निरामय / खंड 4 / भाग-10 / कमलेश पुण्यार्क

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वसन्ती नास्ता लाकर टेबल पर रख गयी। उसके जाने के बाद मैंने पूछा- साड़ी क्यों बदल दी? अच्छा तो लग रहा था, विशुद्ध भारतीय पहरावा।

अलग-अलग प्लेटों के नास्ते को एकत्र करती हुयी बोली- ‘बाप रे! यह छः गज की लम्बी थान लपेटे जिस समय स्कूल पहुचुँगी, लड़के-लड़कियाँ सब हँसती-हँसती लोट जायेंगी। अच्छा तो मुझे भी लगता है साड़ी पहनना, फिर भी सिर्फ मन्दिर जाने के लिए ही इसे इस्तेमाल करती हूँ। ’

‘तभी तो पंडित ने कहा था...। ’ मैं कह ही रहा था कि बीच में ही बोलने लगी- ‘मिल गया न तुम्हें एक बहाना मुझे चिढ़ाने का? छोड़ो पंडत-वंडत की बात, आओ नास्ता करो। ’

सारी कचौडि़याँ तो अपने प्लेट में डाल ली, मैं क्या खाली प्लेट चाटूँ?--हँसते हुए मैंने कहा।

‘आज से हमदोनों साथ-साथ खायेंगे। तुम्हें कोई आपत्ति तो नहीं है न इसमें?’ - होठों के साथ-साथ पलकों ने भी सवाल किया।

यदि तुम्हें आपत्ति नहीं तो मुझे क्यों हो? वैसे भी अपना जूठा तो तुम पहले ही खिला कर रिहर्सल करा ही चुकी हो, अब स्टेज शो भी शुरू ही हो जाए। - मेरी बेवाक टिप्पणी पर पहले तो शर्मायी, उस दिन की बात याद करके, और फिर हठाकर हँस पड़ी। मैं भी उसे साथ दिए वगैर न रह सका। हँसी के पटाखे बड़ी देर तक फूटते रहे कमरे में।

नास्ता करके हमदोनों पुनः निकल पड़े गाड़ी लेकर। कुछ आगे बढ़ने पर गाड़ी बायें के बजाय दायें मुड़ी तो बरबस ही मेरे मुंह से निकल पड़ा- ‘स्कूल का रास्ता भूल गयी हो क्या आज? इधर कहाँ जा रही हो? वसन्त के डेरे का रास्ता भी तो नहीं है यह। ’

कंधे मटकाती हुयी वह बोली- ‘तुम्हारे साथ रह कर भूलना भी न सीखी तो फिर....। ’

‘तो क्या मैं भुल्लकड़ हूँ?’- पूछता हुआ मैं सामने लगे शीशे को इस तरह सेट करने लगा, ताकि उसका चेहरा उसमें नजर आने लगे।

‘यह क्या कर रहे हो? मुझे छेड़ने से जी न भरा तो बेचारे शीशे को छेड़ने लगे? शीशे पर से मेरा हाथ हटाते हुए बोली।

‘यह भी तुम्हें ही छेड़ने का एक जरिया है। ’- कह कर मैंने फिर से ठीक कर दिया शीशे को। मीना का भोला मुखड़ा साफ नजर आने लगा अब शीशे में।

‘कहीं मैं भी छेड़ने लगूं तुम्हें, तब...?’-अचानक सामने आ गए कुत्ते को देख कर ब्रेक जोरों से चापना पड़ा। जोरदार झटके से मैं आगे झुक कर दाएँ लुढ़क सा गया उसकी ओर। पुनः सम्हल कर बैठते हुए बोला-‘इसीलिए कहता हूँ कि गाड़ी धीरे चलाया करो। ’

‘यदि मेरे धीरे चलाने से ये लावारिश कुत्ते सड़कों पर सही तरीके से चलने लग जाएँ तो मैं गाड़ी इतना धीरे चलाने लगूँ.....। ’-कहती हुयी एक्सीलेटर लगभग छोड़ दी। मैंने स्पीडोमीटर पर देखा- कांटा पांच से भी नीचे आ गिरा था। फिर खुद ही स्पीड बढ़ा दी, दाहिनी ओर एक शून्य बढ़ गया। मीना के लिए यह नॉर्मल स्पीड है।

आखिर कहाँ लिए जा रही हो?- मैंने साश्चर्य पूछा था।

‘जहन्नुम में। चलोगे न साथ में?’- बायें हाथ से मेरे बगल में गुदगुदी करती हुयी बोली।

‘जन्नत हो या जहन्नुम, हमसफर बना हूँ तो जाना ही पड़ेगा। ’ -मैंने भी गम्भीर भाव से कहा।

गाड़ी एक भव्य सिंहद्वार से गुजर कर, विस्तृत लॉन में, शिरीष के पेड़ के नीचे आकर खड़ी हो गयी। सामने ही नजर आया- पर्यटन स्थल- ‘विक्टोरिया मेमोरियल’ का आलिशान भवन।

हमदोनों गाड़ी से बाहर आए। मीना ने एक खोमचे वाले से अंगूर का पैकेट लिया। टाइम-टावर पर देखती हुयी बोली- ‘अभी तो बहुत समय है। आओ तब तक इधर ही बैठा जाए। ’

चारो ओर हरी-भरी दूब का प्रसस्त कालीन सा बिछा था। लगता था विश्व प्रसिद्ध ‘ओबरा’ का सारा कालीन यहीं आ गया है। ऊपर से शिरीष के मुदु मदमस्त कुसुम हवा के मन्द झोंकों से टप-टप चू से रहे थे। लगता था- सुहाग सेज की हरी चादर पर रजनीगन्धा की टूटी पंखुडि़याँ बिखरी हुयी हैं। तेज झोंके में उड़ कर बगल के गुल-

मोहर से बिछड़ा अरूणाभ कुसुम भी जबरन आ घुसा है रजनीगंधा का सानिध्य ढूढ़ते। मेंहदी की टट्टियों को फूल की क्यारियों का पहरेदार बनाया गया था। वसन्त का मनोहर मौसम मानव से लेकर लता-गुल्मों तक में रस संचार कर गया था। वातावरण बड़ा ही सुहावना लग रहा था। रविवार का दिन होने के कारण आगन्तुकों की

भीड़ थी। चारो ओर रंगीन जोड़ों की जमात लगी थी।

इधर-उधर देख कर मीना एक प्रसस्त जगह में बैठ गयी, और मुझे भी बैठने का संकेत दी।

इतनी जल्दबाजी क्या थी यहाँ आने की?अभी लगता है कि घंटे भर बाद ही गेट खुलेगा। - मेरे कहने पर मीना ने अजीब सा मुंह बना कर पूछा- ‘क्यों यहाँ बैठ कर प्रकृति का आनन्द लेना तुझे रास नहीं आता? मेमोरियल तो पचासों दफा घूम चुकी हूँ। ’

अच्छा, तो रविवार की रंगीनी लूटने के विचार से आयी हो?-कहता हुआ बैठ गया उसके समीप ही। बहुत देर तक हमलोग यूँही बैठे गप्प मारते रहे थे। मीना एक अंगूर होठों से दबाते हुए पूछी,

‘कैसा लग रहा है यह अंगूर?’

मैंने भी एक अंगूर उठा कर मुंह के हवाले किया, और बोला - ‘बिलकुल अंगूर जैसा ही। ’

‘और क्या कद्दू जैसा लगता?’- कहती मीना लोट गयी थी उस प्राकृतिक गलीचे पर। बगल में गिरे पड़े गुलमोहर के एक फूल को उठा, मेरे मुंह पर फेंकती हुयी बोली-‘मेरे कहने का मतलब यह है कि कैसा लगा ‘यह’ अंगूर? मुझे तो इस खोमचे वाले का अंगूर बहुत ही अच्छा लगता है। जब भी इधर आती हूँ , जरूर लेती हूँ ।

हमेशा यह यहीं बेचा करता है। सारे कलकत्ते में इसके जोड़ का नहीं है। ऐसा लगता है कि पेड़ से तोड़ कर सीधे यहीं चला आता है बेचने के लिए। ’

‘हाँ, ठीक कहती हो, जरूर अच्छा लगता होगा यह ताजा अंगूर। मेरे गाँव में भी बड़ा सा एक पेड़ है, वरगद के पेड़ जैसा; उसमें सेव-नाशपाती जैसा बड़ा-बड़ा अंगूर फलता है। ’- नकली गाम्भीर्य ओढ़े मैंने कहा।

‘ कहोगे क्यों नहीं फलता ही होगा, बड़े से पेड़ में बड़ा सा अंगूर। ’ मीना ने तुनक कर कहा था।

‘तुनकने की क्या बात है? तुम्हारे यहाँ बंगाल में अंगूर क्या बल्लरियों में फलने के बजाय पेड़ों में ही फला करतें हैं?’- मेरी बात सुन कर उसे अपनी भूल का एहसास हुआ।

इसी प्रकार की बे सिर-पैर की बातें घंटों होती रही थी; परन्तु इसी में हमदोनों इतने भावविभोर हो रहे थे, मानो दुनियाँ की सारी खुशियाँ सिमट कर यही आ गयी हों।

फिर मैंने कहा था- कल से तो स्कूल खुल जाएगा।

‘स्कूल तो खुल ही जाएगा। एक नया ट्यूशन भी शुरू करना है, बनर्जी सर के पास। उधर सुबह में दो घंटे केदार सर.इधर शाम में दो घंटे बनर्जी सर, बीच के छः घंटे स्कूल। फिर फालतू वक्त ही कहाँ होगा, जो मटरगस्ती करनी हो, कर लें आज भर। ’

‘तो क्या हुआ, अच्छा ही है। मैथ और ईंगलिश दोनों ही तो जरूरी है। अब परीक्षा में देर ही कितनी है? अगले बर्ष इसी मार्च में तो हमलोगों की परीक्षा होगी न?- -मैंने चिन्ता व्यक्त की।

‘सो तो है ही। परन्तु सप्ताह में एक दिन भी समय नहीं मिल पायेगा घूमने फिरने का। ’-गुलमोहर का एक फूल उठाकर मेरी ओर फेंकती हुयी मीना ने परेशानी जाहिर की, - ‘ पापा कह रहे थे कि सन्डे को मिश्रा सर के पास संस्कृत पढ़ लिया करो, कम से कम सप्ताह में एक बार भी गाइड कर देंगे तो हो जाएगा। मेरा तो माथा

ही खराब हो जाएगा इतना पढ़ते-पढ़ते। ’

क्या हर्ज है, कुछ दिन की तो बात है। पढ़ने के लिए कष्ट उठाना ही पड़ता है। हाईयर सेकेन्ड्री बोर्ड एक्जाम के बाद इत्मीनान से दो महीने सिर्फ घूमती ही रहना, खानाबदोश की तरह गधे-खच्चर सब लेकर। - -मैंने कहा, तो मीना अचकचा गयी।

‘क्या बकते हो गधे-खच्चर लेकर घूमने जाऊँगी?’

‘हाँ, एक पर तुम बैठना, एक पर मैं और सारा दिन कलकत्ते की गलियों और सड़कों पर घूमा करेंगे। ’- मेरे कहने पर मीना हँसती-हँसती लोट सी गयी।

काफी देर तक हमलोग इसी तरह की बातों में उलझे रहे। करीब ग्यारह बजे गोष्ठी खतम हुयी।

‘चलोगी या मेमोरियल घूमने का मन है?’- मैं खड़ा होते हुए पूछा।

‘मेरी तो इच्छा नहीं है। ’- कहती हुयी वह भी उठ ख्ड़ी हुयी।

‘तो फिर चला जाए वसन्त के डेरे तरफ। उसे भी साथ लेकर स्कूल चला जाएगा, मूर्ति विसर्जन की तैयारी में। ’- कहता हुआ गाड़ी की ओर बढ़ ही रहा था कि मीना ने इशारा किया- ‘ उधर देखिये जरा- आपके भैया-भाभी पधार रहे हैं। ’

मैं चौंक कर देखने लगा- यह कहते हुए कि मेरे कौन भैया-भाभी कहाँ से आ टपके यहाँ?’

मीना की अंगुली के इशारे की दिशा में नजरें गयी तो पाया कि वसन्त और टॉमस हाथ में हाथ डाले, डोलते-चलते चले आ रहे हैं गेट के अन्दर।

‘तो क्या यह मेरी भाभी है?’

‘भाभी नहीं तो और कौन है?’- सवाल के बदले मीना ने भी सवाल कर दिया, और आगे बढ़ कर अपनी गाड़ी का हॉर्न एक खास अन्दाज में बजाने लगी।

यह क्या कर रही हो?- मेरे पूछने पर कहा था उसने- ‘थोड़ा सब्र करो, तुरत तुम्हें पता चल जाएगा कि मैं क्या कर रही हूँ। ’

मीना के कहने पर हमने गौर किया। देखा कि वसन्त चौकन्ना होकर इधर-उधर देख रहा है, मानों किसी को ढूढ़ रहा हो; और फिर अचानक पलट पड़ा- जिधर हमलोग थे। अपने आदतन, दूर से ही आवाज लगायी उसने- ‘वाह जनाब! आपलोग इधर नजारे लूट रहे हैं और मैं घंटे भर घर में इन्तजार कर-कर के बोर हुआ। ’

नजदीक आने पर मीना ने कहा- ‘बोर, और तुम? टॉमस साथ में हो तो मुर्दे भी हँसने को मचलने लगते हैं, और जिन्दा आदमी बोर होने लगेगा?’- फिर टॉमस को इंगित कर बोली- ‘क्यों टॉमस बोर क्यों होने दी अपने प्यारे वसन्त को?’

मीना की बात पर सभी कहकहा लगा उठे। मीना के कथन का अभिप्राय समझ टॉमस चिहुंक पड़ी, साथ ही दो दिनों पूर्व की बात भी याद आ गयी। मन ही मन कुढ़न भी हुआ, जो उसके चेहरे से स्पष्ट झलक रहा था; किन्तु कर ही क्या सकती थी। प्रत्यक्षतः सिर्फ इतना ही कह पायी- ‘तुम इन्डियन लोग बहोत तेज होता, हम जानता। हम तो तुम्हारे जैसा एक्सपर्ट नहीं है। ’

मीना और टॉमस की आपसी बातों की गहराई को समझ कर वसन्त ने माहौल बदलने पर पहल की-‘तुम लोग कब से यहाँ हो?’

‘लगभग दो घंटे से। ’- मैंने कहा- ‘ सुबह मीना साथ लेकर काली मन्दिर चली गयी.फिर नास्ता करके इधर आ गए। अब यहाँ से सीधा तुम्हारे घर पहुँचता, और फिर तुमको लेकर स्कूल। -मैंने पूरी योजना स्पष्ट की।

‘मैं तो तुमलोग को देख कर समझी कि मूर्ति विसर्जन आज विक्टोरिया मेमोरियल में ही होना है। ’-मीना फिर तीर छोड़ी।

‘तुम अपने हॉर्न का सिगनल नहीं दी होती तो मूर्ति का विसर्जन हो या न हो, आज के दिन का विसर्जन तो निश्चित था, हो ही जाता यहीं पर। कमल समय पर मेरे यहाँ पहुँचा नहीं। मेरा भी मूड ऑफ हो गया। स्कूल जाने का विचार छोड़, चल दिया टॉमस के यहाँ। ’- मीना की बातों का जवाब देते हुए वसन्त ने फिर कहा- ‘मगर तुम

भी बेजोड़ हो, तुम्हें गुप्तचर विभाग में रहना चाहिए। तुम्हारे हॉर्न बेजोड़ है। खैर अब सभी इकट्ठे हो ही गए हैं, तो स्कूल का कार्यक्रम क्यों स्थगित किया जाए। ’

‘तो फिर देर क्यों?’-मीना ने कहा- ‘चलो गाड़ी में बैठो। ’

उसके कहने पर हम सभी चल दिए। वसन्त और टॉमस पीछे बैठ गए, मैं पूर्ववत अपनी जगह पर, आगे मीना के साथ;और गाड़ी चल पड़ी स्कूल की ओर।

उस दिन सारा समय गुजर गया स्कूल में ही। दोपहर भोजन का प्रबन्ध भी विद्यालय परिसर में ही था। वसन्त ने मीना की ओर देखकर कहा- ‘ आज फिर कुछ गड़बड़ मत कर देना मीना! खिलाने-पिलाने में। ’- उसका आशय समझ मीना लाल हो गयी।

मूर्ति विसर्जन आदि से निवृत होकर संध्या सात बजे हमलोग वापस आए। वसन्त अपने डेरे पर चला गया। टॉमस गंगा किनारे ही हमलोगों का साथ छोड़ चुकी थी। उसे सलकिया जाना था, किसी मित्र से मिलने, व्यवसाय के सिलसिले में।

दूसरे दिन से ही मीना के साथ मेरा भी ट्यूशन जाना प्रारम्भ हो गया था। केदार बाबू के पास तो तब से ही जा रहा था, जब से घर छोड़ कलकत्ता आया था। बंकिम अंकल की कृपा से बनर्जी सर के पास भी जाना निश्चित हो गया। चाची का कहना था कि मीना और कमल मेरी दो आँखें हैं। इन पर दुराव कैसा?’

दोनों जगह मीना और वसन्त साथ थे। वसन्त पहले से ही दोनों विषय पढ़ रहा था, क्यों कि उसका मैथ बहुत कमजोर था। सप्ताह में एक दिन- रविवार को हम और वसन्त मामाजी से संस्कृत पढ़ा करते थे। जैसा कि मीना ने बतलाया था, अगले रविवार से वह भी वहाँ जाने लगेगी।

प्रातः छः बजे तैयार होकर केदार बाबू के यहाँ जाना। आठ बजे वहाँ से आकर स्कूल का टास्क बनाना, फिर दश से चार बजे तक स्कूल की व्यस्तता। संध्या पांच बजे से सात बजे तक बनर्जी सर के

पास, वहाँ से वापस आ, नास्तादि से निवृत हो रात आठ से ग्यारह बजे तक मीना के साथ घर में पढ़ाई करना। फिर भोजन, कुछ देर गपशप और तब शयन - यही हमदोनों की दिनचर्या बन गयी थी। इधर-उधर घूमना-फिरना, या अन्य उपलब्ध मनोरंजन के साधन- रेडियो, टेप बिलकुल बन्द हो गए थे। धीरे-धीरे इसी वातावरण में ढल गया था। मीना भी हर प्रकार से साथ देती थी, साये की तरह।

बगल कमरे में एक दिन चाची को कहते हुए सुना- ‘मीना इधर पढ़ाई पर बहुत ध्यान दे रही है। ’

‘यह सब कमल के साहचर्य का प्रभाव है। पहले तो इसे जरा भी मन नहीं लगता था- पढ़ने में। ’- पुलकित होते हुए चाचा ने चाची की बातों का जवाब दिया था।

मेरे सामने ही कुर्सी पर बैठी थी मीना, किताबों पर नजरें गड़ाये। सिर उठा कर बोली- ‘जनाब! कुछ सुना आपने ?’

‘क्या?’- कलम को गाल पर टिकाते हुए मैं भी सिर ऊपर किया।

‘वाह, मेहनत करते-करते मेरे गाल धंसे जा रहे हैं, और बड़ाई हो रही है जनाब-ए-आलम की। ’- अपनी किताब को बन्द करती हुयी मीना ने कहा।

‘तो इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं, धँसने दो अभी गालों को।

परीक्षा खतम हो जाने दो, फिर चल कर दो-चार मन अंगूर खिला दूँगा- उस अनोखे खोमचे वाले से लेकर। ’-जरा गम्भीर भाव से मैंने कहा, और सिर झुका कर पुनः लिखना प्रारम्भ कर दिया।

‘बाप रे! परीक्षा के बाद ये खिलायेंगे हमको अंगूर, वह भी पैकेटों में नहीं. ‘मनों’ में। तब तक तो मैं सूख कर स्वयं ही किसमिस बन गयी रहूँगी। ’- मेरे हाथ से कलम छीनती हुयी मीना ने कहा।

इसी प्रकार कुछ देर तक हँसी-मजाक चलता रहा था, फिर पढ़ाई पर जुट गए थे दोनों।

मार्च से लेकर अक्टूबर तक यानी आठ महीने का साहचर्य एवं गहन अध्ययन-मनन, काफी कुछ प्रौढ़ बना गया था हमदोनों के हृदय एवं मस्तिष्क को। रात्रि विश्राम के मात्र आठ घंटों की दीवार के अलावा शेष अधिकांश समय साथ ही व्यतीत होता था। इस बीच हमदोनों को काफी मौका मिला था एक दूसरे को समझने-बूझने का,

अनुभव करने का। अनुभूतियों का एक लम्बा फेहस्ति बन गया था इस दौरान।

सायंकालीन अध्ययन चल रहा था। किताब पर ठुड्डी टिकाती हुयी मीना ने कहा था- ‘कल महालया है। चार बजे भोर में कलकत्ता रेडियो पर “श्री दुर्गा सप्तशती" का पाठ होगा। उठोगे न सुनने के लिए?’

‘क्यों नहीं जरूर सुनुँगा। बर्षों की प्रतीक्षा के बाद यह अवसर आता है। इसी दिन तो थोड़ा आभास होता है कि भारतीय संस्कृति अभी भी जिन्दा है। अन्यथा बाकी दिन तो रेडियो सिर्फ फिल्मी ‘श्लोक’ ही सुनाया करता है। ’- मीना की बातों पर मैंने अपनी सम्मति दी।

फिर याद आ गयी थी- परसों से शारदीय नवरात्र प्रारम्भ हो जायगा। कितने धूम-धाम से मनाया जाता था यह त्योहार हमारे घर पर- जब पिताजी होते थे;पर्व-त्योहारों का रौनक ही कुछ और होता था। अब तो...। इधर घर गए भी बहुत दिन हो गए, पिछली बार जून में यानी अब से कोई सोलह महीने पहले। पिताजी के अन्तिम दर्शन के बाद चाह कर भी घर न जा सका हूँ। पिछले दशहरा में चाचाजी जाने ही नहीं दिये थे। ग्रीष्मावकाश यहीं बीत गया। माँ क्या सोचती होगी? जो भी हो, इस बार जरूर घर जाऊँगा - सोच ही रहा था कि मीना बोली- ‘दशहरा में घर जाने का प्रोग्राम बना कर मेरा मजा मत किरकिरा कर देना। बस दो महीने बाद ही तो दिसम्बर में टेस्ट-

एक्जाम होना है। फिर एक दफा इत्मीनान से गाँव की सैर कर आना। कारण कि तुम न रहोगे तो मेरा मन नहीं लगेगा। न पढ़ने में न अकेली रहने में ही। ’- पलक झपकते ही मीना मेरा प्रोग्राम चौकआउटकर दी थी। मैं उसका मुंह ताकता रह गया था। फिर रूआंसा सा होकर मैंने कहा था- माँ क्या सोचेगी मीना, जरा इस पर भी तो ध्यान दो। सिर्फ अपने....। ’

मेरी बात को बीच में ही काटती हुयी बोली- ‘सोचेगी क्या?बेटे का मन पढ़ाई में खूब लग रहा है और क्या। एक पत्र लिख दो कि दो माह बाद अवश्य आऊँगा। ’

मैं कुछ कहना ही चाहा कि पुनः कहने लगी- ‘कमल! न जाने क्या होता जा रहा है मुझे आजकल। तुमसे पल भर के लिए भी अलग होने की कल्पना मात्र से ही घबराहट होने लगती है। पता नहीं ईश्वर की क्या इच्छा है, कब तक निभायेगा हमलोगों का साथ?’

कुर्सी के हत्थे पर टेका लेते हुए जरा गम्भीरता से मैंने कहा था- -लगता तो मुझे भी कुछ ऐसा ही है मीनू। तुमसे अलग रहने की कल्पना भी नहीं कर सकता हूँ मैं। तूने ही तो मुझे जीना सिखलाया;अन्यथा मैं तो निराशा के घनघोर जंगल में भटक ही गया था। पहले निराशा के इन घडि़यों में ही सहारा बनता था लेखन;किन्तु

अब लगता है कि निराशा तो क्षीण आशा किरण में परिर्तित हो चुकी है, पर लेखक तो मर ही गया है मेरे अन्दर का। खैर थोड़ा सन्तोष है- चाची ने निष्कासित किया अपने आवास से तो तुम्हारे मम्मी-पापा ने शरण दी-सप्तपर्णी की छांव बन कर। डूबते को तिनके का भी सहारा हो जाता है;यहाँ तो नाव है, सुदृढ़ पतवार लगी है जिसमें।

‘अब निर्भर है माझी पर, पार ले जाता है, या डुबोता है बीच भँवर में ही। कह कर मीना हँसने लगी थी। हालाकि उसकी यह असामयिक हँसी मुझे कुछ अच्छी न लगी थी।

दशहरे का दिन, चिर प्रतीक्षित पर्व का दिन। सुबह से ही मीना सजधज कर तितलियों की तरह उड़ती फिर रही थी, कभी इस कमरे में तो कभी उस कमरे में। स्कूल की कई लड़कियाँ आयी थी उस दिन घर पर मिलने के लिए। प्रोग्राम बना सुबह आठ बजे ही निकल चलने की।

‘आज कलकत्ते का सारा पंडाल छान मारा जायेगा। एक भी छोटा या बड़ा पडाल छूटना नहीं चाहिए। ’-बच्चों सी मचलती हुयी मीना ने कहा था।

वैसे हमलोगों का विचार था, गाड़ी लेकर ही चलने का। इसीलिए सुबह ही रामू को आदेश देकर गाड़ी धो-पोंछ कर ठीक करवा ली थी;किन्तु किरण, कल्पना, अरूणा, नीता आदि सहेलियाँ आकर प्रोग्राम बदल दी। मनोज भी आ गया मोहन और विजय को लेकर। पीछे से पांडुरंग और नैयर भी आ गए।

‘इतने लोगों के लिए तो ‘फियट’ की वजाए मीनी बस ही चाहिए। ’- मीना ने हँस कर धीरे से कहा था, और फिर सबको सुनाकर बोली- ‘क्यों न हमलोग नजदीक के पंडालों को पैदल ही घूम आयें। ’

मीना के प्रस्ताव को ध्वनि मत से स्वीकृति मिली। उधर वसन्ती भी आज बहुत खुश नजर आ रही थी। सुबह से ही कीचन में युद्ध स्तर पर भिड़ी नजर आयी। चाची ने गत रात ही निर्देश दे दिया था- ‘सुबह के नास्ते का विशेष प्रबन्ध करना है। मीना की सहेलियों के साथ-साथ इस बार तो कमल के भी कुछ दोस्त आयेंगे ही। बिना खाए-पिए किसी को जाने नहीं देना है। बड़प्पन इसी का नाम है। आजकल तो अपना करीबी भी आ जाए दरवाजे पर तो लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगने हैं। एक प्याली चाय भी महंगी लगती है। रोटियाँ भी गिन कर बनती है। कुत्ता खा जाए, कोई बात नहीं, कूड़ेदान में चला जाए कोई हर्ज नहीं, मेहमान या भिखारी को मयस्सर न होने पाए। ’

चाची की बात पर चाचा ने कहा था- ‘संत कवि की सूक्ति है-

ज्यों जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम;दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानों काम। परोपकार और आतिथ्य से ही धनागम होता है। महर्षि व्यास ने महाभारत में कहा है- भोजन निर्माण का सुगन्ध जहाँ तक जाए- वहाँ तक के व्यक्ति का अधिकार होता है- उस प्रसाद को पाने का। अभिप्राय यह है कि भोजन अकेले नहीं करना चाहिए। अपने श्रम और ईश्वर की कृपा से जो भी धनागम हुआ है, उस पर कई प्राणियों का अधिकार है। खास कर जरूरत मन्दों का। किन्तु आजकल हम पश्चिमी संचय-सुरक्षा-में विश्वास रखने लगे हैं। खलिहानों में ‘थायमेट’ विखेर देते हैं, फल-फूल-पौधों पर ‘मालाथियान’ छिड़क देते हैं ताकि जीव-जन्तु, पशु-पक्षियों को कुछ भी मयस्सर न हो सके। दमड़ी-दमड़ी जोड़ रहे हैं, चमड़ी का भी मोल दे कर। शायद इस आश में कि सब लेकर जायेंगे। ’- बंकिम चाचा भावमय होकर कहे जा रहे थे। उनकी बातों पर सभी गौर कर रहे थे।

वसन्ती सबके लिए नास्ते का प्रबन्ध कर चुकी। डायनिंग टेबल के आसपास ही अतिरिक्त कुर्सियाँ लगा दी गयी। हम सभी एक साथ जलपान किए।

मुस्कुराती हुयी मीना ने कहा- ‘सब तो आ ही गए, वसन्त नहीं आया। क्यों वसन्ती कुछ कहा था क्या उसने?’

मीना के कथन का अभिप्राय समझ कर सभी हँसने लगे। नैयर और पाण्डुरंग सबका मुंह ताक रहे थे, हँसी का रहस्य नहीं समझने के कारण।

नास्ता करने के बाद हम सबकी टोली निकल पड़ी। और फिर पास क्या, दूर-दूर तक चक्कर लगाते रहे थे, करीब ग्यारह बजे तक।

मीना थक कर चूर हो गयी थी। थक तो हम सभी गए थे। अतः अब वापसी का विचार कर एक टोली कई टुकडि़यों में बंट गयी।

लौटते वक्त हाजी-बिल्डिंग गए, किन्तु वहाँ वसन्त से मुलाकात नहीं हुयी। मामी ने कहा कि वह तो सुबह से ही लापता है, नास्ता भी नहीं किया, और बोल कर गया है कि देर रात भी हो सकती है। अतः हमदोनों बैरंग लौट आए। सीढि़याँ उतरते हुए मैने कहा कि तीन घंटे से चक्कर मारते-मारते टांगें टूट रही हैं। बहुत दिनों बाद इतना पैदल चला हूँ। - सुन कर मीना बोली- ‘कोई बात नहीं, घर चल कर मालिश कर दूंगी। ’

‘इतना भाग्यवान हूँ मैं?’

‘इसमें भाग्यवान होने जैसी क्या बात है? इतना ही लग रहा है, तो तुम भी मेरा सिर दबा देना। मेरा तो पैर से ज्यादा सिर ही दुःख रहा है। ’- मुस्कुरा कर मीना ने कहा था।

नीचे आकर रिक्सा लिए, डेरा पहुँचे। प्रतीक्षारत चाची ऊपर रेलिंग के पास ही खड़ी नजर आयीं। देखते ही पूछीं- ‘कहाँ-कहाँ चक्कर लगाए पैदल? थक तो काफी गए होगे तुम लोग?’

‘रावण की सेना को लेकर गाड़ी में जाना भी तो नामुमकिन था। ’- सोफे पर कटे रूख की तरह धब्ब से गिर कर मीना बोली।

हमलोगों को पसीने से लथ-पथ देख कर चाची ने कूलर ऑन करते हुए कहा-‘ठीक है, थोड़ी देर आराम कर लो, फिर तुमलोगों के लिए खाना निकालूंगी। ’ और पानी का गिलाश दोनों के हाथों में पकड़ा कर बगल कमरे में चली गयी, स्वयं भी आराम करने।

आधे घंटे बाद चाची ने आवाज लगायी- ‘चलो अब खाना खा लो। हमलोग तो खा चुके हैं। खाना परोसती चाची ने पूछा- ‘अब क्या प्रोग्राम है आगे?’

‘हमदोनों का प्रोग्राम तो सब बाकी ही है मम्मी। आप कब जायेंगी बाहर घूमने?’

‘तुम्हारे पापा अभी सो रहे हैं। जगें तो निकलें हमलोग भी। ’

खाना शुरू करने से पहले ही मीना एल.पी.प्लेयर ऑन कर दी थी, स्वीट साउण्ड में, जो अभी भी जारी था।

गाना सुनते-सुनते ही थकी आँखें झपक गयी थी। पास ही इजी-चेयर पर टांग पसार मीना भी सो गयी थी। करीब दो बजे चाचाजी ने जगाया- ‘उठो कमल! मीना तैयार हो रही है। तुम भी तैयार हो जाओ। तुम लोग ‘फियट’ ले जाओगे। हम तुम्हारी चाची के साथ पुरानी गाड़ी में चले जायेंगे । ’

ओफ, मीना ने मुझे जगाया भी नहीं- सोचता हुआ जल्दी से उठा और बाथरूम की ओर चल दिया मुंह-हाथ धोने।

तभी, वसन्ती ने आकर अपना दुःखड़ा सुनाया- ‘आप सभी तो चले जायेगे घूमने, और मैं क्या ओल छानूँगी यहाँ अकेले बैठे?’

‘तो तुम भी जाओ न, जहाँ जी आवे। रोके हुए कौन है तुम्हें?’- बालों में ग्रीप लगाती हुयी मीना बाहर आकर वसन्ती की बातों का जवाब दी।

‘नहीं दीदी, सो नहीं होने को। आज मैं भी आपके साथ चलूंगी- मोटर में। ’-बच्चों सी मचलती हुयी वसन्ती ने जिद्द किया।

‘अच्छा चलना। जा जल्दी से तैयार हो। ’- मीना बगल कमरे में चली गयी, भुनभुनाती हुयी- ‘कबाब में हड्डी। ’

‘मैं तो ‘बिहने’ से ही तैयार हूँ दीदी। ’-कह कर वसन्ती दौड़ती हुयी चली गयी थी नीचे। पहले ही जाकर गेट पर खड़ी हो गयी। उसे आशंका थी कि छोड़ न जायें।

थोड़ी देर बाद तैयार होकर मीना को साथ लिए हम नीचे आए थे। चलते वक्त मीना ने कहा था- ‘मम्मी! हो सकता है देर हो जाए लौटने में, क्यों कि नीता के यहाँ भी जाना है। आप लोग खाना खा लेंगे। ’

दो-चार पंडाल घूमने के बाद मीना ने वसन्ती से पूछा- ‘क्यों वसन्ती, सिनेमा देखे तो तुम्हें बहुत दिन हो गए हैं न?’

‘हाँ दीदी, उस बार आपके साथ ही तो देखी थी। ’- मीना की बात से वसन्ती को आशा जगी थी।

‘तो फिर देख लो न आज ही, मौका बड़ा अच्छा है। अभी तो तीन बजने में पन्द्रह मिनट बाकी है। ’-कह कर मीना ने पांच का एक नोट वसन्ती को देकर, गाड़ी ‘मूनलाइट’ के सामने पार्क कर दी।

खुशी से मचलती हुयी वसन्ती मीना के हाथ से नोट लेकर, गाड़ी से नीचे उतर कर भीड़ में गुम हो गयी थी।

राहत की सांस लेती हुयी मीना ने कहा- ‘पांच रूपये में बला टली। सुबह वानरी सेना ने प्रोग्राम चौपट किया। इस समय यह मुई साथ लग गयी। ’

क्यों खिसका दी बेचारी को?’- मुझे उसे हटा देना कुछ अच्छा नहीं लगा था। पता नहीं बेचारी क्या सोचती होगी। कितनी ही उतावली थी, गाड़ी में बैठ कर घूमने के लिए। पंडाल की परिक्रमा तो अकेले भी कर ही लेती, हमलोग का साथ तो गाड़ी के लोभ में ही पकड़ना चाही।