निज भाषा अहै सब उन्नति को मूल / जयप्रकाश चौकसे

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निज भाषा अहै सब उन्नति को मूल
प्रकाशन तिथि : 20 जुलाई 2020


शहरों की यात्रा के समय हम छोटे कस्बों में सेंट मैरी, सेंट रैफेल स्कूल इत्यादि की तख्तियां लगी देखते हैं। यहां तक कि घर का नाम ‘मातृ सदन’ अंग्रेजी में लिखा पाते हैं। आयुर्वेदिक दवाओं के लेबल भी अंग्रेजी में होते हैं। अंग्रेजी बोलने वालों की सबसे अधिक संख्या भारत में है। एक बार भारत के प्रतिनिधि वी.के. कृष्ण मेनन ने यूएनओ सभा में धाराप्रवाह भाषण कई घंटों तक दिया। यह पूछे जाने पर कि वे इतनी अच्छी अंग्रेजी कैसे बोल लेते हैं, उनका जवाब था कि अंग्रेजी उनकी मातृभाषा नहीं है पर उन्हें यह व्याकरण के नियमनुसार सिखाई गई है। इंग्लैंड में जन्मा व्यक्ति अपनी मातृभाषा बोलते हुए गलती कर सकता है, परंतु व्याकरण के अनुसार सीखा हुआ व्यक्ति चूक नहीं कर सकता परंतु ‘स्लिप ऑफ टंग’ किसी से भी हो सकती है।

पुराने समय में पराजित देश के लोगों की मातृभाषा बोलने पर प्रतिबंध लगा दिया गया, क्योंकि विजेता जानता था कि मातृभाषा भूलने पर ही व्यक्ति पूरी तरह गुलाम बनता है। अवाम ने घर में मातृभाषा प्रयोग की और सार्वजनिक स्थान पर विजेता की भाषा प्रयुक्त हुई। कर्नाटक के किसी कस्बे में सभी लोगों के संस्कृत में वार्तालाप की भी खबर है, गोयाकि प्राचीनतम भाषा का एक द्वीप तूफान के बीच भी कायम है। सदियों पूर्व उच्च जाति केे लोगों ने अवाम द्वारा संस्कृत बोलना प्रतिबंधित किया था। यूं अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारी गई। ऐसे अवाम में पाली भाषा का विकास हुआ। जातिवाद देव भाषाओं को लील गया। हाल ही में स्कूल परिणामों में गणित-विज्ञान में 90% अंक लाने वाले अनेक छात्रों को हिंदी में कम अंक मिले व उनका समग्र योग कम हुआ। एक बार खाकसार ने अपनी हैदराबाद यात्रा में रिक्शे वाले को अखबार का फिल्म विज्ञापन दिखाया कि यहां जाना है। रिक्शा चालक स्पष्ट कर चुका था कि उसे हिंदी नहीं आती। कुछ दूरी पर खाकसार ने अपनी पत्नी से कहा कि रिक्शा चालक लंबे रास्ते से चल रहा है। रिक्शा चालक भड़क गया कि सीधे रास्ते पर जुलूस जा रहा है, इसलिए यह रास्ता चुना है। स्पष्ट हो गया कि उसे हिंदी का ज्ञान है। दरअसल पूरे देश में हिंदी जानकारों की संख्या विराट है, पर न जाने कैसे अंग्रेजी ज्ञान प्रतिष्ठा का मामला बन गया है। हिंदी अखबारों में प्रकाशित कुछ विज्ञापन व एक पृष्ठ अंग्रेजी में होता है। कॉरपोरेट प्रिय भाषा अंग्रेजी है।

मनोज कुमार की फिल्म ‘पूरब और पश्चिम’ के एक दृश्य में हिंदी का मखौल उड़ता है। नायक धाराप्रवाह अंग्रेजी में हिंदी का बचाव करता है। इससे अधिक दयनीय क्या होगा? बादशाह अकबर ने मनुष्य की स्वाभाविक भाषा को जानना चाहा? उन्होंने निर्जन स्थान पर गूंगा महल बनवाया और एक विवाहित जोड़े को महल में रखा। सभी को एक भी शब्द नहीं बोलने का निर्देश दिया गया। कालांतर में गूंगे महल में बच्चा जन्मा व नि:शब्द वातावरण में पला। अकबर वहां परिणाम जानने पहुंचे, तो अचंभित हुए कि बालक सियार व पक्षियों की भाषा बोल रहा है। मतलब वातावरण की ध्वनियों से ही स्वाभाविक भाषा का विकास होता है।

आज हिंदी हाशिए में पड़ी सिसक रही है। अत: गणित व विज्ञान में प्रवीण छात्रों को हिंदी में कम अंक मिल रहे हैं। अपने माधुर्य से फिल्मी गीतों ने हिंदी का सार्थक प्रचार किया है। दक्षिण भारत के सुदूर कस्बों में भी ‘आजा सनम मधुर चांदनी में’, गूंजता है।’ ‘आवारा हूं’, रूस, चीन व खाड़ी देशों में भी गुनगुनाया गया है। भारत आए पौलैंड के एक संगीतकार ने कुछ फिल्मी गीत को दिव्य रचनाएं कहा। फिल्म संगीत में शास्त्रीय राग, लोक संगीत व पाश्चात्य सिंफनी का मिश्रित स्वरूप होता है। संगीत संसार में कोई सरहदें, भाषाओं में कोई परस्पर बैर नहीं है। वे सभी सखियों जैसी मिलनसार हैं। रोजी-रोटी दिला सकने वाली भाषा आर्थिक जरूरत में सीखी जाती है। परंतु शाश्वत सत्य है कि मातृभाषा मनुष्य को विचारवान बनाती है। रोजी-रोटी को भाषा का पर्याय नहीं बनाया जा सकता। मातृभाषा मनुष्य की स्वतंत्रा रेखांकित करती है।