नसीरुद्दीन शाह का संघर्ष / जयप्रकाश चौकसे

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नसीरुद्दीन शाह का संघर्ष

प्रकाशन तिथि : 30 जून 2012

नसीरुद्दीन शाह का कहना है कि अपनी जवानी में अन्य नवयुवकों की तरह वह भी धन और ख्याति पाना चाहते थे। अभिनय क्षेत्र में प्रवेश के बाद उन्होंने शनै:-शनै: स्वयं की खोज की। फिल्म जगत में आकर भी उनके व्यक्तित्व की जड़ें यथार्थ की धरती में इतनी गहरी पैठी थीं कि वह ग्लैमर की लहर से अप्रभावित रहे। उन्हें प्रारंभ में व्यावसायिक सिनेमा से कोई प्रस्ताव नहीं आए और वे कला फिल्में करते चले गए। उन पर कला फिल्मों का ‘ठप्पा’ लग गया और कुछ पत्रकारों ने उन्हें समानांतर सिनेमा का अमिताभ बच्चन भी कहा। इस तरह के वर्णन को वह अपने प्रति दर्शाया आदर नहीं मानते। अमिताभ बच्चन की तरह उनके किए गए प्रयासों में वह असफल रहे, ऐसा वे स्वयं स्वीकार करते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अमिताभ बच्चन ने भी कभी उनकी तरह समानांतर सिनेमा नहीं किया। अमिताभ का नाम बॉक्स ऑफिस पर सिक्के बरसाता था।

यह तो स्पष्ट है कि दोनों ही श्रेष्ठ कलाकार हैं। अमिताभ की इस बात की प्रशंसा करनी होगी। अनेक फिल्मों में उन्होंने अपनी व्यक्तिगत पसंद के विरुद्ध जाकर काम किया, परंतु उन भूमिकाओं और फिल्मों के प्रति अपनी व्यक्तिगत हिकारत को छिपाने में वह सफल हुए और नसीरुद्दीन शाह यह नहीं कर पाए। दरअसल घटियापन के बीच में काम करते हुए उसके प्रति वितृष्णा को छिपाना आसान काम नहीं है। अन्य क्षेत्रों में अनेक प्रतिभाशाली लोग अपनी हिकारत को छिपा नहीं पाए हैं और वे घटियापन की लहर को रोक भी नहीं पाए। कई लोगों ने यह भी निश्चय किया कि जिसके खिलाफ लड़कर जीत नहीं सकते, उस दल या लहर में शामिल होना ही बेहतर है। एक इसी लचीलेपन या झुक जाने अथवा समाहित हो जाने के कारण घटियापन बिना विरोध के बढ़ता जाता है।

नसीरुद्दीन शाह से अलग उनके अन्यतम सखा ओम पुरी इस दूध में शकर की तरह घुल गए। दरअसल यह ओम के लिए आसान नहीं था, परंतु अभिनय की कसौटी पर खरा उतरने के लिए वह शपथबद्ध थे। इस तरह से घटियापन में शामिल होना और पैदाइशी घटिया होने में अंतर है। धृतराष्ट्र से ज्यादा कठिन था गांधारी का अंधत्व। गांधारी ने नदी, पहाड़, फूल, बहार, इंद्रधनुष देखे थे। प्रकृति के सौंदर्य को देख लेने के बाद उसे नहीं देखने का निर्णय कठिन था।

बहरहाल, नसीरुद्दीन शाह का कहना है कि सितारे प्राय: स्वयं की छवि पर मुग्ध होने वाले नार्सिसिष्ट होते हैं। ग्रीक दंतकथाओं में नार्सिसस नामक एक युवक की कथा है, जो अत्यंत सुंदर था और झील में स्वयं की छवि निहारते हुए उसमें डूबकर मर गया था। नसीर के लिए स्वयं पर मुग्ध होने की विस्मृति और विमूढ़ता नहीं थी। सारे सितारे नार्सिसिष्ट नहीं होते। कुछ कलाकार पारंपरिक अर्थ में असुंदर होने के बावजूद सितारा बनने में कामयाब हुए हैं। हर व्यक्तिउन्हीं बातों पर यकीन करता है, जो उसे सुविधाजनक लगती हैं। कालांतर में सुविधाएं सिद्धांत की तरह प्रतिपादित की जाती हैं।

नसीरुद्दीन शाह ने अपने कॅरियर को अपना जीवन नहीं माना, परंतु जीवनयापन के लिए फिल्में स्वीकार कीं। रंगमच उन्हें सच्च सुख देता है। कहानी सुनते समय यह कल्पना करना कठिन है कि यह परदे पर किस तरह प्रस्तुत होगी। अत: हर कलाकार भूमिका चयन में गलतियां करता है। यह मिलन लूथरिया का साहस है कि उन्होंने दक्षिण के बुढ़ाते हुए आत्मकेंद्रित सितारे के रूप में नसीर को ‘द डर्टी पिक्चर’ में लिया और उन्होंने अपने अभिनय से यथेष्ट जुगुप्सा जगाई। इससे बिलकुल हटकर थी ‘ए वेडनसडे’ में नसीर की भूमिका।


नसीरुद्दीन शाह की प्रेरणा से अनेक गैर पारंपरिक चेहरे-मोहरे वाले युवा अभिनय क्षेत्र में आए। जयपुर के इरफान खान कमाल के अभिनेता हैं। अगर ‘पान सिंह तोमर’ अमेरिका में बनी होती तो इरफान का ऑस्कर के लिए नामांकन होता। इसी तरह केके मेनन सामने आए। नसीर और ओम ने यह मिथ्या धारणा ही तोड़ दी कि चॉकलेटी चेहरा अभिनय के लिए आवश्यक है। अभिनय के लिए पहली जरूरत है संवेदना को महसूस करने की ताकत और पात्र के परिकल्पन की क्षमता। आज के दौर में संवेदना की कमी रोजमर्रा के जीवन में भी हम देख सकते हैं। आम आदमी इस क्षति को महसूस कर सकता है। अभिनेता न केवल संवेदना महसूस करता है, वरन् वह अपने विचार की मिक्सी में उसे घोंटकर शूटिंग के समय अभिव्यक्त करने के लिए भी तैयार रहता है। संवेदना में घटत-बढ़त भी उसके काम का ही हिस्सा है।

नसीर को कॅरियर के प्रारंभ में ही श्याम बेनेगल, गिरीश कर्नाड, सई परांजपे जैसे फिल्मकार मिले, जिनके साथ काम करने से उनकी कला मंझती चली गई। बहरहाल, सिनेमा जगत में नसीर अपने आप में एक पाठशाला बन चुके हैं।