नाटकों का बोलबाला था तब / संतोष श्रीवास्तव

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मुम्बई मैं घूमने के लिए नहीं बल्कि यहीं बस जाने के लिएआई थी। जब जबलपुर में थी तो कच्ची उमर के मेरे लेखन में प्रौढ़ता नहीं थी। हालाँकि मेरी कहानियाँ तब भी बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, ज्ञानोदय, सारिका, कहानीआदि में प्रकाशित हुई हैं। लेकिन मेरे लेखन को प्रौढ़ता मुम्बई ने ही दी। मुझे पत्रकारिता के लिए ज़मीन भी मुम्बई ने ही दी। मुम्बई के फलक पर मेरे ढेरों दोस्त बने। आज मुम्बई का पूरा साहित्यिक वर्ग मेरा दोस्त है। नई पीढ़ी की युवा लेखिकाएँ मुझे अपना आदर्श मानती हैं और मैं उन्हें यथासंभव प्रमोट भी करती हूँ। आज ये सब मेरीअंतरंग सहेलियाँ हैं। मुम्बई ने मुझे जीना सिखाया, मुम्बई तुझे सलाम।

ग्राण्ट रोड स्टेशन पर लैमिंग्टन रोड के दूसरे बाजू नाना चौक है। वहीं गवालिया टैंक है। गवालिया टैंक के पीछे तेजपाल थियेटर है जहाँ ज़बरदस्त नाटक खेले जाते हैं। जबलपुर में शहीद स्मारक में हुए कई नाटकों की ताज़ा स्मृति लिए जब मैंने मुम्बई के नाट्य मंच को नज़दीक से देखा तो पाया कि यहाँ तो नाटकों का एक पूरा बड़ा दर्शक वर्ग है। तेजपाल थियेटर में मैंने गिरीश करनाड का तुगलक और सत्यदेव दुबे का हयवदन सबसे पहले देखा, दोनों ही नाटक मेरे दिमाग़ पर छा गये। अमोल पालेकर और सुलभा देशपाँडे की मैं दीवानी हो गई. तब पँद्रह बीस दिन में एक नाटक देखना मेरी ज़रुरत बन गई. पूरे शहर में यही एक ऐसी जगह थी जहाँ देश विदेश की अन्य नाट्य कृतियाँ जो थीं तो अपरिपक्व लेकिन मँजे हुए कलाकारों के ज़रिए दर्शकों के एक वफ़ादार वर्ग तक पहुँचती थीं। तेजपालमेंनियमित रूप से जाने के बाद मैं वहाँ के कलाकारों के साथ-साथ दर्शकों को भी पहचानने लगी थी और चाय के स्टॉल या इन्टरवल में हॉल से बाहर आते ही हलो हाय होने लगती थी, भले ही उनके नामों से मैं अपरिचित थी। सत्यदेव दुबे अक्सर शो से पहले पैंट पर कुरता पहने बाहर चाय स्टॉल पर बेचैनी से चक्कर मारते नज़र आते थे। कन्नड़ नाटक 'सुनो जनमेजय' में उनकी भूमिका लाजवाबथी। उनके नाटकों के दूसरे किरदार जो मेरी नज़र में फ़िल्मी सितारों से कम नहीं थे कभी-कभी ग्रीन रूम के बंद दरवाज़ों से बाहर झाँकते थे। अमरीशपुरी, अलकनन्दा समर्थ, सुलभा देशपांडे और बाद में भक्तिलता बर्वे और अमोल पालेकर मेरे टीनएजर मन में घुसपैठ किये हुए थे। 'आधे अधूरे' मुम्बई में जब खेला गया तो भक्तिलता बर्वे पहली बार फ्रॉक पहने दिखाई दी थीं और उनके भाई थे अमोल पालेकर जबकि पुरुष की चार भूमिकाओं में अमरीशपुरी ने जी जान लगा दी थी। हॉल में हिन्दी उर्दू की बड़ी-बड़ी हस्तियाँ मिलतीं। जबलपुर में जिन्हें पढ़ती थी... बल्कि पढ़-पढ़कर 19 साल की हुई वह सलमा सिद्धीकी, इस्मत आपा (चुग़ताई) विजय तेंदुलकर जिनके साथ कभी-कभी उनकी बेटी भी रहती थी। लम्बे क़द के गिरीश करनाड जिनका नया नाटक तुग़लक अँग्रेज़ी दुनिया के सुपरिचित कलाकार कबीर बेदी द्वारा मुख्य भूमिका में खेला जाने वाला था। यहीं मिले थे राही मासूम रज़ा। जिनकी जेब में नीला मखमली बटुवा होता था। बटुवे में सुपारी और चाँदी के घुँघरू लगा सरौता रहता। वे जब सुपारी काटते तो घुँघरू छुनछुन की आवाज़ करते। एक ही पल में सब जान जाते कि सुपारी कट रही है और सबको मिलने वाली है। उन दिनों मुम्बई कला जगत से जुड़ा एक कलात्मक रचनात्मक शहर था। उन दिनों नाटक आम दर्शकों की पहुँच में थे। अब नाटकों में रूचि लेने वाला दर्शक ख़ास हो गया है। और उसे मंच पर आसीन करने वाले इलाके अभिजात्य वर्ग के हो गये हैं। जुहू में पृथ्वी थियेटर और बांद्रा में रंग शारदा का मंच नई-नई प्रतिभाओं को बाक़ायदा अपनी कला प्रदर्शित करने का मौका देता है। नई प्रतिभाएँ पूरे जोश में अपने-अपने संगठन बना रही हैं। नादिरा बब्बर की एकजुट संस्था कई अच्छे नाटक प्रस्तुत कर चुकी है। अब नुक्कड़ नाटक भी पूरे जोशोख़रोश से खेले जा रहे हैं। धीरे-धीरे स्टेटस सिंबल बनी नाटकों की दुनिया मुम्बई में अँगड़ाई लेकर उठ खड़ी हुई है।

मुम्बई में कई दशक पहले पारसी थियेटर भी हुआ करते थे। वहाँ उर्दू का ज़्यादा बोलबाला था क्योंकि पारसी अभिनेत्रियों को हिन्दी सिखाने वाले शिक्षक उर्दू मिश्रित हिन्दी बोलते थे। ऐसे संवाद सुनने वालों का मन मोह लेते थे। वैसे देखा जाए तो पारसी रंगमंच उन्नीसवीं शताब्दी के ब्रिटिश रंगमंच के मॉडल पर आधारित था। पारसी कलाकारों ने रंगमंच की पूरी टेक्नीक ब्रिटेनसे मँगाई थी। इसमें प्रोसेनियम स्टेज से लेकर बैक स्टेज की जटिल मशीनरी भी थी। लेकिन लोकरंग, मंच, गीतों, नृत्यों, परम्परागत लोक हास-परिहास के कुछ आवश्यक तत्वों और इनके प्रारंभ तथा अंत की रवायतों को पारसी रंगमंच ने अपनी कथाकहने की शैली में शामिल कर लिया था। 1 मार्च 1853 में पारसी व्यवसायिक रंगमंच कम्पनियों ने एक मराठी नाटक खेला। पारसी थ्रियेटिकल कम्पनी को रंगमंचीय नाटक कम्पनी के नाम से जाना जाता है। आरंभ में यानी बीसवीं सदी के आरंभ तक पारसी कम्पनियाँ घूम-घूम कर नाटक खेला करती थीं। जब फ़िल्मों का दौर चला... पारसी थ्रियेटिकल कम्पनियों का व्यवसाय मन्द पड़ने लगा और एक नई कम्पनी खुली पृथ्वी थियेटर... जो पृथ्वीराज कपूर की चाह का परिणाम थी। पारसी ओरिजिनल थ्रियेटिकल कम्पनी ने चाँद बीवी, शीरी फरहाद, अलीबाबा, लैला मजनूं, हुस्न अफ़रोज़ आदि नाटकों से दर्शक बटोरे। मुहम्मद आगा हश्र, मुंशी नारायण प्रसाद बेताब, राधेश्याम कथावाचक ने पारसी रंगमंच की एक नई धारा का सूत्रपात किया। बाद में जब फ़िल्में लोकप्रिय होने लगीं तो पृथ्वी थियेटर के कई कलाकार फ़िल्मों में चले गये। यही वजह थी कि पृथ्वीराज कपूर, सोहराब मोदी आदि फ़िल्मों में भी थ्रियेटिकल अंदाज़ में संवाद अदायगी करते थे।

अब जब पृथ्वी थियेटर की बात चली है तो एक नज़र पृथ्वीराज कपूर के जुनून पर भी डाल लेना मुनासिब होगा। पृथ्वी थियेटर देश के उन सबसे पुराने थियेटरों में है जिनका सम्बन्ध किसी सिनेमा परिवार से हो। कपूर परिवार को इस बात का पूरा श्रेय भी दिया जायेगा कि तमाम पॉपुलर कल्चर माध्यमों को तरजीह देने वाली युवा पीढ़ी आज भी यहाँ हिन्दी, अँग्रेज़ी, गुजराती और मराठी नाटकों का लुत्फ़ उठाने जाती है। पृथ्वीराज कपूर ने साल 1944 में इस थियेटर की स्थापना एक मूविंग थियेटर के फॉर्म में की थी जो देश के कोने-कोने में घूमकर थियेटर किया करते थे और रंगमंच को बढ़ावा देते थे। उन्होंने मूविंग थियेटर में पहला नाटक खेला'अभिज्ञान शाकुंतलम'। जो उन दिनों दर्शकों में काफी लोकप्रिय हुआ। पृथ्वीराज कपूर की मृत्यु के बाद उनके बेटे शशिकपूर और बहू जेनिफर कपूर ने इस कारवां को आगे बढ़ाया और पृथ्वीराज मेमोरियल ट्रस्ट और रिसर्च फाउंडेशन नाम से एक संस्था की स्थापना की जिसका मुख्य उद्देश्य हिन्दी थियेटर को बढ़ावा देना था। जुहू में बाक़ायदा पृथ्वी थियेटरकी स्थापना कर पृथ्वीराज कपूर के उस सपने को शशि कपूर और जेनिफर कपूर ने पूरा किया जो वे जुहू की उस ज़मीन पर पलता पनपता देखना चाहते थे जिसकी लीज़ उनकी मृत्यु के साथ ही ख़त्म हो गई थी। 15 नवम्बर 1978 को पृथ्वी थियेटर में पहला हिन्दी नाटक खेला गया जिसका निर्देशन एम. एस. सत्थू ने किया। नसीरुद्दीन शाह, बेंजामिन गिलानी और ओमपुरी द्वारा अभिनीत इस नाटक को इंडियन पीपुल थियेटर एसोसिएशन ने 'मंझे' नाम से आगे बढ़ाया। पृथ्वी थियेटर की जुहू में स्थापना हिन्दी थियेटर प्रेमियों के लिए बहुत बड़ी बात थी क्योंकि ठीक इसी समय दादर मराठी थिएटर जगत का और दक्षिण मुम्बई अंग्रेज़ी थिएटर जगत के लिए आदर्श स्थान माने जाते थे। सन् 1993 में इस नाट्य समूह, कोजो पृथ्वी थियेटर नाम दिया गयाथा अब शशिकपूर की बढ़ती उम्र और अस्वस्थता की वजह से उनके बेटे कुणाल कपूर और बेटी संजना कपूर ने जिसकी बागडोर सम्हाल ली है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जहाँ मुम्बई अंग्रेज़ी और क्षेत्रीय भाषा के नाटकों के लिए जाना जाता है। ठीक उसी समय यानी कि सन् 2010में गीतकार स्वानंद किरकिरे का खांटी हिन्दी नाटक 'आओ साथी सपना देखें' और'चाँदनी चौक की चाँदनी' दर्शकों को बरबस अपनी ओर खींच लेने में सफल हो जाता है। पृथ्वी थियेटर की या पृथ्वीराज कपूर के सपनों की यही परिणति है।

आईडियल ड्रामा एंड इंटरटेनमेंट एकेडमी के मुजीब ख़ान ने केवल प्रेमचंद की कहानियों पर ही नाटक करने की ठानी है। उनके साहित्य को समर्पित मुम्बई ही नहीं बल्कि पूरे भारत की यह एकमात्र नाटक अकादमी 'आदाब, मैं प्रेमचंद हूँ' सीरीज़ के तहत 2005 से अब तक मुंशी प्रेमचंद की सभी कथाओं पर नाटकों का मंचन कर के लिम्का बुक में नाम दर्ज़ कराते हुए अब विश्व रिकॉर्ड की ओर अग्रसर है। 'प्रेम उत्सव' नाम से भी इनकी नाट्य श्रृँखला चल रही है। हिन्दी उर्दू की नई पीढ़ी में मुंशी प्रेमचंद के आदर्शों पर अमल करने की सोच जगाने के उद्देश्य से यह नाट्य अकादमी मुम्बई के स्कूलों में जा-जाकर उनकी कहानियों पर आधारित नाटक दिखाया करती है।

मुम्बई में पचास के दशक में मराठी नाटकों का बोलबाला था साथ ही मराठी, अंग्रेज़ी और गुजराती भाषाओँ के नाटक परिवर्तन के दौर से गुज़र रहे थे। गुजराती नाटक पारसी थियेटर शैली के हास परिहास और पौराणिक कथानक की परंपरा से बाहर आ रहे थे। अँग्रेज़ी नाटक अपने इकहरे यथार्थवाद से बाहर निकल रहा था। कुल मिलाकर मुम्बई नाट्य परिवर्तनकारी क्रांति से गुज़र रहा था। स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों में मुम्बई में मिल मज़दूरों के लिए एक विशेष किस्म का कामगार नाटक भी मराठी में होता था और परेल का दामोदर हॉल ऐसी गतिविधियों का केन्द्र था। मध्यवर्गी मराठी बहुल इलाके गिरगाँव में साहित्य संघ मंदिर का सभागार अस्तित्व में आया। मामावरेरकर, आत्माराम भेंडे, डॉ. भटकल जैसे रंगकर्मी और रंगचिंतक नाटकों को परंपरागत औपचारिकताओं से मुक्त करने में लगे थे। लिहाज़ा नाटकों का मंचन थियेटर से उठकर खुली छत, प्रांगण, नुक्कड़ कहीं भी होने लगा। रेडियो नाटक के रूप में भी नाटकों ने कई मोड़ लिए.

स्वतंत्रता के बाद का पहला महत्त्वपूर्ण मराठी नाटक रत्नाकर मतकरी का 'वेडी माणसे' 1955 में आकाशवाणी मुम्बई ने प्रस्तुत किया। भालचंद्र पेंढारकर के अत्यंत लोकप्रिय नाटक 'रितांचे तिमिर जावो' का पहला शो 1957 में गिरगाँव के साहित्य संघ मंदिर में हुआ। मुम्बई में एक तरफ़ हिन्दी और उर्दू में वामपंथी विचारधारा से जुड़ा इप्टा का प्रतिबद्ध थियेटर था तो दूसरी तरफ़ पचास के दशक में मार्क्सवादी प्रभाव को रोकने के लिए कांग्रेस पार्टी ने बहुभाषी इंडियन नेशनल थियेटर खड़ा किया था। एलफिंस्टन कॉलेज मराठी नाट्यकला का केन्द्र था। युवा रंगकर्मियों के मार्गदर्शन के लिए भालचंद्र पेंढारकर और चिंतामणि गणेश कोल्हटकर वहाँ जाते थे। उधर सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज अंग्रेज़ी नाटकों का केन्द्र था। आधुनिक भारतीय नाटक के पितामह कहे जाने वाले इब्राहिम अल्काजी ने मुम्बई में थियेटर यूनिट नामक ग्रुप की स्थापना की और नाटक को जॉर्ज बर्नार्ड शॉ के दायरे से बाहर निकाला। अल्का जी से प्रभावित होकर विजया मेहता ने विजय तेंडुलकर, अरविंद देशपांडे और श्रीराम लागू के साथ मिलकर मुम्बई में रंगायन थियेटर ग्रुपबनाया तथा मराठी रंगमंच पर पहली बार बर्तोल्त ब्रेख़्तके नाटक 'काकेशियन चॉक सर्कल' तथा आयनेस्को के नाटक 'चेयर' को मंचित किया।

वह दौर मुम्बई के रंगकर्म का स्वर्णकाल था। भारतीय जननाट्य संघ इप्टा यानी इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन जो पूरे भारत में एक आंदोलन के रूप में उभरा, उसकी स्थापना मुम्बई में 25 मई 1943 को हुई. मारवाड़ी हॉल में प्रो. हीरेन मुखर्जी की अध्यक्षता में इप्टा की स्थापना का भव्य समारोह हुआ। इप्टा का नामकरण मशहूर वैज्ञानिक होमी जहाँगीर भाभा ने किया थाऔरनारा था "पीपुल्स थियेटर स्टार्स पीपुल।" उस दौर में नाटक, संगीत, चित्रकला, लेखन, संस्कृतिकर्मी शायद ही कोई ऐसा होगा जो इप्टा से नहीं जुड़ा होगा। लेकिन इप्टा पूरी तरह से मुम्बई में 20 जनवरी 1952 में अस्तित्व मेंआया, जब ललित कलाएँ, काव्य, नाटक, गीत, पारंपरिक नाट्य रूप में पारंगत कलाकार जो मुम्बई के ही थे इस संस्था से जुड़ते गये। उस समय बॉलीवुड में प्रवेश का रास्ता नाट्य मंडली से होकर ही था। इप्टा ने कई चर्चित कलाकार दिए. बलराज साहनी, दीना पाठक, संजीव कुमार, शबाना आज़मी, ए. के. हंगल, पृथ्वीराज कपूर, नसीरुद्दीन शाह जैसे संजीदा अभिनेता, क़ैफ़ीआज़मी, अली सरदार ज़ाफ़री, साहिर लुधियानवी, फैज़ अहमदफैज़, शैलेन्द्रजैसेगीतकार, ख़्वाजा अहमद अब्बास, इस्मत चुग़ताई जैसे लेखक, रामकिंजर बैज जैसे चित्रकार, के. ए. अब्बास जैसे निर्देशक, हबीब तनवीर आदि नामों की सूची लम्बी है लेकिन मुम्बई ऐसे कलाकारों से समृद्ध था।

इप्टा भारत के विभिन्न शहरों में भी काम कर रही है।

मुम्बई में इटीएफ (दि एक्सपेरिमेन्टल थियेटर फाउंडेशन) एक रंग आंदोलन के रूप में उभरा जिसके प्रणेता मंजुल भारद्वाज हैं। थियेटर ऑफ़ रेलेवेंस इटीएफ़ का दर्शन है जो अन्य नाट्य संस्थाओं से अलग हटकर सहभागियों को मंच नाटक और जीवन का सम्बन्ध, नाट्य लेखन, अभिनय, निर्देशन, समीक्षा, नेपथ्य, रंगशिल्प, रंगभूषा आदि विभिन्न रंग आयामों को प्रदान करता है, प्रशिक्षित करता है। स्कूलों, बस्तियों, गाँवों, कस्बों, उपनगरों और नुक्कड़ों पर यह संस्था नाटक करती है। मुम्बई में अवितोको नाट्य संस्था भी है। फ़र्क़ यह है कि जहाँ इटीएफ़ के नाटक मौलिक होते हैं वहीं अवितोको के नाटक कहानियों का नाट्य रूपान्तर होते हैं।

एक यूनानी मिथक है कि फिनिक्स पक्षी अपनी राख से दोबारा जन्म लेता है पर शायद अपने नए रूप में वह पिछले जन्म जैसा नहीं होता। एक ज़माना था जब मुम्बई के प्रायः सभी प्रमुख चौराहों पर ईरानी होटल थे। सफेद संगमरमर के टेबल टॉप पर बेतहाशा स्वादिष्ट ईरानी चाय, खारी बिस्किट और बन मस्का केऑर्डरदिये जाते थे तो रेस्तरां गुलज़ार हो उठता था नाट्यकर्मियों, फ़िल्मी कलाकारों, लेखकों से और छिड़ जाती थी अंतहीन चर्चा कला, विचार, फलसफ़े, मुहब्बत, याराने, ताने उलाहने, शिकवा शिकायतें, मिलने बिछुड़ने का संघर्ष, यूटोपिया और सपनों की एक अनोखी संस्कृति जिसे रचा गया था इन्हीं रेस्तरां में मिल बैठकर। चर्चगेट स्टेशन के सामने आज जहाँ एशियाटिक डिपार्टमेंटल स्टोर है वहाँ ईरानी रेस्तरां था। प्रसिद्ध फ़िल्मकार एम. एस. सथ्यू बताते हैं-" एक शाम इस रेस्तरां में नाटककार सत्यदेव दुबे एक गपशप में प्रगतिशील और वामपंथियों की खूब बखिया उधेड़ रहे थे। वे वहाँ मौजूद हर किसी पर भारी पड़ रहे थे। उसी समय ऑपेरा हाउस के पास ज्योति स्टूडियो में बलराज साहनी किसी फ़िल्म की शूटिंग कर रहे थे। उन्हें किसी ने खबर कर दी इस बात की। उन्होंने तुरन्त मोटर साईकल उठाई और दस मिनट में वहाँ पहुँच गये। इस तरह अचानक बलराज साहनी को सामने देख सत्यदेव दुबे सकपका गये।

यह खूबसूरत माहौल तब मुम्बई को एक जोश भरी जादुई दुनिया का अंदाज़ देता था। लगताहै जैसे वह जादुई दुनिया कहीं खो गई है औरमुम्बईकेवल कुछ सिरफिरों, शायरों, कलाकारों, दीवानों, दरवेशों और स्वप्नजीवियों के अंदर ही बचा रह गया है जिसे वे हर लम्हा अपनी शिराओं में जीते हैं।

नाना चौक स्थित गवालिया टैंक से ही 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो' आंदोलन की शुरुआत हुई थी। गाँधीजी ने इस आँदोलन से भारतीय सैनिकों को द्वितीय विश्व युद्ध में भेजे जाने का विरोध किया था। यहीं है ग्रांटरोड रेलवेस्टेशन।