निरीश्वरवाद और अन्य निकटवर्ती सिद्धान्त / रणजीत

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निरीश्वरवाद के निकट के इन सिद्धान्तों में संशयवाद, अज्ञेयतावाद, प्रकृतिवाद, भौतिकवाद, प्रत्यक्षवाद, विवेकवाद, इहलोकवाद और मानववाद मुख्य हैं।

निरीश्वरवाद और संशयवाद

संशयवाद या स्कॅपटिसिज़्म उस सिद्धान्त को कहा जाता है, जो आंशिक या पूर्णरूप से मानवजाति की ज्ञान प्राप्ति की क्षमता में संदेह या संशय करता है। कुछ संशयवादियों का मत है कि तात्कालिक अनुभव से परे कोई ज्ञान संभव नहीं है, जबकि अतिशय संशयवादियों ने इसमें भी संदेह किया है कि इतना भी निश्चित रूप से जाना जा सकता है। प्राचीन यूनान के अनेक दार्शनिक संशयवादी थे। सुकरात का यह कथन प्रसिद्ध है कि मैं इतना ही जानता हूँ कि मैं कुछ नहीं जानता। आधुनिक युग में डेविड के दर्शन में संशयवाद का चरम विकास हुआ। वे मानते थे कि धर्म, विज्ञान आदि से संंबंधित हमारे सारे विश्वास बौद्धिक युक्तियों पर नहीं, हमारी नैसर्गिक मूल प्रवृत्तियों पर ही आधारित हैं, अत: इन्हें तर्कों द्वारा सत्य प्रमाणित नहीं किया जा सकता। ह्यूम के इस संशयवाद का कान्ट पर भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा। उन्होंने भी अनेक प्रबल तर्कों द्वारा यह सिद्ध किया है कि ईश्वर के अस्तित्व संबंधी सभी परंपरागत प्रमाण अविश्वसनीय हैं। संशयवाद कहता है कि हम ईश्वर के अस्तित्व और स्वरूप के संबंध में कुछ नहीं जान सकते, इसलिए उसकी सत्ता में विश्वास करने का हमारे पास तर्कपूर्ण आधार नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में यह कहना सर्वथा उचित है कि संशयवाद अन्तत: निरीश्वरवाद का ही मार्ग प्रशस्त करता है। निरीश्वरवाद ही उसकी तार्किक परिणति है।1 निरीश्वरवाद और अज्ञेयतावाद

अज्ञेयतावाद के समानार्थी ‘अॅगनॉस्टिसिज़्म’ शब्द का सबसे पहला प्रयोग टी. अॅच. हक्सले ने 1869 में किया था, अपने इस मत के लिए कि मनुष्य को तर्कों द्वारा निश्चित रूप से प्रमाणित विचार, मत या मान्यता को ही स्वीकार करना चाहिए, ऐसे किसी सिद्धान्त का समर्थन नहीं करना चाहिए, जिसके लिए पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध न हों। पर डॉ. वेद प्रकाश वर्मा के अनुसार हक्सले से अलग अधिकतर दार्शनिक यह मानते हैं कि अज्ञेयतावाद यह विचार है कि हम नहीं जानते कि ईश्वर है या नहीं? मानव बुद्धि की अनिवार्य सीमाओं के कारण ईश्वर संबंधी निश्चित ज्ञान असंभव है। उदाहरण के रूप में जार्ज स्मिथ का कथन है- “ईश्वरवाद और निरीश्वरवाद ईश्वर में विश्वास की उपस्थिति या अनुपस्थिति को व्यक्त करते हैं, अज्ञेयतावाद ईश्वर अथवा अति प्राकृतिक सत्ता के विषय में ज्ञान की असंभावना को व्यक्त करता है।’’2

पर तथ्य यह भी है कि कई वैज्ञानिकों और विचारकों ने निरीश्वरवाद या नास्तिकता से जुड़े हुए निन्दा भाव से बचने के लिए अपने आप को सीधे नास्तिक कहने से संकोच करते हुए अज्ञेयतावादी ही माना है। चार्ल्स डार्विन और अलबर्ट आइन्स्टाइन भी उनमें शामिल हैं। प्रतिष्ठित पत्रकार और लेखक खुशवन्त सिंह की तो एक पुस्तक का नाम ही है- अॅगनास्टिक खुशवन्त : देअर इस नो गॉड। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इन्टरनेट की ‘सेलिब्रिटी अॅथीइस्ट लिस्ट’ में भी अथीइस्ट्स को तीन वर्गों में बाँट कर प्रस्तुत किया गया है- नास्तिक, भौतिकवादी, अज्ञेयतावादी और अस्पष्ट या एम्बीगुअस तथा इस तीसरे वर्ग के उप शीर्षक में लिखा गया है- ‘स्पष्ट ही ईश्वर और धर्म के प्रति संदेहशील’।

निरीश्वरवाद और प्रकृतिवाद

एक तत्व मीमांसीय सिद्धान्त के रूप में प्रकृतिवाद वह सिद्धान्त है जिसके अनुसार इस दुनिया में ऐसी कोई सत्ता अथवा घटना नहीं हो सकती, जिसकी व्याख्या प्राकृतिक नियमों के आधार पर न की जा सके। दूसरे शब्दों में यह सिद्धान्त मानता है कि सिद्धान्तत: भी किसी अलौकिक या अति-प्राकृतिक शक्ति का अस्तित्व संभव नहीं है। समस्त प्राणियों, वस्तुओं, घटनाओं और शक्तियों की व्याख्या केवल प्राकृतिक नियमों द्वारा ही की जा सकती है। स्पष्ट है कि इस सिद्धान्त के समर्थक किसी अति प्राकृतिक सत्ता-- ईश्वर, आत्मा या देवी-देवता-- पर विश्वास नहीं करते। अत: इसे पूर्णत: निरीश्वरवादी सिद्धान्त माना जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक प्रकृतिवादी के लिए निरीश्वरवादी होना अनिवार्य है। प्राचीन भारतीय स्वभाववादी या प्रकृतिवादी दार्शनिक चार्वाक आदि तथा पाश्चात्य दार्शनिकों में डेमोक्रेटस, ल्यूक्रेशियस, ब्रेडलाफ, हॉलियोख़, कार्ल मार्क्स आदि को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रकृतिवादी माना जाता है, वे सभी स्पष्ट रूप से निरीश्वरवादी हैं। इससे स्पष्ट है कि निरीश्वरवाद प्रकृतिवाद का अनिवार्य तार्किक परिणाम है।

पर जहाँ प्रत्येक प्रकृतिवादी का निरीश्वादी होना अनिवार्य है, प्रत्येक निरीश्वरवादी का प्रकृतिवादी होना जरूरी नहीं है। उदाहरण के लिए भारतीय दर्शन के बौद्ध, जैन, सांख्य तथा मीमांसा निरीश्वरवादी हैं पर इनमें से कोई भी प्रकृतिवादी नहीं है।

निरीश्वरवाद तथा प्रत्यक्षवाद

प्रत्यक्षवाद (पॉजिटिविज़्म) शब्द का प्रथम प्रयोग हॅनरी कूम्ट डी सेंट साइमन ने किया था। बाद में फ्रांस के महान दार्शनिक ऑगस्ट कूम्ट ने इस शब्द का प्रयोग अपनी उस वैज्ञानिक विचारधारा को व्यक्त करने के लिए किया, जिसका विशेष प्रभाव पश्चिम के सभी देशों में उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से बीसवीं के पूर्वार्ध तक रहा। इस सिद्धान्त में उन्हीं वस्तुओं, घटनाओं एवं तथ्यों के ज्ञान को वास्तविक माना जाता है, जिनका एन्द्रिक अनुभव द्वारा प्रत्यक्ष निरीक्षण संभव हो। माइकेल मार्टन के अनुसार प्रत्यक्षवाद ऑगस्ट कूम्ट का यह सिद्धान्त है कि निरीक्षणीय वस्तुओं का वर्णन ही ज्ञान का उच्चतम रूप है।3 स्पष्ट है कि यह सिद्धान्त विज्ञान और उसकी विधि को ही विशेष महत्व देता है और निरीक्षण, इन्द्रियजन्य अनुभव एवं प्रयोग द्वारा प्राप्त ज्ञान को ही वास्तविक ज्ञान मानता है। अत: इसमें अलौकिक शक्तियों, चमत्कारों तथा अति प्राकृतिक सत्ताओं का कोई स्थान नहीं है। प्रकृतिवाद की तरह प्रत्यक्षवाद भी मूलत: अनुभवाश्रित सिद्धान्त है जो अलौकिक और अति प्राकृतिक सत्ताओं का पूर्णत: निषेध करता है।

निरीश्वरवाद और इहलोकवाद

इहलोकवाद (सेकुलरिज़्म) या जिसे हिन्दी में आमतौर पर धर्म निरपेक्षता कहा जाता है का प्रवर्तक, ब्रिटेन के भौतिकवादी विचारक और श्रमिक वर्ग के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले समाजकर्मी, जार्ज जेकब होलियोक को माना जाता है। यह सिद्धान्त मनुष्य की सांसारिक समस्याओं के समाधान में ईश्वर सहित किसी भी अलौकिक सत्ता के हस्तक्षेप अथवा उसकी प्रासंगिकता को स्वीकार नहीं करता। इसलिए यह सिद्धान्त अलौकिक सत्ताओं पर अनिवार्य रूप से आधारित धर्म के, मनुष्य के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक समस्याओं में, हस्तक्षेप का भी पूर्ण निषेध करता है। कुछ विद्वानों का मत है कि स्वयं होलियोक ने ही सेकुलरिज़्म शब्द का निर्माण किया था, जिसके द्वारा वे निरीश्वरवाद को अधिक सम्मान दिलवाना चाहते थे (जैसे मार्डन स्टीन का) परन्तु इसके विपरीत कुछ अन्य विद्वानों का मत है (जैसे डेविट बरमन का) कि होलियोक ने यह शब्द ऑगस्ट कूम्ट से प्राप्त किया था, किन्तु उन्होंने व्यापक प्रचार द्वारा इसे विशेष रूप से लोकप्रिय बनाया। प्रो. वेद प्रकाश वर्मा होलियाक को ही इहलोकवाद के प्रवर्तक तथा प्रचारक मानते हैं। डी.एस मार्गोलियथ के अनुसार निरीश्वरवाद शब्द का प्रयोग उस समय प्राय: उस व्यक्ति के लिए किया जाता था, जो न केवल ईश्वर को अस्वीकार करता है अपितु नैतिकता को भी अस्वीकार करता है। इसलिए अनैतिकता के आरोप से बचने के लिए ही होलियोक ने निरीश्वरवादी की जगह अपने आपको इहलोकवादी कहना पसंद किया।

निरीश्वरवाद और भौतिकवाद

भौतिकवाद भूत तत्व, पदार्थ अथवा पुद्गल को ही विश्व मंडल की एकमात्र सत्ता मानता है और अभौतिक या अति प्राकृतिक कही जाने वाली समस्त शक्तियों या सत्ताओं का निषेध करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार अभौतिक ईश्वर, आत्मा, देवी-देवता, स्वर्ग-नरक, भूत-प्रेत और शैतान आदि केवल काल्पनिक वस्तुएं हैं, जिनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है। केवल उन्हीं वस्तुओं और प्राणियों की वास्तविक सत्ता है, जिनका निर्माण पृथ्वी, जल, वायु एवं अग्नि इन चार भौतिक तत्वों के परमाणुओं के संयोगों से हुआ है और जिनका हम अनुभव तथा ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। अॅफ. आर. टेनेन्ट के अनुसार भौतिकवाद विस्तार-युक्त, अभेद्य, शाश्वत रूप से स्वत: अस्तित्वमान तथा गतिशील पदार्थ को ही विश्वमंडल का एकमात्र मूल तत्व मानता है; मनस या चेतना इसी तत्व के रूपान्तरण अथवा गुण हैं और सभी मानसिक प्रक्रियाओं को शारीरिक प्रक्रियाओं में समानीत (reduce) किया जा सकता है।4 अर्थात् उनके आधार पर समझा और व्याख्यायित किया जा सकता है। प्राचीन भारतीय और यूनानी दार्शनिकों ने अपने भौतिकवाद को परमाणुवाद के रूप में प्रस्तुत किया है। यानी वे भूत तत्व को सूक्ष्म परमाणुओं से बना हुआ मानते थे। आधुनिक विज्ञान का विकास परमाणुवाद के आधार पर हुआ, पर अब परमाणुओं को अन्तिम और अविभाज्य इकाई नहीं माना जाता- उन्हें इलेक्ट्रोन, न्यूट्रोन और प्रोटोन कणों में विभाजित माना जाता है। इसी प्रकार इन सूक्ष्म कणों को पहले की तरह ठोस नहीं, ऊर्जा के रूप में भी देखा जाता है और कण-तरंग कहा जाता है। पदार्थ के मूल स्वरूप में वैज्ञानिक शोध कितना भी परिवर्तन करें, उसे अभौतिक और अति प्राकृतिक सिद्ध नहीं किया जा सकता।5

यहाँ यह तथ्य ध्यातव्य है कि भौतिकवाद और प्रकृतिवाद लगभग समानार्थक हैं। दोनों में आधि भौतिक या अति प्राकृतिक ईश्वर आत्मा आदि का कोई स्थान नहीं है यानी दोनों निरीश्वरवादी हैं। पर जहां प्रत्येक भौतिकवादी का निरीश्वरवादी होना अनिवार्य है, सभी निरीश्वरवादी भौतिकवादी नहीं होते। भारतीय दर्शन की बौद्ध, जैन, सांख्य और मीमांसा आदि सरिणियां निरीश्वरवादी हैं, पर इनमें से कोई भी भौतिकवादी नहीं है।

निरीश्वरवाद और सर्वेश्वरवाद

‘स्टॅनफोर्ड अॅनसाइक्लोपीडिया ऑफ फिलासफी’ के अनुसार सर्वेश्वरवाद (पॅनथीइज़्म) उस दृष्टिकोण को कहा जाता है जो ईश्वर को पूरे विश्वमंडल का अभिन्न और एकात्म रूप मानता है। इस सिद्धान्त के अनुसार दुनिया में कुछ भी ऐसा नहीं है जो ईश्वर से बाहर हो, जो भी है सब ईश्वर ही ईश्वर है। यानी यह सिद्धान्त इस क़ायनात से अलग, ईश्वर को उसके व्यक्तित्ववान रचयिता, स्वामी या सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में कल्पित नहीं करता; इस संसार, इस प्रकृति से अलग उसकी सत्ता को नहीं मानता। यह दृष्टिकोण भारतीय अद्वैत वेदान्त, सूफी रहस्यवाद और यहूदी धर्म के एक सम्प्रदाय में मुखर है। सर्वेश्वरवाद का एक प्रमुख स्त्रोत साहित्य भी है। गेटे, कॉलरिज, वर्ड्सवर्थ, एमर्सन, वाल्ट व्हिट्मॅन और डी. अॅच. लारेन्स के साहित्य में यह दिखाई देता है। स्पिनोजा कार्ल रोगने और न्यूटन सर्वेश्वरवादी कहे जाते हैं। अनेक ईश्वरवादी विचारकों ने इसकी कड़ी आलोचना की है। शापनहावर की आलोचना है कि इस विश्व को ही ईश्वर कह देना, उसकी कोई व्याख्या नहीं करता यह केवल एक अतिरिक्त पर्यायवाची शब्द से भाषा को ‘सम्पन्न’ करता है। इसलिए सर्वेश्वरवाद निरीश्वरवाद का ही एक कर्ण मधुर संस्करण है। वास्तव में पूरे भौतिक जगत को, पूरे विश्व मंडल को ईश्वर नाम देना और किसी व्यक्तित्व पूर्ण ईश्वर को न मानना, जहाँ एक ओेर इस संसार के हर रूप रंग के साथ एकात्मकता अनुभव करने की एक व्यापक संवेदनशीलता, विश्व-प्रेम की एक विराट अनुभूति का द्योतक है, वहीं यह परंपरागत, पिष्ठपेषित, दकियानूसी ईश्वरवाद का स्पष्ट निषेध भी है। यह मनुष्य की आदिम रहस्य भावना की, उसके भय मिश्रित आश्चर्यभाव की, उसके सम्भ्रम की तृप्ति भी है।

पिछले कुछ वर्षों में सर्वेश्वरवाद का पुनरोदय (रिवाइवल) बहुत से पर्यावरणविदों, प्रकृति-प्रेमियों, वैज्ञानिकों और अनीश्वरवाादियों के विचारों में दिखाई देता है। विश्व सर्वेश्वरवादी आन्दोलन (W.P.M.) के अनुसार इस आन्दोलन के बुनियादी सिद्धान्त हैं-

  1. प्रकृति और सम्पूर्ण विश्वमंडल के प्रति सम्मान, श्रद्धायुक्त विस्मय या सम्भ्रम (AWE) और उसी का होने की अनुभूति।
  2. सभी मनुष्यों और जीवों के अधिकारों का सम्मान और उनके प्रति सक्रिय परवाह (चिन्ता)।
  3. इस सुन्दर संसार में अपने जीवन और शरीरों का प्रसन्नतापूर्वक उत्सवीकरण।
  4. प्रकृतिवाद- किसी अति प्राकृतिक तत्व, शक्ति, क्षेत्र आदि में अविश्वास के साथ, मजबूत प्रकृतिवाद; परलोक, पुनर्जन्म आदि में अविश्वास।
  5. तर्क, विवेक, साक्ष्य और वैज्ञानिक पद्धति को प्रकृति और विश्व को समझने के श्रेष्ठ साधनों के रूप में सम्मान।
  6. सभी प्रकार के भेदभावों की समाप्ति के लिए धार्मिक संघर्ष, धार्मिक सहिष्णुता, धार्मिक स्वतंत्रता और धर्म से स्वतंत्रता के अधिकारों की रक्षा; राज्य और धर्म का सम्पूर्ण विलगाव।

निरीश्वरवाद और विवेकवाद

अंग्रेजी के ‘रेशनलिज़्म’ शब्द के लिए हिन्दी में बुद्धिवाद और विवेकवाद, ये दोनों शब्द प्रचलित हैं। पर मैं व्यक्तिगत रूप से ‘विवेकवाद’ शब्द को पसन्द करता हूँ। ‘वेब्स्टर न्यू वर्ड डिक्शनरी’ के अनुसार विवेकवाद वह सिद्धान्त और उसका व्यवहार है, जो तर्क या बुद्धि को ही ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत मानता है और उसी के आधार पर अपनी राय, विश्वास और कार्यपथ निर्धारित करता है। इस सिद्धान्त में पहले तर्क को, और केवल तर्क को ही ज्ञान का स्त्रोत माना गया अर्थात् संवेदना-अनुभवों की उपेक्षा की गयी, पर बीसवीं सदी तक आते-आते इसमें भौतिक अनुभव को भी ज्ञान के एक स्त्रोत के रूप में स्वीकृति दी गयी। अर्थात् आज के प्रचलित अर्थों में विवेकवाद ऐंद्रिक प्रत्यक्षीकरण (आँखों की देखी) अनुमान और तर्क, इन तीनों को ज्ञान का स्त्रोत मानता है और अन्तर्दृष्टि, अपौरूषेय प्रकटन (revelation) विश्वास और ग्रंथ-प्रमाण जैसे सभी अतर्कसंगत स्त्रोतों को अमान्य घोषित करता है।6

स्पष्ट है कि विवेकवाद केवल विवेक को ही ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत नहीं मानता, वह जीवनानुभवों, सूक्ष्म निरीक्षण और वैज्ञानिक प्रयोगों को भी ज्ञान के स्त्रोत मानता है पर ग्रंथ-प्रामाण्य, बाबा-वाक्य, अन्ध-विश्वास, अमानुषय अति प्राकृतिक तत्वों, चमत्कारों तथा रहस्यवादी अनुभवों को खुले तौर पर नकारता है।

यह लगभग वही वैचारिक स्थिति है जो ढाई हजार साल पहले गौतम बुद्ध की इस प्रसिद्ध शिक्षा में व्यक्त हुई थी- किसी बात को इसलिए सच मत मान लो कि वह परंपरा से चली आ रही है। इसलिए भी नहीं कि वह वेद, शास्त्रादि में लिखी हुई है। इसलिए भी नहीं कि उसको कोई विख्यात व्यक्ति, आचार्य या गुरु कह रहा है। इसलिए भी नहीं कि मैं गौतम बुद्ध उसे कह रहा हूँ। केवल जब तुम आत्मानुभव से ही जानो कि ये बातें हितकर हैं या अहितकर, ये बातें निन्दनीय हैं या नहीं, इन को करने से दु:ख होगा या नहीं, तभी तुम उन्हें स्वीकार या अस्वीकार करो।7

भारतीय दार्शनिक बन्दिष्टे ने अपने आपको विवेकवादी घोषित करते हुए कहा है कि विवेकवाद का केन्द्रीय संदेश है कि हमें अपने विश्वासों और मान्यताओं को लगातार अनुभव से प्राप्त साक्ष्यों के प्रकाश में परीक्षण करते रहना चाहिए।8

निरीश्वरवाद और मानववाद

योरोप में मानववाद चौदहवीं से सोलहवीं सदी में ग्रीक और रोमन वांङमय के अध्ययन से निकले उस बौद्धिक सांस्कृतिक आन्दोलन को कहा गया था, जो दिव्य शक्तियों और अति प्राकृत तत्वों के प्रति शंकाशील और धर्मनिरपेक्ष था तथा जिसने एक नवजागरण (रिनेशां) को जन्म दिया था। ‘अॅन्साइक्लोपीडिया अॅव फिलॉस्फी’ के अनुसार इसके अतिरिक्त मानववाद वह दर्शन है जो मनुष्य की गरिमा और मूल्यवत्ता को स्वीकृति देते हुए उसे ही सभी अन्य वस्तुओं के मूल्यांकन का मापदंड बनाता है। और मानव-प्रकृति, उसकी सीमाओं और उसके हितों को अपने अध्ययन की विषय-वस्तु बनाता है।9

स्पष्ट है कि जब हम मनुष्य को ही अन्य वस्तुओं का मापदंड मानते हैं तो उसी तथ्य पर पहुँचते हैं जिस पर चण्डीदास पहुँचे थे- सबार ऊपर मानुष सत्य, तहार ऊपर नाहीं

यानी ईश्वर या दिव्य शक्तियों की तुलना में मनुष्य को महत्व देना।

बीसवीं सदी में मानववाद शब्द अधिकाधिक धर्मनिरपेक्ष मानववाद के अर्थ में ही प्रयुक्त किया जाने लगा और उसके साथ ‘धर्मनिरपेक्ष’ विशेषण लगाने की जरूरत कभी-कभार ही महसूस की गयी, इस विशेषण को उसमें अन्तरनिहित ही मान लिया गया। इस अर्थ में वह विवेकवाद और निरीश्वरवाद से घनिष्ठ रूप से जुड़ जाता है। डॉ. रमेन्द्र ने बीसवीं सदी के अन्तिम दशक के तीन शब्दकोशों में दिये गये मानववाद शब्द के अर्थ को उद्धृत किया है। लिटिल आक्सफोर्ड डिक्शनरी 1995, के अनुसार “मानववाद एक अधार्मिक दर्शन है जो उदार मानवीय मूल्यों पर आधरित है।“ कॉलिन्स कनसाइज़्ड डिक्शनरी 1995 के अनुसार “मानववाद मानवजाति के अपने ही प्रयत्नों से विकास के समक्ष धर्म का अस्वीकार है।“ और चेम्बर्स डिक्शनरी, 1995 के अनुसार “मानववाद, वह सिद्धान्त है जो मनुष्य के हितों और मनुष्य के मस्तिष्क को सर्वोपरि मानता है और ईश्वर आदि के अति प्राकृतिक विश्वास को नकारता है।“10

विश्व के मानववादियों के परिसंघ, अन्तरराष्ट्रीय मानववादी एवं नैतिक संघ (IHEU) के अनुसार ‘’मानववाद एक जनतांत्रिक और नैतिक जीवन अवस्थिति है, जो यह मानती है कि मानवजाति का यह अधिकार भी है और दायित्व भी कि वह अपने जीवन को वांछित आकार और अर्थ दे। यह मानवीय और प्राकृतिक मूल्यों पर आधारित नीति द्वारा विवेक और मुक्त जाँच के माध्यम से एक वास्तव में मानवीय समाज की रचना करना चाहता है। यह ईश्वरवादी नहीं है और किसी अति प्राकृतिक दृष्टि को स्वीकार नहीं करता।11

इस विचार-विमर्श से स्पष्ट है कि अपने समकालीन अर्थ में मानववाद विवेकवादी ही नहीं, धर्म-निरपेक्ष और निरीश्वरवादी भी है। अर्थात् उसमें नवजागरण से उद्भूत विवेकवाद, धर्मनिरपेक्ष इहलौकिकवाद और मानववाद की तीनों धाराएं एकमेक हो गयी हैं। वह अधिकतम संभव जनतंत्र, मानवाधिकारों की रक्षा और मनुष्य मात्र की स्वतंत्रता, समता और भाईचारे के लिए संघर्ष करता है। वह सभी अंधविश्वासों और सभी धर्मों की रूढ़ियों का विरोधी है। वह ईशनिन्दा-विरोधी सभी देशों के कालातीत और मूर्खतापूर्ण कानूनों को समाप्त करने के लिए संघर्ष करता है, जो व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करते हैं।


  1. हिन्दी की लगभग सभी दर्शन संबंधी पुस्तकें ‘अज्ञेयवाद’ शब्द का प्रयोग करती हैं, पर कहीं इसे हिन्दी के कालजयी लेखक ‘अज्ञेय’ का दर्शन न मान लिया जाय, इसलिए मैं अज्ञेयतावाद का प्रयोग करता हूँ।
  2. जार्ज अॅच. स्मिथ - अॅथीज्म : द केस अगेन्स्ट गॉड, पृष्ठ - 9
  3. पॉजिविटिज़्म, अॅन साइक्लोपीडिया ऑव फिलोसफी, खंड 6, पृष्ठ 414
  4. अॅफ. आर. टेनेन्ट : अॅन साइक्लोपीडिया ऑफ रेलिजन अॅण्ड एथीक्स, खंड 8, पृष्ठ-488
  5. इस आलेख की यहाँ तक की अधिकांश सामग्री प्रो. वेद प्रकाश वर्मा की उत्कृष्ट रचना ‘भारतीय तथा पाश्चात्य दर्शन में निरीश्वरवाद’ से ली गयी है और लेखक इसके लिए उनका अत्यंत आभारी है।
  6. डॉ. रमेन्द्र, रेशनेलिज्म, ह्यूमेनिज्म अॅण्ड : अॅथीज्म इन ट्वंटियथ सेंचुरी इंडियन थॉट पृष्ठ-19
  7. बुद्ध और उनका धम्म, आंबेडकर, तृतीय कांड, पृष्ठ-121
  8. बन्दिष्टे, अण्डरस्टैंडिंग रेशनलिज्म, इंदौर, 1999, पृष्ठ-11
  9. पॉल एडवर्डस, एन साइक्लोपीडिया अॅव फिलास्फी, 1992, जिल्द 4, पृष्ठ 69-70
  10. डॉ. रमेन्द्र, वही.. पृष्ठ 27
  11. IHEU: Statement of Humanism.