निकष परः बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध की कविता / स्मृति शुक्ला

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डॉ. सुधा गुप्ता हिन्दी काव्य-जगत में एक जाना-पहचाना नाम हैं। संवेदनाओं में यथार्थ को पिरोकर अपनी कविताओं में प्रस्तुत करने वाली डॉ. सुधा गुप्ता का रचनात्मक संसार अत्यंत व्यापक है। ख़ुशबू का सफ़र (1986) , लकड़ी का सपना, तरु देवता, पाखी पुरोहित, चाँदी के अरघे में (हाइकु यात्रा काव्य) , धूप से गपशप 2002, बाबुना जो आएगी, आ बैठी गीत-परी, अकेला था समय, चुलबुली रात ने, पानी माँगता देश, कोरी माटी के दिये, सात छेद वाली में, ओक पर किरनें, खोई हरी टेकरी, सागर को रौंदने, सफ़र के छाले हैं और दौड़ हिरना दौड़ जैसे हाइकु, ताँका और गीत संग्रह लिखने वाली सुधा गुप्ता की यह यात्रा 1985 में प्रारंभ हुई और आज तक निर्वाध जारी है। हिन्दी में उनका उच्च स्तरीय शोध कार्य 'विभिन्न युगों में' सीता का चरित्र-चित्रण तथा वक्रोक्ति-सिद्धांत और हिन्दी कविता शीर्षक से प्रकाशित है। 'सूरज के नाम पाती' सुधा गुप्ता की आत्मकथा है, जो महिला कथाकारों के आत्मकथा साहित्य में अपनी ईमानदार अभिव्यक्ति के कारण अपना विशिष्ट स्थान रखती है। डॉ. सुधा गुप्ता ने तीन पुस्तकों का सफलतापूर्वक संपादन भी किया है। हिन्दी हाइकु, ताँका, सेदोका की विकास यात्रा का परिशीलन भी किया है। स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिन्दी साहित्य के प्राध्यापक और तत्पश्चात् प्राचार्य पद पर 23 वर्षों तक कुशलतापूर्वक प्रशासकीय दायित्व निभाने के बाद अब आप स्वतंत्र लेखन कर रही हैं।

'बीसवी शताब्दी का उत्तरार्ध और हिन्दी कविता' शीर्षक से डॉ. सुधा गुप्त का आलोचनात्मक ग्रंथ, 2004 में पहले-पहल प्रकाशित हुआ था। इसका दूसरा संस्करण 2020 में प्रकाशित हुआ है। सुधा जी एक कवयित्री, प्राध्यापक और संपादक तो हैं ही, उनके समर्थ आलोचक रूप का प्रमाण उनकी यह पुस्तक है। अयन प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित इस पुस्तक में हिन्दी कविता के छठे दशक से लेकर बीसवीं शताब्दी के अंत तक की कविता की सघन पड़ताल है। यह पड़ताल तटस्थ होकर की गई है। दरअसल सुधा गुप्ता ने कविता को न केवल पढ़ा-लिखा है वरन् उसे सच्चे मायनों में ज़िया है आत्मसात् किया है। काव्यालोचन की यह यात्रा छठे दशक से प्रारंभ हुई है। यह ऐसा समय था जब देश में धर्म जातीयता, क्षेत्रीयता और भाषायी विवाद सिर उठा रहे थे। 1962, 1965 और 1971 के युद्ध और उनसे उपजी विभीषिकाओं के साथ देश में भुखमरी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और ग़रीबी जैसी समस्याएँ बढ़ती ही जा रही थीं। आम आदमी स्वतंत्रता के बाद मोहभंग की स्थिति से गुजर रहा था। हिन्दी कविता में भी इन स्थितियों की अभिव्यक्ति है। सुधा जी ने छठवे दशक की कविता का मूल्यांकन करते हुए लिखा है कि तत्कालीन आधुनिक मनोभावों को उन्होंने सही रूप में पहचाना है। 'चक्रवाल' की भूमिका में वे लिखते हैं-"कविता पुनर्जन्म लेने की तैयारी में है और यह तैयारी नई कविता के जन्म के पूर्व बहुत काल तक चलने वाली है और यह बात मैं इसलिए नहीं कहता कि अपने चारों ओर मुझे कोलाहल सुनाई देता है, मैं उसके प्रभाव में हूँ। सच तो यह है आगामी कविता की दूरागत पदचाप मुझे अपनी रचनाओं में सुनाई देती है।" दिनकर ने कविता में नई आहटों की पहचान कर ली थी। 1954 में डॉ. जगदीश गुप्त और विजय देव नारायण साही के सम्पादन में 'नई कविता' का प्रकाशन एक आंदोलन के रूप में हुआ। नई कविता का शिल्प बदला था इसमें तुक छन्द और लय की उपेक्षा थी। इस कारण अनेक आलोचकों ने नई कविता की आलोचना की। भूमिका में सुधा जी ने लिखा है-"तुक जोड़ना और कविता करना बिल्कुल अलग-अलग चीजें हैं, जहाँ तक छन्द का प्रश्न है, नई कविता ने छंद रचना की पुरानी परिपाटियों और पद्धतियों को अस्वीकार किया था-छंद को नहीं। नई कविता ने मुक्त छंद के नूतन रचना-विधान को अंगीकार किया।" सुधा जी ने पंतजी की निम्नांकित पंक्तियाँ उद्घृत करते हुए यह स्थापित किया है कि मुक्त छंद रचनाओं की गद्य रचनाएँ कहना न्याय संगत नहीं है-

छंद बंध खुल गये

गद्य क्या बनी स्वरों की पाँतें

सोना पिघल कभी क्या

पानी बनता? कैसी बातें।

1956 में बिहार के श्री नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और श्री नरेश ने अपनी काव्य पुस्तक 'न-के-न' शीर्षक से प्रकाशित की जिसके साथ 'प्रपद्यवाद' का बारह सूत्रों वाला घोषणा पत्र भी था। इसी दौर में गीतों का भी प्रकाशन हुआ 1958 में सर्वप्रथम मुजफ्फरपुर (बिहार) से विभिन्न गीतकारों की गीत रचनाओं के चयन के रूप में 'गीतांगिनी' का प्रकाशन हुआ। सुधा जी की इस आलोचना पुस्तक में छायावाद प्रगतिवाद और अज्ञेय के तार सप्तकों में संकलित कवियों की सूची उनकी रचनाओं के प्रकाशन वर्ष के साथ है। सप्तक के बाहर के कवियों की भी सूची भी दी है।

सातवे दशक की हिन्दी कविता के विभिन्न वादों और 'बीट कविता' , 'भूखी पीढी' और 'सनातन सूर्योदयी कविता' , 'युयुत्सावादी कविता' सहित अनेक आंदोलनों का ज़िक्र किया है। प्रथम अध्याय में ही सुधाजी ने सन साठ के बाद सक्रिय पुरानी पीढ़ी के कवि जिनमें सियाराम शरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बच्चन, सुमित्रानंदन पंत, नरेन्द्र शर्मा, दिनकर, नवीन और केदारनाथ अग्रवाल का ज़िक्र किया है, साथ ही सप्तकों के कवि, नवगीतकार और सप्तकेतर कवियों की सूची दी है। इस पुस्तक का पहला अध्याय 'विषय प्रवेश' शीर्षक से है जो हिन्दी कविता के पाँच दशकों की सघन और मुकम्मल पड़ताल करता है। सुधा जी ने लिखा है कि आठवें दशक में कविता आंदोलनों से ऊपर उठकर पुनः अपने सरल और सहज रूप में वापिस आई। उन्होंने भवानी प्रसाद मिश्र की 'खुशबू के शिलालेख और बुनी हुई रस्सी' से आठवे दशक की कविता का प्रारंभ मानते हुए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, त्रिलोचन, मलयज, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, श्रीकांत वर्मा, गिरिजा कुमार माथुर की कविताओं के साथ हिन्दी के प्रबंध काव्यों और प्रलंब कविताओं का भी मूल्यांकन किया है।

डॉ. सुधा गुप्ता की 'बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध' पुस्तक के अध्याय दो में प्रयोगवादी काव्यधारा का विवेचन किया गया है। प्रयोगवाद के पुरोधा अज्ञेय को उद्धृत करते हुए सुधा जी ने आचार्य विनय मोहन शर्मा को भी स्मृत किया है। विनय मोहन शर्मा ने विचार किया था कि प्रयोगवादी कविता का इतिहास सर्वथा आधुनिक नहीं है। हर युग में जीवन सम्पन्न कवियों ने रूढ़ियों से विद्रोह किया है। चाहे वे समाजगत हों या काव्यगत। "डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' ने 'पल्लव' को प्रयोगवादी काव्य माना हैं; क्योंकि पंत ने छंद की रूढ़ियों को तोड़ने का और काव्य में भावनाओं के उन्मुक्त अभिव्यक्तीकरण का स्तुत्य प्रयास किया है। सुधा गुप्ता ने प्रयोगवाद के सम्बन्ध में प्रायः सभी आलोचकों के विचारों को उद्घृत करते हुए 'प्रयोग' की विरासत की बात की है और निराला की कविता में मौजूद नवीन प्रयोगों को उल्लेखित किया है। उन्होंने प्रयोगवाद के जन्म का कारण मोहभंग को माना इसलिये उसमें कल्पनाशीलता के विरुद्ध यथार्थ के आग्रह को प्रयोगवाद का वैशिष्ट्य स्वीकार किया। जहाँ दूसरे आलोचकों ने बौद्धिकता को प्रयोगवाद की प्रमुख प्रवृत्ति स्वीकार किया वहीं डॉ. सुधा गुप्ता ने प्रयोगवादी कविता में 'सामाजिकता के अभाव' को प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में देखा। प्रयोगवाद के साथ ही सुधा जी ने नकेनवाद और नई कविता का भी बड़ी गहराई से मूल्यांकन किया है। उन्होंने प्रयोगवाद और नई कविता में अंतर ढूँढने का सफल प्रयास किया, जो उनकी मौलिक आलोचकीय दृष्टि का प्रमाण है। हम जानते हैं कि हिन्दी आलोचना में प्रायः प्रगतिवादी और नई कविता में साम्य ढूढने का ही प्रयास अधिक हुआ हैं। 'कविता की तीसरी आँख' (डॉ.प्रभाकर श्रोत्रिय) कहे जाने वाले बिम्ब को आधार बनाकर उन्होंने लिखा है-" बिम्बों की दृष्टि से प्रयोगवादी कविता कमजोर है, जबकि नई कविता प्रमुखतः बिम्बों की ही कविता है। " नई कविता के शिल्प का मूल्यांकन करते हुए डॉ. सुधा गुप्ता ने नई काव्यधारा के प्रमुख कवियों की कविताओं में प्रयुक्त नये उपमान चुनने के साथ अलंकारों की भी चर्चा की है। अज्ञेय और जगदीश गुप्त के छंद और लय सम्बंधी विचारों का मूल्यांकन इस पुस्तक को अर्थपूर्ण बनाता है।

'अस्वीकृति का नवोन्मेष' शीर्षक से 'कविता' का विशद और गहन मूल्यांकन डॉ. सुधा गुप्ता ने किया है। उन्होंने लिखा है-"किसी भी आंदोलन को समझने के लिए तटस्थ बुद्धि की आवश्यकता होती है।" जगदीश चतुर्वेदी, सौमित्र मोहन, श्याम परमार, मणिका मोहिनी, चन्द्रकांत देवताले, राजकमल चौधरी, मलयज और नरेन्द्र धीर आदि कवियों के साथ कुछ युवा कवियों की भी चर्चा की है। अकविता आंदोलन को यदि समग्रता में समझना है तो सुधा जी की यह पुस्तक एक दिशा निर्देशक की तरह मार्गदर्शन करेगी।' किसिम-किसिम' की कविता के अन्तर्गत जिन 54 काव्यान्दोलनों की बात जगदीश गुप्त ने की थी उन सभी आंदोलनों का सम्यक विवेचन पुस्तक में किया गया है।

नवगीत के प्रथम संकलन 'गीतांगिनी' से लेकर वाराणसी से निकलने वाली 'वासंती' (पत्रिका) के अंक का उल्लेख है। नवगीत पर अनेक आलोचकों के वक्तव्य के साथ नवगीत के आवश्यक तत्त्व गीत-अगीत का पारस्परिक मन-मुटाव की भी समीक्षा इस पुस्तक में की गई है। इसके अतिरिक्त गज़ल, हाइकु कविता और हिन्दी की प्रायः सभी लम्बी कविताओं में 'असाध्य वीणा' , 'अँधेरे में' , 'प्रमथ्युगाथा' , 'आत्महत्या के विरुद्ध' , 'मुक्ति-प्रसंग' , 'पटकथा' , 'उपनगर में वापसी' , 'घास का घराना' , 'बलदेव खटीक' , 'सर्प के सम्मुख' , 'घाटी का आखिरी आदमी' , 'अपने आपसे एक लम्बी बहुत बातचीत' , 'लुकमान अली' , 'शीर्षक की तलाश' , 'समय देवता' , 'नाटक जारी है' आदि के उल्लेख के साथ इन कविताओं की विशेषताओं पर तथा शिल्प पक्ष पर भी विचार किया गया है।

पुस्तक के तीसरे अध्याय में बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के पाँच दशकों की कविता के विभिन्न वैचारिक धरातलों की पड़ताल है। मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद, प्रतीकवाद, अतियथार्थवाद, डाडावाद और धनवाद पर डॉ. सुधा गुप्ता के विचार भी बहुमूल्य है। 'हिन्दी कविता और यथार्थवाद बनाम समकालीन अनुभव की कविता' उपशीर्षक से उन्होंने रघुवीर सहाय, दुष्यंत धूमिल और वेणुगोपाल आदि कवियों की कविताई की सार्थक विवेचना करते हुए इनके कथ्य और शिल्पगत वैशिष्ट्य के अन्तर्गत बिम्बों और प्रतीकों को भी वर्गीकृत कर उनका विश्लेषण किया है।

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं 'बीसवी शताब्दी के उत्तरार्ध में हिन्दी कविता काव्य की विकास- यात्रा, प्रमुख काव्यान्दोलनों, कवियों और उनकी काव्य प्रवृत्तियों को पूरी गंभीरता से समग्रता में विवेचित करने वाली पुस्तक है। डॉ. सुधा गुप्ता की आलोचकीय दृष्टि उनके गहन अध्ययन और सुस्पष्ट चिंतन से उपजी है। उन्होंने 232 पृष्ठों के इस ग्रंथ में लगभग पचास वर्षों के कालखंड को समेटकर एक महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। कविता पर शोध करने वाले विद्यार्थियों को इस पुस्तक में इतनी सारी सामग्री एक साथ मिल जाती है, जो उन्हें कई पुस्तकों के अध्ययन से प्राप्त होती। डॉ. सुधा गुप्ता की यह पुस्तक एक महत्त्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ हैं।' बीसवीं सदी का उत्तरार्ध और हिन्दी कविता' का अत्यंत विवेकपूर्ण तर्कसम्मत और तटस्थ मूल्यांकन करने वाली डॉ. सुधा गुप्ता का परिश्रम और आलोचकीय विवेक पुस्तक में स्पष्ट झलकता है। पुस्तक का पहला संस्करण 2004 में प्रकाशित हुआ था। डॉ. सुधा गुप्ता ने 2003 तक प्रकाशित अनेक कवियों के नाम उल्लेखित किए हैं। ये वे कवि हैं, जो पत्र-पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होकर अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। वागर्थ, कथादेश, साहित्य अमृत आजकल, इंडिया टुडे साहित्य वार्षिकी में सम्मिलित अनेक कवियों की लंबी फेहरिस्त पुस्तक में है। इस सूची में शामिल सभी कवि और कवयित्रियाँ आज हिन्दी साहित्य जगत में स्थापित हो चुके हैं। निःसंदेह डॉ. सुधा गुप्ता की यह पुस्तक बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की कविता को समग्रता में जानने के लिये एक मानक पुस्तक है।

बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध: डॉ.सुधा गुप्ता, प्रकाशक: अयन प्रकाशन, 1 / 20, महरौली, नई दिल्ली110030, द्वितीय संस्करण, 2020, मूल्य: 460रुपये, पृष्ठ: 232