नरेंद्र मोदी पर दो बायोपिक फिल्में / जयप्रकाश चौकसे

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नरेंद्र मोदी पर दो बायोपिक फिल्में
प्रकाशन तिथि : 23 मई 2014


लगभग दो वर्ष पूर्व मितेश पटेल और उनके मित्र-भागीदार रुपेश पॉल ने परेश रावल की सहायता से नरेंद्र मोदी की अनुमति लेकर उनकी जीवन पर कथा फिल्म बनाने की योजना बनाई । पटकथा पर काम शुरू किया गया परन्तु चुनाव के कारण शूटिंग प्रारंभ ही नहीं हो पाई । जबकि मूल योजना थी कि चुनाव के समय इस फिल्म का प्रदर्शन किया जाएगा। आज रूपेश पॉल और मितेश पटेल किसी बात के कारण अलग हो गए हैं और दोनों ही अपनी-अपनी फिल्म बनाना चाहते हैं। मितेश की फिल्म के निर्देशक और नायक परेश रावल हैं और उनकी मोदी जी से निकटता जग जाहिर है। रूपेश पॉल की फिल्म में बंगाल के अभिनेता विक्टर बनर्जी को नरेंद्र मोदी की भूमिका के लिए अनुबंधित किया गया है। क्या दोनों कभी भागीदार रहे और आज विलग हुए लोगों के पास एक ही पटकथा है? जब यह फिल्म भागीदारी में प्रारंभ हुई थी तो अब भागीदारी टूटने के बाद पटकथा और प्रोजेक्ट के कॉपीराइट पर किसका अधिकार है। अभी हाल में 'तनु वेड्स मनु' के एक भागीदार ने निर्देशक को कानूनी पत्र भेजा है कि वे उस सफल फिल्म का 'भाग दो' नहीं बना सकते जिसके लिए कंगना ने सितंबर का माह आरक्षित किया है। यह तो तय है कि विवाद बढऩे पर नरेंद्र मोदी परेश रावल के पक्ष में खड़े होंगे। इस प्रकरण से जुड़ा दूसरा मुद्दा ये है कि क्या एक प्रधानमंत्री के दो बायोपिक उनके शासन काल में ही प्रदर्शित होंगे तो इन्हें अघोषित 'सरकारी' फिल्में माना जाएगा और सेंसर अधिकारियों के सामने समस्या होगी। कि वे अपने प्रधानमंत्री के बायोपिक में क्या किसी अंश को हटाने का अधिकार रखते हैं? ज्ञातव्य है कि हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू राजकपूर, दिलीप कपूर, ख्वाजा अहमद अब्बास, चेतन आनंद इत्यादि फिल्मवालों से प्राय: संक्षिप्त समय के लिए मिलते रहते थे और 1946 में चेतन आनंद की 'नीचा नगर' के प्रदर्शन को संभव उन्होंने ही बनाया था जिसका पूरा विवरण श्रीमती उमा आनंद की किताब में छपा है। ऐसी ही एक मुलाकात में नेहरू ने राजकपूर से कहा कि वे बच्चों पर एक कथा फिल्म बनाएं और जरूरी होने पर वे उसमें सीमित समय के लिए स्वयं प्रस्तुत होंगे। ज्ञातव्य है कि नेहरू का जन्म दिवस हमेशा से 'बाल दिवस' के रूप में मनाया जाता रहा है।

राजकपूर ने 'अब दिल्ली दूर नहीं' का निर्माण किया जिसका कथा सार यह है कि एक छोटे बालक के पिता को उस अपराध के लिए जेल भेजा गया है जो उसने किया ही नहीं। अपने गांव में सारे प्रयास असफल होने के बाद बच्चा अकेले ही बिना धन और साधन के दिल्ली की यात्रा पर अपने नेहरू चाचा से न्याय मांगेगा और पूरी फिल्म इसी यात्रा का मानवीय संवेदनाओं से भरा विवरण है तथा क्लाइमैक्स एक आम सभा में भाषण के बाद बाहर जाते हुए प्रधानमंत्री से मिलने का प्रयास करता बच्चा असहाय सा चीख रहा है और उसका आर्तनाद नेहरू सुन लेते हैं तथा उसकी ओर दौड़ते हैं ,उसे गोद में उठाते हैं। इस अंश की शूटिंग के लिए नेहरू के कुछ ही घंटों की आवश्यकता थी। राजकपूर के पत्र के जवाब में उन्हें दिल्ली आने को कहा गया और श्रीमती इंदिरा गांधी ने राजकपूर से कहा कि वे यह शूटिंग सचमुच करना चाहते थे परन्तु मंत्रिमंडल ने इसका विरोध किया और इस विरोध के अगुआ मोरारजी देसाई थे। इस विवाद के कारण नेहरू शूटिंग नहीं करेंगे और इसके लिए उन्होंने खेद प्रगट किया। राजकपूर ने अपने जीवन में पहली बार बेमन से एक फिल्म पूरी की और फिल्मस डिवीजन से नेहरू के स्टाक शॉट्स लेकर संपादन टेबल पर बच्चे और नेहरू की मुलाकात का दृश्य किसी तरह तैयार किया। यह ठीक है कि इन प्रस्तावित फिल्मों में वे अभिनय नहीं करेंगे परन्तु परदे पर तो मोदी का रूप ही प्रस्तुत होगा। क्या मोदी बोयापिक के प्रदर्शन के बाद आलोचना को सहिष्णुता से देखा जायेगा। नरेंद्र मोदी के प्रचार में थ्री डी की टेक्नोलॉजी द्वारा इस तरह के आयोजन किए गए कि एक ही समय में उनकी थ्री डी छवि अनेक शहरों में देखी गई। इन प्रस्तावित फिल्मों में भी ऐसा ही कुछ प्रभाव बनेगा।

यह मामला याद दिलाता है कि सूर सागर में वर्णित है कि सारी गोपियों को महसूस होता था कि कृष्ण उनके साथ हैं। टेक्नोलॉजी पूरी माइथोलॉजी को प्रस्तुत कर सकती है। बाजार और विज्ञापन की ताकतों ने मोदी की इच्छा और सहमति से उन्हें एक 'प्रोडक्ट' की तरह प्रस्तुत किया और मार्केटिंग के पाठ्यक्रम में यह प्रकरण शामिल किया जाएगा।

यह इस प्रयास की विलक्षण सफलता है। इस काल खंड का सत्य केवल बाजार और विज्ञापन ही तय करता है और यह अधिकतम लोगों को स्वीकार भी है। इस भारी चुनावी जीत े बाद कई बातें और मुद्दे अदृश्य हो चुके हैं। इस तरह के बायो पिक अपने शासन काल में बनने देना संभवत: सारे छवि निर्माण को सारी सीमाओं के पार ले जाएगा। किसी भी चीज का अतिरेक हानिकारक होता है। इन्दौर के सरोजकुमार का कहना है अब जीते हुए सांसदों को अपनी प्रचार फिल्मों से अलग होना चाहिए। साबुन तेल बेचता सांसद अच्छा नहीं लगता।