निर्मल नदी की तरह प्रवाहित रहा कृष्णा कपूर का जीवन / जयप्रकाश चौकसे

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निर्मल नदी की तरह प्रवाहित रहा कृष्णा कपूर का जीवन
प्रकाशन तिथि : 02 अक्टूबर 2018


एक अक्टूबर को अलसभोर के समय निद्रा में लीन अवस्था में ही कृष्णा कपूर का निधन 88 वर्ष की वय में हो गया। सारी उम्र उन्होंने भांति-भांति के तूफानों का डटकर मुकाबला किया परंतु मृत्यु ने उन्हें शांति के साथ जीवन यात्रा समाप्त करने दी। मृत्यु भी उनके ह्रदय की करुणा से परिचित थी। वह वृहत कपूर परिवार का केंद्र रहीं और अपने देवरों को भी उन्होंने पुत्रवत स्नेह दिया। रीवा में जन्मी कृष्णा की स्मृति में वहां भव्य केंद्र का निर्माण किया गया। कपूर परिवार के लिए कृष्णाजी श्रीकृष्ण की तरह रहीं कि हर संकट से संग्राम की प्रेरणा दी। फिल्म उद्योग में कुछ व्यक्ति राज कपूर से नाराज रहे परंतु कृष्णाजी ऐसी एकमात्र व्यक्ति रहीं, जिनके प्रति सभी के मन में आदर रहा। इस खबर से विहल हुए सलीम खान भी शव यात्रा में शामिल हुए।

याद आता है कि ऋषि कपूर ने राज कपूर से आज्ञा लेकर अपने विवाह का निमंत्रण स्वयं जाकर सुनील दत्त और नरगिस को दिया। उस अवसर पर राज कपूर तो सुन्न से हो गए थे। 'जागते रहो’ के अंतिम दृश्य की शूटिंग के लिए नरगिस आरके स्टूडियो आई थीं। कृष्णाजी नरगिस को अपने साथ ले गईं। नरगिस ने उनसे कहा कि अब वे माता बनने के बाद शिद्दत से महसूस कर रही हैं कि उन्होंने कृष्णाजी को कितना आहत किया होगा। कृष्णाजी ने नरगिस से कहा कि वे अपने अपराध से मुक्त हो जाएं, क्योंकि उनके प्रेमल हृदय पति आदतन इश्किया मिजाज के थे और वे न होतीं तो कोई और होता। इस तरह की अपार करुणा उनके हृदय में हिलोरें लेती थी।

दरअसल, कृष्णा कपूर का जीवन एक निर्मल नदी की तरह प्रवाहित रहा, जिसके किनारे पर कई घाट बने थे, जिनमें नरगिस भी एक घाट थी और वैजयंती माला भी एक घाट की तरह थीं। अब वह जीवन देने वाली नदी मृत्य के समुद्र में लीन हो गई है। 'मेरा नाम जोकर’ की असफलता के बाद उन्होंने अपने घर का खर्च अपनी पुरानी साड़ियों के पल्लू में जड़ी चांदी को बेचकर किया और राज कपूर को उसका आभास भी नहीं होने दिया। उस संकट के समय वे शिरडी की यात्रा करती थीं। एक अलसभोर में पुजारी ने देखा कि कृष्णा जी अपने आंसुओं से बाबा की मूर्ति के चरण धो रही हैं। उन्होंने ताउम्र साईं बाबा के मंदिर में प्रतिमाह 100 रुपए का चढ़ावा दिया। उन्होंने प्रतीक स्वरूप 100 रुपए ही तय किए थे ताकि इसका निर्वाह हो सके। यह किया भी जा रहा है। उनसे परिचित कोई न कोई व्यक्ति यह काम कर रहा है। फिल्म उद्योग के हर व्यक्ति के मन में उनके लिए आदर रहा और यह आदर राज कपूर की पत्नी होने या सितारा पुत्रों की मां होने या महान पृथ्वीराजजी बहू होने के नाते नहीं था। वरन यह आदर उन्होंने स्वयं अर्जित किया था। राज कपूर को भव्य दावतें देने का जुनून था, क्योंकि इन दावतों में वे मेहमानों के व्यवहार का अध्ययन करते थे। अलसभोर तक चलने वाली दावत के समाप्त होने पर वे देखते थे अध खायी रकाबियों को, उल्टे सीधे पड़े गिलासों को। शायद उनकी सृजन प्रक्रिया का यह एक हिस्सा रहा। शायद इसलिए वे 'खाली खाली तंबू है, खाली खाली घेरा है, यह जीवन एक रैन बसेरा है।’ जैसी दार्शनिकता को कैमरे में ग्रहण कर पाए। इन दावतों में आए मेहमानों के ड्राइवरों को वे पहले ही भोजन करा देती थीं।

कृष्णा कपूर के पास हास्य का विलक्षण माद्दा था। हर परिस्थिति में वे ठहाका लगा सकती थीं और अन्य लोगों को भी हंसा देती थीं। कुछ वर्ष पूर्व मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में उन्हें एक शल्यक्रिया के लिए ले जाया जा रहा था। उन्होंने खाकसार से कहा से कहा कि उनके ऑटोग्राफ ले लें। यह विस्मयकारक था, खाकसार के चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं तो उन्होंने स्पष्ट किया कि वे (ऑपरेशन) थिएटर जा रही हैं, अतः वे एक कलाकार की तरह ही ऑटोग्राफ देना चाहती हैं।

उनके विवाह के 38 वर्ष होने पर एक दावत आयोजित थी। दरअसल, हर वर्षगांठ पर एक पारिवारिक दोपहर का भोजन आयोजित किया जाता था। खाकसार ने कहा कि मात्र 12 वर्ष पश्चात स्वर्ण जयंती होगी। कृष्णजी ने कहा कि इस जयंती में कुछ वर्ष 'फीडिंग’ के भी रहे हैं। ज्ञातव्य है कि फिल्म उद्योग में फिल्म सिल्वर या गोल्ड जयंती के निकट पहुंचती है और यथेष्ट दर्शक नहीं होते तो निर्माता टिकट खरीदकर मुफ्त बंटवा देते थे। इस कार्य को 'फीडिंग’ कहा जाता है।

शम्मी कपूर अपनी पत्नी गीता बाली की मृत्यु के बाद नैराश्य में चले गए थे। कृष्णाजी ने उन्हें नैराश्य से उबारकर जीवन धर्म के निर्वाह का हौसला दिया। उनका विवाह नीला देवी से कराया। नीला देवी का रोल मॉडल अर्थात आदर्श भी कृष्णाजी ही रही हैं। कुछ लोगों ने राज कपूर से प्रेरित होकर फिल्में बनाने का प्रयास किया परंतु फिल्म उद्योग के तमाम लोगों की पत्नियों का आदर्श कृष्णा कपूर ही रही हैं। कृष्णाजी का हंसने हंसाने का माद्दा इतना बड़ा था कि जब राज कपूर 'मेरा नाम जोकर’ बना रहे थे तब कुछ हद तक यह फिल्म उनकी अपनी आधी हकीकत आधा फसाना मानी जा रही थी परंतु राज कपूर के अनचाहे अनसोचे ही वे कृष्णाजी की आधी हकीकत आधा फसाना इस मायने में रच रहे थे कि कृष्णाजी ही परिवार की असली जोकर थीं। वह जोकर जो आंसू के मध्य से देखी गई मुस्कान की तरह है। कृष्णाजी कपूर को कभी इस बात का मलाल भी नहीं था कि राज कपूर ने उन्हें अपनी बांहों में तो लिया परंतु अपने इतिहास से वंचित किया जैसा कि धर्मवीर भारती अपनी रचना 'कनुप्रिया’ में लिखते हैं। राज कपूर तो उस मृग की तरह रहे जो अपनी ही नाभि से आ रही सुगंध की तलाश में वन-वन मारा फिरता रहा। कृष्णाजी कपूर ही असली जीवनदायिनी कस्तूरी की तरह रहीं। आज भी उनकी सुगंधा दशों-दिशाओं में फैली हुई है।