नव हेगेलपंथियों से मार्क्स का अलगाव / वर्तमान सदी में मार्क्सवाद / गोपाल प्रधान

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इस दौरान लिओनार्ड वुल्फ की किताब 'ह्वाई रीड मार्क्स टुडे' चर्चित हुई। किताब के लेखक यूनिवर्सिटी कालेज, लंदन में दर्शन के प्रोफ़ेसर थे और इसका प्रकाशन 2002 में हुआ था। भूमिका में लेखक ने बताया है कि उन्होंने जब मार्क्सवाद पर एक पाठ्यक्रम शुरू किया तो उन्हें उम्मीद नहीं थी कि कोई इसे पढ़ेगा लेकिन अचरज तब हुआ जब अनेक छात्र इसे पढ़ने के लिए आए। इस रुचि का कारण बताते हुए उन्होंने विश्व सामाजिक मंच के जुलूसों में प्रदर्शित एक बैनर का जिक्र किया है जिसमें लिखा था 'चेंज कैपिटलिज्म विथ समथिंग नाइस'। इसी इच्छा में वे मार्क्सवाद के लिए जगह देखते हैं। वे मार्क्सवाद को पूँजीवाद की मूलगामी आलोचना के बतौर समझते हैं। पुस्तक में मार्क्स के विचारों के प्रति कोई श्रद्धा नहीं है बल्कि ज्यादातर एक तरह की आलोचना ही है लेकिन किन्हीं प्रसंगों में बिना शक कुछ नई बात कहने की कोशिश की गई है।

सबसे पहले वे सवाल उठाते हैं कि इक्कीसवीं सदी में मार्क्सवाद में से कितना कुछ बचा रहेगा और उत्तर देते हैं कि हमारी कल्पना से ज्यादा ही। वे मार्क्स की एक सीमा का संकेत करते हैं जिसे हम आगे के तकरीबन सभी विचारकों में दोहराया जाता हुआ पाएँगे। वे कहते हैं कि मार्क्स के लिए प्राकृतिक संसाधन अक्षय थे इसलिए पूँजीवाद की उनकी आलोचना में हम पर्यावरण के विनाश संबंधी प्रसंग उतने नहीं देखेंगे जितने आज दिखाई पड़ते हैं। पुस्तक की सीमा के बतौर वे इस बात को भी शुरू में ही साफ कर देते हैं कि मार्क्स को उन्होंने पारंपरिक तरीके से यानी एंगेल्स की नजर से ही देखा है।

वुल्फ ने पुस्तक की शुरुआत मार्क्स के शुरुआती लेखन के विश्लेषण से की है। इस सिलसिले में ध्यान रखना होगा कि पूँजीवाद की आलोचना अपने जमाने में मार्क्स अकेले ही नहीं कर रहे थे। वुल्फ का मकसद अन्य आलोचकों के मुकाबले मार्क्स की विशेषता को उजागर करना है। वे कहते हैं कि मार्क्स को पूँजीवादी समाज मानव विरोधी नजर आता है लेकिन उन्हें लगा कि पूँजीवादी समाज में मजदूरों की बदहाली का सही विश्लेषण नहीं हो रहा है इसीलिए इसका इलाज भी नहीं खोजा जा सका है। उस समय धर्म को ले कर बहुत सारा आलोचनापरक चिंतन हो रहा था। धर्म संबंधी इस समस्त विवेचन को मार्क्स ने सामाजिक आलोचना में बदला और इसके लिए अलगाव की धारणा का उपयोग किया तथा इसके साथ श्रम के अलगाव की बात उठाई। उन्होंने यह भी माना कि उदारवादी समाज में प्राप्त अधिकारों को मजदूरों को प्रदान करने से भी उनकी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। धर्म के सवाल से शुरू करने की वजह युवा हेगेलपंथी थे। युवा हेगेलपंथियों में मार्क्स सबसे अधिक फायरबाख के नजदीक थे। फायरबाख ने कहा कि ईश्वर ने मनुष्य को नहीं वरन मनुष्य ने ईश्वर को बनाया है। उनका कहना था कि मनुष्य ने अपने सभी गुणों का सर्वोत्तम रूप कल्पित कर के उन्हें ईश्वर में निवेशित कर दिया। उनके अनुसार इसके कारण हम मानवीय गुणों को उनका उचित दाय प्रदान नहीं कर पाते। मार्क्स ने कहा कि 'धर्म की आलोचना सारत: पूरी हो चुकी' है। स्वाभाविक रूप से धर्म की आलोचना उस समय की सत्ता की आलोचना भी थी क्योंकि वह सत्ता अपने आप को धर्मसम्मत बताती थी। इसीलिए युवा हेगेलपंथियों की नास्तिकता इतनी खतरनाक मानी गई। बहरहाल मार्क्स फायरबाख के ही विश्लेषण से संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने सवाल उठाया कि आखिर मनुष्य ने धर्म का आविष्कार ही क्यों किया। इसका उत्तर देने के क्रम में वे इस मान्यता तक पहुँचे कि इस दुनिया की तकलीफों ने धर्म की कल्पना को जन्म दिया है इसलिए धर्म का उच्छेद उन हालात के खात्मे से जुड़ा हुआ है जिन्होंने धर्म और ईश्वर की कल्पना को पैदा किया। इसके बाद वे इस बात पर जोर देते हैं कि मार्क्स ने वास्तविक दुनिया को बदलने में मनुष्य की भूमिका को उजागर करने के लिए अपने समय की दार्शनिक धाराओं का खंडन किया। उनके अनुसार मार्क्स हाब्स से ले कर फायरबाख तक के भौतिकवाद की आलोचना इसलिए करते हैं कि वह दुनिया को बदलने में मनुष्य की भूमिका को मंजूर नहीं करता तो दूसरी ओर हेगेल में अपनी पूर्णता को पहुँचा हुआ भाववाद भी ऐतिहासिकता को स्वीकार करने के बावजूद समस्त बदलाव को महज चिंतन के बदलाव तक सीमित कर देता है। हेगेल की तरह वे मानते हैं कि मनुष्य अपने आप को और दुनिया को सांसारिक गतिविधि के जरिए बदलता है लेकिन उनके विपरीत कहते हैं कि यह बदलाव महज चिंतन के क्षेत्र में नहीं बल्कि वास्तविक दुनिया में होता है। इस गतिविधि का एक महत्वपूर्ण पहलू उत्पादक गतिविधि या श्रम है। अब श्रम का सवाल ही उन्हें अलगाव की अमूर्त धारणा से उसके ठोस रूपों पर विचार करने की ओर ले जाता है। श्रम के अलगाव के कारण मनुष्य अपने अस्तित्व को साकार नहीं कर पाता। श्रम के अलगाव के कारण जो गतिविधि आनंद का स्रोत होनी चाहिए वही तमाम तरह की तकलीफों का स्रोत बन जाती है। मेहनत करनेवाला मनुष्य काम की स्थितियों के कारण अपनी मनुष्यता को खो कर महज हाथ और पेट बन कर रह जाते हैं। श्रम माल में बदल जाता है जिसे बाजार में खरीदा और बेचा जाता है। श्रमिक का जीवन ही मानो उसके अपने लिए नहीं बल्कि धनी-मानी लोगों की जरूरत के मुताबिक चलता हुआ प्रतीत होता है। मार्क्स ने श्रम के अलगाव को इस तरह प्रस्तुत किया कि पूँजीवाद के तहत मनुष्य का सार उसके अस्तित्व से जुदा हो जाता है। मार्क्स के अनुसार मनुष्य सारत: उत्पादक प्राणी होता है लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था में उसे अमानवीय स्थितियों में मेहनत करनी पड़ती है।

इस अलगाव का पहला रूप यह है कि मनुष्य अपनी मेहनत से पैदा हुई चीज से अलग कर दिया जाता है। मार्क्स के अनुसार जिस भी वस्तु के हम दर्शन करते हैं वह मनुष्य की मेहनत के जरिए उस रूप में आई होती है। बात यह है कि संसार के ऐसा होने के बावजूद हम उसे अपनी मेहनत का ही उत्पाद स्वीकार नहीं करते। इस तरह हम अपनी ही बनाई दुनिया में अजनबी की तरह रहते हैं। ये वस्तुएँ सिर्फ पराई और रहस्यमय ही प्रतीत नहीं होतीं बल्कि हम पर राज भी करने लगती हैं। मान लीजिए हम कहते हैं 'बाजार की ताकतें' और हमारी बनाई हुई चीज होने के बावजूद हम उन्हें इस तरह समझते हैं मानो वे गुरुत्वाकर्षण की शक्ति जैसी कोई चीज हों। इस तरह बाजार हम पर शासन करने लगता है।

अलगाव का दूसरा रूप श्रम विभाजन से पैदा होता है। इसके कारण श्रमिक समूची व्यवस्था को नहीं समझ पाता और अपनी जगह पर अपना काम यांत्रिक तरीके से करता रहता है। इसके कारण मनुष्य मशीनी तरीके से एक ही काम बार-बार करता रहता है और उसकी सृजनात्मकता मारी जाती है। इसी से फिर मनुष्य प्रजाति के बतौर हमारे खास गुणों या मानवता से हमारा अलगाव होता है। मनुष्य का अपना खास गुण है सामाजिक रूप से उत्पादक गतिविधि। मार्क्स कहते हैं कि उत्पादन तो अन्य प्राणी भी करते हैं लेकिन मनुष्य स्वतंत्रतापूर्वक अपनी मर्जी के मुताबिक अनपहचाने रास्तों पर चल कर भी उत्पादन करता है। उसके उत्पादित वस्तुओं की विविधता अपार हो सकती है लेकिन पूँजीवाद के तहत मनुष्य की यह उत्पादक आजादी मारी जाती है। मेहनत प्रसन्नता के बजाय तकलीफ बन जाती है। मनुष्य की दूसरी विशेषता उत्पादन के मामले में बड़े पैमाने का सहयोग है। इसे सामान्य रूप से हम नहीं महसूस करते लेकिन अगर दूसरे ग्रह से कोई आए तो उसे हमारे उत्पादन और उपभोग में बहुत बड़ा सहकार दिखाई पड़ेगा। हजारों तरह की चीजों को बना कर हम समूची दुनिया में करोड़ों की संख्या में उसे इस्तेमाल करते हैं। मार्क्स का कहना है कि ये दोनों ही विशेषताएँ पूँजीवादी उत्पादन पद्धति में नष्ट हो जाती हैं और मनुष्य अपनी विशेषता खो कर अन्य प्राणियों की तरह हो जाता है। मनुष्य अपनी स्वतंत्रता का अनुभव काम करते हुए नहीं काम खत्म हो जाने के बाद करता है।

यह अलगाव दूसरे मनुष्यों से हमारे अलगाव के रूप में भी सामने आता है। हम सामाजिक जीव के रूप में अपना अस्तित्व नहीं समझते बल्कि कमाने और खर्च करनेवाले प्राणी की तरह अपने आप को समझने लगते हैं। यह अलगाव यदि पहले मनुष्य पर उसके ही बनाए ईश्वर के शसन के रूप में दिखाई पड़ता था तो पूँजीवादी व्यवस्था में मुद्रा या पूँजी के शसन के रूप में दिखाई पड़ता है। पूँजी एक परदा हो जाती है जिसके पीछे हम शायद ही कभी देखते हैं। यही मानव संबंधों को निरूपित करने लगती है। पूँजीवादी समाज में लोग किसी को इसलिए प्यार नहीं करते क्योंकि वह प्यार करने लायक है बल्कि उसके धनी होने पर उससे प्यार किया जाता है। किसी के प्रति श्रद्धा भी उसके गुणों के बजाय उसके धनी होने पर उमड़ती है। जो काम दूसरों के प्रति लगाव के कारण किए जानने चाहिए उन्हें पैसा ले कर किया जाने लगता है।

इसके बाद वुल्फ मार्क्स के परिपक्व दर्शन की ओर मुड़ते हैं और बताते हैं कि इसमें उनके शुरुआती विचारों का विस्तार है। वे 'अर्थशास्त्र की आलोचना में योगदान' की भूमिका के बतौर लिखी पंक्तियों को उठाते हैं और बताते हैं कि मार्क्स के अनुसार मानव इतिहास बुनियादी तौर पर मनुष्य की उत्पादक शक्ति के विकास की कहानी है। आर्थिक संरचनाओं में बदलाव भी इसी उत्पादक शक्ति के विकास में सहायक अथवा बाधक होने के आधार पर होता है। किसी आर्थिक संरचना के इस विकास में बाधक बनते ही शासक वर्ग की समाज पर पकड़ कमजोर पड़ने लगती है और सामाजिक क्रांति का दौर शुरू हो जाता है। कुल मिला कर उक्त किताब में मार्क्स के शुरुआती चिंतन के सिलसिले में ही कुछ नई बातें कही गई हैं। उनके बाद के लेखन को व्याख्यायित करते हुए वे कोई नई बात नहीं करते।