निरामय / खंड 1 / भाग-2 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
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भट्टजी के कक्ष में विराजने के बाद सबसे पहले औपचारिकता पूरी की गई चाय से, फिर आया यथेष्ट जलपान, और तब मध्याह्न भोजन का आमन्त्रण भी जबरन ही जड़ दिया गया।परिणाम यह हुआ कि चाह कर भी उस दिन स्कूल जाना सम्भव न हो सका।

अल्पाहार के बाद भट्टजी ने बातों की भूमिका रची।अपने चश्मे के शीशे को धोती की छोर से पोंछकर आँखों पर चढ़ाते हुए पैनी निगाह से पल भर में ही मेरा अंकेक्षण कर डाला।फिर मुंह चुनते हुए बड़े अफसोस की मुद्रा में कहा था उन्होंने- “ओफ! इतने दिनों से तुम यहाँ आते रहे हो वसन्त के साथ, पर आज तक मैंने तुम्हारा परिचय भी न पूछा।दरअसल बात यह है कि...।"

उनकी बात को बीच में ही वसन्त ने काटते हुए कहा- “नहीं चाचाजी, वास्तव में यह है ही कुछ लजालु किस्म का।मैंने कितना कहा, पर कभी भी मेरे साथ अन्दर आकर बैठा तक नहीं।बस बाहर खड़ा गिनते रहा उड़ते कबूतरों को।पर देर आए दुरूस्त आए।आखिर अब आ गया है तो पूरा परिचय हो ही जाएगा।"

“हाँ बेटा! यह तो सबसे पहले जरूरी है।"- कहते हुए भट्टजी ने अपनी उत्सुकता जाहिर की, जिसके शमन के लिए मेरे परिचय का पिटारा खोला वसन्त ने-”चाचाजी! यह तो कुलीन ज्योतिषी है, साथ ही तन्त्र से भी काफी सम्बन्ध रहा है, इसके परिवार को।तन्त्र की एक से एक रोमांचक कहानियाँ जुड़ी हैं, इसके बुजुर्गों से।इससे कोई सात-आठ पीढ़ी पूर्व पैदा हुए थे श्री विक्रम भट्ट जी....।"

मेरे पूर्वज श्री विक्रम भट्ट जी का नाम सुनते ही देवकान्त भट्टजी चौंक उठे- “ हैंऽऽ! यह श्री विक्रम भट्ट जी का कुल दीपक है?फिर क्यों न हो इसकी अँगुलियों पर चक्र के निशान? ओफ!

कौन नहीं जानता श्री विक्रम भट्ट की तन्त्र-साधना को।वही महानुभाव जो एक बार अनायास ही एक कपालिक से उलझ पड़े थे, तन्त्र साधना पर शास्त्रार्थ करने के लिए, और तीन दिनों की गरमा गरम बहस के बावजूद कुछ निर्णय हो न पाया, तब क्रोध में आकर उस कापालिक ने अपना तुम्बा ही मन्त्र पढ़ कर ठोंक दिया था -”लो, नहीं मानता तो यह लो।मैं थक गया हूँ।मेरे बदले यह तुम्बा ही अब शास्त्रार्थ करेगा।" परन्तु वह नवोदित कामरूप वासी कापालिक को क्या पता था कि यह भट्ट कोई साधारण भट्ट नहीं, वल्कि उद्भट्ट है। उन्होंने पास रखे लोटे को ही, जिसे लेकर प्रातः शौच के लिए निकले थे, यह कहते हुए ठोंक दिया था- “तू मूर्ख है, मानेगा नहीं। ले तुम्हारा साद्दित तुम्बा है, तो मेरा शौच का जलपात्र ही सही...।"

हम दोनों आश्चर्य और उत्सुकता पूर्वक मुंह बाए एक टक देवकान्त भट्ट का मुंह ताकते रह गए।वसन्त कुछ अधिक चौंक रहा था, अतः अधीर होकर पूछ बैठा-”क्या कह रहे हैं आप चाचाजी!

तुम्बा और लोटा शास्त्रार्थ करेगा आदमी की तरह, वह भी तन्त्र जैसे गम्भीर विषय पर? हद्द हो गई।यह तो अत्याधुनिक विज्ञान प्रणीत कम्प्यूटर और रोवोट को भी मात कर दिया।जरा पूरे विस्तार से कहिए चाचाजी।अपने खानदान की इतनी महत्त्वपूर्ण बात आज तक नहीं कहा इसने कभी।बड़ी ही विचित्र बात है।क्या ऐसा भी सम्भव है, तन्त्र-साद्दना से?"

मैंने कहा था- ‘क्या यूँ हीं ढिंढोरा पीटता फिरता?’ इस पर खीझते हुए वसन्त ने कहा- “छोड़ो भी यार, आज तक नहीं सुनाए तो अब क्या पूछूँगा तुमसे। और फिर चाचाजी की ओर मुखतिब हुआ-”कहिए न चाचाजी, फिर क्या हुआ?"

आँखों पर से नाक पर लटक आए चश्मे को ठीक करते हुए चाचाजी ने पुनः कहना प्रारम्भ किया, “तो सुनो तुम लोग पूरी कहानी।"

रोमांचक कहानी में रस लेती, पर्दे के ओट में अब तक खड़ी, भट्टजी की पत्नी तथा एक न्यून षोडशी बाला भी साहस कर उसी कमरे में आगई, जिसे देखकर बड़े उत्साह पूर्वक अपनी अर्धागिनी को ईंगित किया भट्ट जी ने-”जानती हो तुम इसे? यह जो वसन्त का दोस्त है न, विक्रम भट्ट के खानदान का है।"

मैं यंत्र चालित सा उठ कर जा लगा था, उस प्रवया के युगल पाद-पंकज से।झट उठाकर अपनी छाती से लगाती हुई बोली- “जीते रहो बेटे।बड़ा ही भाग्यशाली महसूस कर रही हूँ आज खुद को;क्योंकि एक प्रतापी खानदान का सूरज मेरे आंगन में चमकने आया है।"

श्रीमती भट्ट की टिप्पणी से मुझे बड़ा शर्म महसूस होने लगा।मैं नहीं समझता कि कुलप्रतिष्ठा की गरिमा का लबादा ओढ़ कर कोई कब तक गौरवान्वित हो सकता है, यदि उसका स्वयं का कुछ कृतित्त्व और व्यक्तित्त्व सराहनीय न हो।

श्रीमती भट्ट पीछे पलट कर अपनी बेटी को उद्बोधित कर रही थी- “अरे शक्ति!आगे आओ।तुमने इन्हें नमस्ते भी नहीं कहा।शरमाने की क्या बात है इसमें? यह कोई गैर थोड़े ही है, जैसा वसन्त वैसा यह।"

माँ का आदेश पाते ही दो कदम आगे बढ़ कर बड़े ही श्रद्धापूर्वक झुककर मेरे पांव छू स्वयं को कृतार्थ कर लेना चाहा था उसने...शक्ति ने।

मेरा रहा सहा साहस भी जवाब दे गया।घबरा कर उसके सुकोमल करों को अद्दर में ही थाम लिया।हकलाहट भरे बोल फूट पड़े- ‘अरेऽ!यह क्या कर रही हो? तुम क्या मुझसे छोटी हो जो मेरे पांव छू रही हो? और अनायास ही उससे छू गए अपने हांथो को झट से खींच लिया, मानों विजली की नंगी तार छू गया हो।क्षण भर के लिए पूरे वदन में अजीब सी झुरझुरी महसूस हुई।अतः अपने आप में ही सिकुड़ सिमट सा गया मैं।

मेरी मनःस्थिति का अनुभव करते हुए भट्ट दम्पति के साथ-साथ वसन्त भी जोरों से हँस पड़ा।चिकोटी काटते हुए वसन्त ने धीरे से कहा- “अजीब आदमी हो, सभ्यता से कोई वास्ता नहीं।"

भट्टजी ने हँसते हुए कहा-" क्या हो जाता, शक्ति यदि पांव छू ही लेती तुम्हारा?आँखिर तो तुम...।"

शक्ति की माँ ने बीच में ही टोक दिया- "छोडि़ये न जरा ठीक से सुनाइये पूरी कहानी विक्रम भट्ट की।"

पत्नी की तीव्र उत्कंठा देख भट्ट जी जरा तन कर बैठते हुए बोले-"यह कोई ऐसी

वैसी कहानी नहीं है, भाग्यवान।यह एक गौरवपूर्ण इतिहास है, स्वर्णाक्षरों में लिखा जाने योग्य, जो भावी पीढ़ी को संदेश दे सके, पथ-प्रदर्शक बन सके तन्त्रोपासना का।"

थोड़ी देर ठहर कर भट्टजी फिर कहने लगे- "हाँ, तो मैं कह रहा था- कापालिक ने तुम्बा ठोंका और...।”

"नहीं... नहीं, आरम्भ से सुनाईए इस इतिहास को।"- वसन्त ने अनुनय पूर्वक कहा।

झुक आयी मूछों को उमेठ कर सीधा किया भट्टजी ने, और आगे कहना शुरू किए-" अब से सदियों पूर्व की बात है, श्रीविक्रम भट्ट की तन्त्र-साद्दना का डंका पूरे भारत में बज चुका था।एक से एक दिग्गज औघड़-तान्त्रिक शास्त्रार्थ के लिए आते, और पल भर में परास्त होकर मुँह बना हाँथ मलते वापस लौट जाते। इन्हीं दिनों कामरूप कामाख्या का एक सिद्ध कापालिक, जो किसी तिब्बती साधक का सीख था, यह सुना कि विंध्यगिरि की कन्दराओं में आँख¬ मींचे, एक अद्भुत उद्भट्ट साधक साधना रत है, जो अपने तान्त्रिक चमत्कारों से भारतवासी को चकाचौंध किए हुए है।फिर वह झक्की ड्डघड़ मानने वाला कहाँ था।अपने गुरू के लाख मना करने पर भी, चल ही पड़ा अपना तुम्बा-सोटा लटकाए, विन्ध्यगिरि के कन्दराओं में ढूढने, उस प्रतापी विक्रम भट्ट को।

सुबह की सफेदी अभी पूर्ण प्रौढ़ होने भी न पाई थी।घोसले में दुबकी इक्की-दुक्की चिडि़याँ प्रभात के आगमन को जानकर अब धीरे-धीरे अपने नीड़ त्यागने लगी थी।ऐसी ही शुभ बेला में मदमस्त हस्ति सा झूमता वह कापालिक आ पहुँचा गिरि कन्दरा के समीप।

भव्यकाय, गौरांग, नाभि तक लटकती धवल दाढ़ी, सुमेरू सा उन्नत माथे का जूड़ा, तेजोदिप्त प्रसस्त भाल, बायें हाथ में पीतल का भीमकाय लोटा और दायें हाथ से अंकोल की लाठी टेकते, पावों में खड़ाऊँ पहने ऊपर पहाड़ी से खटाखट नीचे उतरते, मानों सममतल जमीन पर चल रहे हों- नजर आए एक महात्मा। पास आते ही उस दम्भी कापालिक ने शेर की दहाड़ सी भारी आवाज में पूछा- ‘इधर कोई विक्रम भट्ट नाम का तान्त्रिक रहता है?"

‘क्यों क्या बात है? -संक्षिप्त सा सौम्य प्रश्न था, उन महानुभाव का।जिसे सुन पुने वैसे ही दम्भी भाव से औघड़ बोला- ‘कुछ बात है, तभी तो पूछ रहा हूँ।सुना है मैंने कि बड़ी कठोर साधना कर रहा है।सारे देशवासी मुग्ध हैं उसकी साधना पर।अतः सोचा मैं भी जरा चल कर देखूँ उसे; है भी कुछ दम उसकी साधना में या यूँ डीग हांकता है।’ ‘इसी पहाड़ी पर ऊपर रहते हैं वे।- “ उंगली से एक ओर इशारा करते हुए, महात्मा आगे बढ़ गए।शायद शौच निवृत्ति की जल्दबाजी थी उन्हें।

अभी कुछ ही कदम आगे बढ़ा था, वह औघड़ कि एक और महात्मा नजर आए उसे।वैसी ही वेशभूषा, वैसा ही गौर वदन, दिप्त भाल, नाभि चुम्बित दाढ़ी, दर्पित नेत्र, वैसा ही महाकाय जलपात्र, अंकोल की वैसी ही टेढ़ी-मेढ़ी लाठी।

पल भर को वह औघड़ भ्रम में पड़ा रह गया।सोच न पाया।समझ न सका, ये वही हैं या कि कोई और।अतः स्वयं को सहेज कर फिर अपने भोंड़े प्रश्न को दोहरा दिया, उनके सामने भी।

जवाब मिला वैसा ही नपा तुला, उन्हें शब्दों में;और उसी प्रकार हांथ का इशारा बता, वे भी एक ओर चले गए, शौच निवृत्ति के लिए।

उसकी उत्सुकता बढ़ी, और वह बढ़ा आगे, पहाड़ी की ओर।और तब आँखों के सामने वैसी ही एक और दिव्य मूर्ति नजर आयी...और फिर एक और अनेक में अन्तर ही न रह गया।क्षण भर के लिए भौचंका होकर भूल ही बैठा स्वयं को भी।खो सा गया उन दिव्य मूर्तियों की प्रदर्शनी में।

“कुछ देर बाद जब ध्यान आया अपने आगमन के उद्देश्य का, साथ ही कुछ संदेहात्मक आभास मिला तब दौड़ कर वापस आया उसी गर्वीले अंदाज में।आँखें कुछ और अद्दिक लाल हो आई थी, धतूर खाए व्यक्ति की तरह।

“क्रोध में चिघ्घाड़ते हुए बोला-‘अरे नीच! पाखण्डी!! तूने मेरे साथ छल किया है, अपना परिचय छिपा कर।अभी तुझे मजा चखाता हूँ।ये देख...।’

“इतना कहते हुए उस औघड़ ने अपने तुम्बे को आहिस्ते से झटका।झटकते के साथ ही उसमें से आग की लपटें निकलने लगी।लपट इतनी तेज थी कि लगता था पल भर में ही सब कुछ स्वाहा हो जाएगा।

“पीछे मुड़ कर उस दिव्य महापुरूष ने मुस्कुराते हुए देखा, एक नजर, उस कापालिक को, और फिर अपना बायाँ हाथ, जिसमें भीमकाय जलपात्र था, थोड़ा ऊपर उठा दिया।पात्र का ऊपर उठना था कि मूसल सी मोटी जलधारा अन्तरिक्ष से धाराप्रवाह प्रवाहित होने लगी।ऐसा लगता था - मानों पल भर में ही क्रोधी देवराज, गोवर्धनधारी को ध्वस्त कर देगा।बहा डालेगा सारी गोकुलपुरी को।

“हुआ भी कुछ वैसा ही।पलक झपकते ही चारों ओर फैली आग की लपटें न जाने कहाँ गुम हो गईं।किस गुहा में जा छिपी, मानों सूर्य के आगमन से दूर्वांकुर पर से ओस की बूंद¬ गायब हो गई हों।

“इतना होना था कि उस नादान औघड़ का क्रोध काफूर होगया।कुटिल मुस्कान के साथ दाढ़ी खुजलाते हुए बोला-‘बहुत हुआ, बहुत हुआ।अब बन्द करें अपनी बरसात।लगता है पल भर में ही

मही जलप्लावित हो जाएगी।आपने तो अच्छा छला मुझे।मैं जान गया कि आप ही हैं विक्रम भट्ट जी जिनके प्रताप-डंके की प्रतिध्वनि अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त है।’

“सन सी सफेद अपनी लम्बी दाढ़ी सहलाते हुए महात्मा भट्ट ने कहा- ‘ठीक पहचाना तूने। कम से कम अकल तो आयी पहचानने की।मैं क्या छलूँगा तुमको? मुझमें इतनी शक्ति कहाँ तुम तो स्वयं को छल रहे हो, जो स्वयं की शक्ति को स्वीकारने से इनकार कर रहे हो।वर्णमाला के प्रथमाक्षर का भी अभी ठीक से ज्ञान नहीं हुआ है, और चल दिए दिगविजय करने, वह भी तन्त्र जैसे दुरूह मार्ग पर?अभी तो दूध के दांत भी शायद न टूटे हों तुम्हारे।’

“यह उपहास सुन कर कपालिक की आँखें फिर सुर्ख हो आयी। पपोटों को तरेर कर ललाट तक पहुँचा दिया।कड़क कर बोला- ‘हूँऽह तो तुमको इतना घमण्ड है, अपनी साधना पर? दाढ़ी बढ़ा, धूनी रमा लेने मात्र से अपने को साधक कहने लगा है? जानता नहीं मैं किससे दीक्षित हूँ?’

“ उसी सौम्य मुस्कान से भट्ट जी ने कहा- ‘अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम्हारा गुरू वह अनाड़ी तिब्बती औघड़ है, जिसे ठीक से यह भी नहीं पता कि तन्त्र के कितने मार्ग हैं, कितने आचार, और कितनी शाखायें ।

“गुरू निन्दा सुन कापालिक भभक उठा।दांत पीसते हुए बोला-‘तो तुम्हारी इतनी हिम्मत हो गयी.जो मुझे तो मुझे, मेरे गुरू को भी थोथा बता रहे हो? दम्भी, नापाक! शर्म नहीं आती तुझे लांछित करने में उस देवदूत सिद्ध औघड़ को जिसकी परीक्षा लेने स्वयं औघड़पति भूत-भावन भगवान भोले नाथ पधारे थे, और उसकी साधना से प्रसन्न होकर पीठ ठोंका था?’

“जोरों से हँसते हुए विक्रम जी ने कहा था-‘ क्यों नहीं, खूब जानता हूँ।भगवान शंकर आए थे पीठ ठोंकने या किसी भंगी-मेहतर को भेज दिए थे?’

“महात्मा विक्रम के व्यंग्यवाण से विंध कर घायल सिंह की तरह गर्जन करते हुए, अपनी क्रूर आँखें उनके चेहरे पर गड़ाने लगा वह औघड़ ।शायद सम्मोहन तन्त्र का प्रयोग करना चाहता था। किन्तु इसका जवाब महात्मा ने यथा शीघ्र विकर्षण तन्त्र से दे दिया।फलतः उसके विस्फारित नेत्र झपकने लगे।

“जरा ठहर कर फिर वह अपने तुम्बे में हाथ डाला।उसमें से कुछ निकालने का प्रयास कर रहा था, न जाने क्या करने के लिए।किन्तु दुर्भाग्य, उसका हाथ उस तुम्बे से ही चिपका रह गया।इस स्थिति से उसे झण भर के लिए जोरदार झटका लगा।कातर दृष्टि ऊपर उठ गई, महात्मा भट्ट की ओर।उन्हें दया आगई।मुस्कुराते हुए बोले- ‘अरे नादान!अब भी तो समझ ।क्या बचपना कर रहा है?

“किन्तु उस नासमझ को समझ आता तब न।भट्टजी की कृपा से तुम्बे से जैसे ही उसका हांथ छूटा, अपनी साधना का अगला प्रहार कर दिया - वमन तन्त्र का।यानि सामने खड़े महात्मा को वमनविष से पराजित करना चाहा था।पर क्या उसका यह बचकाना प्रहार दिव्य महापुरूष पर जरा भी सफल हो पाता?

“ इसी प्रकार के छोटे-मोटे तान्त्रिक प्रहार करता रहा वह, मूर्खों की तरह; और उसके प्रत्येक प्रहार को पल भर में ही विफल कर, अट्टहास करने लगे थे प्रतापी विक्रम भट्ट।तान्त्रिक प्रहारों-प्रतिकारों का यह क्रम वहीं पहाड़ी पर, अनवरत अगले तीन चार दिनों तक चलता रहा था।बारबार पराजित हो कर भी उसे समझ नहीं आ रहा था। अन्त में खीझ कर कहा उसने- ‘अरे भट्ट! तू तो बहुत ही असामाजिक है।समाजिक मान मर्यादाओं और व्यवहारों का तुम्हें जरा भी ज्ञान नहीं है।आज चार दिनों से तेरे यहाँ पधारा हूँ, और तू है कि सिर्फ प्रतिकार पर प्रतिकार किए जा रहा है।जरा एक बार भी नहीं पूछा, न खाने-पीने की बात और न ...।’

“व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ महात्मा भट्ट ने कहा-‘मैं मर्यादा का पालन नहीं कर रहा हूँ, या तू निरा निपट बेवकूफ है? तुमको इतना भी समझ नहीं है कि चार दिनों पूर्व मैं आश्रम से निकला था प्रातः कृत्य से निवृत्ति हेतु कि तूने मुझे बीच में ही घसीट लिया शास्त्रार्थ करने को।तू अभी मेरे आश्रम में पहुँचा ही कहाँ है? मौका ही कहाँ दिया है तूने मुझे अपने स्वागत का?

“ कुटिल मुस्कान के साथ औघड़ ने कहा- ‘ठीक है, चलता हूँ तेरे आश्रम पर ही चलता हूँ।चार दिनों से खप रहा हूँ यूँ ही, अब जरा विश्राम किया जाए।किन्तु यह मत समझ लेना कि मेरा शास्त्रार्थ पूरा हो गया, अब मेरे पास रहा ही नहीं कोई तर्क, कोई प्रहार, कोई प्रतिकार।’

“ इतना कह कर घमंडी औघड़ उठाया अपना तुम्बा, जिस पर उसे बड़ा ही नाज था, और कुछ बुदबुदाते हुए तीन बार ठोंक दिया उसे, यह कहते हुए - ‘ये देखो, अब से मेरा प्रतिनिधित्व मेरा यह तुम्बा ही करेगा। मेरे बदले अब यही तुमसे शास्त्रार्थ करेगा।’

“इतना सुनना था कि विक्रम भट्ट ठठाकर हँस दिए, और हाँथ में पकड़े शौच निवृत्ति के जलपात्र को ही वांयें हाथ की तर्जनी का स्पर्श कर, रख दिए तुम्बे के बगल में।यह कहते हुए-‘तेरा सिद्ध तुम्बा है, तो मेरा असिद्ध अपवित्र लोटा ही सही।इसी से तो बराबरी कर ले तुम्हारा लोटा।’

“ और फिर दोनों अपने-अपने तुम्बे और लोटे को उठा लाए आश्रम में।वहीं एक कन्दरा में दोनों प्रत्याशियों को प्रतिस्थापित कर दिया गया।

“इधर महात्मा विक्रम और औघड़ कापालिक सामान्य मुद्रा में अपने कृत्य में लग गए;उधर कन्दरे में रखे तुम्बे और लोटे में गति आ गयी।अजीब चमत्कार हुआ, दोनों लट्टू की तरह नाचने लगे। घन-घन करते कन्दरा को गुंजाने लगे।वास्तव में उन दोनों के बीच ही शास्त्रार्थ शुरू हो गया था।