नवें दशक की दलित-कथा / अज्ञात

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दलित साहित्य में साठोत्तर परिवर्तन

साठ से पूर्व दलित साहित्य लिखा जाता था, किंतु उसे ‘दलित साहित्य’ के रूप में अलग से पहचाना नहीं जाता था। इस कालखंड की कथाओं में संघर्ष और विद्रोह के स्थान पर करुणा और सहानुभूति की मात्रा अधिक थी; फिर भी मध्यवर्गीय कथा-संसार की सीमाओं को तोड़कर आत्मस्थिति की यथार्थ संवेदना को जगाने का काम इस कथा-साहित्य ने अवश्य किया।

साठोत्तर कालखंड में दलित साहित्य अपने तेवर उग्र रूप में प्रकट करने लगा।

विद्रोह, संघर्ष, निषेध और क्रांति की आवाज बुलंद करने लगा। नामदेव ढसाल के ‘गोलपीठा’ काव्य-संग्रह ने साहित्यिक संस्कृति में विस्फोट कर दिया। कथा के क्षेत्र में यही कार्य श्री बाबूराव बागल ने किया। बाबूराव जी की कहानियाँ विद्रोह के स्वर से विक्षुब्ध हैं। भीषण सामाजिक यथार्थ को उन्होंने उत्तेजनापूर्ण भाषा में प्रस्तुत किया। कविता को अपर्याप्त अनुभव करके बागुल कथा की ओर आए। आंबेडकरजी के विचारों के साथ ही महात्मा फुले, मार्क्स और बुद्ध के विचारों से उन्होंने अपना चिंतन विकसित किया। उन्होंने अनुभव किया कि भारतीय जीवन में क्रांति लाने के लिए मार्क्स के साथ आंबेडकर को भी जोड़ना आवश्यक है। जाति के विरुद्ध संघर्ष ही भारतीय क्रांति की सही लड़ाई हो सकती है। इस जीवनदृष्टि को लेकर उन्होंने ‘जब मैंने जाति छिपाई’ और ‘मौत सस्ती हो रही है’ जैसी बेचैन कर देनेवाले यथार्थ की, सोचने को विवश कर देनेवाली, विद्रोही नायकों की, समग्र मुक्ति की विंदास कहानियाँ लिखीं तब मानो दलित कथा का सही जन्म हो गया। उन्होंने दलित चेतना को पहचानकर दलित-कथा के विस्तार और विकास के लिए दरवाजे खोल दिए।

श्री बागुल से प्रेरणा लेकर दलित कथाकारों की नई पीढ़ी सामने आई, जिसमें पुरानी पीढ़ी के बंधुमाधव भी फिर से सक्रिय हो उठे। सातवें-आठवें दशक में यह कथा विकसित हुई, जिसमें योगीराज वाघमारे, वामन होवाल, सुखराम हिरवाले, केशव मेश्राम, अर्जुन डांगले आदि हस्ताक्षर महत्त्वपूर्ण हैं।

दलित साहित्य आंदोलन और बदलते यथार्थ के साथ-साथ इस कहानी के विषय और कथ्य भी बदलते गए। पीड़ितों के दु:ख-दर्द की करुण कहानियों के स्थान पर अब विद्रोह और संघर्ष के स्वर तीव्र होते दिखाई देते हैं। हिंदी साहित्य में जैसे और जितने कथा-आंदोलन हुए उतने मराठी साहित्य में नहीं हुए। नई कहानी का आंदोलन ही प्रधान रहा और वही कथा-साहित्य की मध्यवर्ती धारा बन गया। उसमें दलित चेतना को स्थान नहीं था। आगे भी इस कथा का विकास, व्यक्तिप्रधान, मनोविश्लेषणात्मक, अस्तित्ववादी, मध्यवर्गीय मानसिकता की या रहस्यवादी फंतासी की प्रतीकवादी कहानियों में होता रहा। आधुनिक जीवन की यातनाओं का चित्रण उसमें मिलता है, लेकिन उसमें सामाजिकता, प्रतिबंद्धता और क्रांति की चेतना का अभाव है। दलित-कथा ने इस दृष्टि से मराठी कथा को विस्तृत और सार्थक बना दिया।

पढ़े-लिखे दलित युवकों की नई पीढ़ी आंबेडकरजी के संदेश को साक्षात् करती हुई संघर्ष को बुलंद करने लगी। साठोत्तर साहित्यिक वातावरण ने इस ज्वाला को भड़का दिया। जब लघु पत्रिकाओं का निराशावादी, नपुंसक आंदोलन चल रहा था, तब मुक्त नवलेखन से प्रेरणा लेकर लेकिन उसके निराश-नपुंसक स्वर को नकारकर दलित चेतना जाग्रत हो उठी और समाज को झिंझोड़ने लगी। स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद दलितों का भी मोहभंग हो गया था, बल्कि अब उनपर होनेवाले अत्याचारों ने नए रूप धारण कर लिये थे। इस विषम परिस्थिति में दलित रचनाकार और भी उग्र हो उठा। इसी पृष्ठभूमि पर दलित कथाकारों ने अपनी हजारों वर्षों की पीड़ा को ऊर्जा में रूपांतरित कर दिया। वह जनतंत्र, समाजवाद, क्रांति, नवजागरण, अस्मिता आदि शब्दों की परिभाषा पहचानने लगा था। अब आँसू नहीं, संतप्त आँसू भी नहीं, अब विद्रोह, निषेध, गुस्सा, अनार्की के तेवर प्रस्थापित व्यवस्था के विरोध में उभरने लगे। आर्थिक और सामाजिक अन्याय के साथ अब उसे अपने सांस्कृतिक अन्याय और शोषण की भी पहचान हो गई। इन्हीं भावों के चित्र दलित-कथा में मिलते हैं।

नवें दशक की दलित कथा

अस्सी के आसपास नवें दशक में दलित कहानी समकालीन जीवन के समानांतर जाने लगी। ग्रामीण जीवन में जिस समाज को बहिष्कृत, अछूत बनाकर मनुष्यता से वंचित रखा गया था वह विषय अब भी समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन अब वह नया नहीं रह गया है। शहर की झोपड़पट्टी में यह समाज जो नरक-यातना भोग रहा है, उसके चित्रण का दौर भी पूरी तरह से समाप्त हो गया है, ऐसा नहीं है। लेकिन इन विषयों के साथ ही अब पढ़े-लिखे नौकरीपेशा मध्यवर्गीय दलिक युवक को समाज के मुख्य प्रवाह में सम्मिलित होते हुए कुछ नए जीवनानुभव प्राप्त हो रहे हैं। पहली पीढ़ी की निम्नवर्गीय जिंदगी और नई पीढ़ी की मध्यवर्गीय जिंदगी के तनाव वह झेल रहा है।

पुनरुत्थानवाद के आंदोलनों ने संघर्ष के नए क्षेत्र निर्मित किए हैं। नए जीवन के नए प्रलोभन भी सामने हैं। नई समस्याओं का मुकाबला करना है। अपने जीवन के अंतर्विरोधों का भी उसे साहस से सामना करना है। शरणकुमार लिंबाले, भास्कर चंदनशिव, योगेंद्र मेश्राम, भीमसेन देठे, सुमित्रा पवार, प्रकाश खरात आदि नई पीढ़ी के कथाकारों के सामने अब जटिल तथा मिश्र और तनावपूर्ण समकालीन जीवन की चुनौतियाँ हैं। अपने समाज के पाखंडी नेता, उनकी गुटबाजियाँ, दलितों में ही एक जाति से दूसरी की दुश्मनी, इस परिस्थिति के साथ ही आधुनिक जीवन के अंतर्द्वंद्व और आत्मसंघर्ष के बारे में भी सोचना है। दलित नारी की दोहरी वेदना को भी अभी शब्द मिलना बाकी है।