नारी प्रधान समाज में लुप्त होती बिंदिया / दीनदयाल शर्मा

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विदेश में आदमी और औरत को पहनावे के कारण जल्दी से पहचाना नहीं जाता लेकिन हमारे देश में ऐसा नहीं है। हमारी संस्कृति में इस तरह का पहनावा है कि यहां आदमी और औरत दूर से ही पहचाने जाते हैं। यही नहीं बल्कि हमारी सुदृढ़ संस्कृति के कारण नारी की पहचान में और भी गूढ़ता है। नारी विवाहित है या अविवाहित। सधवा है या विधवा। इसके संकेत भी उसके पहनावे से पता चल जाता है। विवाहित नारी के लिए उसके माथे पर बिंदी, मांग में सिंदूर, गले में मंगल सूत्र, हाथ में खूब सारी रंगीन चूडिय़ां और चटकीले रंग का सूट या साड़ी आदि देखे जाते हैं। जबकि कुंवारी लड़की के लिए मुख्य रूप से गले में मंगल सूत्र और मांग में सिंदूर आदि वर्जित माने गए हैं।

आदमी की पहचान में ऐसा कोई पहनावा तय नहीं किया गया है जिससे यह पता चल सके कि वह कुंवारा है या शादीशुदा। शायद पुरुष प्रधान समाज ही इसका मुख्य कारण रहा होगा। खैर ! लेकिन अब हमारा समाज नारी प्रधान समाज बनता जा रहा है। अब नारी अपने लिए खुद ही तय करती है कि उसे क्या पहनना है और क्या नहीं पहनना। आज के टाइम सिंदूर, मंगल सूत्र और चूडिय़ों का फैशन खत्म सा होता जा रहा है। अब विवाहित औरतें केवल माथे की बिंदी तक ही सीमित होती जा रही है। तो कुछ औरतें माथे पर बिन्दी लगाना भी जरूरी नहीं समझती।

एक दिन हमारी साली साहिबा हमारे घर पधारीं। घर में घुसते ही बोली, 'क्या बात है दीदी, जीजा जी घर पर नहीं है क्या?'

पत्नी जी बोली, 'घर पर ही हैं, उधर देखो, वो बैठे। बिस्तर में बैठे-बैठे टीवी देख रहे हैं और साथ-साथ मुंगफलियां भी चबा रहे हैं!'

मैं साली जी की तरफ देखकर अपनी खीसें निपोरने लगा। पत्नी जी ने साली जी से पूछा, 'लेकिन तुमने यह सवाल क्यों किया कि जीजा जी घर पर नहीं है क्या!'

'तुम्हारा सूना माथा देखकर। माथे पर बिंदी नहीं है न!' साली जी ने हँसते हुए कहा।

'ओहो!' अफसोस करते हुए पत्नी जी ने अपने सूने माथे पर हाथ फिराया और ड्रेसिंग टेबल से एक सस्ती सी बिंदी लेकर अपने माथे पर चिपका ली।

मैं साली जी से बोला, 'तुम्हारी दीदी आजकल मेरी बिल्कुल ही कद्र नहीं करती। मुझे बाथरूम में किसी दीवार पर, कभी दरवाजे पर तो कभी ड्रेसिंग टेबल पर चिपका देती है। बिंदियां लाने के लिए मुझसे हर सप्ताह खूब सारे पैसे ले लेती है, लेकिन बिंदियों का सस्ता सा पता लाकर बिंदी लगाने की खानापूर्ति ही करती है बस!'

एक दिन मैंने देखा कि मैं घर के बाहर गंदी नाली में पड़ा हंू। मैंने पत्नी जी को आवाज दी, 'अरे सुनती हो!'

'क्यों चिल्ला रहे हो? क्या हो गया ?' वह चिल्लाती हुई मेरे पास आई।

मैंने नाली में पड़ी बिंदी की ओर इशारा करते हुए कहा, 'ये देखो, आजकल यह कद्र रही है मेरी। गंदी नाली में किस तरह फेंका है मुझे!'

तभी हमारे दूर के पड़ौसी की सुन्दर सी पत्नी मुस्कुराती हुई हमारी पत्नी जी के नजदीक आती हुई बोली, 'अरी बहिन, आज-आज के लिए मुझे अपनी बिंदी दे दो। मैं कल लौटा दंूगी!'

पड़ौसन की मांग सुनकर मैं फुला नहीं समा रहा था। पत्नी जी मुझे प्रसन्न देख कर भीतर ही भीतर जल रही थी। फिर भी पड़ौसी धर्म समझ कर उसने मुझे अपने माथे से उतार कर उसके माथे पर चिपका दिया। पड़ौसन खुश होकर अपने घर चली गई।

मैं पत्नी जी से मुस्कुराते हुए बोला, 'थोड़ी सी चाय तो पिला दो मेरी जान!'

'उसी से जाकर पी लो।' गुस्से से बड़बड़ाती पत्नी जी रसोईघर में चली गई।

मैं बोला, 'अरे! गुस्सा क्यों होती हो मेरी जानेमन। खुद का बच्चा और दूसरे की बीवी सबको अच्छी लगती है। यह तो मनुष्य की प्रवृत्ति है।' इतना कह कर मैं चाय का इंतजार करने लगा। दो घण्टे बीत गए। चाय अभी तक नहीं आई है।