निर्विकार में विकार / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती

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इसीलिए निर्विकार में विकार या माया का संबंध साफ ही है। इसमें झमेले की तो गुंजाइश हई नहीं। सारा संसार जब उसी में है तो फिर माया का क्या कहना? हमें तो यही जानना है कि वह निर्लेप है या नहीं। विचार से तो सिद्ध भी हो जाता है कि वह सचमुच निर्लेप है। नहीं तो भरपेट खा के सोने पर भूखा क्यों नजर आता? खाना तो पेट में मौजूद ही है न? इसका तो एक ही उत्तर है कि पेट में खाना भले ही हो, मगर आत्मा तो उससे निर्लेप है। वह उससे चिपके, उसे अपना माने तब न? जगने पर ऐसा मालूम पड़ता था कि अपना मानती है। मगर सोने पर साफ पता लग गया कि वह तो निराली है, मौजी है। उसे इन खुराफातों से क्या काम? वह तो लीला करती है, नाटक करती है। इसलिए जब चाहा छोड़ के अलग हो गई और निर्लेप का निर्लेप है। सपने में भी एक को छोड़ के दूसरे पर और फिर तीसरे पर जाती है और अंत में सबको खत्म करती है। वहाँ कुछ नहीं होने पर भी सब कुछ बना के बच्चों के घरौंदे की तरह फिर चौपट कर देती है। असंग जो रही। उसे न किसी मदद की जरूरत है और न सूर्य-चाँद या चिराग की ही। वह तो खुद सब कुछ कर लेती है। वह तो स्वयं प्रकाश रूप ही है। बृहदारण्यक उपनिषद के चौथे अध्याहय के तीसरे ब्राह्मण में यह वर्णन इतना सरस है कि कुछ कहा नहीं जाता। वह पढ़ने ही लायक है। वहाँ कहते हैं कि -

'स यत्र प्रस्वपित्यस्य लोकस्य सर्वावतोमात्रामुपादाय स्वयं विहत्य स्वयं निर्माय स्वेन भासा स्वेन ज्योतिषा प्रस्वपित्यत्रायं पुरुष: स्वयं ज्योतिर्भवति ।9। न तत्र रथा न रथयोगा न पन्थानो भवन्त्यथ रथान्नथयोगान्पथ: सृजते, न तत्रानन्दा मुद: प्रमुदो भवन्त्यथानन्दान्मुद: प्रमुद: सृजते, न तत्र वेशान्ता: पुष्करिण्य: स्रवंत्योभवन्त्यथवेशान्तान् पुष्करिणी: स्रवन्ती: सृजते सहि कर्त्ता ।10। स वा एष एतस्मिन्सम्प्रसादे रत्वा चरित्वा दृष्ट्वैव पुण्यं च पापं च पुन: प्रतिन्यायं प्रतियोन्या-द्रवति स्वप्नायेव सय त्तत्र किंचित्पश्यत्यनन्वागतस्तेन भवत्यसंगोह्ययं पुरुष: (15)।'

अब केवल दूसरी शंका रह जाती है कि जब तक कहीं असल चीज न हो तब तक दूसरी जगह उसकी मिथ्या कल्पना हो नहीं सकती। इसीलिए कहीं न कहीं संसार को भी सत्य मानना ही होगा। इसका तो उत्तर आसान है। दूसरी जगह उस चीज का ज्ञान होना जरूरी है। तभी और जगह उसकी मिथ्या कल्पना हो सकती है। बस, इतने से ही काम चल जाता है। जहाँ उसका ज्ञान हुआ है वहाँ वह चीज सच्ची है या मिथ्या, इसकी तो कोई जरूरत है नहीं। कल्पना की जगह वही चीज प्रतीत होती है, यही देखते हैं। न कि उसको सारी बातें प्रतीत होती हैं, या उसकी सत्यता और मिथ्यापन भी प्रतीत होता है। यदि किसी ने बनावटी, इंद्रजाल का या इसी तरह का साँप, फल या फूल देख लिया; उससे पहले उसे इन चीजों की कहीं भी जानकारी न रही हो; उसी के साथ यह भी मालूम हो जाए कि ये चीजें मिथ्या हैं, सच्ची नहीं; तो क्या कहीं उनका भ्रम होने पर यह भी बात भ्रम के साथ ही मालूम हो जाएगी कि ये मिथ्या हैं, बनावटी हैं? यदि ऐसा ज्ञान हो जाए तो फिर भ्रम कैसा? ऐसी जानकारी तो भ्रम हटने पर ही होती है। यह तो कही नहीं सकते कि झूठी चीजें ही जिनने देखी हैं न कि सच्ची भी, उन्हें भ्रम हो ही नहीं सकता। भ्रम होता है अपनी सामग्री के करते और यदि वह सामग्री जुट जाए तो सच्ची-झूठी चीज के करते वह रुक नहीं सकता। इसलिए जिस चीज का भ्रम हो उसका अन्यत्र सत्य होना जरूरी नहीं है; किंतु उसकी जानकारी ही असल चीज है। जानकारी बिना सत्य वस्तु का भी कहीं भ्रम नहीं होता है। जानें ही नहीं, तो दूसरी जगह उसकी कल्पना कैसे होगी? इसी प्रकार इस संसार का भी कहीं अन्यत्र सत्य होना जरूरी नहीं है। किंतु किसी एक स्थान पर भ्रम से ही यह बना है। उसी की कल्पना दूसरी जगह और इसी तरह आगे भी होती रहती है। एक बार जिसकी कल्पना आत्मा में हो गई उसी की बार-बार होती रहती है। यह कल्पित ही संसार अनादिकाल से चला आ रहा है।

मगर हमें इन दार्शनिक विवादों में न पड़ के केवल अद्वैतवाद का सिद्धांत मोटा-मोटी बता देना है और यह काम हमने कर दिया। यहीं पर यह भी जान लेना होगा कि जहाँ एक बार इस दृश्य जगह का अध्यास या आरोप आत्मा या ब्रह्म में हो गया कि विवर्त्तवाद का काम हो गया। चेतन ब्रह्म में इस जड़ जगत के आरोप को ही विवर्त्तवाद कहते हैं। जहाँ तक इस दृश्यजगत का ब्रह्म से ताल्लुक है वहीं तक विवर्त्तवाद है। मगर इस जगत की चीजों के बनने-बिगड़ने का जो विस्तार या ब्योरा है वह तो गुणवाद के आधार पर विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार ही होता है। विवर्त्तवाद ने इन्हें मिथ्या सिद्ध कर दिया। अब परिणाम या विकासवाद से कोई हानि नहीं। क्योंकि इससे इन पदार्थों की सत्यता तो हो सकती नहीं। विवर्त्तवाद ने इनकी जड़ ही खत्म जो कर दी है। उसके न मानने पर ही यह खतरा था, द्वैतवाद आ जाने की गुंजाइश थी। बस, इतने के ही लिए विवर्त्तवाद आ गया और काम हो गया।