निर्मल वर्मा के जन्मदिन पर — स्मृतियों की गठरी / विनोद दास

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निर्मल वर्मा और राज्यसभा ।

जी हाँ ! आप सही हैं ।

निर्मल वर्मा राज्यसभा के लिए न तो कभी मनोनीत किए गए और न ही राज्यसभा में संसद सदस्य के रूप में बैठने के लिए उन्होंने कभी कोई चुनाव लड़ा। सरकार यदि मनोनीत भी करती तो जिस तरह का उनका स्वभाव था, मुझे कम ही उम्मीद है कि वह उसे स्वीकार करते । लेकिन उनका थोड़े दिन इससे सम्बन्ध रहा है ।

इसके पहले कि मैं भूल जाऊँ, इस प्रसंग को मैं बता देना चाहता हूँ ।

वह दिल्ली में करोलबाग़ की इतवार की सुबह थी ।

हम हिन्दी कथाकार निर्मल वर्मा का घर खोज रहे थे। उनसे मिलने के लिए मन हुलस रहा था । निर्मल वर्मा की कहानियां,"वे दिन "उपन्यास और खासतौर से "चीड़ों पर चांदनी" पढ़ने के बाद पता नहीं क्यों हमें यह लगने लगा था कि वह हिन्दुस्तान से ज्यादा विदेश में रहते होंगे । लेकिन कुछ दिन पहले मैक्समूलर भवन में उन्होंने अज्ञेय पर एक लेख पढ़ा था जिससे मैंने अनुमान लगाया था कि शायद इन दिनों वह दिल्ली में हों ।

धूप चढ़ आई थी ।

करोल बाग के छोले-भठूरे का स्वाद जीभ पर बना हुआ था । काफ़ी पूछताछ के बाद उनका घर मिल ही गया । दरवाज़ा खुलने पर उनके भाई ने बताया कि वह ऊपरी हिस्से में रहते हैं । सीढ़ियों से ऊपर पहुँचने के बाद घण्टी बजाकर उनकी पदचाप का बेसब्री से हम इन्तज़ार करने लगे ।

दरवाज़ा खुला.उनका मुस्कराता हुआ चेहरा दिखायी दिया.हमने उनसे मिलने की इच्छा जतायी.जब वह अपने कमरे की ओर हम दोनों को ले जा रहे थे तो उनकी कहानियों के अनेक नायक मेरी स्मृति में हौले-हौले दस्तक दे रहे थे.अंतर्मुखी,उदास और अकेले.अपनी धुन में डूबे-खोए.

उनके कमरे में पहुँचते ही हम चकित रह गए.

सादगी से अलंकृत और उदासी में डूबा कमरा.एक छोटी से रैक पर करीने से लगी किताबें.कोने में पानी पीने के लिए मिट्टी की सुराही.बैठने के लिए जमीन पर दरी.पास में लेटने के लिए जमीन पर बिछा बिस्तर.यह उस कथाकार का निजी कमरा था जो सात वर्ष चेकोस्लोवाकिया में रह चुका था.यूरोप की कई बार यात्रा कर चुका था.जिसकी रचनाओं में लन्दन-प्राग-विएना की धूप-हवा,आसमान,तारे,रेस्त्रां,पब,वोदका और बियर इस तरह गुंथे हुए थे कि देह से त्वचा की तरह उन्हें अलग नहीं किया जा सकता.उनका कमरा इन सबसे परे एक निसंग संत की कुटिया सा लग रहा था. बातचीत का सिलसिला चल पड़ा.नए-कच्चे पाठकों की तरह हमने उनकी रचनाओं के बारे में अपनी राय रखी.उनकी आँखों बता रही थी कि वह अपने पाठकों के अध्ययन की गहराई से ज्यादा उनकी उपस्थिति से संतुष्ट हैं.वह चाय बनाने के लिए बोलने नीचे भाई के घर गए.इस बीच मैने उनकी किताबों की रैक में सजी किताबों पर सरसरी नज़र दौड़ा ली.लौटने पर उन्होंने पूछा कि आप क्या करते हैं.मैंने बताया कि राज्य सभा सचिवालय में अनुवादक के रूप में इंग्लिश एडीटिंग सेक्शन में काम कर रहा हूँ.

राज्य सभा सचिवालय कि जिक्र सुनते ही वह अपने चिर परिचित ट्रांस में चले गए.फिर धीमी आवाज़ में कहा कि वह भी कुछ दिन वहां काम कर चुके हैं.बैरक जैसी बिल्डिंग थी.थोड़ी देर वह उस इमारत की वास्तुकला के बारे में बताते रहे.फिर बताया कि राज्य सभा का काम बेहद उबाऊ और यांत्रिक होने के कारण जल्दी ही छोड़ दिया.मैंने उनसे कहा कि मैंने तो वह पुरानी इमारत देखी नहीं है.

हम अब नयी इमारत में बैठते हैं.

"यह इमारत कहाँ है?" निर्मल जी की सहज जिज्ञासा थी.मैंने बताया कि एनेक्सी संसद के ठीक सामने बनी है. निर्मल वर्मा ने राज्य सभा सचिवालय में काम किया है,इस बात का जिक्र शायद उन्होंने कहीं नहीं किया है.चलते समय मैंने उनसे कविता की एक किताब उधार माँगी.उन्होंने सहज ही पकड़ा दी.किताब उधार लेना और फिर लौटाने के लिए आना दूसरी बार उनसे मिलने का एक बहाना भी था.

(2)

निर्मल वर्मा और अज्ञेय

कई बार अपनी स्मृतियों की बखारी को बुहार कर साफ़ करते रहना चाहिए.ऐसा करते समय कुछ ऐसी स्मृतियाँ सामने आ जाती हैं जो दिलचस्प और महत्वपूर्ण होने के बावजूद बेखबरी में काफ़ी अरसे से ओझल रहती हैं. यह स्मृति कथा उस समय की है,जब मैक्समूलर भवन दिल्ली में जर्मनी के हिंदी प्रेमी विद्वान लोठार लुत्से कार्यरत थे.उनकी पहल पर वहां तमाम स्तरीय सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे.मुझे याद है कि उसी दौर में मैंने वहां गिरीश कर्नाड तथा ब.व.कारन्त निर्देशित फिल्म गोधूलि देखी थी.कर्नाटक की ग्रामीण जीवन की विसंगतियों पर आधारित इस फिल्म में कुलभूषण खरबंदा,ओम पुरी नसीरुद्दीन शाह ने अविस्मरणीय अभिनय किया था.एक दूसरे आयोजन में दो रास्ते फिल्म के प्रदर्शन के बाद हिंदुस्तान टाइम्स के फिल्म समीक्षक अनिल सारी ने उस पर एक लंबा आलेख पढ़कर यह रेखांकित किया था कि किस तरह अधिकांश हिंदी फिल्मों का ताना बाना रामायण और महाभारत के चरित्रों और मिथकों से रचा जाता है.

बहरहाल मैक्स मूलर भवन में लोठार लुत्से ने अज्ञेय की षष्ठीपूर्ति के अवसर पर एक शानदार कार्यक्रम आयोजित किया था.दिल्ली के अधिकांश साहित्यिक सितारे वहां मौजूद थे.रघुवीर सहाय,श्रीकान्त वर्मा,मनोहर श्याम जोशी,सर्वेश्वर दयाल सक्सेना,विष्णु खरे,शानी,प्रयाग शुक्ल के चेहरे मुझे अभी भी याद हैं.अनेक चेहरों को पहचानता भी नहीं था.वहां के खुले लॉन पर जमीन पर बैठने की व्यवस्था थी.मजबूत कद-काठी के लंबे सुदर्शन चेहरे के धनी लोठार लुत्से बड़ी उमंग से अतिथियों का स्वागत कर रहे थे.इस आयोजन में अज्ञेय पर एक छोटी फिल्म दिखाने के बाद निर्मल वर्मा को उन पर एक लेख भी पढना था.अज्ञेय अपनी धवल दाढ़ी में अपनी धजा और प्रभा मंडल के साथ अपनी मंद मुस्कान बिखेरते हुए समय पर पहुँच गए थे.लॉन पर सफ़ेद बिछी चादर पर उनकी बैठकी के पीछे टेक लगाने के लिए मसनद की व्यवस्था भी थी,लेकिन उनकी सीधी तनी पीठ को ऐसे किसी सहारे की जरूरत नहीं थी. फिल्म के प्रदर्शन के बाद अपनी मंद मधुर आवाज़ में निर्मल वर्मा ने लेख पढ़ना शुरू किया.यह अज्ञेय की तीन गद्य की किताबों पर केन्द्रित आलेख था.लेख के प्रारम्भ में उन्होंने अज्ञेय को ऐसे कवि-लेखक के रूप में स्थापित किया कि वह यह याद रखने के बावजूद कि वह लेखक हैं,अक्सर दार्शनिक सूक्तियों में फिसल जाते हैं.विचार सूत्र और सूक्तियां अपना महत्व रखती हैं किन्तु वे निर्मित माल हैं,उनके पीछे अनुभवों की कच्ची धातु और अन्वेषी भटकन से हम प्राय: अपरिचित रह जाते हैं.साहित्य में टी.एस.एलियट और राजनीतिक विचारों में एम्.एन रॉय से प्रभावित हैं.गाँधी उनकी सोच से बाहर हैं.नेहरू युग का उदात्त सौन्दर्य और जड़गत सीमाएं उनके कर्म और चिंतन में देखी जा सकती हैं. यहाँ तक सभी सुधी श्रोतागण कुछ मिश्रित उत्साह से उन्हें सुनते रहे.अज्ञेय भी हमेशा की तरह धीर-गंभीर थे.निर्मल का लेख बड़ा था.उनकी पढ़ने की गति भी धीमी थी.

लेख के अगले हिस्से में उनका रुख पूरी तरह आलोचनात्मक हो गया.आलोचना करने की ऐसी तल्ख़ शैली निर्मल वर्मा के स्वभाव के विपरीत थी.निर्मल वर्मा को जिन लोगों ने पढ़ा होगा,वे अच्छी तरह जानते होगे कि प्रेमचंद और प्रगतिशीलों के अलावा उन्होंने शायद कम ही हिंदी लेखकों की आलोचना लिखित में की होगी.प्रेमचंद उनके सौंदर्य बोध के लिए सबसे बड़ी फांस थे.जितना तीखा हमला उन्होंने प्रेमचंद पर किया है,शायद ही किसी और ने किया हो. बहरहाल अज्ञेय जिस एलिटिस्ट वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे,निर्मल वर्मा का लेखन भी उसी कोटि में आता था.ऐसे में निर्मल वर्मा की आलोचना को वहां उपस्थित श्रोता समुदाय कुछ अतिरिक्त उत्सुकता से एकाग्र होकर सुन रहा था.लेख जेसे-जैसे मंथर गति से आगे बढ़ रहा था,वैसे वैसे अज्ञेय का गौरवर्ण मुख उत्तेजना से सुर्ख होता जा रहा था मानो यह सोचकर वह घबरा रहे हो कि इस लेख का अंत कहाँ और कैसे होगा.अपनी धीरोदात्त छवि के बावजूद वह अपनी नाराजगी छिपा नहीं पा रहे थे.लेख पूरा होते होते उनका चेहरा पूरी तरह तमतमा गया था.उस समय मैक्स मूलर भवन का लॉन अज्ञेय की ”सांप” कविता की पंक्ति में कहें तो उनके लिए सभ्यता की सांप को चरितार्थ कर रहा था.पूरे माहौल पर सन्नाटा तारी था.यह सन्नाटा तब टूटा जब तरल पदार्थ से भरे कांच के गिलास खनखनाने लगे.

यह लेख उनकी किताब “कला के जोखिम” में संकलित है.अज्ञेय के रचना कर्म को समझने के लिए इस लेख के साथ मलयज का लेख “तीसरे अज्ञेय की तलाश “को पढ़ना उपयोगी है.निर्मल वर्मा के लेख को रघुवीर सहाय ने दिनमान के आगामी अंकों में दो किश्तों में प्रकाशित भी किया था.ऐसे में उस लेख की विषयवस्तु पर बात करना अनावश्यक विस्तार करना होगा.लेकिन इस लेख की तल्खी को अज्ञेय पर क्षतिपूर्ति के रूप में उनके लिखे प्रशंसामूलक अन्य लेख को सामने रखकर ही समझा जा सकता है जो उनकी दूसरी किताब में संकलित है.

मेरी धृष्टता और अल्पज्ञता देखिए कि मैने निर्मल वर्मा के उस लेख के एक तीखे अंश को एक सवाल की रूप में उनसे उनके बसेरे केवंटर ईस्ट में लिए गए साक्षात्कार में पूछा जो बाद में उनकी सहमति से श्रीराम तिवारी सम्पादित "कला वार्ता" में प्रकाशित हुआ था.सवाल यह था कि निर्मल वर्मा अपने लेख में कहते हैं ,“अज्ञेय का मैं हमेशा सुसंस्कृत और शालीन है तथा अन्य हमेशा उच्छाड,ग़लत और हास्यापद.इस पर आप कोई टिप्पणी करना चाहेंगे.”

अज्ञेय का शालीन उत्तर था.” इस पर टिप्पणी तो उन्हीं को करनी चाहिए.इस बात का पूर्वार्ध अगर सच है तो मुझे कोई दोष नहीं दिखायी देता और अगर उत्तरार्ध सही है तो पूर्वार्ध कैसे सच हो सकता है।