नर्सिंग होम में / कामतानाथ

Gadya Kosh से
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उस अत्यन्त गोरी, मध्य वय की किंचित स्थूल शरीर वाली महिला को मैं दो-तीन बार बगल वाले कमरे से निकलकर आफिस में जाते देख चुका था। परेशान नहीं तो कुछ बेचैन जरूर लग रही थी वह। तभी वह मेरे पास आकर खड़ी हो गई। मुझे लगा वह बेंच पर बैठना चाहती है। मैं एक ओर सरक गया। मगर वह वहीं खड़ी रही।

‘भाई साहब, आपके पास एक अठन्नी तो नहीं होएगी?’ उसने कहा।

मैं अपनी जेब टटोलने लगा।

‘टेलीफून करना रहा। एक अठन्नी रही सो ऊ डब्बा मां डाल दिया। बात भी भयी मगर बीचै मा ही टेलीफून कट गवा।’

मेरी जेब में खुदरे थे। मगर अठन्नी एक भी नहीं थी। ‘माफ कीजिएगा, अठन्नी तो नहीं है।’ रेजगारी हाथ में लिए हुए मैंने कहा।

इस बार वह बेंच पर बैठ गई। ‘रहन दीजिए।’ उसने कहा, ‘खुदै आवैंगे। उनका भी तो चिंता होय का चही।’

मैं चुप रहा। वैसे भी अपरिचित महिलाओं से बातचीत करने में मुझे कुछ अटपटा-सा लगता है।

‘आपका डिलेभरी केस है क्या?’ उसने कहा और बेंच पर काफी आराम से हो गई।

‘नहीं।’ मैंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।

‘आपरेसन होना है?’

मैं उसकी बात समझा नहीं।

‘बच्चेदानी निकलवानी है?’ उसने अपनी बात स्पष्ट की।

‘नहीं।’ इस बार भी मैंने संक्षिप्त उत्तर ही दिया।

‘फिर?’

‘वैसे ही चेकअप करवाना था।’ मैंने टालना चाहा।

‘खून ज्यादा आ रहा है क्या?’

‘हां ऽऽ’ मैंने कहा। जिस सहज ढंग से वह बात कर रही थी उसे देख कर मुझे आश्चर्य हो रहा था। किसी भी प्रकार की कोई झिझक उसमें नहीं थी।

‘हियां क्यों ले आए? सरकारी अस्पताल में दिखा देते।’ उसने कहा।

‘डॉ. रोहतगी को दिखाया था घर पर। उन्होंने ही यहां लाने को कहा था।’ मैंने कहा।

‘अरे हियां तो लूट है पूरी।’ वह एक क्षण रुकी तब बोली, ‘आपसे कित्ते रुपये की बात भयी थी?’

‘तीन सौ की।’

‘देखना पांच सौ से कम न लेहें। औ कहौ और ज्यादा ले लें।’

मेरे पास कुल चार, सवा चार सौ रुपये थे। मैं चुपचाप उसकी ओर देखता रहा।

‘हमसे बारह सौ की बात भयी थी। अब जानो का कहते हैं? पचास रुपिया रोज के हिसाब से दस दिन का कमरा का किरावा। चार सौ रुपिया आपरेसन ठेठर का किरावा। पच्चीस रुपिया सुई लगवाई। पचास रुपिया गुलूकोज चढ़वाई औ सत्तर रुपिया और न जाने काहे-काहे का बताय रहे हैं। अब बताओ भाई साहब, कमरा का किरावा चलो मान लिया, मगर ई अपरोसन ठेठर का किरावा काहे का? आपरेसन का सड़क पर होत है का? बारह सौ आपरेसन का लिए हो तो केरावा वहीं मां से देव। हमसे केरावा से का मतलब?’

मैं चुप रहा।

वह एक क्षण खामोश रही तब बोली, ‘यही मारे घर मां फून करित रहै। मगर उइ गद्दी पर रहे नहीं। जब तक मुनीम बुलावै बुलावै तब तक टेलीफून कटिगा। हमरे पास चौदह-पंद्रह सौ हैं। अब उइ घर से रुपिया लावैं तो हमका छुट्टी मिलै। औ कहौ देर ह्वे जाए तो एक दिन का केरावा और लइलें।’

‘काहे का आप्रेशन था?’

‘डिलेभरी केस रहा।’

‘पहला बच्चा था क्या?’

‘पहिला काहे का। सतवां। हम तो पहिले ते कहित रहै कि जब छः बिटिया भयी हैं तो को जानै यहौ विटियै होय। मगर उइ नहीं माने। औ उइ तो चाहे मानिउ जात मगर हमरी सास पीछे पड़ि गईं। कउनौ पंडित बताइन रहै उनका कि सतवां लड़का होई।’

‘हुआ लड़का?’ मैंने पूछा। मैं तय नहीं कर पा रहा था कि वह स्वयं अपने बच्चा होने की बात कर रही है या किसी और के।

‘लड़का नाई तो सब भवा! फिर बिटिया होइगै। अरे जब लड़का होय वाले करम होएं तब तो लड़का होय। जमाने का तो तुम लूट रहे हो। लड़का कहां से होय! भगवानौ तो सब देखत हैं।’

उसके बारे में मेरी जिज्ञासा बराबर बढ़ती जा रही थी। लेकिन मुझे कुछ बोलना नहीं पड़ा।

‘हम बताई भाई साहब आपका’, उसने आगे कहा, ‘हमरे घर मां बिटियै बिटिया हैं। छा नन्दै हैं हमरे। औ हमरी सासौ के छा नंदे रहीं। यही मारे उइ सोचती रहैं कि सतवां तो लड़का होइबै करी। हमरे घरौ मां यहै आस लगाए रहे। यही मारे हमहू भाई साहब कहा कि जउन तुमरे मन मा होय तउन कइ लेव। हमका का, पालै-पौसै का तो तुमही का पड़ी। औ सब किया हम, भाई साहब। हमरी सास कहिन सोमवार रहौ। सो हम सोमवार रहै लागेन। मगर हम कहा निरजला न रहब हम। फरहरी रहब। उइ कहिन फरहरी ही रहौ। तो भाई साहब हम सोमवार रहेन साल भर। उइ के बाद जब पेट आवा तो उइ बोलीं, रोज सवेरे गंगा नहाओ। हम कहा हम अकेले न जाब। तुम चलौ तो हमहू चली। उइ तैयार ह्वे गईं। पोता का मुंह देखै की खातिर तो उइ कहौ गंगाजी मां बुड़ाए जाएं। सो भाई साहब, जाड़ा, गर्मी, बरसात बराबर हम गंगा नहायन। पूरे नौ महिना। सूरज निकरै से पहिलेहे हमरी सास चदिरिया ओढ़ के तैयार ह्वे जाएं। हमरे धर मां कहिन मोटर लइ के जाओ। मगर हमरी सास कहिन पैदरै चलौ। हम कहा चलौ। जब बुढ़ापा मां तुम पैदर चल लेहो तो का हम न चल लेबे? हियां आवै के एक दिन पहिले तक हम गंगा जी गए हन। मगर भाई साहब गंगाजी मां वा बात अब कहां रही! तमाम तो गंदगी ऊ मां गिरत है। औ फिर गंगा नहाय से लड़का होय लागै तो सबै न नहाय लें।’

सहसा मोटर का हार्न सुनाई दिया तो वह उठकर खड़ी हो गई। मगर उसके घरवाले नहीं थे। कोई और ही था। वह वापस अपने स्थान पर बैठ गई।

‘छिमा कियो भाई साहब’, उसने आगे कहा, ‘मरदन की तो कउनौ बात नहीं। उनका बच्चा पइदा करै मां का जात है? कहौ रोज पइदा करैं। जान तो देय का पड़त हैं औरतन का।’ वह एक क्षण रुकी तब बोली, ‘चौथी बिटिया के बाद से हम बराबर कह रहे हन कि हमार आपरेसन कराय देव। मगर उइ कहां मानै वाले। चौथी बिटिया मां भाई साहब, बड़ी तकलीफ भयी हमका। ऊ का कहत हैं ऊ का, सेप्टिक होइगा रहै हमका। डाक्टर कहै लगी बच्चेदानी निकलवाय देव। मगर न हमरी सास राजी भयीं न हमरे घर मां राजी भे। जान का खतरा ह्वेगा रहै हमका। मगर हम बचि गेन।’ सहसा उसने इधर-उधर देखा तब बोली ‘देखी कोउ और के पास अठन्नी होय तो एक बार फिर फून कइ लेई। ए जमादार हियां आओ।’

जमादार आ गया।

‘तुमरे पास अठन्नी है एक?’

‘कहां माईजी सबेरे से बोहनिही नहीं हुई।’

‘लेव इनकी सुनो। बोहनी नहीं भई इनकी। कउनौ दुकान खोले हौ का हियां? हस्पताल मां नौकरी करत हौ कि बिजनिस?’

मैंने जेब से एक रुपये का नोट निकालकर जमादार की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘जाओ बाहर से इसे तुड़ा लाओ।’

‘रहै देव भाई साहब।’ उसने कहा, ‘खुदै आवत होइहैं। तुम जाओ अपन काम देखौ।’ उसने जमादार को भगा दिया। बोली, ‘आजकल भाई साहब रेजगारी की इत्ती किल्लत है कि पूछौ न। हमरे हियां तो बिजनिस होत है न। तउन बजार से रेज़गारी खरीद के आवत है। सौ के ऊपर पांच देव तो सौ की रेजगारी मिली। बताओ ई जमाना आएगा कि रेजगारी की दुकानै लागै लागीं ई देस मां।’

‘किस चीज का बिजनेस होता है आपके यहां?’ मैंने पूछा।

‘ई पान का मसाला होत है न। हृदय सम्राट। वहै बनत है। हमरे ससुर की जरा सी दुकान रही कत्था-सुपारी की। मगर जब से हमार बिहाव भवा यू जान लेव भाई साहब कि घर मां लछमी आएगै। पइसा जइसे घर मां बरसै लाग। जाहे मां हाथ डार देव वहै मां पइसा। अब तो सब्जी औ मीट के मसाला का कारखाना भी लग गवा है। मगर हमरी नंदन के भाग मां गरिबिही लिखी है। लाखन रुपया दइ के बिहाव कीन जात है मगर ससुराल मां फिरौ तंगी। हमरी सास ई बात मां जब देखौ तब हमका ताना मरती हैं। हम कहित है मारौ ताना। हमका का करैक? हमरे भाग मां राज करैक लिखा है तो हम राज करब। तुमरे ताना मारै से का होई। तुमरिउ बिटिया ऐसी भागवाली होतीं तो जहां जातीं हुआं लछमी बरसतै। सब नंदै हमरी, भाई साहब, खुद घर का काम करती हैं। औ हमरे हियां? चार-चार नौकर लाग हैं। मगर भाई साहब, एक बात बताई हम आपका। ई सब मसाला खाए का न चही। सब मां मिलावट होत है। चाहे सब्जी का मसाला होय औ चाहे पान का। मगर आजकल की औरतन का कहा जाए! पैकट मां बंद मसाला चही। घर मां पीसै मां जान निकरत है। हम तो उनसे साफ कहि दीन कि जब तक तुम ई मिलावट का धंधा करिहौ लड़का का मुंह न देखक मिली। औ अब तो ई धंधौ छोड़ दें तबहूं न मिली। अब की हम आपरेसन कराय दीन। हां, अब दूसर बिहाव करैं तो भले लड़का होय चाहे बिटिया। हम से तो जउन मिलैक रहा तउन मिल चुका।’

‘रुई का बंडल डिटाल वगैरह लाए हैं आप?’ एक नर्स ने आकर मुझसे पूछा।

‘जी।’ मैं उठकर खड़ा हो गया और थैले से सारा सामान निकाल कर उसे दे दिया।

‘चलते समय भाई साहब अपना सारा सामान वापस लइ लिहो।’ नर्स चली गई तो उसने कहा। ‘जरा-सा डिटाल कहूं लागी औ पूरी सी-सी धर लेहैं। औ रुई का कहूं पूरा बंडल लाग जाई? हम तो ई जानित है, भाई साहब कि ई सब सामान अइसेन धरा रही। पैक किया भवा। इधर मरीज गवा औ उधर सामान बजार मां पहुंचा।’

तभी फिर मोटर का हार्न सुनाई दिया। मगर इस बार वह निश्चिंत बैठी रही। गाड़ी उसी के घर की थी। ड्राइवर ने गाड़ी पोर्टिको में लगा दी और दरवाजा खोल कर बाहर आ गया। ‘हियां आओ रामऔतार।’ उसने ड्राइवर को बुलाया।

ड्राइवर आ गया।

‘उइ नहीं आए? तुम ही का भेजिन है?’

‘जी।’

‘रुपिऔ भेजवाइन है कुछ कि नहीं?’

‘रुपये तो नहीं भिजवाए।’

‘तो जाओ उनसे कहौ जाएके कि आठ सौ रुपिया कम से कम भेजैं। औ नाईं तो खुदै आवैं लइके रुपिया। औ हां, गद्दी पर को बइठ है?’

‘मनीराम।’

‘हम टेलीफून किया रहै तो मनीराम काट काहे दिहिन टेलीफून?’

‘हमको नहीं मालूम।’

‘अच्छा तो जाओ औ जल्दी ही लउट्यो। समझेव कि नाहीं?’

‘जी।’

ड्राइवर गाड़ी लेकर वापस चला गया। तभी वह उठकर खड़ी हो गई। ‘अभी आइत हैं, भाई साहब’ उसने कहा, ‘भवानी का देख आई जरा सोउती हैं अभी कि जाग तो नहीं गईं।’ इतना कहकर वह अपने कमरे में चली गई। दो-एक मिनट बाद ही वह बच्ची को गोद में लिए हुए वापस आ गई। पूर्ववत् मेरी बगल में बैठ कर बोली, ‘यई भवानी आएं। कईस मऊज मां आंखीं बंद किए सो रही हैं। देखो भाई साहब।’

साफ कपड़े में लिपटी हुई उस नन्हीं बच्ची की ओर मैंने निहारा।

‘दुआ देव भाई साहब ई का कि जब तक ई संसार मां रहै अइसै ही सुखी रहै अइसै ही मऊज की नींद सोवै हमेसा।’

इतने छोटे बच्चे को कैसे दुआ दी जाती है मुझे नहीं मालूम। फिर भी मैंने उसके माथे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘क्यों नहीं सुखी रहेगी। जिसकी मां आप जैसी लक्ष्मी हो उसकी बेटी कभी कष्ट नहीं उठा सकती।’

तभी बच्ची ने आंखें खोल दीं। ‘वाह भवानी! सब सुन रही हौ।’ उसने कहा और गोद में लिए-लिए ही उसका मुंह चूम लिया।

तभी वह जमादार सामने से निकला तो उसने उसे पुकारा ‘ए जमादार!’

जमादार रुक गया।

‘बोहनी भई?’ उसने पूछा।

जमादार ने दांत निकाल दिए।

‘रुको, अभी बोहनी कराइत है।’ उसने कहा और बच्ची को लेकर वापस अपने कमरे में चली गई। लौट कर आई तो उसके हाथ में कैनवस के कुछ थैले थे जिन पर उसके यहां बनने वाले मसालों का विज्ञापन छपा था। एक थैला और दो रुपये का एक नोट उसने जमादार की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘लेव बोहनी करो।’

जमादार ने खुशी-खुशी थैला और नोट ले लिया।

‘और सब जने कहां हैं?’ उसने पूछा।

‘वार्ड में होंगे।’ जमादार ने उत्तर दिया।

‘चलौ उनहू की बोहनी कराय दें।’ उसने कहा और वार्ड की ओर जाने लगी। चलते-चलते मुड़कर मुझसे बोली, ‘जाना नहीं भाई साहब, हम अब हीं आइत है।’

मैं चुपचाप उसे जाते हुए देखता रहा।

थोड़ी ही देर में वह वापस आई तो उसके हाथ में एक भी थैला नहीं था। मेरे पास से गुजरते हुए उसने कहा, ‘अभी एक मिनट में आइत हैं भाई साहब।’ और दोबारा अपने कमरे में चली गई।

इस बार वह चमड़े का एक बहुत खूबसूरत ब्रीफकेस लेकर लौटी और उसे मुझे देते हुए बोली, ‘ई आप रख लेव भाई साहब। मना न करना।’ और बैग उसने मेरे हाथ में पकड़ा दिया। ‘ई हम लाए रहे डाक्टर का देय की खातिर। मगर ऊका अब नहीं देंगे। डाक्टर काहे की पूरी डाकू है।’ उसने कहा। तब बोली, ‘ई के अंदर भाई साहब एक कलम और डायरी भी है। आप पढ़े-लिखे आदमी हो आपके काम आएगी। और हां, भाई साहब, कलेंडर भी छपे हैं हमरे हियां। अबकी बार बड़े अच्छे कलेंडर छपे हैं। अबै तक तो हेमा मालिनी और न जाने का का छपत रहै। अबकी हम मना कर दिया। हम कहा छपवावैक होय तो भगवान वाले कलेंडर छपुवाओ नाहीं तो रहै देव। राम-लछमन, शिव-पारबती और हां, तिरुपति जी का भी एक कलेंडर है। मढ़ावै वाले हैं सब। हम भूली गए नहीं तो रामऔतार से कह देते तो लेत आवत। आपका जरूरत होय तो आय के लइ जाना भाई साहब। हम बोल देबे। पता बैग पर छपा है।’

‘बहुत-बहुत धन्यवाद।’ मैंने कहा।

नर्स को आप्रेशन थियेटर में गए काफी देर हो चुकी थी। मुझे चिंता होने लगी। यद्यपि आप्रेशन बहुत मामूली था।

पता नहीं कैसे वह मेरी चिंता भांप गई। ‘आप भाई साहब, फिकर न करो। सब ठीक होइ जाएगा। देर तो लगती ही है।’ तब एक क्षण रुक कर बोली, ‘कित्ते बच्चे हैं आपके?’

‘दो।’ मैंने कहा, ‘एक लड़का, एक लड़की।’

‘आप, भाई साहब, बहुत भाग्यवान हो।’ उसने कहा, ‘मगर हमरी बात मानो आप। अब अपना आपरेसन कराए लेव आप। और एक बात और, भाई साहब। अपनई कराना, घर में न कराना। औरत के आपरेसन मां बहुत परेशानी होत है। हमरे घर मां तो सब पढ़ै के नाम पर ककहरा हैं। यही से हमरी सास उनका मना कइ दिहिन। हम कहा मना कइ देव। हम ही कराए लेब अपन। जऊन होई तऊन भुगतब। उइ सोचती होइहैं कि हम मर जाई तो दूसर बिहाव कइ दें घर मां। सायद यही तना पोता का मुंह देखैक मिल जाए। मगर हम मरै वाली नहीं हन भाई साहब!’

तभी उसकी गाड़ी आ गई। उसका पति इस बार भी नहीं आया था। ड्राइवर ने वरांडे में आकर सौ-सौ के आठ नोट जेब के निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दिए।

‘लीजिए।’ उसने कहा।

‘हम का करबे?’ उसने कहा, ‘अपनेहे पास धरौ।’ और अपने आंचल में बंधे हुए रुपये भी निकाल कर उसको देते हुए बोली, ‘जाओ हुवैं दफ्तर मां जमा कराय देव। कागज सब यही मां हैं। और हां, रसीद लै लिहो।’

ड्राइवर चला गया तो वह उठकर अंदर चली गई। थोड़ी देर में ही बच्ची को गोद में लिए हुए आई और उसी प्रकार मेरी बगल में बैठ गई।

‘आपके साथ इत्ती देर टाइम कट गवा, भाई साहब। नहीं तो अकेले बइठे-बइठे बोर होएक पड़त।’ उसने कहा, ‘औ हमरे घर वालेन का देखो भाई साहब! सास, नंदै सबै हैं हमरे घर मां। मगर कोउ हियां तक आय नहीं सकत। औ उनका का कही हम। उनका तो अपने धंधै से फुरसत नाई है।’

‘आना तो चाहिए था किसी न किसी को।’ मैंने कहा।

‘कइसे आवैं। बिटिया जो होइगै। लड़का होत तो सबै आवत। मगर भाई साहब, हम तो कहित है कि लड़का-लड़की मां का फरक है? हमरे लिए तो यहै लड़का है।’ और वह बच्ची को गुदगुदा कर उससे खेलने लगी।

ड्राइवर बिल का भुगतान करके आ गया था। उसने उसे आदेश दिया, ‘देखो कमरा मां सब सामान बंधा धरा है। ऊ का उठा के गाड़ी मा धर देव।’

ड्राइवर सामान गाड़ी में रख चुका तो वह भी उठ कर खड़ी हो गई।

‘अच्छा भाई साहब चलित है’, उसने कहा, ‘देखो शायद फिर कभी यही तरह भेंट ह्वै जाए।’

मैं भी उठकर खड़ा हो गया और उसके साथ-साथ गाड़ी तक आ गया। ड्राइवर ने गाड़ी का दरवाजा खोला तो वह पीछे वाली सीट पर आराम से बैठ गई।

‘अच्छा नमस्ते भाई साहब!’ उसने कहा।

भर्र की आवाज करती हुई गाड़ी गेट के बाहर निकल गई।