नागार्जुन का मैथिली कथा-साहित्य (कीर्त्तिनारायण मिश्र) / नागार्जुन

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नागार्जुन का मैथिली कथा-साहित्य हिंदी की अपेक्षा बहुत कम है। मैथिली में उनके तीन उपन्यास हैं: (1) पारो (1946), (2) नवतुरिया (1945) और (3) बलचनमा (1967)। इन तीनों में भी ‘बलचनमा’ मूलतः मैथिली में है या नहीं यह विवादास्पद है। ‘बलचनमा’ हिंदी में 1952 में छपा और खूब चर्चित हुआ। हिंदी का यह पहला आंचलिक उपन्यास माना गया। लेकिन मैथिली भाषियों का यह मानना है कि यह मूलतः मैथिली में लिखा गया लेकिन आर्थिक कारणों से नागार्जुन ने इसका हिंदी में अनुवाद कर पहले छपवाया। उन्होंने आजीविका के लिए हिंदी में प्राथमिकता देने की बात कही थी। लेकिन कहीं उन्होंने स्पष्ट नहीं दिया कि ‘बलचनमा’ पहले मैथिली में लिखा गया। शोभाकांत के अनुसार मैथिली में ‘बलचनमा’ का कोई रूप अथवा कोई अंश 1967 तक देखने में नहीं आया’ और डॉ. भीमनाथ के अनुसार ‘बलचनमा’ यद्यपि मैथिल अंचल की कथा है किंतु इसका प्रकाशन पहले हिंदी में हो गया और इसका मैथिली अनुवाद बाद में हुआ। उसमें भी इसके कुछ ही अंश का अनुवाद उपन्यासकार ने किया है। इसी कारण से प्रभाव की दृष्टि से यह उपन्यास न्यून लगता है।’ दोनों उद्धरण मैथिली से अनूदित हैं। नागार्जुन हिंदी के बड़े उपन्यासकार हैं। अपने विभिन्न उपन्यासों के आधार पर प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने का श्रेय उन्हें मिलता है। आंचलिक उपन्यासकार के रूप में भी उन्हें प्रभूत प्रसिद्धि मिली है। लेकिन मैथिली में उनके सामने हरिमोहन झा का ‘कन्यादान’ (जिसमें प्रमुख कथातत्व नहीं, अंग्रेज़ी शिक्षा का उपहास और मनोरंजन है) था। मैथिली में मौलिक गद्य लेखन, विशेषकर उपन्यास के क्षेत्रा में ‘पारो’ और ‘नवतुरिया’ के प्रकाशन तक जितने भी उपन्यास छपे उनमें सामाजिक सोच और समाज में फैली कुरीति, मिथ्याडंबर, शोषण, उत्पीड़न के औपन्यासिक वृत्तांत की जगह उपदेशोन्मुख प्राचीन आख्यान, पारंपरिकता, सुधारवादी आदर्शों की पुनर्स्थापना आदि के द्वारा सामाजिक संस्कार ही मुख्य लक्ष्य आ। इन उद्देश्यपरक उपन्यासों को कथा या दीर्घकथा कहना ही ज़्यादा उपयुक्त होगा। सही अर्थों में ‘कन्यादान’ ही मैथिली का पहला उपन्यास है जिसने मैथिली भाषा को लोकप्रिय बनाया, कन्याशिक्षा की वकालत की ओर सामाजिक विडंबना पर तर्कपूर्ण प्रहार दिया। खट्टर काका का तरंग ने तो इसके लेखक और मैथिली भाषा को राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिला दी। इसकी कहानियों का अनुवाद प्रायः भारत की सभी भाषाओं में हो चुका है।

पारो (1946)

नागार्जुन का पहला मैथिली उपन्यास ‘पारो’ (1946) बेमेल विवाह की शिकार पार्वती (पारो) की कथा के माध्यम से मिथिला की रूढ़िग्रस्त सामाजिक परंपरा पर चोट करता है और उसके दुष्परिणाम को उजागर करता है। प्रथम पुरुष में लिखा गया यह उपन्यास बिरजू के माध्यम से सारी कहानी कहता है। मिथिला में बालविवाह और वृद्धविवाह की प्रथा प्रचलित थी। कमसिन लड़कियों से शारीरिक संपर्क के लोलुप बूढ़े कई-कई शादियां कर लेते थे। उधर अपनी बेटी बेचने वालों की संख्या भी कम नहीं थी। वर पक्ष और कन्या पक्ष से सौदा पटाने का काम ‘घटक’ (मध्यस्थ) करते थे। कन्याएं तो खूंटे में बंधी गायें थीं। चाहे किसी खूंटे में ले जाकर बांध दो। घटक लूच झा ने भी पारो को चुल्हाई चौधरी के खूंटे में बांधने की व्यवस्था कर दी।

बूढ़े पति की पैशाचित हरकत, ‘पारो’ का गर्भवती होना और बेटे को जन्म देना और मर जाना तत्कालीन रूढ़िवादी मिथिला की सामाजिक व्यवस्था की बखिया उधेड़ता है।

भावनाशून्य अधेड़ पति के प्रति पारो का घृणाभाव और आक्रोश, वैवाहिक व्यवस्था में उसका भोग्या और संतान उत्पन्न करने वाली मशीन के रूप में पाणिग्रहणμपारो के स्वप्न-भंग की कहानी है। लेकिन यह कहानी का अंत नहीं है। इसके द्वारा उपन्यासकार ने नारी मन का मनोवैज्ञानिक चित्रा उकेरा है। मूल रूप से ‘पारो’ की कथावस्तु पर मसिऔत-पिसिऔत (मौसेरे-फुफेरे भाई बहन) के पारस्परिक आकर्षण, देहभोग की लालसा से परे प्रेमभाव और घनिष्ठ संबंध पर अधारित है। इसमें दोनों के अंतरंग जीवन और एक-दूसरे के प्रति कोमल भाव को दर्शाया गया है जिसमें फ्रायड की ‘स्वच्छंद-विहार संसर्ग धारणा के तहत’ मानवमन की थाह, गहराई, उसकी मनोदशा, यौनभावना और अंतःसंघर्ष है। दोनों पात्रों को चरित्रा के रूप में नागार्जुन ने सामने रखा है। भाई-बहन की सीमा लांघ प्रेमी-प्रेमिका की भूमिका में भाई-बहन को दिखाया गया है। वैवाहिक स्वप्न-भंग होने के बाद पारो बिरजू से कहती है, ‘भाइये बहन में जं विवाह दान होइतैक तऽ केहेन दिब होइतै’। पारो पति के रूप में बिरजू का और बिरजू पत्नी के रूप में पारो का सपना पालता है। दोनों एक-दूसरे को चाहते हैं लेकिन अपना नहीं पाते हैं। आंतरिक जगत् का काम-भाव दोनों में जाग्रत रहता है। इस दुःखांत उपन्यास की चर्चा-आलोचना तो खूब हुई लेकिन वह नागार्जुन के एक नये प्रयोग के लिए नहीं, मसिऔत-पिसिऔत के मध्य अवैध आकर्षण के कारण।

नवतुुितिरया (1954)

यह चरित्रा प्रधान उपन्यास कट्टर ब्राह्मणवादी समाज, पोंगापंथी पण्डितों और परंपरा-प्रथा और रूढ़ मर्यादा के नाम पर नारियों को यातनाओं के बंधनों में रखने वाले समाज के तथाकथित कर्णधारों पर प्रहार है। मिथिला में बाल-विवाह और वृद्ध विवाह की परपंरा शुरू से चली आ रही थी। मैथिल ब्राह्मणों के द्वारा ही गांव का प्रतिनिधित्व होता है था। वे ही समाज और संस्कृति के मर्यादा पुरुष माने जाते थे और पारंपरिक कुरीतियों के जन्मदाता एवं संरक्षक थे। वे ही वैवाहिक मेला लगाते थे और कन्याओं को बेचते थे।

खोंखाइ झा अपनी छः पुत्रियों को बेचने के बाद अपनी नातिन (विधवा बेटी रामेश्वरी की बेटी) विशेसरी का विवाह साठ वर्ष के चतुरानन चौधरी से करना चाहते हैं। घटकराज मटकी पाठक और उनकी तरह ही बेटी बेचने का व्यापार करने वाले अन्य दलालों का सहयोग उन्हें प्राप्त है। लेकिन गरमदल का युवावर्ग उनके विरोध में खड़ा हो जाता है और प्रगतिशील विचारधारा के तरुण वाचस्पति झा से उसकी शादी करवाकर पुरानी पीढ़ी के प्रति विद्रोह की लहर पैदा कर देता है। उपन्यासकार ने इस समस्या और समाधान के द्वारा तत्कालीन मैथिल समाज का असली रूप बेपर्द किया है। आर्थिक रूप से विपन्न और रूढ़ि-जर्जर मिथिला को नयी हवा, नयी चेतना देने के लिए नवनिर्माण की और उन्मुख करने के लिए, क्रांतिकारी प्रयास की ज़रूरत थी। इसके लिए युवाशक्ति का संगठन अवश्यक था। उसे नये सोच तथा नयी प्रगतिशील विचारधारा से जोड़ना था। समाज और राजनीति की गहरी परख रखने वाले वामपंथी नागार्जुन ने युवावर्ग को सामने लाकर यह काम बखूबी किया।

गांवों में तिरंगा फहराने वाले कांग्रेसभक्त, परमिट-कोटा से लाभ उठाने वाले व्यवसायी, सार्वजनिक वितरण में धांधली करने वाले दुकानदार, सीधे-सादे और कमजोर लोगों की ज़मीन पर क़ब्जा करने वाले दबंग, बेटियों के व्यापारी सब के सब निशाने पर आ गये। प्रथा-परंपरा-मर्यादा के नाम पर स्त्राी को घर की चारदीवारी में क़ैद कर यातनाय जीवन जीने के लिए विवश करने वाले पुरुष वर्ग को नवतुरियों के द्वारा उनकी औकात बता दी गयी। तथाकथित कुलीनों/दबंगों/संपन्नों मठाधीशों/मर्यादा पुरुषों पर वज्रपात होने लगा। सामूहिक बोध से लैश ये युवा बंधनों में जकड़ी नारियों, बेगार, शोषण, प्रतारणा और कुचक्रों के शिकार बेसहारा और कमजोर वर्ग को प्रतिरोध के लिए तैयार करते हैं, हक़ के लिए लड़ना सिखाते और आत्म-सम्मान से जीने का रास्ता दिखाते हैं। दिगंबर, माहे, वाचस्पति जैसे कर्मठ और नये विचारों वाले युवाओं को मार्ग-दर्शन देकर नयी पीढ़ी को विकास की दिशा दिखायी गयी है।

बलचनमा

आत्मवृत्तात्मक शैली में लिखा गया ‘बलचनमा’ नागार्जुन का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है और कुछ विद्वान आलोचकों के अनुसार यह हिंदी का पहला अंचलिक उपन्यास है। यह हिंदी में 1952 में और अनूदित होकर मैथिली में 1967 में छपा।

हिंदी का यह बहुचर्चित उपन्यास खराब अनुवाद और विलंब से प्रकाशन के कारण मैथिली में न तो नोटिस में लिया गया, न आलोचकों को आकृष्ट कर सका। मैथिली पाठक हिंदी बलचनमा पढ़कर पहले ही अपनी जिज्ञासा शांत कर चुके थे। खराब अनुवाद के कारण इस उपन्यास की अधोगति ने यात्राी/नागार्जुन को खिन्न कर दिया।

चूंकि नागार्जुन मैथिली भाषी थे और अपने श्रेष्ठ लेखन के कारण उन्होंने राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की थी, अतः मैथिली भाषियों ने अपने इस गौरव स्तम्भ की अमर कृति (बलचनमा) पर भी अपना दावा ठोक दिया और इसे मैथिली का मौलिक लेखन मानकर इसके हिंदी में छपे रूप को ही अनुवाद कहना शुरू कर दिया। अपने समर्थन में वे नागार्जुन के मातृभाषा अनुराग और उनके आर्थिक संकट का हवाला देने लगे। जो भी हो, मैथिली भाषी इसे अपनी उपलब्धि मानकर गौरव बोध करते हैं। इसका दूसरा भाग न लिखा जा सका, इसको लेकर उन्हें क्लेश भी है।

‘बलचनमा’ की कथाभूमि मिथिला अंचल है। मिथिला का जन-जीवन, रीति-रिवाज, खान-पान, रहन-सहन, लोक-व्यवहार, गीत-नाद सबकी झांकी इसमें मिलती है। यहां की किसानी संस्कृति और जाति-व्यवस्था की तस्वीर भी इसमें है। प्रगतिशील विचारों के उपन्यासकार की दृष्टि यहां के वर्ग-संघर्ष पर भी खूब पड़ी है। कृषक और मजदूर वर्ग, बेगार करने और कराने वाले लोग, ऊंची जाति का, निम्नजाति के लोगों के साथ व्यवहार, ज़मींदारों और बड़े जोतदारों द्वारा किये जाने वाले शोषण और अत्याचार, नीची और दलित जाति के प्रति संवेदनहीन व्यवहार कुछ भी उसमें नहीं छूटा है। अपने कचानक, चरित्रा और संवाद में कथाकार ने अपने अनुभवी भोक्ता की आत्मा उड़ेल दी है। नागार्जुन साम्यवादी विचारधारा के लेखक थे। किंतु, अपने सिद्धांतों का कहीं आरोपण (जबकि कुछ आलोचक मानते हैं) नहीं करते थे। जहां से उन्होंने कथावस्तु ली या जो पात्रा चुने उनकी परिस्थिति ही ऐसी थी जिसके निवारण के लिए साम्यवादी सिद्धांत बने थे। परिस्थिति के कारण ही बलचनमा का चरित्रा वामपंथी हो गया। जहां तक इसके नाम का प्रश्न है, उसे वामपंथी संस्कार देने के लिए बालचंद का बलचनमा नाम नहीं किया है। अपितु मिथिला के गांव-देहात में अब भी प्यार या अनादर से नाम को बिगाड़ देने का प्रचलन है। जैसे रामचरण का रमचरना, रामेश्वर का रमेसरा और नारायण का नरैना हो जाता है, वैसे ही बालंचद का बलचनमा हो गया। यह बात अलग है कि उसके चरित्रा को उन्होंने अपनी विचारधारा के अनरूप उभारा।

वह गांव का सीधा-सादा परिश्रमी और अच्छे चाल-चलन वाला लड़का था। उसकी विरादरी के सभ्ज्ञी बच्चे गाय, भैंस, बकरी चराने में मां बाप द्वारा ही लगा दिये जाते थे। वह भी भैंस चराता था लेकिन चतुर ऐसा कि ससूरी मंडल से पशुपालन के गुर सीख लेता है। अपने खेतों में जिस मेहनत और लगन से काम करता है, उसी मेहनत, लगन से दूसरों के खेतों में भी मजदूरी करता है। फसल अच्छी हो इसका ध्यान रखता है। फिर भी जोतदारों के यहां उसे खाने को जूठन ही मिलता था, पहनने को फटा-पुराना। ठंड से बचने के लिए आग का सहारा। अगर अपने घर खाने को दाने नहीं तो आम की गुठलियों का चूरा ही सही। दबे-पिसे ग़रीब का कारुणिक जीवन जीता था।

उसकी समझदारी से प्रभावित हो कांग्रेस नेता फूल बाबू उसे पटना ले जाते हैं। उनकी सेवा करते हुए उसने नयी दुनिया, देश, रहन सहन का शहरी तरीक़ा सीखा, धनवानों और नेताओं के चरित्रा और नीयत को समझा। स्वदेशी आंदोलन और खद्दर की बारीकी तथा समजियों की दुरंगी माल की तह में भी गया। अनुदानों खैरातों की बंदर-बांट देखी और धीरे-धीरे एक अधिकार-सजग नागरिक हो गया। यह सामाजिक उपन्यास ग्रामीण चेतना का जो चित्रा प्रस्तुत करता है उसमें बीसवी सदी के प्रारंभिक दशक के हालात नज़र आते हैं। ज़मींदारी प्रथा कमजोर पड़ने लगी तो ग़रीबों, भूमिहीन मजदूरों और जनमजदूरों के शोषण के लिए नये दल तैयार हो गये। कांग्रेस की कमजोरियों ने ही सोशलिस्टों को बढ़ावा दिया। बलचनमा सोशलिस्ट सिद्धांतों को समझने लगा और स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान के लिए हो रहे संघर्ष का हिस्सा बन गया। उसके अनुसारμजिसका हरफार, उसकी धरती, जिसका हुनर, जिसका हाथ, उसी का कारखाना। ज़मींदार महाजन की फाजिल धन-संपत्ति पर सब का अधिकार। मुफ़्त का खाना किसी को नहीं, चाहे वह सबसे बड़ा महाजन हो या लाट साहब।’

वह सोशलिस्ट पार्टी का वालंटियर बनकर सक्रिय राजनीति में भाग लेता है तथा लोगों के हित एवं अधिकार के लिए ग्रामीण स्तर पर संघर्ष करने लगता है। हालांकि ज़मींदार के गुर्गे उसे मार देते हैं लेकिन उपन्यासकार उसके क्रांतिकारी संदेश को शोषण के विरुद्ध हथियार के रूप में पेशकर उसे अमर पात्रा

बना देता है। ‘कमाने वाला खायेगा, इसके चलते जो कुछ हो, धरती उसकी, जो जोते-बोये।’ किसान की आज़ादी असमान से उतर कर नहीं आयेगी। वह तैयार होगी नीचे जुती धरती के भुरभुरे ढेलों को छोड़कर।’ (बलचनमा, पृष्ठ 192) ज़मींदारों के विरुद्ध किसानों/ मजदूरों को एकजुट करके संघर्ष की राह दिखाने वाले डा. रहमान, राधा बाबू, लतीफ़, स्वामी जी, शर्माजी उपन्यास के ‘चरित्रा’ के रूप में क्रांति के संदेशवाहक हैं। मेहनतकश लतीफ़ अपनी ग़रीबी के बावजूद पार्टी मीटिंग के लिए अपनी डेढ़ बीधा ज़मीन छोड़ देता है। डॉ. रहमान मजदूर-किसानों के लिए संघर्ष का मंच तैयार करते हैं, शर्मा तथा स्वामी का प्रभावकारी नेतृत्व ग़रीबों, वंचितों में अपनी ताक़त को पहचानने का हौसला पैदा करता है।

नागार्जुन के बलचनमा और प्रेमचंद के होरी-गोबर में विद्रोह की आग है, दोनों में प्रगतिशीलता एवं परिवर्तन की विचारोत्तेजकता है लेकिन होरी जहां परिस्थिति के आगे हताश तथा किंर्कव्यविमूढ़ हो जाता है, वहीं बलचनमा लड़ कर अपना अधिकार छीनना चाहता है।

बलचनमा के माध्यम से उपन्यासकार ने पूरे भारत के कृषक-भूमिहीन मजदूर और दबे-कुचले वर्ग को संदेश दिया है उठो, संघर्ष करो और अपने छीने हुए अधिकारों को वापस लो।

मैथिली साहित्य के अंतर्गत उपर्युक्त उपन्यासों के अतिरिक्त नागार्जुन की कुछ फुटकर गद्यकृतियां हैं जिनमें कुछ कथाएं, संस्मरणात्मक गल्प, रिपोर्ताज, कथात्मक स्तंभ, सामयिक टिप्पणियां, शब्दचरित्रा, स्वतंत्रा स्तंभ आदि हैं जो मैथिली कथा-धारा को अपनी शैलीगत विशिष्टता, कथ्य रूप और गहरे सोच के कारण नया मोड़ देती हैं। इन कथाओं और फुटकर गद्य की सूची मैथिली कथाकोश (संपादक-मेघन प्रसाद) और ‘यात्राी-समग्र’ (संपादक-शोभाकांत) में दी गयी है। मो.: 09931417693