निवृत्ति / अपूर्व भूयाँ

Gadya Kosh से
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बारिश हालांकि थम चुकी थी, बावजूद भादो महीने की गर्मी रात्रि पहर में भी नहीं कमी थी। पसीने से तर-बतर गर्दन-चेहरे को चादर से पोंछकर पापोरी ने उसे नीचे सरका दिया। जुड़े को खोलकर बालों को दो बार झकझोरा भी। बिस्तर पर बैठी-बैठी खुली खिड़की से माथा टिकाए पापोरी को पता नहीं कितने पहर बीत चुके थे। अन्य दिनों की अपेक्षा आज रात का भोजन कर सोते-सोते थोड़ा विलंब हो चुका था। उसके साथ ही बिस्तर पर पड़ी छोटी बेटी तुलिका गर्मी की वज़ह से सो नहीं पा रही थी और छटपट कर रही थी। वह भी सोने की चेष्टा कर रही थी। बिजली तो रहती नहीं। दिन भर भाग-दौड़ करते वह थक चुकी थी। बस में धक्का-मुक्की करते टाउन तक दस मील का सफ़र और सिर पर भादो की गर्मी ओढ़े इस ऑफिस से उस ऑफिस दौड़ते रहना, वाकई थका देने वाली बात है। पास के कमरे में बड़े बिस्तर पर पापोरी की तीन बड़ी बेटियाँ पलि, रुली और माला सो रही हैं। बड़ी बेटी की उम्र लगभग बारह वर्ष है। उसके बाद की सभी एक-डेढ़ वर्ष छोटी-बड़ी हैं। दिन भर की धमा-चौकड़ी से थक हारकर वे बेसुध सोई पड़ी हैं। इस उम्र में गर्मी उन्हें परेशान नहीं कर सकती। पापोरी ही गर्मी से ज़्यादा छटपटा रही है और वैसे भी बाहर की गर्मी से कहीं अधिक देह की अंदर की सिराओं से उठती तपिश से ज़्यादा बेचैन है।

पापोरी ने बिस्तर की बगल वाली खिड़की खोल दी। बाहर बादलों के बीच से चांद अपनी चांदनी रह-रहकर बिखेर रहा था। चांदनी में रास्ते से सटे धान के खेतों में बोए नए फ़सल हवा के मृदु झोंकों से लहराते दिख पड़ते। खुली खिड़की से सनसनाती हवा के झोंके के साथ खिड़की के बगल में लगाए माधै-मालती फूलों की सुगंध भी कमरे में फैल रही है। परंतु वह शांत नहीं हो पा रही। हवा ने भी जैसे नृपेन की तप्त सांसों और मज़बूत हाथों की तरह उसे किसी लता कि तरह लपेट रखा है। हृदय की धड़कन असामान्य महसूस कर रही है। बीरेन के साथ बारह वर्ष लंबा विवाहित जीवन गुजारने के बाद पिछले एक साल से वह वैधव्य परिधान में है, बावजूद बेवजह ऐसा ख़्याल क्यों बार-बार उसके पीछे पड़ने लगा है। सोचती है, समझने की भरपूर चेष्टा करती है, पर कोई उत्तर नहीं मिल पाता।

पापोरी को चार बेटियों के साथ बीच मझधार में छोड़ बीरेन को इस संसार से विदा लिए हुए साल भर हो गए हैं। सभी कहते हैं, वह अपनी ही गलतियों के कारण मरा और परिवार को भी बीच भंवर में छोड़ गया। बीरेन एक कंपनी में नौकरी करता था। नौकरी छोटी ज़रूर थी, पर वेतन कम न था। उसके साथ के लोग इसी पैसे से अच्छा घर-बार बना समाज में एक रुतबा हासिल कर लिया था। दो-एक ने गाड़ी भी खरीदी ली। बस बीरेन ही था, जो वहीं का वहीं था। होना ही था, सुबह उठते ही दारू गटकना शुरू कर देता था। परिवार के प्रति जैसे उसकी कोई जिम्मेवारी नहीं। वह जिस-तिस से कहता फिरता कि उसके मन में बड़ी पीड़ा है। चार बेटियाँ, उसका नाम चलाने को एक बेटा नहीं हुआ। संसार ने जैसे उसे किनारे कर दिया। जवानी से उसे दारू पीने की बुरी लत थी। नौकरी के बाद तो हाथ में पैसे आने लगे और दारू पीने की उसकी लत शौक में बदल गई। वही पुरानी शिकायत रटते-रटते वह देसी दारूबाज बन गया। देह में बीमारियों ने डेरा जमा लिया। कलेजा तो ख़त्म ही हो गया। इलाज़ कराने में ढेर सारे पैसे ख़र्च हो गए। मगर कोई फायदा नहीं और एक दिन वह इस संसार से चल बसा।

पिछले कुछ वर्षों से बीरेन पापोरी के लिए बर्दाश्त के बाहर हो चुका था। वह जैसे हाड़-मांस से बनी औरत नहीं, बल्कि कोई पुतला हो। चार बेटियों को जन्म देने में जैसा सिर्फ़ उसका ही दोष हो। बीरेन से जब पापोरी का विवाह हुआ तो उसकी उम्र यही कोई सोलह-सत्रह साल की रही होगी। विवाह क्या, वह बीरेन के साथ भाग आई थी। उस वक़्त बीरेन एक कामयाब नौजवान था। एक कंपनी में नौकरी लग चुकी थी। पापोरी का परिवार गरीब था। भाई के बाद वह अपने घर की बड़ी बेटी। उसके पीछे एक भाई और एक बहन। ज़मीन के एकाध टुकड़े पर खेती करने के बावजूद उसके पिता साल भर के लिए धान उपजा नहीं पाते। माँ घर में ही देसी दारू लाओपानी बना-बेचकर दो-चार पैसे अर्जित करती। यह एक सहज-सुलभ व्यवसाय है। लड़कों के साथ बीरेन भी उसके घर लाओपानी पीने जाता। अब तक पापोरी का यौवन बेहद आकर्षक हो चुका था। कइयों की नज़र उस पर थी। इसे लेकर वह मन ही मन इतराती भी थी। उसके भाई के साथी नृपेन ने एक दिन खुलेआम उसे प्रेम का प्रस्ताव दे दिया। वैसे वह कुछ महत्त्वाकांक्षी भी हो चुकी थी। नृपेन को उसने भाव नहीं दिया। बीरेन उम्र में नृपेन से कुछ साल बड़ा। नौकरी भी मिल गई। देखने में नृपेन जैसा कद-काठी नहीं, पर पुरुष सुलभ चेहरा था ही। बीरेन भी पापोरी का रूप-रंग देख दीवाना हो गया। किधर जाए, किधर नहीं-इसी उधेड़बुन में पापोरी पड़ी ही थी कि एक दिन उसके आंगन में लाओपानी पीते बीरेन ने वहीं इधर-उधर कर रही पापोरी के कान में फुस-फुसाते कह डाला, "" तुम्हें मैं विवाह कर ले जाऊंगा, चलोगी न? "पता नहीं उस दिन पापोरी की ज़ुबान को भी क्या हो गया था, बोल पड़ी," "चलूंगी, अगर ले चलो।" अब बीरेन को न देखने पर उसका तन-मन बेचैन रहने लगा। नृपेन ने भी पापोरी का पीछा नहीं छोड़ा। एक दिन उसे अकेला पाकर नृपेन ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसके माथे से सटाते हुए कहा, "" बताओ तुम मुझसे प्रेम करती हो या बीरेन से? तुम नहीं मिली तो मैं मर जाऊंगा। "पापोरी को कोई उत्तर नहीं सूझा। वह नृपेन से अपने हाथ छुड़ा वहाँ से दूर हट गई। इसका पता चलते ही बीरेन अंदर-ही-अंदर उत्तेजित हो उठा। एक दिन पापोरी के घर पर लाओपानी पीते उससे कहा," "अगर चलोगी तो चलो, आज ही तुम्हें ले चलता हूँ।"

ऐसा नहीं कि पापोरी का परिवार बीरेन का मतलब नहीं समझ रहा था। कोई विशेष विरोध भी नहीं किया। परंतु इतना उतावला हो जाएगा, नहीं सोचा था। अंदर से उद्वेलित पापोरी ने भी आव देखा न ताव, बीरेन की साइकिल पर सवार हो रात के अंधेरे में पैतृक बुनियाद छोड़ बीरेन के घर निकल पड़ी।

बीरेन के दो भाई विवाह कर अलग रहने लगे थे। बीरेन के साथ उसकी बूढ़ी माँ रहती थी। परिस्थिति को संभालते जैसे-तैसे माँ ने बहू का स्वागत किया। पापोरी के घर के लोग शुरू में तो नाराज रहे, इसलिए कि बीरेन पापोरी को चुपचाप ले गया। बीरेन अपने साथ के लोगों से अक्सर कहता फिरता, "" जानते हो नशे की झोंक में मैंने शादी कर ली न। नशे में ही मैंने उसे साइकिल पर उठाया और घर ले आया। अंधेरे में आते हम दो-एक जगह साइकिल से गिरे भी थे। " पापोरी कभी गाँव में किसी के शादी-ब्याह में जाती तो मन ही मन दुखी रहती कि बाजा-गाजा, नाच-मंगल गीत के बगैर उसे रात के अंधेरे में चोर की तरह एक आदमी के साथ भाग कर आना पड़ा।

नृपेन को पापोरी नहीं मिली, उसने आत्महत्या नहीं की। बस उसने किसी और से शादी नहीं की। वैसे जब कभी अब पापोरी से भेंट होती वह बीती कड़वाहट भूल सहजता से बात करता।

बीरेन-पापोरी का संसार कुछ वर्षों तक बड़ी खुशी-खुशी गुजरा। धीरे-धीरे एक...दो...तीन...और चौथी बेटी के जन्म के बाद से ही बीरेन पापोरी को बेटा नहीं जन्मने के लिए कोसने लगा। उसने पापोरी की उपेक्षा करनी शुरू कर दी। संसार की माया में कुछ समय तक वह संयमित रहा, परंतु फिर वह दारू के आगोश में जा बैठा। बीरेन की माँ भी एक पोते की आस में पापोरी को भला-बुरा कहते-कहते एक दिन चल बसी। पापोरी जैसे अब पहले जैसी हाड़-मांस की औरत नहीं, बल्कि एक पुतला बनकर रह गई। बीरेन का स्नेह-प्रेम न पा वह बहुत दुखी रहने लगी। नशे में धुत बीरेन जब-तब उसकी देह को मसल डालता। वह जैसे अनुभवविहीन एक पुतला हो। रात-रात भर तकिया से मुंह दबाए वह सिसकती रहती। पापोरी को इससे भी बड़ा दुख तब पहुँचा, जब बीरेन उसे शक की नजरों से देखने लगा। नृपेन कभी-कभार उनके घर आता, बरामदे में ही बैठकर दो-चार बातें करता और चला जाता। बीरेन की अनुपस्थिति में वह सहजभाव से कुछ अधिक देर तक बैठता। उसके स्वभाव के बारे में पापोरी कोई अनुमान नहीं लगा पाती, परंतु साफ-साफ उसे नहीं आने से मना भी नहीं कर सकती थी। इस बारे में बीरेन के कानों में तरह-तरह की बातें पड़ने लगीं। नशे में चूर हो बीरेन लौटता और पापोरी को गाली देता, उसे मारता-पीटता। वह सोचता कि चौथी बेटी उसकी नहीं। धीरे-धीरे बीरेन की हालत ऐसी हो गई कि उसे दारू के सिवा और कुछ नहीं सूझता। एक दिन अचानक वह खून की उल्टियाँ करने लगा। डॉक्टर के पास ले जाया गया। बीरेन को मेडिकल कॉलेज अस्पताल ले जाना, उसकी देखभाल की जिम्मेवारी पापोरी को अकेले ही उठानी पड़ी। बचाकर जो कुछ पैसे रखे थे बीरेन के इलाज़ में ही ख़र्च हो गए। पिछले वर्ष भादो महीने के किसी एक दिन बीरेन की मौत हो गई। दुख और हताशा ने पापोरी को तोड़कर रख दिया। परंतु बेटियों के लिए तो उसे जीना ही पड़ेगा। उसने ख़ुद को समझाया और भविष्य के जीवन संग्राम के लिए उठ खड़ी हुई।

कंपनी से बीरेन को मिलने वाले रुपए निकालने के काम में पापोरी को इससे-उससे पूछकर ख़ुद ही लगना पड़ा। हाईस्कूल में दो श्रेणी के बाद भले ही उसे पढ़ाई पर विराम लगाना पड़ा, मगर उसे इतना ज्ञान ज़रूर था कि संसार के साथ सामंजस्य कैसे बैठाया जाए। रुपए के लिए ऑफिस दर ऑफिस का चक्कर लगाते एक वर्ष बीत चुका है। बीरेन के नाम से जीवन बीमा में पड़े रुपए के लिए भी टाउन के ऑफिस में गए बगैर नहीं चलने वाला। परिवार के दूसरे लोग अपने-अपने कामों में व्यस्त। किसी के पास पापोरी की सुध लेने की फुरसत नहीं। हालांकि कुछ लोग बीरेन के नाम से जमा रुपए में से हिस्सा पाने के लालच आगे ज़रूर बढ़े, परंतु पापोरी का मनोभाव देख पैर पीछे कर लिए। अब नृपेन कभी-कभार असहाय पापोरी की मदद करने निकल आता है। उसकी बातचीत से स्नेह-मर्म भी फूटता है। क्या करे पापोरी? डूबे को तिनके का सहारा मान उसे नृपेन की मदद लेनी पड़ती है। हाँ, कुछ दूसरी तरह की सोच, वासना-काम भाव उसे परेशान करने लगते हैं। कभी-कभार टाउन जाते बस में बैठे नृपेन के शरीर का स्पर्श, तपन से उसकी देह में सिहरन दौड़ पड़ती। एक दिन टाउन से लौटते शाम हो चुकी थी। तीनआली में बस से उतरकर घर जाने के लिए उन लोगों ने गाँव की पगडंडी पकड़ी। तीनआली पर खड़े विशाल पेड़ के नीचे तब वहाँ कोई नहीं था। शाम के स्याह अंधेरे में बस जुगनूं उड़ रहे थे। नृपेन ने अचानक पापोरी को अपने करीब खींच लिया और मुंह के पास मुंह ले जाकर कह डाला, "" पापोरी मैं तुम्हें भूल नहीं पाया हूँ। भगवान ने एक मौका दिया है-अब भी तुम अगर मुझे मिल गई तो मेरा जीवन सार्थक हो जाएगा। "

पापोरी के कान-मुंह लाल हो उठे। व्याकुल हो नृपेन उसे जकड़े हुए था। कुछ क्षण तक स्थिति यही रही कि पापोरी नृपेन की जकड़न से ख़ुद को मुक्त कराते बड़बड़ाई, "" क्या बक रहे हो, लोग क्या कहेंगे। "

"" लोग क्या कहते हैं कहने दो। गाँव में मेरी-तुम्हारी चर्चा होनी बाक़ी है क्या? "नृपेन ने दृढ़ता से कहा।" "अच्छा अब घर चलो" , कहते नृपेन को अनसुना कर पापोरी तेज कदमों से आगे बढ़ चली, बावजूद ऐसा लगा जैसे वह हवा के सहारे क़दम बढ़ा रही हो, अनुभव के कुछ नए तीरों ने उसके हृदय को बेध दिया हो। उसे ऐसा लगा कि वह एक पुल के बीच खड़ी है, आगे-पीछे के दोनों सिरे घुप्प कोहरे में समा गए हैं।

इन कुछ दिनों से उसके दिमाग़ में वही बातें घुमड़ रही हैं। कल टाउन वह अकेले गई थी। लौटते वक़्त रास्ते में नृपेन की कही बातों का मर्म यह था कि उसे कोई एक निर्णय करना होगा। हो सके तो अगले ही दिन टाउन जाकर मंदिर हो या कोर्ट में नियम अनुसार उनके सम्बंधों को पक्का करना होगा। उसने कहा है कि वह बेटियों की जिम्मेवारी भी उठाएगा। सचमुच नृपेन इतना अच्छा इंसान है? वह सोचती रह गई। कल उसने उससे टाउन जाने की बात कही है। कल वह यदि और दबाव डाले...!

अस्थिर मन को शांत करने के लिए वह इसी मुद्रा में खिड़की के पास कब तक बैठी रही, बता नहीं सकते। रह-रहकर शायद नींद भी आनी शुरू हो गई थी। तभी बिजली की कड़क से वह चौंक उठी। मेघ भी गरज उठे। तेज हवाएँ चलने लगीं और उसके बाद ही झमाझम बारिश। तब बाहर चांद का उजाला नहीं था। गर्जन के शब्द से तुलिका जग गई। मां-मां कहकर चादर को पकड़े बिस्तर पर सरक रही थी। तुलिका का चेहरा लगभग बीरेन जैसा ही है। परंतु बीरेन बकता रहता था कि यह उसकी संतान नहीं है। उस जवां उम्र के प्रेमी बीरेन की तरह निष्पाप तुलिका का मुखमंडल। पापोरी उठी। उसने तुलिका के ललाट पर पसरे बालों को हटाया, चुंबन लिया और उसके बगल में ही पसर दोनों आंखें ज़ोर से मूंद ली। हल्की नींद में उसने एक सपना देखा-वह बीरेन के साथ साइकिल पर सवार होकर जा रही है, घुप्प अँधेरा नहीं, बल्कि सुबह की कोमल हवा के झोंकों से हिलते-डुलते पीले सरसों के खेत के बीच से। ये उस समय के जवान प्रेमी-प्रेमिका बीरेने और पापोरी हैं। वे बस चले जा रहे हैं-यात्रा का कहीं अंत नहीं।

सुबह पापोरी ने जल्दी ही बिस्तर छोड़ दी। मन थोड़ा भारी-भारी लग रहा था। उठते ही झट से पीछे के कुएँ के पास गई। साथ ले गई चादर-मेखेला, गामोछा आदि को रस्सी पर टांग दिया और बाल्टी को कुएँ में डाल पानी निकाला और शरीर पर उड़ेल लिया। एक बाल्टी, दो बाल्टी और कई बाल्टी... । जैसे वह देह की गर्मी को धो-धोकर दूर कर देना चाहती हो। कुएँ के पास ही पापोरी ने कपड़े बदले। गीली कपड़ों को निचोड़कर रस्सी पर टांगा। गामोछा से बाल पोंछते-पोंछते उसने ग़ौर किया कि बड़ी बेटी पलि द्वार पर बैठी बिना कुछ समझे उसे एकटक निहार रही है।

पापोरी ने उसकी ओर देखते हुए कहा, "मुंह हाथ धोकर चाय की केतली चूल्हे पर चढ़ा दो। आज मुझे जल्दी टाउन जाना है। ऑफिस का काम आज जैसे-तैसे कराना होगा।" उसके बाद की बात जैसे उसने ख़ुद से कही, "" सुनो तो, नृपेन मामा आएँ तो कह देना मैं टाउन चली गई और कहना माँ अकेले ही काम कर लेगी, अब उनके टाउन नहीं जाने से भी होगा। "

यह कहते उसने अपने मन को खुला-खुला अनुभव किया। भींगे गामोछा को निचोड़कर रस्सी पर टांगा और सहजन के पत्तों के बीच से छनकर आ रहीं सुबह की किरणों को देख सूर्यदेव को प्रणाम किया। कुछ बुदबुदाई भी...और किसी अनदेखे की प्रार्थना करते उसकी आंखें डबडबा उठीं।