निरामय / खंड 3 / भाग-8 / कमलेश पुण्यार्क

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मुझसे बातें करती मीना एक दूसरा कैसेट प्लेयर में पुश कर दी। इधर तराने छिड़ गए। उधर प्रभात के आगमन का संकेत- चिडि़याँ लागातार दिए जा रही थी। गीत शुरू हुआ विदाई से, और फिर न जाने कितने गीत गाए गए -हमदोनों में किसी के पास हिसाब न था। न जाने किस गन्धर्व

लोक में खो सा गया था, सम्मुखी किन्नरी के साहचर्य में।

तन्द्रा तब टूटी जब ट्रे में कॉफी का प्याला लिए, श्रीमती चटर्जी सामने खड़ी नजर आयी। सेन्टर टेबल पर ट्रे रखती हुयी बोली- ‘तो तुमलोग बाकी रात यही करते रहे?’

‘करती क्या रही मम्मी, सुनोगी तो तुम नाच उठोगी। ’- दीवान पर रखे हारमोनियम को यथास्थान बक्से में रख कर, कैसेट स्पूल रिबैंड कर दी। चाची मुग्ध खड़ी देखती रही मीना की हरकत। मीना ने पुनः कहा- ‘मैंने कहा था न उस दिन मम्मी कि कमल बहुत अच्छा गाता है। ’और कॉफी का प्याला उठा, एक मुझे पकड़ा कर दूसरा स्वयं सिप करने लगी। कॉफी पीते-पीते ध्यान गया- ‘पापा अभी तक सोए ही हुए हैं क्या?

‘अब क्या नौ बजे तक सोए ही रहेंगे। अभी-अभी उठ कर बाथरूम गए हैं। मैं चली गयी कीचेन में, सोची सबको चाय पिला दूँ। ’-कहती हुयी चाची खाली हुए प्यालों को समेटने लगी।

‘महरी कहाँ गयी?’- मम्मी को जूठे प्याले उठाती देख मीना ने पूछा था।

‘महरी मरने गयी...आज दो दिन हो गए, उसे तो महीने में दस दिन छुट्टी ही चाहिए। ’- थोड़ी झल्लाई हुई सी चाची बोली, और ट्रे उठा कर बाहर चली गयी। उनके पीछे ही मीना भी निकल गयी, बाथरूम की ओर- ‘अभी आयी। ’- कहती हुयी।

थोड़ी देर बाद चाचाजी तौलिए से मुंह पोछते कमरे में प्रवेश किए। पीछे से उनके लिए कॉफी का प्याला लिए चाची, और उनके पीछे मीना भी आ गयी कमरे में ही।

‘किस बात पर माँ को नचा रही थी मीनू?’-पिता का सवाल पूरा होने के साथ ही मीना ने रेकॉर्डर प्ले कर दिया- ‘इस बात पर पापा। और पिता के बगल की खाली कुर्सी में धब्ब से धँस गयी।

‘गीत गोविन्द’ की मधुर स्वर लहरी कमरे के वातावरण को आप्लावित कर दी थी। काफी देर तक हमसब मौन बैठे उस दिव्य गीत का रस पान करते रहे। फिर एक एक करके वे सारे गीत-गाने बजते रहे थे, जो पिछले डेढ़-दो घंटों में कैद किए गए थे रेकॉर्डर द्वारा।

भक्ति-श्रृंगार और विरह संगीत ने अनोखा समा बँधा गया था। विभोर होकर सुनते रहे थे, चटर्जी दम्पति। बीच-बीच में मीना किसी गाने पर ‘एंकरिंग’ कर दिया करती, ‘यह जो विरह गीत है पापा!

कमल ने तब लिखा था, जब इसकी एक मुंह बोली भाभी का निधन हुआ था...और यह जो श्रृंगारिक गीत आप सुन रहे हैं- उस समय लिखा था इसने, जब भैया पुनः नौशा बने थे...। ’

‘अच्छा, तो ये सब के सब इसकी खुद की रचनाएँ हैं?’- आश्चर्य और प्रसन्नता मिश्रित प्रश्न थे बंकिम चाचा के। तदुत्तर में हँसती हुयी मीना ने कहा था- ‘ अब ऐसा नहीं कि गीत गोविन्द भी महाकवि

जयदेव की जगह इसने ही लिख दिया। हाँ, बाकी के गीत इसकी अपनी रचना है। इतना ही नहीं, बहुत सी कहानियाँ और उपन्यास भी लिखा है इसने। ’

‘रचनाएँ तो एक पर ग्यारह हैं। किन विशेषणों से विभूषित करूँ, मैं इस बाल कलाकार को?’-बगल में बैठी चाची मेरा पीठ ठोंकती हुयी बोली- ‘शाबास कमल। ’

‘पर यह कैसा श्रृंगार है मीना! इस श्रृंगार को भी विरह ही कहूँ तो क्या हर्ज है, जो आद्योपान्त करूणा से ओतप्रोत है। ’- चाचाजी ने अपना मन्तव्य दिया।

‘कह सकते हैं, अवश्य कह सकते हैं। मेरी भी यही राय है। ’- -- कहती हुई मीना उठ कर गयी, पास के सेल्फ तक और एक किताब निकाल लायी। पिता के हाथ में देती हुयी बोली- ‘ यह जो उपन्यास

आपने लाया था उस बार- ‘कस्मकस’ याद होगा शायद, कितना दर्द और आलोड़न है इसमें। ’

‘हाँ-हाँ, मुझे अच्छी तरह याद है, इसे पढ़ते समय कितना रोयी थी मैं, किन्तु इसका लेखक...’?-चाची ने जिज्ञासा प्रकट की।

‘तुम्हारी शंका सही है मम्मी, इस उपन्यास पर कमलेश नाम छपा है। मगर तुम्हें मालूम होना चाहिए कि बाजार में बिकने वाले सभी उपन्यासों पर छपे नामों के लेखक को ढूढ़ने चलोगी तो बहुत कम ही मिलेंगे। क्यों कि असली लेखक कोई और होता है। प्रकाशकों के पास विधा, शैली और स्तर के अनुसार कुछ छद्म नामों के ठप्पे होते हैं। नवोदित, गरजमन्द, अर्थसंकट-ग्रस्त बेचारे लेखक कौड़ी के मोल अपनी

मूल्यवान रचनाओं को गवांते हैं। वैसी रचनायें इन काल्पनिक नामों से छपती हैं। अथवा रातों रात लेखक बनने की कामना वाले लोग भी दौलत से ऐसी रचनाओं को खरीद लेते हैं। यह कमलेश भी वैसा ही लेखक है। अपनी कई रचनायें कमल ने इसके हाथों बेचा है, किसी न किसी मजबूरी में। आम लेखक की स्थिति हमेशा दयनीय रही है। कुछ मुट्ठी भर लोग होते हैं जो प्रकाशन में छाए रहते हैं। मुंशी प्रेमचन्द्र उपन्यास सम्राट कहे जाते हैं। उनकी रचनायें बेंच कर प्रकाशक मालामाल हो गए, पर मुंशी जी इलाज के वगैर तड़पते रहे। प्रकाशकों के नाज-नखरे ‘पद्मिनि’ नायिकाओं से भी ज्यादा हैं। ’- मीना कहती जा रही थी- ‘ अपनी पुस्तक की पाण्डुलिपि को लेकर न जाने कितने प्रकाशकों के द्वार पर दस्तक दिया कमल ने। इसी बीच पिताजी गम्भीर रूप से बीमार हो गए थे। रहा सहा साहस भी खो बैठा था। लाचार होकर इसने वह पाण्डुलिपि इलाहाबाद के एक मशहूर प्रकाशक के हाथों बेच डाली मात्र हजार रूपए में। ’

‘मात्र एक हजार में ?’-चटर्जी दम्पति की विस्फारित नजरें एक साथ उठ गयी थी मेरी ओर। मनहूंस सा मुंह किए मैं उन्हें देखता रहा। मेरी असहायता का दिग्दर्शन मीना द्वारा अभी जारी था।

‘हाँ मम्मी, स्थिति दिनों दिन बिगड़ती गयी थी। घर की जमा पूँजी कुछ निठल्ले बैठे खाने में, कुछ दवाखाने में चली गयी। इस पर भी यदि साध पूरा हो जाता तो खुशी होती। पर हुआ विपरीत। पिता चल बसे असमय में ही। मौत विजयी हुयी। ’

‘ठीक कहती हो मीना, तुम्हारा सोच बहुत प्रौढ़ है। कुछ ऐसा ही कहा था मृत्युदेव ने उस नाटक में- “नियंता के नियम को भंग नहीं किया जा सकता। "- खेद पूर्वक चाचाजी ने कहा था।

‘....पिछले जून की ही घटना है-विधवा माँ और छोटी बहन का वैशाखी बनना पड़ा कमल को जो खुद ही पगहीन सा है। ’-मीना कहे जा रही थी मेरा जीवनवृत्त।

‘हा दैव! तू कितना अन्यायी है!’- लम्बी उच्छ्वास सहित चाची ने कहा।

....और फिर एक एक कर अपनी सारी रचनाओं को कौड़ी का तीन बना गया-बिगत कुछ माह में ही। उदर गुहा में सारी कला समाहित हो गयी। ’- कहती हुयी मीना की आँखें डबडबा गयी थी।

‘अरे, इसका तो एक बड़ा भाई भी है न?अभी हाल में ही दो माह पूर्व जिसका द्विरागमन हुआ है?’-चाचा ने जिज्ञासा व्यक्त की।

वे चचेरे भाई हैं मेरे। इन्हीं चाचा के लड़के, जिनके साथ अभी यहाँ रह रहा हूँ। --मैंने कहा था।

‘वह भी तो पिता की मृत्यु के बाद कन्नी कटा गए। पारिवारिक अशान्ति इतनी गहरा गयी कि अब इसे उनके साथ यहाँ रहना भी दूभर हो गया है। ’- मीना मेरी वर्तमान स्थिति स्पष्ट की थी।

‘तो फिर कहाँ रहने को सोच रहे हो बेटे?’-चाची ने बड़े स्नेह से पूछा, जिसके जवाब में मैंने कहा कि यहीं हाजी मुहम्मद विल्डिंग में मेरे मामा रहते हैं। उन्हीं के साथ रहने को सोच रहा हूँ। वह वसन्त जो साथ में पढ़ता है हमलोग के, मेरा ममेरा भाई है।

‘तो फिर ऐसा क्यों नहीं करते, चाचा के यहाँ रहने में कठिनाई है जब, तब यहीं आ जाओ, मेरे यहाँ। यहीं रहो। क्या हर्ज है इसमें?समझूँगी- मीना और कमल हमारी ही दो आँखें हैं। ’- बड़े ही उत्साह

से मेरे माथे पर हाथ फेरती हुयी चाची ने कहा था।

‘वाह मम्मी! कितनी दयालु हो तुम। ’-कहती हुयी मीना लपक कर लिपट पड़ी माँ से।

‘हीरे का मोल जौहरी ही जान सकता है मीनू ! औरों के लिए तो बस चमकदार पत्थर भर है। कमल गुदड़ी में छिपा लाल है। बदली में छिपा सूरज है। अब यह मेरे आंगन में चमकेगा। ’- हर्षित होकर कहा चाचाजी ने। कृतज्ञता से नतमस्तक हो गया था मैं उनके चरणों में। लपक कर सीने से लगाते हुए पुनः कहा था उन्होंने- ‘मैं तुमसे मिलने के लिए बहुत दिनों से उत्सुक था। कई बार मीनू की माँ ने भी कहा। मीना हमेशा कुछ-कुछ बताते रहती है तुम्हारे बारे में। इसने ही कहा था एक दिन कि इसका एक क्लासमेट है-कमल भट्ट, जो बड़ा ही प्रतिभाशाली है। अभी कुछ साल पहले ही नामांकन हुआ है- स्कूल में, और पूरे शिक्षक समुदाय पर छा गया है अपनी प्रतिभा की चमक से। खेल-कूद से लेकर पढ़ाई-लिखाई, नाटक, संगीत, कला हर क्षेत्र में विद्यालय में उसी का नाम उजागर है.....। ’

चाचाजी के मुंह से अपनी प्रशंसा सुन कर सिमटा जा हरा था मैं अपने आप में ही। वे अभी कहे ही जारहे थे।

......विद्यालय निरीक्षक हूँ न मैं। विद्यार्थी का निरीक्षण न किया तो मेरा कर्तव्य अधूरा ही रह जाएगा। अब तुम्हारा कर्तव्य है कमल कि तुम मेरे इस अपूरित कर्तव्य को पूरा करने में मेरी मदद करो, चुस्ती और ईमानदारी के साथ; फिर देखना चमत्कार, दयावान प्रभु के दरवार का -जहाँ सिर्फ न्याय ही न्याय है। देर जरूर है, पर वहाँ अन्धेर नहीं। मैं समझता हूँ - मेरे परख और प्रयास के मरूत से अब

तक रहा मेघाछन्न आकाश, अब आगे स्वच्छ हो जायगा; और प्रतिभा का सूरज पूर्ण प्रकाश विखेरने में सक्षम हो जाएगा। ’

चाचाजी का दार्शनिक प्रवचन पूर्णतया मेरी समझ में न आया। क्या है इनका अधूरा कर्तव्य, और क्या है मेरा भावी कर्तव्य? हाँ, सिर्फ इतना ही समझ सका कि अब मेरी चाची की दुखती रग को आराम और शान्ति मिल जाएगी। उनके सर पर पड़ा मेरे परिपालन का बोझ अब किसी के गले का हार बन जाएगा।

किन्तु मैं कैसे उबर पाऊँगा इस एहसान के बोझ से? क्या चुका पाऊँगा मैं वह ऋण किसी जमाने में भी, जिसका ‘एलॉटमेंट ’ आज चाचाजी ने कर दिया है मेरे लिए? शायद नहीं...कभी नहीं। और आखों के सामने उभर आता है एक और दृश्य -

पिता का पार्थिव शरीर घर के आँगन में पड़ा है...कफन में लिपटे शरीर पर चिघ्घाड़ मार कर माँ लोट रही है...अन्तिम दर्शन को आयी मुहल्ले की चाची, बुआ, दीदी, दादी आदि सबके सब उसे अपनी नम आँखें पोंछते हुए, सान्त्वना दे रहे हैं, पर मेरी आँखों का सैलाब सूख चुका है...आँखें फटी फटी सी जान पड़ती थी...बार-बार बेहोशी आ रही थी....भोला चुटकी में नौशादर-चूना लेकर मेरे नथुनों

में सुंघा कर मुझे होश में लाने का प्रयास कर रहा था....बीच-बीच में जब भी होश आता, मस्तिष्क कामयाब होता तो चाची का उच्चस्वर कानों से टकराता -

‘गए, पर सब गंवा कर...इलाज के बहाने अस्पताल में पड़े दूध-मलाई चाभते रहे...जो कुछ भी था दो-चार बीघा खानदानी धरोहर, सो भी सब ताप गए...अब कफन को भी रोना है...। ’

चाचा समझा रहे थे- ‘अरे भाग्यवान! तुझे यह सब कहने के लिए क्या यही मौका मिला है? करती रहना ना हिसाब-किताब श्राद्ध के बाद...अभी जो करना है, सो करो...लोग क्या कहेंगे?’

चाचा को लोगों के कहने की चिन्ता हो रही थी। नाजायज या जायज पर विचार उन्हें फिजूल सा लगा। चाचा के चमचे-बेलचे भी जो वहाँ उपस्थित थे, किसी ने कुछ नहीं कहा। भोला के बापू यदि न आए होते समय पर तो वापू की अर्थी भी उठने न देती चाची, पहले अपना हिसाब और हिस्से का बंटवारा करा लेती।

खैर उस दिन तो नहीं, पर श्राद्ध के दो दिन बाद ही निपटारा कर दिया तथाकथित पंचपरमेश्वरों ने। बचा-खुचा सारा उनके हिस्से गया, खाली ट्रंक और फूस की झोपड़ी मेरे हिस्से आया। पुस्तैनी मकान में एक कोना भी न मिला। पंचों ने जानकारी दी कि वह तो दादाजी ही ‘रेहन’ रख चुके थे, वह भी मेरे पिताजी को पढ़ाने के लिए, और रेहन छुडा़या चाची ने अपना जेवर बेंच कर। उचित तो है कि वाप की पढ़ाई का कर्जा अब बेटे से वसूल किया जाए, खैर इसे माफ कर दिया ‘नापाक दयावान’पंचों ने। किन्तु उस मकान में हिस्से का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।

‘वाह! क्या न्याय किया सत्य हरिश्चन्द्र ने!, चाचा-चाची दोनों ने एक साथ टिप्पणी की थी- ‘ठीक ही कहा गया है-उगते सूरज को ही नमन किया जाता है.....।

दीवार घड़ी ने टऽन्ऽ कर शोर मचाया, और सबका ध्यान उस ओर चला गया। ‘अरे! छः बज गये? आज सिर्फ चाय पर ही रहने का विचार है क्या?’- कहा चाचाजी ने, और इसके साथ ही हमलोगों की लघु गोष्ठी बरखास्त हो गयी।

मुझे गुमशुम सा बैठा देख मीना ने झकझोरा- ‘चलो उठो, मुंह- हाथ धोओ। खोए कहाँ हो?’- किन्तु मैं निरूत्तर मौन बैठा रहा।

मीना ने बिहँस कर कहा- ‘जानते हो एक बात, पापा का कोई भी निर्णय सर्वोच्च न्यायालय का फैसला जैसा होता है। जिरह-बहस की अब कोई गुंजायश नहीं है। चलो उठो। तौलिया लपेटो, नहाओ, खाओ, और जाओ- अपने चाचा के डेरे से अपना सामान उठा ले आओ। आज से यह कमरा तुम्हारा, घर तुम्हारा। कहते थे न तुम -‘क्या यह विद्यार्थी का कमरा है, अभिनेत्रियों जैसा?अब ऐसा न कह सकोगे। क्यों कि अब यह एक कलाकार का कमरा होगा, एक होनहार का..एक प्रगतिशील विचारक का...एक कर्तव्यनिष्ट साधक का कमरा। ’- कहती हुयी मीना आत्मविभोर हो गयी थी। चटर्जी दम्पति भी न जाने किस कल्पना लोक में विचरण करने लगे थे। उनका ध्यान तो तब भंग हुआ, जब मीना ने शोर मचाया- ‘मम्मी...मम्मी! मुझे जोरों की भूख लगी है। ’

उसी दिन दोपहर बाद पहुँचा था कालीघाट, चाचा के डेरे पर, पूर्व दिन प्रातः का निकला, कोई छत्तीश घंटों के बाद। देख कर चाचा तो आदतन मौन रहे;पर चाची की क्रोधाग्नि पहुँचते के साथ ही झुलसाने लगी थी।

‘.........चले आ रहे हैं लाटसाहब...पता नहीं कहाँ रहते हैं...परीक्षा सर पर है, और चल रही है यहाँ चकल्लसबाजी...लगता है लग गयी हवा कलकत्ते की...फेल होंगे तो माँ कहेगी- सारा दिन काम में लगाए रही होगी मेरे लाल को...और यहाँ लाल हैं कि खानदान की प्रतिष्ठा काला करने पर तुले हैं....। ’

चाचा उन्हें समझाने के लहजे में बोले- ‘क्या यूंही बकते रहती हो गीता की माँ! जानती ही हो कि कल प्रोग्राम था स्कूल में। रात में वहीं रह गया होगा। वसन्त भी तो वही था। उसके पापा से भेंट हुई थी आज। कह रहे थे- रात में वसन्त आया नहीं। ‘

‘वसन्त का साथ ही तो इसे बिगाड़े जा रहा है। वह तो बड़े बाप का बेटा है। एक छोड़ चार साल बैठा रह सकता है एक ही क्लास में। पर इन जनाब का तो जनाजा ही निकल जायगा। एक बार फेल हुए कहीं तो सीधे वापस भिजवा दूंगी खाली टोकरी की तरह। ’

चाची दीये की तरह भभक रही थी। क्रोध में कभी बाहर, कभी भीतर यूंही आ जा रही थी।

‘क्यों इतना नाराज हो रही हो चाची?कहते-कहते तो पिताजी का जनाजा निकाल दी, अब मेरा भी निकाल दोगी तो उन बेसहारों का क्या होगा, जिनका सहारा मैं ही हूँ सिर्फ? घबराओ नहीं, फेल होकर घर जाने से पहले ही मैं चला जा रहा हूँ यहाँ से। दो रोटी भर का ही तो एहसान है, भगवान करे मैं इस ऋण को भी जल्दी ही चुकता कर सकूँ । सारा खर्च अब तक तो मामा चलाते ही रहे हैं.थोड़ा और बोझ सही। ’- कहता हुआ मैं भीतर कमरे की ओर चला गया था, अपनी लघु गृहस्थी -कुछ किताब कॉपियाँ, एक छोटा सा सूटकेस और जीर्ण-शीर्ण विस्तर समेटने।

चाची की आवाज अभी भी भोंपू जैसे बज कर, कानों में गरम सीसे सी पड़ रही थी- ‘ बड़े बने हैं, मामा के दुलारे...जायें वहाँ तो चार दिनों में ही तारे नजर आ जाये। मैं क्या नहीं जानती वसन्त की माँ को कि कितनी रणचंडी है...गऊ जैसे बेटे-बहु को घर से निकाल दी, और शरण देगी इनको....?’

‘तो फिर कहीं फुटपाथ पर ही डेरा डाल लूँगा, या किसी सेठ-साहुकार का तलवा सहलाऊँगा। जैसे भी हो पढ़ाई तो पूरी करनी ही है। ’- - मैंने अपना सामान समेटते हुए कहा था।

‘आपने ही इसे सिर चढ़ा रखा है...मैं कहा करती थी- सांप के पोये को दूध पिलाना अच्छा नहीं...जरा सी बात पर कर्ज और एहसान का तनाजा दे रहा है...अभी तो दूध के दांत भी नहीं टूटे हैं, और...। ’- चाची का वाक्प्रहार चाचा पर था, जो बाहर बरामदे में बैठे झूठी आँखें गड़ाए हुए थे अखवार पर।

नजरें ऊपर उठाते हुए बोले- ‘आज तुम्हें क्या हो गया है गीता की माँ? कितनी बार कहा.जरा सोच समझ कर बोला करो। देखो तो कितना दुःखी हो गया बेचारा, कह रहा है- फुटपाथ पर रह लेगा पर यहाँ नहीं। मेरी प्रतिष्ठा का तो तुम्हें जरा भी ध्यान नहीं। लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे -बेचारे पितृविहीन बच्चे को....। ’

‘तो चाटते रहो अपनी प्रतिष्ठा को लेकर, मुझे पहुँचा दो मैके। ’-चाची ने नारियों वाला ‘असली ब्रह्मास्त्र’ भी प्रयोग कर ही दिया।

मैं अपना सामान लिए बाहर आया। चाचाजी का चरण-स्पर्श करते हुए बोला- क्षमा करेंगे चाचाजी.यदि कोई उदण्डता हो गयी हो। पिताजी कहा करते थे कि जहाँ तक हो सके किसी को कष्ट नहीं देना चाहिए अपने स्वार्थ में। मेरी वजह से चाची को परेशानी हो रही है, फिर उचित नहीं है यहाँ रहना। ’

धर्मसंकट में पड़े चाचाजी एक शब्द भी नहीं बोल सके थे। बोलते क्या? स्त्रैण पुरुषों में विवेक बचा ही कहाँ रह जाता है? यदि होता तो उस दिन पंचों की क्या मजाल थी, जो अनैतिक विभाजन करके आपस में ही एक दूसरे की पीठ थपथपा रहे थे।

चाची की भनभनाहट अभी भी कानों से टकरा रही थी, जो पाले गए भतुये की तुलना भर्तार से कर रही थी। उनका प्रलाप अभी लम्बा खिंचेगा, यह निश्चित है। क्यों कि ‘बैरोमीटर’जल्दी बैलेंस नहीं होता उनका।

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बगल में विस्तर, एक हाथ में सूटकेस, और दूसरे में थैला लिए चल पड़ा था मैं पटेल कॉटन कम्पनी के कम्पांउण्ड से बाहर, पैदल ही अपने गन्तव्य की ओर, क्यों कि जेब में तांगा-टैक्सी का किराया कहाँ था;और ट्राम में इतने सामान का गुजारा कहाँ था।

हरिशन रोड स्थित राजपूत ब्रदर्श रेस्टुरेन्ट के पास से गुजर रहा था कि पीछे से आती हुयी गाड़ी के कर्कश हॉर्न से चौंक कर बगल हट गया। गाड़ी आकर खड़ी हो गयी ठीक बगल में। ड्राइविंग साइड का गेट खोल, बाहर निकल, करीब आकर मीना ने कहा -‘यह क्या खानाबदोश सा बाना बना रखे हो कमल! इतना सारा

समान, और उठाए चले आ रहे हो सर पर। कोई सवारी नहीं मिली?’

कुछ झेंपता हुआ सा मैंने कहा था - जीवन के बोझ से कहीं ज्यादा भारी बोझ नहीं है मीनू।

‘फिर लगे अपना दर्शन बघारने? कितनी बार कहा, यह सब अंट-संट न सोचा करो। ’- कहती हुयी मीना मेरे हाथ से विस्तर ले, गाड़ी की डिक्की खोल अन्दर रख दी। झोला और सूटकेस मैं खुद ही रख दिया।

सामान गाड़ी में रख कर मीना ने कहा-‘आओ पहले कुछ लेलिया जाए यहाँ। तुम जानते ही हो कि राजपूत ब्रदर्श की कचौरियाँ मेरी कमजोरी हैं। ’

अन्दर जाकर हमलोग एक केविन में बैठ गए। बैठने के साथ ही मीना ने सवाल किया- ‘सच बताओ कमल! पैसे नहीं थे पास में न, इसी वजह से पैदल जा रहे थे? मेरी इच्छा उसी समय थी, साथ चल कर तुम्हारा सामान लिवा लाने की, किन्तु तुम्हारी चाची....। ’

तब तक बैरा दो प्लेटों में पहाड़ सा एक-एक कचौड़ी सब्जी और चटनी के साथ लाकर रख दिया मेज पर।

‘और क्या लाऊँ मेम साऽब?’- बैरे के पूछने पर मीना ने मेरी ओर देखा, मगर मेरे विचार की प्रतीक्षा किए बगैर ही आदेश दे दी- ‘छेना पायस। ’

मेरी अँगुली पर दस्तक सी देती हुयी बोली- ‘क्यों-मेरी बात का जवाब नहीं दिये?’

मैं उसे मौन, निहारता रहा। आखिर जवाब क्या देता? क्या सफाई था, रंगे हाथ पकड़े गए मुजरिम के पास?

मुझे मौन पाकर वह कहने लगी- ‘तुम्हारे दिल की हर धड़कनों का ‘कार्डियोग्राफ’ है मेरे पास कमलभट्ट! तुम्हारे मन की प्रत्येक भावनाओं की तस्वीर है मेरे दिल के कनवैस पर। तुम चाह कर भी अपने मनोंभाव छिपा नहीं सकते। विगत बर्षों के तुम्हारे सम्पर्क ने मुझे बहुत कुछ अनुभव कराया है। बहुत भोले हो तुम। यह भोलापन ही खाये जा रहा है तुम्हें। तुम ज्योतिषी हो, पर सिर्फ हाथ की रेखाएँ ही पढ़ना जानते हो;किन्तु मैं तुम्हारे चेहरे की रेखाओं को पढ़ सकती हूँ , जो दूरदर्शन के पर्दे की तरह तुम्हारे विचारों के हर छवि को मेरी आँखों के माध्यम से मेरे हृदय और मस्तिष्क तक अनवरत् पहुँचाते रहती है। ’

मीना अभी शायद कुछ और कहती जाती भाउकता के वेग में, कि बैरा पुनः केविन का पर्दा सरका कर अन्दर आ.दो प्लेटों में छेना पायस रख गया।

मेरी ओर एक प्लेट सरकाते हुए बोली-‘लो, पहले खाओ इसे। मेरी बातों का बुरा मत मानना। वास्तव में तूने आज जो गठरी उठाई है अपने कंधे पर, पैसे के अभाव में, उसकी बोझ का घट्ठा पड़ गया है मेरे दिल पर। विधाता के दरबार में भी बटवारा- लगता है अनैतिक ढंग से ही हुआ है। मेरे पास इतने पैसे हैं कि खर्च करने का मद

सोचती हूँ, पर मिलता नहीं, अब क्या मोतियों को चावल की तरह खाऊँ? और एक तुम हो जो दो पैसे के अभाव में कुलियों की तरह बोझ ढोते चले आ रहे थे। ’

जरा ठहर कर फिर बोली- ‘ सच में नाराज हो गए क्या?’

‘नहीं मीनू!- मैंने कहा था, और वह मुस्कुराती हुयी, छेनापायस का एक टुकड़ा अपने मुंह में डाल, दूसरा मेरी ओर बढ़ायी- ‘तो फिर खाओ। ’

मेरी स्मृतियों में घूम गया- रात्रिभोज का वह दृश्य, जो अनचाहे ही मछली खिलाने का जिद्द करती मीना के कपोलों को छुला गया था- मेरे होठों से, और सिहर उठा एक बार फिर किसी अज्ञात अनुभूति से। सच में मुझे क्या होता जा रहा है, इधर दो-चार दिनों से?

विगत दो-ढाई बर्षों से परिचय हुआ है मीना से, जो दिनानुदिन बढ़ता ही जा रहा है, घटने का नाम नहीं जरा भी। परन्तु पहले तो कभी ऐसा अनुभव नहीं होता था। अब ऐसा क्यों हो रहा है -समझ

नहीं आता। क्या औरों को भी ऐसा ही हुआ करता है?

फिर एक के बाद एक कई छवियाँ उभर आयीं- स्मृति पट पर- अर्द्ध निर्वस्त्र भाभी की जांघें, भैया का जोरदार चुम्बन, वसन्त की बेतुकी बातें, शादी की बात पर शक्ति की हथेली पर उभर आयी पसीने की बूंदें, सुर्ख हो गए कपोल, सावित्री की गोद में पड़ा सत्यवान का शरीर, टॉमस की भूरी आँखों में किसी अज्ञात आमन्त्रण की छाया....टॉमस एक लड़की...शक्ति एक लड़की...मीना एक लड़की...।

बदन में कुछ कपकपी सी महसूस होने लगी, साथ ही स्पर्श का एहसास हुआ।

‘किस गहन चिन्तन में हैं ज्योतिषी जी?’- मीना, प्लेट पर चम्मच से जलतरंग सी बजायी।

नींद से मानों जाग उठा। खमोश देख मीना कहने लगी-‘चिन्तन छोड़ो, नास्ता करो। पापा प्रतीक्षा कर रहे होंगे। उन्हें खिदिरपुर जाना है। ’

मीना के हाथ से मिठाई का टुकड़ा लेकर खाते हुए मैंने कहा- अनावश्यक एहसान से दब रहा हूँ - यही सोच रहा हूँ।

‘एहसान कैसा, किस बात का? यह तो इनसान का इनसान के लिए फर्ज हैं। तुम्हारे पास प्रतिभा है, मेरे पास पैसा, किन्तु क्या इस तुच्छ दौलत से प्रतिभा पायी जा सकती है? नहीं, कदापि नहीं। यह तो ईश्वरीय प्रसाद है। ’ मीना ने मेरी बात का खण्डन किया।

जलपान समाप्त कर हमलोग बाहर आए, गाड़ी के पास। मैं पिछला गेट खोलने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि टोक दिया उसने- ‘उधर क्यों, इधर बैठो। ’- और खुद आगे बैठ गयी।

एक बार उसके मासूम मुखड़े को देखा, जिसमें स्नेह झलक रहा था माँ-बहन जैसा, साथ ही आदेश भी था-अभिभावक की तरह। उसके आदेशानुसार मैं जा बैठा अगले सीट पर, उसके बगल में ही।

मेरे बैठते के साथ ही कार का एक्सीलेटर कराह उठा, उसके कोमल पांव के दबाव से। सड़कों की भीड़ को चीरती गाड़ी हवा से बातें करने लगी।

इतनी भीड़ में ये रफ्तार? धीरे क्यों नहीं चलाती?- -मेरे टोकने पर स्पीड थोड़ा और बढ़ा दी।