नशा / अन्तरा करवड़े

Gadya Kosh से
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खड़ाक्‌ से दरवाजा खुला। इतनी रात गये पिछले दरवाजे से कोई आ रहा है! सुनंदा ने डरते हुए अपने पति को जगाया। "अरे चिंता मत करो। ये जगदीश भाई होंगे। हर छुट्टी पर ऐसे ही पीकर आते है।"


"लेकिन अब वो क्या करेंगे!" सुनंदा अब भी भयभीत ही थी।


"कुछ नहीं। खाना खाकर सो रहेंगे। घर में कोई है नहीं¸ खाना साथ ही लाए होंगे। तुम सो भी जाओ अब।"


सोते हुए भी सुनंदा के मन में असंख्य प्रश्न आ जा रहे थे। इस तरह से पीने का क्या अर्थ हो सकता है? सिर्फ छुट्टी पर! उसके मायके में भी तो घर के सामने तिवारी काका ऐसे ही पीकर आया करते थे। घर में कितना कोहराम मचा करता था। तभी तो उसे मालूम पड़ा था कि पीने की आदत पड़ जाने पर आदमी का कोई भरोसा नहीं रह जाता। रोज चाहिये मतलब चाहिये ही। आज तक कई फिल्मों में भी देखा था उसने कि लोग गम भुलाने के लिये शराब का सहारा लेते है। अभिजात्य वर्ग का यह प्रिय शगल है आदी।


जगदीश भाई के बारे में बस इतना ही मालूम था कि वे अस्पताल में काम करते है। छुट्टी कभी नहीं करते। इसके पीछे भी कारण यह है कि वहीं पर दोनों वक्त का खाना मिल जाता है। उनकी पत्नी और पुत्र सालों पहले एक दुर्घटना में मारे गये थे।


तब से छुट्टी के दिन ही इस तरह से दिखाई देते है। अन्यथा कब आते है कब जाते है¸ किसी को भी पता नहीं चलता। इसीलिये उन्हें पिछवाड़े का कमरा सालों से दिया हुआ है। किराया देते समय ही उससे जो संवाद होता है बस उतना ही।


लेकिन जगदीश भाई के संबंध में मोहल्ले में हवा अच्छी नहीं थी। सभी का एक मत था कि वे चरित्र के अच्छे नहीं है। उनका शराब पीना इस मत के पुख्ता होने में आग में घी का काम करता हालाँकि आज तक किसी ने भी उन्हें शराब खरीदते¸ बोतल हाथ में लिये हुए आदी नहीं देखा था। सुनंदा की शादी से पहले सामने की पंडिताइन बोली भी थी कि अब जगदीश भाई को यहाँ से निकाल देना चाहिये। खैर! वे जो टिके है सो टिके है वहीं।


उस दिन सुनंदा की सास की तबीयत अचानक खराब हो गई थी। शायद दिल का दौरा पड़ा था। सुनंदा

के पति को भी ऑफिस में फोन नहीं लग पा रहा था। किसी तरह से उन्हें ऑटो में डालकर¸ रास्ता पूछते ताछते नजदीकी अस्पताल ले गई। समय पर पहुंचने के कारण जल्दी से भर्ती मिली। वहीं पर जगदीश भाई भी थे। उन्होने बिना किसी बातचीत या औपचारिकता के¸ बिल्कुल अपनी माँ के लिये करते वैसी ही सारी व्यवस्था कर दी।



अस्पताल से लौटकर जब सब कुछ सामान्य हो गया¸ एक दिन सुनंदा ने पकवानों की थाली परोसी और जगदीश भाई को देने पहुँची। उन्होने बड़े आदर से उसे बैठाया। उम्र में वे उसके पिता समान थे। उसे व्यवहार में देवता समान लगे। थोड़ी बातचीत बढ़ने पर सुनंदा ने उनसे पूछ ही लिया। यही कि वे हर छुट्टी पर पीते क्यों है¸ क्या उन्हें कोई दुख है?


वे गंभीर हो उठे। सुनंदा को एक क्षण के लिये लगा कि उसने ये प्रश्न पूछकर कहीं कोई गलती तो नहीं की है? शायद अब वे खाना भी न खाएँ। लेकिन आशंका के विपरीत¸ वे स्वाद लेकर भोजन करते रहे। उठकर हाथ धोए और पालथी लगाकर बैठ गये।


"बेटी! क्या तुम जानती हो कि मैं अस्पताल में क्या काम करता हूँ?"


"जी! नहीं तो।"


जगदीश भाई गंभीर हो उठे।


"मैं एक जल्लाद हूँ बेटी। अस्पताल में होने वाली प्रत्येक मौत के बाद उस शरीर को चीर फाड़ कर पोस्ट मार्टम के लिये तैयार रखना मेरा काम है।"


सुनंदा सन्न रह गई। जगदीश भाई कहते चले।


"रोज देखता हूँ अभागी जवान लड़कियों को जो मार डाली जाती है। दुर्घटना में मरे पाए गए किसी माँ के नन्हे मुन्ने लाड़ले को। नई नवेली दुल्हन को विधवा कर इस जग से जाते उसके पति को। किसी बुढ़िया के अकेले सहारे को। रंजिश में मारे गये बुढ़ापे के सहारे होते है वहाँ तो खुद से नाराज होकर आत्महत्या करते स्वार्थी बंदे भी। अब क्या क्या गिनाऊँ तुम्हें।" जगदीश भाई का चेहरा काठ के जैसा हो चला था और सुनंदा का चोरी करते पकड़ी गई बिल्ली के जैसा।


"इस दुनिया के नए निराले सभी खेल इस मौत के आगे फीके है बेटी और उसी मौत से जाने कितने तरीक़ों से मैं रोज मिलता हूँ। दिन भर के काम में सोचने को समय तो मिलता नहीं।"


वे कहते चले "छुट्टी पर अपने पाप याद आते है। जिस शरीर को माँ कितने जतन से अपने खून से शरीर पर पालती है¸ जन्म के बाद उसकी सालों देखभाल करती है खिलाती पिलाती है¸ उसके लाड़ करती है। ऐसे ही जाने कितने लाड़ले शरीरों को मैं अब तक चीर चुका हूँ। ऐसा लगता है जैसे हज़ारों माताओं का कलेजा चीरा है मैंने। नौकरी ही ऐसी है। क्या करुँ!"


जगदीश भाई ने उठकर पानी पिया। सुनंदा के आँसुओं से भीगे मुख की ओर प्रेम से देखते हुए उसे भी दिया।



"छुट्टी के दिन मैं प्रायश्चित्त करता हूँ बेटी। शहर से बाहर के उस उजाड़ मंदिर में जाकर वहाँ के बूढ़े पुजारी के साथ दिन भर रहता हूँ। उनकी सेवा करता हूँ¸ मंदिर में झाडू देता हूँ¸ आँगन की धुलाई करता हूँ। जो भी काम बन पड़े बस दिन भर भूखे पेट करता रहता हूँ। फिर वहाँ जो भी प्रसाद मिले उसी को लेकर घर आ जाता हूँ। मंदिर शहर से दूर है¸ आठ किलोमीटर चलना पड़ता है इसीलिये देर हो जाती है। फिर थकान और दूसरे दिन के काम का सोचकर कदम लड़खड़ाने भी लगते है। मेरा यही नशा है बस।"


सुनंदा मूक हो सोचती रही¸ "काश ऐसा नशा इस दुनिया के सभी लोग कर सकते हो।"