नागरिक मताधिकार / जयनन्दन

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मास्टर रामरूप शरण बड़े ही उद्विग्न अवस्था में स्कूल से घर लौटे। छात्रों को नागरिक मताधिकार पढ़ाते-पढ़ाते आज उन्हें अचानक एक गंभीर चिंता से वास्ता पड़ गया। वे अन्यमनस्क हो उठे। घर आते ही उन्होंने अपने बड़े लड़के राजदेव को बुलाया और हड़बड़ाते हुए से कहा, “जल्दी से जाकर मुखियाजी, प्रोफेसर साहब, वकील साहब, इंद्रनाथ सिंह और बृजकिशोर पांडेय को बुलाकर ले आओ। कहना कि मैं तुरंत बुला रहा हूँ....एक बहुत जरूरी काम आ गया है।”

राजदेव चला गया। मास्टर साहब अनमने से दालान की ओर जाने लगे तो पत्नी को उनकी चिंतित मुद्रा देखकर जिज्ञासा हो उठी, “क्यों जी, क्या हुआ? आप इतना परेशान क्यों हैं? चाय-वाय भी नहीं पी और तुरंत बुलावा भेज दिया?”

“तुम नहीं समझोगी, ज़रा चाय बनाकर रखो, वे लोग आ रहे हैं।”

पत्नी चिढ़ गई, “हाँ, आपकी तो कोई बात मेरे समझने के लायक होती ही नहीं।”

“ओ...बहुत समझती हो तो लो समझो - उनसे नागरिक मताधिकार के सही एवं सटीक उपयोग के बारे में विमर्श करना है...समझीं?” रामरूप जी ने खीजकर कहा।

“हाँ समझी...और संसकिरित में बोलिए तो खूब समझूँगी। जाइए, मैं चाय बनाती हूँ।”

“जाइए....मैं चाय बनाती हूँ।” मास्टर ने खिसियाते हुए मुँह बनाकर उसकी नकल उतारी और दालान की ओर चले गए। वहाँ चौकी को झाड़-पोंछकर बिछावन लगाया। सब लोग आ गए तो बड़े प्रेम से बिठाया। राजदेव को चाय के लिए कहकर वे सबसे मुखातिब हो गए, “एक बहुत ही ज़रूरी काम से मैंने आप लोगों को बुलाया है...अच्छा हुआ कि आप लोग घर पर ही मिल गए। आपलोगों को तो मालूम ही है कि संसद का चुनाव होनेवाला है।”

“मालूम है।” किसी ने कहा।

“मतदान में बीस दिन का समय रह गया है।”

“मालूम है।”

“चुनाव प्रचार तेजी से चल रहा है।

“मालूम है।”

“मैदान में पाँच उम्मीदवार हैं।”

“मालूम है।”

“फिर आपलोगों ने निर्णय लिया कि वोट किसे देना है?”

“तो क्या इसी जरूरी काम के लिए आपने बुलाया हमें?” मुखिया जी ने कहा तो सब खिलखिलाकर हँस पड़े। मास्टर के माथे पर बल पड़ गया, वे और भी गंभीर हो गए, “भाई तो क्या यह काम जरूरी नहीं है?”

“देखिए मास्टर साहब, यह तो बिल्कुल अपनी-अपनी पसंद और इच्छा पर निर्भर है। आप ही बताइए, हमलोग कोई एक राय बनाकर सब पर उसे थोपें, क्या यह न्यायसंगत होगा?”

“प्रोफेसर साहब, आप बिल्कुल ठीक कहते हैं। मैं वही तो जानना चाहता हूँ कि आपलोगों ने अपनी-अपनी पसंद और इच्छा कायम की या नहीं।”

“इसके लिए अभी से इतना परेशान होने की क्या जरूरत है? जब वक्त आएगा तो किसी को वोट दे देंगे। ऐसे भी जो लोग किसी पार्टी विशेष की विचारधाराओं और नीतियों में विश्वास करते हैं, वे तो उसी पार्टी के उम्मीदवार को वोट देंगे, यह जाहिर ही है।”

“इन्द्रनाथ भाई, यही मानसिकता हम लोगों को लगातार क्षतिग्रस्त कर रही है। वक्त आता है और हम व्यक्तिगत रूप से किसी को बगैर जाने-समझे वोट दे देते हैं। भुलावे में डालनेवाली पार्टी की विचारधाराओं और नीतियों से आकर्षित होकर उसके नाम पर खड़े माटी के माधो को भी वोट डाल देते हैं। लेकिन ज़रूरत है हमें यह समझने की कि नागरिक अधिकारों में मताधिकार सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, जिसका उचित, सटीक एवं विवेकपूर्ण प्रयोग न होने से व्यक्ति एवं समाज के भूत-वर्तमान-भविष्य तीनों प्रभावित होते हैं। यही कारण है कि आज सर्वत्र अच्छाइयों का लोप हो रहा है, बुराइयाँ हर क्षेत्र में जड़ पकड़ रही हैं।”

“फिर आप चाहते क्या हैं?” मुखिया, प्रोफेसर एवं पांडेय ने करीब-करीब एक साथ पूछा।

“हम चाहते हैं कि पाँचों उम्मीदवारों का पूरा परिचय प्राप्त किया जाए, फिर सब अपना-अपना फैसला करें कि वोट किसे देना है। इसके लिए मतदाता विशेष में लगन एवं चिंता होनी चाहिए कि वे उम्मीदवारों को परखने में गलती न करें। अतएव उम्मीदवार से अधिक ज़िम्मेदारी हरेक मतदाता की है कि वे थोथे विज्ञापनों और प्रचारों की चकाचौंध से प्रभावित न हों, वरन खुद दौड़-धूप कर सही तथ्य का पता लगाएँ कि वोट के वाजिब हकदार कौन हैं।”

“आप जैसा चाहते हैं, क्या वह देश के दो तिहाई निरक्षर एवं मूढ़ मतदाताओं के लिए संभव है?”

“हम एक तिहाई साक्षरों एवं बुद्धिजीवियों के लिए तो संभव है। हम इस समाज के आगे चलनेवाले लोग हैं...उन्हें सही दृष्टि देना...रास्ता सुझाना हमारा काम है।”

“ठीक है, जैसी आपकी मरज़ी!” मुखिया जी ने विरक्त भाव से कहा तो चारों ने उसी मुद्रा में उनका समर्थन कर दिया।

मास्टर जी उत्साहित हो उठे, “आप लोगों से मुझे यही उम्मीद थी कि आप मेरी चिंता को ज़रूर गंभीरता से लेंगे। प्रजातंत्र का सबसे बड़ा हथियार है नागरिक मताधिकार। हम अपना राजा अंधा चुनें या त्रिकालदर्शी, यह हमीं पर निर्भर है...इसलिए...।”

इन्द्रनाथ की सहन-शक्ति एकाएक चुक गई मानो, “हम समझ गए...कोई और दूसरी बात भी है या हम चलें!” इन्द्रनाथ खड़े हो गए तो उनके साथ अन्य लोग भी खड़े हो गए।

मास्टर जी के उत्साह पर मानो घड़ों पानी पड़ गया, “लगता है, आप लोगों की मुझसे वैचारिक सहमति नहीं बन पा रही। कृपया बैठिए, अगर ऐसी बात है तो अब ज़्यादा वक्त मैं आप लोगों का नहीं लूँगा। आप लोग मेरे मित्र हैं...मन की छटपटाहट आपसे न व्यक्त करूँ तो किससे कहूँ?”

“रामरूप जी, आप बड़े विचित्र रोग के शिकार हो रहे हैं।” मुखिया जी ने यों कहा जैसे किसी बड़े भेद से पर्दा हटा रहे हों।

“मुखिया जी! आप इसे रोग कह रहे हैं? मैं तो सोच रहा हूँ कि आज से पहले मेरे दिमाग में इतनी ज़रूरी युक्ति ने क्यों दस्तक नहीं दी? समझने की कोशिश करेंगे तो आपको खुद-ब-खुद अपनी लापरवाही का ज्ञान होने लगेगा।”

“अच्छा, हम फिर आयेंगे अपना दिमाग फ्रेश करके। अभी तो सचमुच खोपड़ी में कुछ घुस नहीं रहा।” वकील साहब का मकसद किसी भी तरह कन्नी काट लेना था।

“दो मिनट...सिर्फ़ दो मिनट,” मास्टर जी घिघिया पड़े, “राजू, ज़रा चाय लाना बेटे। कल से आप लोग दो-चार दिनों का समय निकालिए। देखिए, यह मेरी विनती है, इसे अस्वीकार मत कीजिए।”

“इन चार दिनों में करना क्या है, सो तो कहिए।” बृजकिशोर ने पूछा।

“हम हरेक उम्मीदवार के गाँव जाकर उसके चरित्र, आचरण और योग्यता की सही जानकारी हासिल करेंगे। फिर हम तय करेंगे कि वोट की पात्रता किसमें है।”

“माफ कीजिए मास्टर जी। मैं नहीं जा सकूँगा। मेरी पत्नी की तबीयत खराब है।” मुखिया जी ने अपनी जान छुड़ाई।

“मुझे भी कल से एस डी ओ ऑफ़िस जाना है, वहाँ मेरा एक काम अटका है।” पांडेय जी ने अपनी असमर्थता की धूल झोंक डाली।

“कल मेरे ससुर जी आनेवाले हैं।” अपना पल्ला झाड़ लने से इन्द्रनाथ क्यों बाज आते।

“मेरे सिर में दो-तीन दिनों से चक्कर आ रहा है।” यह अचूक बहाना प्रोफेसर का था।

“कल से मेरे कुछ सीरियस मुकदमों की तारीखें हैं।” वकील साहब तो पेशेवर बहानेबाज थे। पिंड छुड़ाने का वज़नदार रास्ता ढूँढ निकाला।

टाल-मटोल के बेहद फूहड़ दृश्य से सामना करके मास्टर जी बहुत उदास हो गए, “मतलब, आप सभी कल से धुआँधार व्यस्त हैं। लेकिन एक बार मैं फिर आप सभी से अनुरोध करना चाहूँगा कि यह व्यस्तता जो आप ओढ़ रहे हैं, इससे कई गुणा ज़्यादा ज़रूरी है मेरा कहा काम। आप जागरूक लोग भी इस तरह कन्नी काटेंगे...।”

जाने के लिए वे पुन: एक साथ खड़े हो गए। मास्टर जी ने अंतिम कोशिश की, “खैर, मैं कल से छुट्टी लेकर इस काम में लग रहा हूँ...रात में एकाग्रचित होकर आप भी इस पर विचार करें। शायद मैं अपनी बेचैनी को ठीक से शब्द नहीं दे पाया। बहरहाल, आप पढ़े-लिखे लोग हैं...अगर मेरे कहे का अर्थ निकल जाए तो सुबह आप लोगों का स्वागत है।”

राजदेव चाय ले आया था। सभी लोगों ने जल्दी-जल्दी सुड़क लिया और तेज़ी से फुट गए। मास्टर जी बहुत खीज भरी मुद्रा में उन्हें जाते हुए देखते रहे। हुँह...मुखिया हैं...वकील हैं...प्रोफेसर हैं...लंद हैं...फंद हैं...खाक हैं। उनके कुछ दूर चले जाने के बाद उनकी एक समवेत हँसी का स्वर मास्टर जी के कानों से आकर टकराया। उन्हें बड़ा तरस आया - बेवकूफ़!

अगले दिन से ही मास्टर रामरूप ने उम्मीदवारों के स्थायी आवास का पता कर लिया। फिर बारी-बारी से वहाँ जा-जाकर जानकारी इकट्ठी करने लगे। इस काम में उन्हें बेहद कठिनाई का सामना करना पड़ा। एक-दो उम्मीदवार तो सुदूर दूसरे प्रदेश के थे, जिन्हें यहाँ लाकर उनकी पार्टी ने खड़ा कर दिया था। उन्हें खासी झुंझलाहट हुई...यह क्या तरीका है...दूसरी मिट्टी और जलवायु के आदमी को भला यहाँ की क्या समझ होगी? ख़ैर, इनके बारे में बिना ज़्यादा मगजपच्ची किए स्थानीय उम्मीदवारों पर ही उन्होंने अपना ध्यान केन्द्रित किया। वे लक्ष्य कर रहे थे कि आस-पड़ोस के लोग साफ़-साफ़ कुछ भी बताने से हिचक महसूस कर रहे थे। लेकिन धुन के पक्के मास्टर जी जब अपना उद्देश्य बताते तो लोग व्यंग्य से अपने दाँत निपोड़ लेते। इस उपहास पर मास्टर जी को बहुत कोफ्त हो उठती। कोई-कोई तो ढीठता से मसखरीवश उनसे पूछ लेता, “क्या इनसे अपनी लड़की की शादी करनी है आपको?”

मास्टर जी इस गाली को गरिष्ठ भोजन की तरह गले से उतारते हुए कहते, “शादी करनी होती तो इतनी जाँच-पड़ताल नहीं करता। उसमें तो एक ही लड़की के भविष्य का सवाल रहता, लेकिन यहाँ तो लाखों-लाख के भविष्य का सवाल है।”

इसी तरह इन फब्तियों को झेलते हुए वे अंतत: कोई न कोई नेक खयाल व्यक्ति की तलाश कर ही लेते, जिनसे उनका मकसद पूरा हो जाता और वे आश्वस्त हो जाते।

एक उम्मीदवार उनके ससुराल का ही था, जो रिश्ते से करीब का साला लगता था। उसके बारे मे वे पहले से ही बहुत कुछ जानते रहे थे।

अब जब सबके बारे में पूरा हुलिया एकत्रित हो गया तो मास्टर जी एकदम अचंभे में पड़ गए। सारे के सारे उम्मीदवार बेहद दाग़दार और दुष्टता की हद पर खड़े हुए थे। एक भी ऐसा नहीं था जिसे सर्वथा योग्य समझकर वोट दिया जाए। उनके साले पर पाँच खून और कई बलात्कार के मुकदमे चल रहे थे। एक उम्मीदवार तो एक समय का कुख्यात डाकू रह चुका था। एक तस्करी के मामले में कई बार जेल जा चुका था। एक कई हरिजन-बस्तियों को जलाने का रिकार्ड बना चुका था। एक बड़े भारी रईस बाप का रात दिन शराब के नशे में धुत रहने वाला निकृष्ट बेटा था जिसका अड्डा रात-दिन तवायफ़ों के कोठों पर टिका रहता था।

मास्टर जी गहरी चिंता में डूब गए - देश क्या इन्हीं शोहदों, उचक्कों और नालायकों के बूते चलेगा? क्या ऐसे ही छंटे हुए लोग जनतंत्र के प्रहरी बनेंगे? बहुत चिंतन-मनन के बाद उन्होंने तय किया कि डाकू रह चुका उम्मीदवार मोरन सिंह ही इन चारों में थोड़ा अच्छा है। पढ़ा-लिखा है...परिस्थितियों ने उसे डाकू बना दिया होगा। लेकिन अब लगता है उसका हृदय परिवर्तित हो चुका है। हो सकता है व्यक्ति और समाज की मौजूदा चुनौतियों और भावनाओं को समझकर वह अच्छा काम कर जाए।

इस तरह एक कठोर विश्लेषण के आधार पर उन्होंने एक निष्पक्ष नतीजा निकाला और उससे अपने परिवार और गाँववालों को अवगत कराते हुए कहा कि हमें वोट देना है तो मोरन सिंह को ही देना है। उनका कहा सबको एक मज़ाक जैसा लगा...लगता है मास्टर सनक गया है और बेकार की बातों में माथा-पच्ची करने लगा है। इसके पूर्व तो वह इन चक्करों में नहीं पड़ा करता था।

गाँववाले तो मास्टर के रवैए से चुटकी लेने के मूड में ही थे, घरवाले भी परेशान थे कि आखिर इन्हें हो क्या गया? मास्टर जी अपनी स्थापना रखते तो उन्हें चुप कराते हुए वे अपनी राय देने लगते कि हमें वोट देना है तो सिर्फ़ हरप्रताप को देना है। वे जान-पहचान के हैं...उनसे अपना कुछ काम भी निकाला जा सकता है। मास्टर जी उद्विग्न हो उठते...कैसे समझायें इन्हें? अरे बददिमाग, तुम तो अपना काम निकाल लोगे लेकिन देश और समाज का क्या होगा, ऐसे नकारा आदमी से उनका तो कुछ भी भला नहीं हो सकता।

मास्टर जी ने इस विषय पर लगातार तकरार होते रहने से कई दिनों तक घर में खाना नहीं खाया। उन्हें लगने लगा था कि वे एकदम अकेले हो गए हैं। पत्नी और बच्चे तक उसके साथ नहीं हैं। उन्होंने फिर भी अपने बूते भर लोगों को समझाने का प्रयास जारी रखा कि वे सिर्फ़ और सिर्फ़ वोट मोरन सिंह को ही दें...इसी में हम सबका भला है। हरप्रताप जब यहाँ चुनाव प्रचार करने आया तो उसने मास्टर और उनकी पत्नी से विशेष तौर पर मुलाकात की। अपना पूरा अनुनय-विनय उनके सामने बिछा दिया कि वह उनका रिश्तेदार है तो उनके वोट पर तो उसका हक है ही, उनके वोट भी उसके खाते में आने चाहिए जो उनके पड़ोसी और गाँववाले परिचय और संपर्क के दायरे में हैं। अंदर ही अंदर चिढ़ रहे मास्टर तो एक करारा जवाब उसके मुँह पर ही दे मारना चाहते थे, “हाँ हाँ क्यों नहीं, पाँच खून और सैकड़ों बलात्कार का अपूर्व अनुभव है तुम्हारे पास तो भला वोट और किसे दिया जा सकता है!” लेकिन सबका लगाव देखकर मन मसोसकर रह गए। हरप्रताप ने पूरे गाँव-जवार में घूम-घूम कर इस रिश्ते को खूब भंजाया। जीजा और जीजी संबोधन को सरेआम करके उसने अपने पक्ष में मानो एक हवा-सी बना दी।

जिस रोज़ मतदान था, मास्टर जी को ठीक से नींद नहीं आई। एक उत्सुकता और कौतूहल ठक-ठक करके उनके दिमाग़ में बजता रहा। वे बहुत तड़के ही नहा-धोकर तैयार हो गए। ज्योंही आठ बजा अपने साथी मुखिया, वकील, प्रोफेसर आदि की तलब करने लगे कि साथ ही चलकर मतदान कर आएँगे। पता चला कोई अपने घर में नहीं हैं...सभी अपने-अपने धंधे में मसरुफ़ हो गए हैं। मास्टर जी को बहुत झल्लाहट हुई...आज के दिन भी अति जागरूक माने जानेवाले ए लोग एक महत्त्वपूर्ण एवं बहुमूल्य अधिकार के उपयोग के लिए ज़रा-सा चिंतित नहीं हैं। जाएँ भाड़ में मूर्खाधिराज सब, वे अकेले ही जाकर इस राष्ट्रीय दायित्व का निर्वाह कर आएँगे। वे शनै: शनै: मतदान केन्द्र की ओर बढ़ गए।

केन्द्र पर पहुँचे तो काफी चहल-पहल नज़र आई। गाँव के कुछ छंटे हुए शोहदे किस्म के लड़के बहुत सक्रिय नज़र आए। मास्टर साहब को वे ज़रा घूरते और नापते हुए से दिखे। मास्टर साहब ने इनकी बिना परवाह किए अपना गंतव्य ढूँढ़ लिया। अपनी क्रम संख्या और भाग संख्या की जानकारी उन्होंने पहले ही जुटा ली थी। मतदान अधिकारी ने उनकी पर्ची देखकर वोटर लिस्ट में उनका नाम ढूँढ़ा तो वहाँ पहले से ही टिक का निशान लगा हुआ था। उसने उनका मुँह देखा और तरस खाने तथा कोसने के मिले जुले भाव लाकर बताने लगा कि आपका वोट पोल हो चुका है। वे सन्न रह गए...ऐसा कैसे हो सकता है...एक नागरिक के सबसे बड़े अधिकार के साथ ऐसा क्रूर मज़ाक करने की छूट किसी को मिल कैसे जाती है? यह तो सरासर अपमान है किसी के अस्तित्व का। गुस्से से तलफलाकर वे मतदान अधिकारी का मुँह नोच लेना चाहते थे, तभी उनकी अकिंचन और ठिसुयायी हालत देखकर लाइन से बैठे पार्टी के एजेंट बने छोकरे खिलखिलाकर हँस पड़े। इनमें अधिकांश उन्हीं के विद्यालय के पूर्व विद्यार्थी थे। बेहद लुटी-पिटी सी मुद्रा लेकर वे केन्द्र से बाहर निकल गए। उन्हें लगा कि हर आदमी उन्हें ही घूरकर उनकी इस स्थिति का मज़ा ले रहा है। कोई उन्हें अगर टोक देता तो वे शर्तिया फूट-फूट कर रो पड़ते।

घर आकर वे बिस्तर पर निढाल पसर गए। कुछ ही देर में उन्हें तेज़ बुखार हो आया। पत्नी उनकी स्थिति से अवगत होकर उन्हें समझाने लगी, “इस तरह दुनिया-जहान के मुद्दे पर आप बीमार और दुबले होने लगेंगे तो जीना दुश्वार हो जाएगा। आपने अपना फर्ज़ निभाया, व्यवस्था ने साथ नहीं दिया तो जाएँ जहन्नुम में।”

मास्टर जी ने मन ही मन तय किया कि अब वे कक्षा में नागरिक शास्त्र नहीं पढ़ायेंगे, विशेषकर नागरिक मताधिकार तो बिल्कुल ही नहीं।

मतदान के तीसरे दिन सर्वत्र परिणाम की बेसब्री से प्रतीक्षा होने लगी। मास्टर जी का ध्यान भी उधर ही टँगा हुआ था। उन्हें अपने फैसले के सच होने का अब भी बहुत भरोसा था। अपनी पत्नी से उन्होंने कहा, “ज़्यादातर मामलों में सत्य और शिव की ही जीत होती आई है...चूँकि आज भी दुनिया में सत्य-बल है, तभी यह धरती टिकी है। मुझे उम्मीद है, मोरन सिंह ज़रूर जीतेगा।”

मास्टरनी सहमत नहीं थी, फिर भी उनकी अधीरता का खयाल करके दबे स्वर में कहा, “अब तो कुछ ही मिनट-घंटे की बात है। हालाँकि सबके सब हरप्रताप भाई का ही नाम ले रहे हैं।”

मास्टर जी ने उसके तात्पर्य को टटोलते हुए ज़रा थाहने की मंशा से पूछ लिया, “राजदेव की माँ ! एक बात पूछूँ, कसम लो कि सच-सच बोलोगी, तुमने वोट हरप्रताप को ही दिया है न?”

वह बुरी तरह सकपका गई...एक मोटा असमंजस उतर आया चेहरे पर। कहा, “कसम न देते तो सच की भनक तक मैं लगने न देती। हरप्रताप को वोट न देती तो क्या उस मुए मोरन सिंह को देती, जिसकी सूरत तक मैंने नहीं देखी। मुझे माफ़ कर दीजिए कि बहुत चाहकर भी मैंने आपका कहा नहीं माना।”

मास्टर एकदम रूआँसा हो गए और उनकी आवाज़ भर्रा गई, “धर्मपत्नी हो...अर्द्धांगिनी हो...यही है तुमसे मेरा रिश्ता कि मैं इतना कुछ झेल गया और उसका तुम पर रत्ती भर असर नहीं हुआ। ठीक कहा है किसी ने कि दुनिया के सब रिश्ते-नाते झूठे हैं...कोई किसी का कुछ नहीं लगता...।”

मास्टर जी का दुख किसी पके घाव की तरह रिस रहा था तभी घर के बाहर की गली से हरप्रताप के नाम से जिंदाबाद के नारे सुनाई पड़ने लगे। आवाज इतने पास से और इतनी तीव्रता से आ रही थी जैसे मास्टर जीको जान-बूझकर सुनाया-चिढ़ाया जा रहा हो। उनका चेहरा बुझ गया और आवाज़ गहरी उदासियों में डूब गई, “हे भगवान! अब तो इस मुल्क का तुम्हीं माई-बाप हो। लो, जीत गए तुम्हारे आदरणीय और कर्मठ भाई। देख क्या रही हो...दौड़ो...जाओ, खुशियाँ मनाओ...नारे लगाओ...उन्हें बधाई दो। मेरा मुँह चिढ़ाओ...मुझ पर हँसो...थूको...ताने मारो।”

उनकी आँखों में आँसू छलछला आए। मास्टरनी को उनकी कातरता ने एक अपराध बोध से भर दिया। इसी बीच पास के बरामदे से समग्र संवादों को आत्मसात कर रहे उनके बेटे राजदेव ने आकर हस्तक्षेप किया, “पिता जी, आपने मुझे क्यों नहीं पूछा कि मैंने वोट किसे दिया?”

“अब भी पूछने की क्या कोई ज़रूरत है? तुम्हारे सुर तो हमेशा माँ के साथ ही मिलते हैं। तुम लोगों के लिए अपना स्वार्थ के आगे कुछ भी महत्त्व का नहीं है। मताधिकार तो महज़ ख़रीद-फरोख्त होनेवाली एक मामूली-सी औपचारिकता है। देश के बनने-बिगड़ने से इसका कोई लेना-देना नहीं। क्रिकेट की तरह का यह एक बस खेल है, जिसे चुनावी मौसम में खेलने लगते हैं तमाम धंधेबाज, तमाम जुआरी, तमाम खिलाड़ी, तमाम बाहुबली, तमाम निठल्ले लोग...।”

“पिता जी, आप यकीन मानिए...भगवान साक्षी है...मैंने अपना वोट मोरन सिंह को दिया है, आपके आकलन पर मैंने अपनी सहमति की मुहर लगायी है और हरप्रताप मामा को वोट मैंने नहीं दिया।”

“क्या?” मास्टर जी के चेहरे पर जैसे हजार वाट का बल्ब जल उठा। वे इतने खुश हो गए गोया उनकी बहुत बड़ी मुराद पूरी हो गई। उन्होंने लपककर राजदेव को अपने सीने से लगा लिया। आह्लादित होकर कहने लगे, “तूने मुझे टूटने से बचा लिया बेटे...मेरे विश्वास की तूने रक्षा कर ली। सच मानो, अब मेरा दुख बहुत कम हो गया है। कोई तो है जिसने मेरी खब्त को समझने की कोशिश की। अब मैं यह मान सकता हूँ कि मेरी कोशिश बेकार नहीं गई...मेरी चिंता को एक वारिस मिल गया है जिसके मेरे बाद भी कायम रहने की उम्मीद है। देखो राजदेव की माँ, अगर न्याय हो तो तुम्हारा हरप्रताप इस घर से ही पराजित हो रहा है और मोरन सिंह विजयी हो रहा है। उसके पक्ष में तुम्हारा अकेला वोट और मोरन सिंह के पक्ष में दो वोट।”

मास्टर के चेहरे पर खुशी का एक ज्वार उमड़ आया। उनके उमगते कंठ से निकल पड़ा, “मोरन सिंह...।”

राजदेव कह उठा, “ज़िंदाबाद...।”