नवदीप और अनुष्का को सलाम / जयप्रकाश चौकसे

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नवदीप और अनुष्का को सलाम
प्रकाशन तिथि :18 मार्च 2015


हमारी सत्ता ने ब्रिटिश ब्राडकास्टिंग कॉर्पोरेशन द्वारा बनाया गया साठ मिनिट का वृतचित्र 'डॉटर्स ऑफ इंडिया' प्रतिबंधित किया परंतु न केवल उसका टेलीकास्ट हुआ वरन् वह इंटरनेट के विविध माध्यमों पर भी जारी किया गया तथा आज अनगिनत लोगों के पास उपलब्ध है। टेक्नोलॉजी ने समस्त सेंसर शक्तियों को धता बता दिया है। हमारे अपने सेंसर बोर्ड द्वारा वयस्कों को देखने योग्य प्रमाण पत्र मिला है फिल्मकार नवदीप एवं अनुष्का शर्मा की 'एन.एच. टेन' को, जो दरअसल भारत की बेटियों की व्यथा-कथा है और बी.बी.सी. की 'डॉटर्स ऑफ इंडिया' की जुड़वां बहन ही है। 'डॉटर्स' में दुष्कर्मी अपने घिनौने अवचेतन का परिचय देता है और इस अवचेतन का हर रेशा हमें अपने चारित्रिक डी.एन.ए. की पड़ताल का संदेश देता है। ठीक इसी तरह फिल्मकार नवदीप की फिल्म भी अनेक प्रश्न पूछती है, जिनके उत्तर की तलाश हमें अपने सांस्कृतिक इतिहास के गलियारों में जाकर करनी होगी। भारत की बेटियों को सदियों से प्रशिक्षित किया गया है कि खामोशी ही उनके जीवन का ऑक्सीजन है, मुंह खोला और सांस लेने का अधिकार छीन लिया जाएगा। पाकिस्तान के फिल्मकार शोएब मंसूर की 'बोल' भी इसी खामोशी की फिल्म थी। सरहद के दोनों ओर बेटियों की व्यथा एक सी है और क्यों न हो, दोनों एक ही जिस्म से काटे गए मांस के दो हिस्से हैं।

लेखक फिल्मकार नवदीप की विगत फिल्म नहीं देख पाने का दु:ख हो रहा है, क्योंकि वैचारिक विकास कोई आणविक बम की तरह नहीं फटता उसका अपना एक सिलसिला है। कभी-कभी प्रतिभा का आणविक विस्फोट भी हमने देखा है परंतु उसके क्रमिक विकास से हम अनजान रहे हैं। इसी तरह अनुष्का शर्मा की पहली फिल्म 'रब ने बनाई जोड़ी' देखते समय या दूसरी फिल्म 'बैंड बाजा बारात' देखते समय भी यह अनुमान नहीं हो पा रहा था कि यह नन्ही-सी गुड़िया सिनेमाई सृजन का बैंड बजाकर रख देगी। राजकुमार हीरानी की 'पी.के.' में वह खोजी पत्रकार है परंतु उसकी 'एन.एच. टेन' तो सामाजिक व्याधियों का सबसे बड़ा घपला या घोटाला है, जो सारे घोटालों की असल गंगोत्री है, क्योंकि हमारी संस्कृति तो ढोल बजाती रही है कि जिस घर में स्त्री का सम्मान नहीं वह घर नहीं तो बेटियों पर अत्याचार करने वाला देश भी क्या देश नहीं है? नवदीप की इसी फिल्म का संवाद भी इसी प्रश्न की अनुगूंज है और वह संवाद है गुड़गांव के आखरी मॉल के बाद ही भारत का संविधान लागू नहीं होता, सर्वत्र खाप पंचायत का राज है। इसी संवाद को एक थानेदार और इन्सपेक्टर कार्यरूप में बदलकर दिखाते हैं, जब वे याचिका प्रस्तुत करने वाली को उस पर जुल्म करने वालों को सौपने जाते हैं अर्थात व्यवस्था ही मजबूर शिकार को शिकारी के हवाले कर रही हैं।

फिल्मकार नवदीप ने आखेट अर्थात शिकार को फिल्म का रूपक बनाया है, मैटाफर है और यह उसका ही जीनियस है कि इस भयावह आखेट के आखरी रोमांचक हिस्से में निरीह-सा शिकार स्वयं शिकारी बनकर अपने शिकारी का संहार करता है। उसका साहस व दृढ़ संकल्प ही उसका हथियार हैं। केवल द्दश्य को विश्सनीय बनाने के लिए उसने अनुष्का के हाथ लोहे की रॉड दी है। सच तो यह है कि इस अन्याय के खिलाफ उसके हृदय में संचित आक्रोश ही असली हथियार है और इस आक्रोश का जन्म उसके अपने पति को खो देने का व्यक्तिगत दु:ख से नहीं हुआ है वरन् वह सारी बेटियों के हृदय में उमड़ने वाली चीत्कार से जन्मा है। हर लड़की एक सांस्कृतिक विरासत को गलत ढ़ंग से समझने के कारण हाथ चक्की में पिसते आटे की तरह है। मिथ्या हैं विकास के सारे किस्से और सभ्यता का स्वांग। अरे, कब हम ढकोसलों और नौटंकियों से उबरकर सत्य को देखेंगे और यह भी नवदीप का जीनियस ही है कि सारे अन्याय चक्र के समय पूरा गांव नौटंकी देख रहा है।