालो, गला घोंट डालो, पर किसी बूढ़े खूसट से मत ब्याहो। स्त्री सब कुछ सह सकती है, दारुण-से-दारुण दु:ख, बड़े-से-बड़ा संकट, अगर नहीं सह सकती, तो अपने यौवन-काल की उंमगो का कुचला जाना।
रही मैं, मेरे लिए अब इस जीवन में कोई आशा नहीं । इस अधम दशा को भी उस दशा में न बदलूँगी, जिससे निकलकर आयी हूँ।