नर्तकी / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

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बिरकाशा के दरबार में एक बार अपने साजिन्दों के साथ एक नर्तकी आई। राजा की अनुमति पाकर उसने वीणा, बाँसुरी और सारंगी की धुन पर नाचना शुरू कर दिया।

वह लौ की तरह नाची। तलवार और नेजे की तरह नाची। सितारों और नक्षत्रों की तरह नाची। हवा में झूमते फूलों की तरह नाची।

नाच चुकने के बाद वह राज-सिंहासन के सामने गई और अभिवादन में झुक गई। राजा ने उसे निकट आने का न्यौता देते हुए कहा, "सुन्दरी! लावण्य और दीप्ति की मूरत!! कब से यह कला सीख रही हो? गीत और संगीत पर तुम्हारी पकड़ कमाल की है।"

नर्तकी पुन: महाराज के आगे झुक गई। बोली, "सर्वशक्तिमान महाराज! आपके सवालों का कोई जवाब मेरे पास नहीं है। मैं बस इतना जानती हूँ कि दार्शनिक की आत्मा उसके मस्तिष्क में, कवि की उसके हृदय में, गायक की उसके गले में वास करती है लेकिन इन सबसे अलग नर्तक की आत्मा उसके पूरे शरीर में फैली होती है।"