निरामय / खंड 4 / भाग-12 / कमलेश पुण्यार्क

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उसकी बातों का जवाब मैंने तपाक से दिया- ‘नहीं मीनू! माँ, मुन्नी और मैना के सिवा किसी से प्रेम नहीं किया। वैसे नाते रिस्ते, घर परिवार, टोले-महल्ले में बहुत लोग हैं, जिनसे स्नेह है; किन्तु स्नेह के प्रत्येक सूत्र को प्रेम के धागे में नगीं पिरोया जा सकता। ’

‘और मैं? मैं कहाँ हूँ तुम्हारी इस सूची में?’- मेरी आँखों में आँखें डाल गम्भीरता पूर्वक पूछा था, मीना ने।

‘पहले तो ऐसा कभी कुछ महसूस न किया था, पर....। ’- आगे के शब्द होठों के भीतर ही अटके रह गए थे -अब लगता है कि तुमसे भी हो ही गया है प्रेम।

और अपनी ही बात की विवेचना करने लग गया था। सोचने लगा था- प्यार हो गया है मुझे मीना से? वैसा ही जैसा कि हीर को रांझा से? मजनू को लैला से? महिवाल को सोनी से? मुझको मैना से? मुन्नी से?माँ से, वसन्त से, पिताजी से, रामू और भोला से और मीना से भी....? नहीं..नहीं..ऐसा कैसे हो सकता है? सबके प्यार एक जैसे कैसे हो सकते हैं? मुन्नी गोद में आ जाती है, कस कर उसे चूम

लेता हूँ, माँ भी मुझे गोद में लेकर चूमती है, वसन्त ने भी मेरे गालों को एक दिन चूम लिया था- कहते हुए कि तुम्हारे गाल बहुत चिकने हैं, पर टॉमस जैसे नहीं....।

.....पर कभी भी तो ऐसा-वैसा कुछ नहीं लगा था; किन्तु आज भयाक्रान्त मीना जब मेरे सीने से चिपटी थी, उसके कांपते पैरों को देखकर अभी-अभी उसे मैं गोद में उठा लिया था, क्यों कुछ अजीब सा लगा था उस समय? इस गर्मी में भी ठंढ महसूस हो रहा था। सांस तेज हो गयी थी। धौंकनी की तरह दिल धड़कने लगा था। कलेजे में गुदगुदी सी होने लगी थी....।

... आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? पहले तो कभी ऐसा न हुआ था। तो क्या औरों में और मीना में अन्तर है? कुछ है, अवश्य है कुछ न कुछ अन्तर....।

....माँ की गोद से भाग खड़ा होता हूँ, मुन्नी भी भाग जाती है मेरे गोद में आ-आ कर । पर जब मीना चिपटी थी सीने से तो हटाने की इच्छा क्यों नहीं हो रही थी?लगता था बारबार वह भयानक सीन आया करे। सोफे पर पड़ी मीना की जब आँखें खुली थी तो शरमा क्यों गयी थी, खुद को मेरी जांघों पर सोयी पाकर? भय था तो शर्म क्यों? भय और शर्म एक साथ एक स्थान पर टिक कैसे सकते हैं....?

इन्हीं विचारों में खोया था कि कॉलिंग बेल गरज उठा। मीना उठकर दरवाजा खोल दी। चाचा-चाची, रामू और वसन्ती सबके सब एक साथ प्रवेश किए घर में।

उस दिन दीपावली थी। सारा शहर दीपों की जगमगाहट से चकाचौंध था। मीना मिट्टी के दीए में ऐरंड तेल और रूई-बत्ती सजा कर मुझे देती जा रही थी। मैं उन्हें ले लेकर ऊपर कार्निश पर सजाते जा रहा था।

फिर उसने फुलझड़ी जलायी थी। एक अपने हाथ में पकड़ी, और दूसरी मेरे हाथ में दे रही थी। फुलझड़ी के प्रकाश में गुलाबी मैक्सी से आवेष्ठित मीना का काय सौष्ठव भी फुलझड़ी के समान ही चमक-दमक रहा था। मीना

से फुलझड़ी लेने के लिए मेरे हाथ बढ़ गए थे, उसके हाथ की ओर परन्तु गुस्ताख़ नजरें थी- उसके गुलाबी गालों पर, जो दीपमालिका के प्रकाश में और अधिक गुलाबी लग रहा था, बिलकुल ही गुलाब की पंखुडि़यों सी। फलतः मेरा हाथ जा लगा था फुलझड़ी के जलते भाग पर, नजरों की गुस्ताखी की सजा अंगुलियों को मिल गयी।

तर्जनी का पहला पोरुआ बुरी तरह जल चुका था। ‘ऊ...ई....’ की आवाज निकली मुंह से और हाथ की फुलझड़ी झट से फेंक, चट मेरी अंगुली मीना अपने मुंह में डाल ली थी।

‘यह क्या कर रही हो मीनू?अंगुली मुंह में क्यों लगा ली? गन्दी लड़की। ’- कहता हुआ मैं अपनी अंगुली खींच लिया था और उसके होंठ खुले ही रह गए थे- कौए के चोंच की तरह।

पीछे खड़े उसके पापा हँसने लगे थे- ‘मीनू बेटे इससे क्या होने को है? फौरन नीचे जाकर ‘बरनौल’ ले आओ। ’

मीना दौड़ती हुयी नीचे चली गयी थी, और बरनॉल का ट्यूब लाकर, एक कुशल परिचारिका की भांति मरहम-पट्टी कर दी थी मेरी अंगुलि पर।

इसे प्यार कहूँ या सहानुभूति? आखिर क्यों इतना ख्याल रखती है मेरे लिए? खाना-सोना, मेरे हर सुख-दुःख का कितना ध्यान है इसे, आखिर क्या है मेरे पास उसे दे सकने को;उसके त्याग, ममता ओर श्रम का उपहार? वस दिनों-दिन उसके एहसानों के बोझ तले दबता जा रहा हूँ। इस पूरे परिवार ने- चाचा-चाची और मीना ने, गंगा-यमुना-सरस्वती की त्रिवेणी की सी रचना कर दी है, मेरे सुख सुविधा के लिए। कहाँ मैं एक साधारण सा व्यक्ति, और कहाँ इनका असाधारण व्यक्तित्त्व। कोई तुलना नहीं, - राई और पर्वत, दीपक और सूर्य सा अन्तर है। फिर याद आ जाती है चाचाजी की वे बातें-

“कमल मेरे अधूरे कर्तव्य को पूरा करना, तुम्हारा कर्तव्य है। "

आखिर क्या है उनका अधूरा कर्तव्य? क्या करना है मुझे उनके अधूरे कर्तव्य को पूरा करने के लिए, अपनी ओर से प्रयास?-लाख सोचने पर भी कुछ समझ नहीं आता।

यूँ ही चिन्तन-मनन में खोया, उलझा सा सो गया था उस दिन। सोचते-सोचते सिर झनझनाने लगा था। हाथ से गाण्डीव सरकते अर्जुन सी स्थिति हो गयी थी, किन्तु कृष्ण ओझल थे आँखों से।

दशहरा, दीपावली, छठ, सब बीत गया। लम्बी छुट्टी का दौर समाप्त हो गया। नवम्बर के प्रथम सप्ताह में ही स्कूल खुल गया था। अन्तिम सप्ताह में ही टेस्ट परीक्षा होनी है -आज ही मामा ने बतलाया था।

हमलोग फिर पूरे जोर-शोर से पढ़ाई पर आ जुटे थे। अन्य सारी गतिविधियाँ- घूमना-फिरना, फिल्म देखना, गाने सुनना - सब बन्द। बस रह गया था सिर्फ पढ़ना-लिखना, खाना-सोना...।

घर से माँ की चिट्ठी आयी थी। मैना ने भी बड़े दैन्य भाव से आग्रह किया था, - ‘भैया! टेस्ट देकर जरूर आना....। ’

नियत समय पर परीक्षा प्रारम्भ होकर समाप्त हो चुकी थी। पन्द्रह दिसम्बर को मैं चाचाजी से आदेश लेकर घर जाने को तैयार हो गया था। चलते वक्त चाचाजी ने कहा था- ‘कमल बेटे ! जल्दी चले आना। अभी तो सिर्फ टेस्ट ही हुआ है, असली मोर्चा तो बाकी ही है।

दूसरे दिन संध्या समय घर पहुँच गया था। लम्बे समय के बाद बेटे से मिल कर माँ की छाती चौड़ी हो गयी थी। मुन्नी अब स्कूल जाने लगी थी- सुन कर प्रसन्नता हुयी। पहुँचने के साथ ही मैना के यहाँ जाने लगा, तो माँ ने कहा- ‘इतनी जल्दी क्या है? पहले मुंह- हाथ धोओ, कुछ खाओ-पीओे। वह सुनेगी तो खुद ही दौड़ी चली आयेगी। ’ फिर भी मुझे सन्तोष न हुआ, मुन्नी को भेज ही दिया, उसे लिवा लाने को।

सच में मैना सुनते ही चली आयी थी। पर यह क्या? पिछली बार और इस बार के मैना में इतना अन्तर क्यों? डेढ़ बर्ष पहले मैना गौरैया सी फुदकती रहती थी। कैसे, कब और कहाँ के प्रश्नों की झड़ी लगा देती थी- आते के साथ ही। किन्तु आज वही कुछ अजीब रंग-ढंग की नजर आ रही है- सालू का पता नहीं, लपेट रखी है पूरे

वदन पर छः गजी हैण्डलूम की साड़ी। न कोई प्रश्न न कोई किलकारी। वस चुपके से आकर, दरवाजे से टेका लगा, चुप खड़ी हो गयी, हल्की-हल्की मुस्कुराती हुयी।

मैंने पूछा- ‘यह क्या बाना बना रखी हो मैना?’

पास ही बैठी माँ, जो पंखे से मेरी थाली पर की मक्खियाँ उड़ा रही थी, बोली- ‘इतनी बड़ी हो गयी तो क्या साड़ी नहीं पहनेगी? इसी माघ में इसकी शादी होने वाली है। ’

मैना लजा कर हट गयी थी वहाँ से। मैंने आश्चर्य से पूछा था-‘शादी...अभी? इतनी जल्दी?’

‘और नहीं तो क्या, सयानी विटिया विरारदरी की आँख में रेत सी चुभती रहती है। जितनी जल्दी हो सके शादी-ब्याह कर निश्चिन्त हो जाना चाहिए इसके वापू को। ’- माँ ने कहा था, और उठ कर रसोई में चली गयी थी, मेरे लिए सब्जी लाने।

मैं सोचने लगा था - मैना सयानी हो गयी। अब इसकी शादी हो जायगी। मीना भी तो इसी उमर की है। मैं कुछ ही बड़ा हूँ उससे। सोलह साल कुछ ही महीने तो हुए हैं। माँ कहती है- सयानी हो गयी है मैना, तो इसका मतलब कि मैं भी हो गया सयाना?

और यह सोचते-सोचते ऐसा महसूस होने लगा कि सच में मैं सयाना हो गया होऊँ। बारबार अपने ही अक्स को काल्पनिक आईने में निहारता रहा। मैं सयाना हो गया...मैं सयाना हो गया...और मीना...

वह भी हो गयी सयानी, जरुर हो गयी...मैना? वह तो है ही सयानी, , तभी तो शादी होने वाली है। फिर कभी मेरी भी...। कहाँ रहेगी मैना.. कहाँ रहेगी मीना...कहाँ रहूँगा मैं?

सोचते-सोचते सर दुःखने लगा था। कुछ अजीब सा लगने लगा था। खाना खाकर तुरत निकल पड़ा घर से। चला गया सीधे सोनभद्र के तट पर, वहाँ शायद कुछ शान्ति मिले। वही सोनभद्र जिसके सैकत पर लोट-लोट कर बचपन बीता। सोन की तराई में पसरी तरबूजों की वल्लरियाँ, आम, अमरुद, जामुन, कदम्ब, कमरख, बड़हर आदि के घनघोर बगीचे अभी भी तो है ही यहाँ। मैना भी है। माँ भी है। मुन्नी भी है। सब कुछ तो वैसा ही है। फिर मन क्यों नहीं लग रहा है यहाँ? क्या मैं बदल गया या यहाँ के लोग ही बदल गए? क्या नहीं है यहाँ जो मुझे चाहिए? किसे तलाश रहा है मेरा मन?

कुछ नहीं समझ पाया। समझने का जितना भी प्रयास किया, और उलझता ही गया। किसी प्रकार दो दिन गुजारा गांव में, कभी सोन के सैकत को उछाल कर, तो कभी उड़ते हारिलों को निहार कर;और तीसरे ही दिन चल दिया वापस कलकत्ता।

चलते समय माँ पूछी थी- ‘फिर कब आओगे?’

अब तो परीक्षा के बाद ही आना सम्भव हो सकेगा -कहता हुआ माँ का चरणस्पर्श कर, आषीश ले, घर से बाहर निकल पड़ा था। इस बार भी मैना मौन ही खड़ी रही थी दरवाजे पर।

कलकत्ता पहुँच गया।

‘अरे इतनी जल्दी आगए घर से? मैं तो सोच रही थी कि अभी महीना भर लगा दोगे। ’- कहती हुयी मीना दौड़ कर लिपट पड़ी थी पहुँचते के साथ ही, जो बाहर ही टैरेश पर झूले में बैठी कोई पत्रिका पढ़ रही थी।

‘यह क्या कर रही हो मीनू?’- -कहता हुआ मैं उसे अलग हटाना चाहा था।

‘बाप रे! छियानबे घंटों के बाद मिल रहे हो, और कहते हो कि क्या कर रही हो?’- और जोर से चिपटते हुए बोली।

‘ऐसा नहीं करना चाहिए मीनू , गलत बात है। ’-मैंने कहा तो हँसती-हँसती दुहरी हो गयी। फिर झूले पर ही खींच कर बिठा ली मुझे भी। धीरे-धीरे पेंगे लेती हुयी, गुजरे दो-तीन दिनों की बातें सुनाने लगी।

दिन गुजरते चले गए। समय पंख लगा कर उड़ता रहा। अनुभव का प्रौढ़त्व मुझे गम्भीर बनाता चला गया। और मीना...वह तो और भी शोख, चंचल, चुलबुली होती चली गयी- अल्हड़...बिलकुल अल्हड़...नादान...बच्ची सी....दौड़ कर आना और लिपट पड़ना..यही तो काम था उसका।

मम्मी-पापा कोई भी हों, इसकी जरा भी परवाह नहीं थी उसे। वे भी इसे देख कुछ अन्यथा न लेते। हँसते हुए कहते- ‘बच्ची है अभी....। ’

मैं भीतर ही भीतर जल भुन जाता, पता नहीं इनकी निगाह में कब होगी सयानी? और याद आ जाती पिताजी की कही, किसी प्रसंग की बात –प्राप्येतु षोडशे वर्षे गर्दभीचाप्सरायते...। और खीझ उठता मीना पर। यदि बच्ची है अभी तो फिर अकेले में मिलेने पर, छेड़ने पर नजरें क्यों झुक जाती हैं ? कपोलों पर सुर्खी क्यों, कहाँ से आ जाती है?

ऐसी ही बातें दिमाग में आती रहती। कुछ का जवाब खुद ही मिल जाता, कुछ के आगे प्रश्न चिह्न लग कर रह जाते। और दिन गुजरते गया।

एक दिन मार्च सिर पर सवार हो गया। सत्रह तारीख से प्रारम्भ हो जायगी हमलोगों की वोर्ड परीक्षा। वही परीक्षा जिसके लिए चाची ने एक दिन कहा था- ‘कहीं फेल हुए तो वापस खाली टोकरी सी भिजवा दूंगी घर को। ’

क्या मैं फेल हो जाऊँगा? इतना मन लगा कर पढ़ रहा हूँ, आठ-दस घंटों की पढ़ाई- क्या कम है इतनी मेहनत? किन्तु इसके बावजूद यदि सफलता न मिली, तो क्या चाची के कथन को ‘ये’ चाची या चाचा भी साकार कर देंगे? ये भी मुझे खदेड़ देंगे अपने इस बंगले से....?’

....फिर कहाँ जाऊँगा? क्या करूँगा?- सोचता हुआ अनायास ही चिल्ला पड़ा था, एक दिन। चीख निकल पड़ी थी मुंह से और पास के टेबल पर किताबों में आँखें गड़ायी मीना चौंक कर नजरें ऊपर उठाई थी। चाचाजी सो चुके थे, किन्तु चाची कीचेन में कुछ कर रही थी, दौड़ी हुयी आयी - ‘क्या हुआ मीनू?’

‘मुझे कुछ नहीं हुआ मम्मी। इसीने चीखा है। ’-इशारा मेरी ओर था, मीना की अंगुली का।

‘क्यों बेटे क्या बात है?’- बड़े सहानुभूति पूर्वक मेरे सिर पर हाँथ फेरती चाची ने पूछा था।

‘होगा क्या, पागलों की तरह अंट-संट सोचता रहता है। एक दिन कह रहा- कहीं फेल हो जाऊँगा, तो चाची की तरह ही तुम्हारी मम्मी भी मुझे निकाल देगी अपने घर से?’ --ऐसा ही कुछ पागलपन आज भी सूझ गया होगा दिमाग में। ’- अपनी कनपट्टी को अंगुली से ठोंकती हुयी मीना ने कहा था।

चाची वहीं पास में बैठ गयी। गोद में मेरा सिर झुका कर बच्चों जैसा पुचकारती हुयी बोली- ‘क्यों बेटे, ऐसी फिजूल की बातें सोच-सोच कर दिमाग क्यों खराब किया करते हो अपना? फेल क्यों होना है तुम्हें? इतना तेज विद्यार्थी कभी फेल होता है परीक्षा में ? तुम्हें पास होना है- फस्ट डिवीजन से। तुम दोनों ही पास करोगे इस परीक्षा में। फिर कॉलेज में नाम लिखवा देना है, तुम दोनों का.....। ’

भावावेश में कहती हुयी चाची अचानक मौन हो गयी थी। और फिर खुद ही खोती चली गयी थी, किसी भूल-भुलैया में चौड़ी-पतली पगडंडियों पर- ऐसा ही कुछ महसूस किया था, मैंने उस समय उनकी आँखों में तैरती आशा के बुलबुलों को देख कर;जिन्हें वास्तव में बरसाती पानी के बुलबुलों के समान ही तो फूट जाना पड़ा था।

.....और फिर उनके मुंह से एक लम्बी उच्छ्वास सी निकल पड़ी थी- ‘काश ! ऐसा ही हो पाता। ’-और मुझे अपनी गोद में मींच कर, मेरे माथे को चूम ली थी।

पास बैठी मीना आवाक देखती रही थी, इस दृश्य को कुछ देर तक। उसे कुछ विशेष पल्ले न पड़ा।

‘रात काफी हो गयी है। जाओ सो जाओ तुम लोग अब। परीक्षा के दिनों में अधिक जगना भी ठीक नहीं है। ’-कहती हुयी चाची कमरे से बाहर चली गयी थी।

मीना थोड़ी गम्भीर सी थी। पता नहीं क्या फितूल चल रह था उसके दिमाग में। चाची के ‘काश!...’ का अर्थ शायद उसे उद्वेलित कर रहा था। कुछ देर मेरी ओर देखती रही। उसकी आँखें बता रही थी, उनमें कुछ प्रश्न अटका हुआ है। किन्तु मुझसे कर न सकी, न जाने क्यों कोई प्रश्न, और चाची के जाने के कुछ देर बाद, वह भी चली

गयी थी- धीरे-धीरे बड़बड़ाती हुयी- ‘काश! ऐसा हो पाता मैं शान्ति से सो पाती। ’

वह चली गयी थी, अपने कमरे में सोने के उपक्रम में, मैं अकेला हो गया था। मेरे मस्तिष्क की कोशिकाओं में परावर्तित होते रहा था- सारी रात, एक ध्वनि- ‘काश! ऐसा हो पाता। ’

यहाँ तक कि सबेरा हो गया। जबरन बन्द की गयी आँखें खोलनी पड़ी- वसन्ती की आहट और प्यालों की खनखनाहट से। सामने चाय लिए खड़ी थी वह। मीना भी थी। उसकी मुद्रा अभी भी गम्भीर ही थी। आंखें गवाही दे रही थी- अपने साथ हुए पूरी रात के संघर्ष और अन्याय के पक्ष में। चाय- सिर्फ ‘पीयी गई, बिना किसी....।

तूफान का दौर आया, और चला भी गया।

पूर्व निर्धारित समय पर -सत्रह मार्च से -परीक्षा प्रारम्भ हुयी, और समाप्त भी हो गयी। माथे का बोझ हल्का हो गया। चेहरे पर थोड़ी सी चमक आ गयी। कुछ दिन पूर्व तक जो सोचा करता था- कैसे कटेंगी, ये विकट घडि़याँ - परीक्षा की घडि़याँ, पर एक-दो-तीन करके सभी पेपर समाप्त हो गए, मात्र आठ दिनों में ही। और भूल बैठा कि यह पूरा का पूरा जीवन एक परीक्षा के सिवा, और कुछ नहीं है शायद....और यह जीवन भी तो लोग कहते हैं- अनन्त है। एक से बढ़ कर एक परीक्षायें भरी पड़ी हैं। अनन्त ही है, फिर अन्त क्या? पास और फेल के कितने ही अंक-पत्र होंगे झोली में.....

एक दिन मीना ने कहा था- ‘अब तो परीक्षा समाप्त हो गयी। बहुत दिन हो गए हैं- हमलोगों को कहीं घूमे-फिरे। क्यों न प्रोग्राम बने कहीं चलने का....। ’

वसन्त भी वहीं था। मीना के प्रस्ताव पर प्रसन्नता व्यक्त की उसने- ‘बहुत अच्छा है, टॉमस भी कल ही कह रही थी, पिकनिक पर चलने के लिए। ’

सर्व सम्मति से कार्यक्रम निश्चित हुआ। मीना ने घोषणा की - ‘हम सब अगले रविवार को विश्वेश्वर पहाड़ी की यात्रा करेंगे। ’

कोई अस्सी किलोमीटर की यात्रा, घनघोर जंगल में है महादेव विश्वेश्वर का वह सुरम्य स्थान।

‘वहाँ पर एक झरना भी है...बड़ा मजा आयेगा झरने में स्नान करने में। ’- बताने में मीना इतना खु्श हो गयी मानों अभी गोता लगा ही लेगी।

वसन्त ने कहा था- ‘इतना लम्बा प्रोग्राम - तब तो दो तीन दिन की योजना बनानी पड़ेगी। ’

‘हर्ज ही क्या है इसमें? टॉमस साथ में रहेगी ही, दिन तो मिन्टों में गुजर जायेंगे। ’- मीना ने चुटकी ली।

अचानक मुझे याद आयी - इतनी लम्बी यात्रा की क्या जरूरत, पास ही करीब मात्र तीस किलो मीटर दूर, एक रमणीक स्थान है - महाकाली का एक बहुत ही प्राचीन मन्दिर भी है, झरना भी है। मन्दिर के अहाते में ही आम, सन्तरा, नाशपाती, केले और अंगूर बहुतायत से पाये जाते हैं। वहाँ का एक नियम भी मजेदार है- पांच रूपए की रसीद कटाओ और जी भर कर मन पसन्द ताजे-ताजे फलों का रसास्वादन करो; क्यों मीना! है न मजेदार बात? तो फिर इसे ही ओ.के. करो।

मीना ने मेरी बात पर हामी भरी- ‘तुम अच्छा याद दिलाए, पापा कहते हैं कि यह सिद्ध कालेश्वर मन्दिर कोई पांच सदी पुराना है। ’

‘पर अजीब है- नाम कालेश्वर और धाम काली का?’- वसन्त ने टिप्पणी की।

‘हर्ज क्या है? काली, काल के घर आ बसी। वैसे भी ‘काली’ शक्ति से रहित काल का क्या महत्व?’--मैंने स्पष्ट करने का प्रयास किया। और उस दिन की लघु गोष्ठी विसर्जित हुयी।

अगले रविवार हम चारो- मैं, मीना, टॉमस और वसन्त- अहले सुबह ही चाय पी कर निकल गए। वसन्ती का जी ललचाकर रह गया था।

‘दीदी आप लोग तो घूमने में ही मस्त रहेंगी, फिर खाना कौन बनायेगा?’

किन्तु ऐन वक्त पर, लड़के वाले तीसरी बार उसे देखने आ गए, और बेचारी की इच्छा मन की मन में ही दबी रह गयी। अतः खाने का सामान कुछ रेडीमेड रख लिया गया, कुछ ‘अनमेड’। साथ में स्टोव और कुकर भी ले लिया गया था।

यात्रा के प्रारम्भ में मीना और टॉमस अपनी-अपनी प्यारी गाड़ी ड्राइव कर रही थी। टामस अभी हाल में ही नयी गाड़ी खरीदी थी। मीना भी जिद्द कर रही थी, ऐसी ही नयी गाड़ी के लिए। पापा ने कहा था-‘तुम दोनों अच्छा रिजल्ट ले आओ, फिर इससे भी अच्छी.बेशकीमती गाड़ी तुमदोनों के लिए संयुक्त पुरस्कार के रूप में भेंट करना है। ’

शहर से बाहर निकलते ही मीना ने कहा- मुझे ही गाड़ी चलाने के लिए। चालक का स्थान ग्रहण करते हुए मैंने पूछा था कि क्या वह थक गयी है? जिसके जवाब में उसने कहा था- ‘थक क्या बीस किलो मीटर की ड्राइविंग में ही जाऊँगीं? तुम साथ रहो तो हजारों मील की दूरी यूँही तय कर दूँ। ’

मीना मेरे कंधे पर हाथ टिका कर सेन्टर-मीरर को एडजस्ट करने लगी थी। पीछे से आती टॉमस की गाड़ी की स्पष्ट छवि आइने में नजर आने लगी थी। मीना मेरा ध्यान उस ओर आकर्षित करते हुए इशारा की। मैंने आइने में देखा- वसन्त और टॉमस स्वच्छन्द प्यार का निर्द्वन्द प्रदर्शन कर रहे थे- चिडि़यों की तरह चोंच मिला कर। मुझे कुछ अच्छी नहीं लगी उनकी यह स्वच्छन्दता। साथ ही गौर किया कि मीना के गुलाबी गाल रक्ताभ हो गए हैं - गुस्से से नहीं कुछ और ही भाव वहाँ तैर रहे हैं।

अपने पैरों को एक दूसरे पर चढ़ा थोड़े और करीब आ गयी मेरी ओर। मेरे कंधे पर अपना सिर टेकती हुयी बोली-‘ ऐसे सुहावने वातावरण में भी कहाँ खोए रहते हो कमल? देखो तो बाहर- सड़क के दोनों ओर अमलताश कितने खिले हुए हैं। लगता है- किसी नवोढा दुल्हन की चुनरी लहरा दी गयी हो इन सारे पेड़ों पर। ’

नजरें घुमाकर मैंने बाहर देखा- रात में बारिस हुयी थी शायद। बेमौसमी बारिस- हवा के तेज झकोंरे ने अमलताश के पीले-पीले फूलों को वृन्तों से अलग कर, ला पसारा था गोल-गोल घेरों में पेड़ों में चारों ओर। ऐसा लग रहा था मानों वसुन्धरा की वसन्ती सेज पर बैठा हो नटखट वनमाली सोने का मुकुट पहन कर। ईर्द-गिर्द छोटे-छोटे, हरे-भरे पौधे घेरे हुए थे अमलताश के उस बड़े पेड़ को, मानों कन्हैया को घेर कर गोपियाँ खड़ी हों। बायें हाथ से मीना के मुखड़े को अपनी ओर घुमाते हुए मैंने कहा था-

‘खोया कहाँ हूँ मैं मीनू! अगर खोना ही होगा, तो कहीं और खोने जाने की आवश्कता ही क्या है? तुम्हारी इन लम्बी घनेरी काली बदरिया सी जुल्फों को बिसरा कर?’

‘मेरी जुल्फों की काली बदली में तुम खो...ऽ...ऽ जाओगे जरा देखूँ तो.....। ’- कहती हुयी मीना अपने उन्मुक्त गेशुओं को मेरे चेहरे पर विखेर दी थी।

‘अरे ये क्या कर रही हो खिलवाड़? कहीं बैलेन्श बिगड़ जायगा तो?’- मुंह पर विखर आयी नागिन सी लटों को समेटते हुए मैंने कहा था।

‘तो तुम इतने कच्चे चालक हो? मैं चाहूँ तो आँखें बन्द किये-किये दस-बीस मील गाड़ी दौड़ा दूँ। ’- मीना मुस्कुरायी।

‘बड़े मैदान में गोल-गोल चक्कर लगाकर, है ना?’- कहा था मैंने और हमदोनों ही एक साथ हँस पड़े।

उसकी निगाहें फिर जा टिकी आइने पर, जो टॉमस की गाड़ी में हो रही हरकतों का वयान कर रहा था।

‘क्या देख रही हो, इस तरह घूर-घूर कर बार-बार आइने में?’- मैंने टोका था।

‘हमसफर के पुराने जोड़ीदार को। कभी वह तुम्हारी ही तो थी, जो अब भाभी बनने को प्रयत्नशीलल है। ’- कहती मीना अनावश्क ही हॉर्न दबा दी थी।

‘यूँ नहीं देखा करते किसी के प्रेम-प्रसंग को। ’- मैंने उसका हाथ हॉर्न पर से हटाते हुए कहा था।

‘यूँ देखा नहीं करते, किसी के.... पर किया करते हैं, छिप-छिप कर...;क्यों यह ठीक है न?’- मुझे बगल में गुदगुदी करती हुयी बोली।

‘क्या फायदा, देख-देख कर तरसने में किसी दूसरे की हरकत को?’

‘तरसने की बात तो तब होती, जब मैं साधन हीन होती। क्या वैसा कुछ मेरे पास नहीं है? उससे कहीं ज्यादा...मैं अपने....। ’- मीना कुछ भाउक हो आयी थी।

‘है तो तुम्हारे पास भी साधन, पर वसन्त जैसी कला भी तो चहिए। ’

‘इसी कारण तो तुम्हारी टॉमस अब उसके पास चली गयी। ’-मीना ने चुटकी ली थी।

‘चली क्या गयी, मैंने ही उसे जाने दिया। उसे जो चाहिए था, वह मैं दे नहीं सकता था, फिर क्यों रोके रखता उसे?’ -मैंने स्थिति स्पष्ट की, जिसे सुन मीना थोड़ा चौंकीं।

मेरे चेहरे पर अपनी नजरें गड़ाती हुयी बोली- ‘तो क्या नहीं है तुम्हारे पास, जो उसे चाहिए था?’

‘वही जिसकी चाहत शायद अब तुम्हें भी हो रही है। ’- पहेली का जवाब पहेली में पाकर मीना शरमा गयी। उसकी पलकें झुक गयी थी; पर मेरी निगाहें गड़ी हुयी थी अब भी, आगे की प्रतिक्रिया की

प्रतीक्षा में। मैं देख रहा था, उस चन्दा को- प्यासे चकोर की तरह। ऐसा लग रहा था, मानों सावन की काली घटा में पूनम का चाँद शरमा कर छिप गया हो। मैंने पूछा- आज पूर्णिमा है न?’

बेतुके सवाल पर नजरें ऊपर उठी, होठ फड़फड़ाये- ‘दिमाग तो सही है पंडित कमल भट्ट?’

‘क्यों?’

‘कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से सोलह दिन आगे होता है- पूर्णिमा। लगता है, ज्योतिषी जी का गणित कुछ गड़बड़ हो गया है आज। ’- हवा में उड़ते केशों को समेटने का असफल प्रयास करती मीना ने कहा था।

‘जो भी हो, गणित तो सही-गलत होते ही रहता है; मगर आँखें गलत नहीं कहती। मुझे पूनम का चाँद दीख रहा है, और मेरी आँखें खराब नहीं हो सकती। ’

मेरे कथन की सत्यता की जाँच के लिए उसने सिर बाहर निकाल, इधर-उधर असमान में नजरें दौड़ायी, फिर निराश नजरों ने सवाल किया- ‘ कहाँ? मुझे तो नहीं दीखा कहीं। ’

‘तुम देख ही गलत जगह पर रही हो। ’- कह कर उसके चेहरे को आइने के सामने कर दिया- ‘इधर देखो। ’

आइने में अपना मुखड़ा देख वह फिर शरमा गयी।

‘धत्ऽ! तुम बड़े वो हो...मैं समझी सच में कहीं चाँद नजर आरहा है तुम्हें। ’- कहती हुयी गाड़ी में लगे कैसेट-प्लेयर प्ले कर दी।

मधुर कर्नाटक संगीत कानों को तृप्त करने लगा।

मैंने फिर छेड़ा- मुझे तो चाँद नजर आ ही रहा है, तुम्हें नहीं दीखा तो इसमें तुम्हारी आँखों की गड़बड़ी है, इसमें मैं क्या कर सकता हूँ?’

‘अच्छा बाबा, मेरी आँखें खराब ही सही, तुम सम्हालो अपनी आँखों की नूर को, चाँद को देखते-देखते कहीं तुम्हारी आँखें न सर्द हो जायें। ’

‘सर्दी लगेगी तो गर्म सेंक कर लूंगा। ’

‘सो कैसे?’- हाथ मटका कर उसने सवाल किया।

‘ऐसे। ’- -उसकी बिखरी लटों को अपनी आँखों पर लेजाते हुए मैंने कहा।

‘क्या ये गरम हैं, जो सिकाई होगी इनसे?’

और नहीं तो क्या- कह कर मैंने चूम लिया उन जुल्फों को- ‘बाप रे! कितनी गर्मी है इन जुल्फों में, मेरे तो होठ जल गए। ’

‘होठ जल गए? पर यहाँ बरनॉल नहीं है। ’

मैंने हँस कर कहा- तो क्या हुआ, उससे पहले वाला उपाय ही सही, जो उस बार दीपावली में अंगुली जल जाने पर तुमने किया था।

मेरी बातों की गहराई समझ कर उसके कपोल सुर्ख हो गए, नजरें झुक गयी।

अचानक गाड़ी की गति थम गयी ‘सडेन ब्रेक’ से।

‘क्या बात है?’- उसने पूछा।

बिना कुछ बोले, हाथ का इशारा किया- सामने देखने के लिए।

‘ओ माई गॉड! ये तो चीते हैं। अब क्या होगा?’-उन्हें देख कर मीना घबड़ा गयी। दो चीते आपस में मुंह सटाये, बीच सड़क पर, रास्ता रोके बैठे हुए थे।

मेरी गाड़ी धीमी हो जाने के कारण टॉमस की गाड़ी बगल में आ लगी। वसन्त ने सामने की संगीन स्थिति पर चिन्ता व्यक्त की- ‘अब क्या किया जाय?’

सीट के नीचे से टॉमस ने अपना रिवाल्वर निकाला, और बाहर हाथ निकाल कर फायर करना चाही। तभी मैंने टोका- ‘ये क्या कर रही हो नादानी? जंगली जानवरों से अनावश्यक छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए। ’- कहता हुआ मैं जोर से हॉर्न बजाने लगा। तेज आवाज सुन दोनों चीते पालतू कुत्ते की तरह उठ कर सड़क के दो किनारे, घने जंगल में घुस कर गुम हो गए।

‘मैं तो समझी थी, आफत ही हो गया; किन्तु वे हॉर्न सुन कर ही भाग चले। ’- मीना राहत की सांस भरी।

‘हॉर्न सुन कर या टॉमस के कोमल हाथ में कठोर कृत्य वाला शस्त्र देख कर?’- वसन्त ने टॉमस की ओर देख कर कहा।