निषिद्ध प्रेम / मौसमी चन्द्रा

Gadya Kosh से
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दिसम्बर फिर खड़ा है! हर बार आता है और मैं सालभर का लेखा-जोखा लेकर बैठ जाती हूँ। क्या खोया क्या पाया!

हर बार क्यों ऐसा होता है कि खोने वाला पलड़ा भारी पड़ जाता है। कहते हैं शून्य अगर किसी नम्बर के साथ लगा हो तो वह कीमती हो जाता है पर यही शून्य अगर किसी इंसान के पीछे लग जाये तो...!

गणित में मैं कमजोर ही रही। न अंकों से लगाव था न इनकी कीमत बढ़ाने वाले इस शून्य से। फिर क्यों ये मेरा पीछा करता रहा उम्रभर!

पाँच भाई-बहनों में मेरा स्थान चौथा था। पांचवा होता तो शायद मेरे जीवन का भूगोल इतना उलझा न होता। जेंडर बदला होता इस पांचवे नम्बर पर! यानी मैं घर की तीसरी बेटी न होकर दूसरा बेटा होती। मेरे जन्म पर जो चुप्पी छाई थी घर में, उसकी जगह थालियाँ बजती... जैसे भाई के होने पर बजी थी।

माँ ने बताया था—"जानती है पूर्वी! जब तू हुई थी तो तेरे दादाजी बीमार थे उन्हें सदमा न लगे कि तीसरी पोती हुई है इसीलिए झूठ कहा गया था उनसे... पोता हुआ है!"

मैं कैसे कहती कि माँ ये सुनना मेरे लिए भी सदमे जैसा है।

पर बोल नहीं पाई।

पली-बढ़ी और किसी तरह इतना पढ़ पाई जितना पढ़ना विवाह के लिए जरूरी था। ऐसे भी एक मिडिल क्लास घर में अगर बेटियाँ ज्यादा हो तो पिता का सबसे अहम फ़र्ज़ उनका विवाह होता है।

बाकी की दोनों बहनों ने कॉलेज का बस मुंह भर देखा। आधी-अधूरी पढ़ाई में रिश्ता पक्का। दादी की नज़रों में सौभाग्यशाली थी दोनों। तभी इतनी जल्दी लड़के मिल गए। मैं इस मामले में बदनसीब रही। कॉलेज की पढ़ाई पूरी कर ली और कोई आया ही नहीं सफेद घोड़े पर सवार होकर! किसी नाते-रिश्तेदारों ने भी लड़का नहीं बताया।

घर में मुझे मेरे भाग्य को दोष दिया जाता पर पापा शायद ये मानने को तैयार नहीं थे कि एक रिटायर्ड बाप जिसका बैंक बैलेंस अपनी दो बेटियों को ब्याहने और बेटों को पढ़ाने में शून्य हो गया उस लड़की के लिए कौन बताएगा लड़का!

खैर बेटियाँ कुंवारी नहीं रहती कोई-न-कोई मिल जाता है। मुझे भी मिला। शादी की तैयारियों के बीच घरवालों को फुसफुसाते देखकर मन में कई सवाल उठे।

जयमाला के शोरगुल के बीच दीदी का उदास चेहरा और भरी ऑंखें मुझे कचोटती रही।

जवाब फेरों के समय मिल गए। पवित्र अग्नि के इर्द-गिर्द फेरे लेते दूल्हे के पैर...उस रात मुझे मेरा भविष्य भी किसी के कमजोर पैरों तले कुचला दिखा था।

धम्म से बैठ गयी!

माँ के याचना में जुड़े हाथ और पिता की झुकी गर्दन। जिस बाप की झोली में सिर्फ बेटी बची हो वह और क्या करता!

मैं उठी थी...कब फेरे पूरे हुए.।, कब विदाई हुई.। कुछ नहीं पता।

विदा करते वक़्त माँ ने कहा था... देखना सर पर चढ़ाकर रखेंगे जमाई बाबू। ऐसे लोग बीबी को बहुत प्यार करते हैं।

काश जब माँ ये कह रही थी तो सरस्वती बैठी होती उसकी कंठ में।

किसी लड़की से प्यार था मेरे पति को। उसने धोखा दिया था और बदले में ये बीच सड़क पर अपनी जान देने गए थे। ईश्वर को इन्हें मेरी किस्मत के साथ मढ़ना था सो बचा लिया...लेकिन एड़ी की चोट महीनों इलाज के बाद भी ठीक न हो सकी! लड़खड़ाकर चलना नियति थी अब।

कभी किसी को इतना प्रेम करने वाले मेरे पति के मन में अब केवल घृणा बची थी औरतों के लिए!

प्रेम का हर कतरा सूख गया था। इतना सूखा कि बर्फ-सी जमी रातों में मेरे प्रेम की दहकती अग्नि भी बेअसर रही!

कभी-कभी सोचती हूँ तो घिन्न-सी आती है खुद से! शादी के समय इन अपाहिज पैरों को देखकर हिकारत से भर गई थी... आज उसी पैरों के बीच पड़े मांस के लोथड़े को उकसाने के लिए जाने कितने ही जतन किये मैंने।

पाषाण पुरुष था वो! नहीं पिघला!

"तुम औरतें वासना में किस हद तक गिर जाती हो! जानवरों से भी बदतर हो...धन-दौलत और वासना! बस इतने में सिमटकर रह जाता है तुम स्त्रियों का वजूद। कितनी आग लगी होती है तुमलोगों के अंदर..."

बोलते हुए उसकी कुटिल हँसी थूक के चोते-सी मेरे मुंह पर पड़ी थी।

" हाँ! लगी होती है आग! आज 6 साल हो गए तुम्हारे साथ मुझे इस घर में! इस आग की जलन बर्दाश्त करते-करते! पर कर रही हूँ न बर्दाश्त! कहीं और तो नहीं गयी न...किसी और की बाहों में!

पहली बार दहाड़ी थी मैं..."और जब यही करना था तो शादी क्यों की!"

"करता नहीं तो बदला कैसे लेता इस टूटी टांग का! प्रेम के बदले इस औरतजात ने जो मुझे दिया उसे किसी को तो लौटाना था न!"

उसने जोर से अपनी हथेली पैर पर ठोकी।

मुझे उसकी सोच पर तरस आया और घृणा भी...

" बहाने हैं सब...मैंने व्यंग्य से उसकी कुटिल हँसी उसी को लौटाते हुए धीरे से कहा—मान क्यों नहीं लेता कि नामर्द है तू! तभी वह लड़की भी थूककर चली गयी तुझे! ' —ये कहते हुए मुझे पता था आज की रात मेरी हड्डियाँ बजेगी। पर डर नहीं था। किसी चीज़ का डर नहीं था।

और सुबह मैं उठने की हालत में नहीं थी। घर के बुजुर्ग में सिर्फ इसकी माँ थी। जिसका काम गाहे-बेगाहे मुझे बाँझ कहकर कोंचते रहना था। लज्जा का घूंघट काढ़े मैं चुपचाप सुनती रही फिर एक दिन हिम्मत करके सब सच बक दिया।

जवाब मिला था—"कैसी औरत है अपने पति को रिझा न सकी। काहे की जन्मी फिर औरत जात में!"

हम्म! मेरे बस में होता तो माँ की वह छठी औलाद होती जो अजन्मी रही। पर किस्मत ने नीचे उतार दिया तो जीना ही था।

मेरा पति दिव्यांग नहीं था मानसिक रूप से विकलांग था। ऐसे लोग कभी ठीक नहीं होते। ये मानने में मुझे 6 साल लगे।

मैंने माना और एक दिन एक सूटकेस में अपनी बीती जिंदगी समेटकर निकल गयी उस घर से।

भाई-बहन शायद कर देते कुछ मदद पर अब रिश्तों को आजमाने का हुनर बचा नहीं था मेरे पास।

कॉलेज का एक दोस्त था दिल्ली में। उसने मदद का दिलासा दिया सो आ गयी दिल्ली! सुना है भूले-भटके लोग यहाँ आसरा पा जाते हैं। दोस्त ने एक पीजी में ठहरने की व्यवस्था करवा दी। थोड़ा महंगा लगा पर सर छिपाने के लिए छत मिल गयी। पास के पैसे खत्म हो उससे पहले मुझे कोई काम ढूँढना था। दोस्त ने मदद की और थोड़े जुगाड़ से एक स्कूल में नौकरी मिल गयी। मेहनत करने की बड़ी बुरी आदत थी बचपन से। यहाँ काम आ गयी। हिचकोले खाती जिंदगी ने राह पकड़ ली थी।

स्कूल में सनोबर मैंम से दोस्ती हुई। औसत हाइट, भरा-भरा बदन, काले घुंघराले बाल, चौड़े फ्रेम का चश्मा। उम्र यही कोई 45 के आसपास! दिखने में ठीक-ठाक... पर अविवाहित!

मुझे उनके नीचे रहकर काम सीखना था। बहुत अच्छी सहयोगी थी वो। कितना कुछ सिखा दिया उन्होंने...अच्छे अध्यापन के गुर भी और विपरीत परिस्थितियों से लड़ने के दांव-पेंच भी।


जीवन में सबकुछ अगर आसान होता तो फिर क्या बात होती। पीजी में रहना पहले भी महंगा लग रहा था पर घर जमाने लायक पैसे थे नहीं पास में। मैं किसी तरह पैसे जोड़ ही रही थी कि अचानक पीजी का चार्ज बढ़ा दिया गया। वहाँ रहना अब मुश्किल था मेरे लिए।

मैं परेशान थी। जो सनोबर मैंम से छिपी न रह सकी।

"मेरे साथ रहेंगी पूर्वी मैंम? मैं अकेली रहती हूँ और फ्लैट भी बड़ा है। सामान इतना है जिसमें दो लोग आराम से रह सके। आप चाहो तो आधा रूम रेंट दे देना। मुझे भी कंपनी मिल जाएगी आपके आने से।"

उस दिन उनका स्नेहिल व्यवहार मेरे दिल को छू गया। मैंने खुशी-खुशी हामी भर दी।

उन्होंने अपनी लैंडलॉर्ड से बात की और मैं आ गयी उनके घर रहने उनकी रुम पार्टनर बनकर!

जीवन में कितना कुछ अप्रत्याशित घट रहा था और इन सबसे मेरे सगे अनजान थे। जाने क्या मन में आया, एक दिन मैने माँ को कॉल कर दिया!

कितना कुछ था बताने को लेकिन उधर से पापा की बीमारी...भाई की नौकरी में झंझटें, माँ के दाँत की तकलीफ, मौसी की मौत और भाभी की शिकायतों की ऐसी पिटारी खुली जिसमें मेरी उलझनें दब गई। एक बार भी ये प्रश्न नहीं हुआ—तुम कैसी हो पूर्वी?

"आवाज़ नहीं आ रही माँ... बाद में करती हूँ..."

कंठ अवरुद्ध हो गया था कहने में। मैंने फोन रख दिया...

फिर दुबारा न मैंने किया न उधर से ही कभी आया।


कभी यही माँ मेरे बीमार होने पर आँखों में रात काट देती थी आज समंदर की ऊंची-उठती लहरों को झेलती बेटी के दो बोल सुनने से पहले फोन काट दिया।

अब भावनाएँ शून्य हो रही थी। मुझे अपना बचपन याद आ गया...

स्कूल जाते समय एक वृक्ष देखती थी। घना, ऊंचा, हरा-भरा! धीरे-धीरे उसपर दिखने लगे कुछ होर्डिंग्स! कभी किसी प्राइवेट कोचिंग का प्रचार... कभी नौसिखिए डॉक्टर का... कभी किसी नई दुकान का...

कीलें धँसती गयी और फिर न जाने क्या हुआ ऊपर से हरा-भरा दिखता वह वृक्ष एक दिन खोखला हो गया! सूखे तने, सूखी पत्तियाँ, कमजोर होकर टूटती टहनियाँ!

कोई दुर्घटना न हो ये सोचकर नगर निगम वाले उसे काटकर ले गए।

लोग कहते थे कैसे सूख गया! पर उसके अस्तित्व को मिटाने वाले उन कीलों की भूमिका गौण ही रही!

खाली नहीं रही वह जगह! भर गई है पर मुझे अभी भी वह घना वृक्ष याद आता है। जून की दुपहरी में उसके नीचे खड़ा वह कच्चे आम बेचने वाला याद आता है...और याद आती हैं वे कीलें!

कुछ कीलें दिखती नहीं पर उसकी चुभन पूरी उम्र छीलती है कलेजा!

खैर...सनोबर मैंम के यहाँ कुछ दिन अटपटा लगा फिर धीरे-धीरे मैंने अपने हिस्से का काम और जिम्मेदारियाँ बांट लिया। हम साथ स्कूल जाते, खाना बनाते, गप्पें लड़ाते।

जिंदगी पटरी पर आ रही थी। सनोबर मैंम अब मेरे लिए सिर्फ सनोबर थी। हम अच्छे दोस्त बन गए थे।

दिसम्बर आया! स्कूल में क्रिसमस की छुट्टियाँ शुरू हुई। मेरा तो कोई था नहीं अब, जिसके पास छुट्टियाँ बिताने जाती। मुझे पता था मेरी छुट्टियाँ कपड़े धुलने, किताब पढ़ने, सोने और घर के कामकाज में कटने वाली है। ऊपर से सनोबर भी नहीं रहती तो बोर ही होने वाली थी मैं।

दो दिन बीत गए लेकिन सनोबर गयी नहीं। एकबारगी मैंने सोचा...नहीं पूछती हूँ क्या पता बुरा लग जाये पर फिर पूछ लिया।

"आप जाओगे नहीं कहीं छुट्टियों में?"

"कहाँ जाऊंगी?" उसने मुझसे ही प्रश्न किया।

"कहीं घूमने या अपने घर!"

मेरे ये कहने पर वह एक पल चुप होकर मुझे देखती रही फिर मुस्कुराकर गर्दन को न में हिला दिया।

"क्यों? घर क्यों ...नहीं।"

वो गुमसुम-सी बैठ गयी। बहुत देर तलक उसकी नज़रें खिड़की के बाहर शून्य में देखती रही। कुछ चल रहा था मन में...मैं उसकी चुप्पी टूटने के इंतज़ार में बैठी रही।

उसने बोलना शुरू किया—

" पूर्वी जब मैं नौ साल की थी तभी मेरी माँ चल बसी। पापा के पुनर्विवाह में मैं आड़े आ रही थी। तो मुझे होस्टल भेज दिया गया। बिन माँ की सहमी-सी छोटी बच्ची...होस्टल में बड़ी होने लगी।

कुछ मुझे दुत्कारती तो कुछ स्नेह छलकाती। उन्हीं में थी शिप्रा दी। मुझे बहुत प्यार करती। कभी-कभी उनके स्कूल बैग से गुलाब के फूल और चॉकलेट निकलते। मेरी समझ उतनी नहीं थी पर उनकी हमउम्र सहेलियाँ उन्हें खूब छेड़ती। एक रात अजीब-सी आवाज़ों से मेरी नींद खुल गयी!

मैं शिप्रा दी के साथ ही सोती थी। देखा तो मद्धम रौशनी में वह एक किताब के पन्ने पलट रही। उनकी सांसें तेज़ चल रही थी। मुझे जगा देखकर वह मुस्कुराई और प्यार से मेरा सर सहलाने लगी। फिर मेरे होंठ चूमकर मुझसे कहा-टॉफ़ी खायोगी।

मैंने हाँ कहा तो उसने बैग से चॉकलेट निकाली और देते हुए कहा-"खा लो पर मेरा एक काम करना होगा।"

उसने किताब का पन्ना खोला और एक तस्वीर को दिखाकर बोली-"ऐसे करोगी तो रोज चॉकलेट दूँगी बड़ी-बड़ी। साथ में आइसक्रीम भी...लेकिन शर्त है कि किसी को कहोगी नहीं ये सब!"

बहुत अजीब-सी तस्वीर थी। पर चॉकलेट की लालच में मैं सब करने को तैयार हो गयी। उन्होंने अँधेरा किया और मुझे अपने चादर में ले लिया...अपनी दोनों जांघों के बीच! वह जैसे-जैसे बताती गई.।मैं उसी तरह अपनी जीभ...!

अब तो हर रात शिप्रा दी मुझसे यही सब करवाने लगी। पहले चॉकलेट देती रही और धीरे-धीरे चॉकलेट की जगह धमकियों ने ले ली।

कई बार मुझे उबकाई आने लगती...उत्तेजना में वह मेरे बालों को पकड़कर जबरन पास खींचती।

मेरा मन रात होते ही घबराने लगता। छुट्टियों में घर गयी तो बहुत बार चाहा कि ये सब बोल दूँ ...लेकिन किससे बोलती। मेरे जाते ही मेरे लौटने की तारीखें गिनी जाने लगती। पापा के दो छोटे बच्चे और आ गए थे, उन्हें उससे फुर्सत नहीं थी।

कुछ दिन काटकर मैं लौट आती वापस उसी अंधेरों में...उन्हीं जांघों के बीच!

फिर धीरे-धीरे मैं अभ्यस्त हो गई.।मेरे शरीर की बनावट भी अब अपना आकार ले रही थी...अब शिप्रा दी क़ी तरह मैं भी अपनी नई साथी के साथ...

वो एक अलग नशा था! ऑंखें मुँदी हुई.।दिमाग शून्य!

ये नशा ऐसा चढ़ा कि लड़कों से विरक्ति हो गयी। बस विरक्ति हुई.।इसे नफरत मत समझना। उनके छुअन की कल्पना से मैं सिहर जाती...लिजलिजा सा...याक्क...! जो उबकाई कभी शिप्रा दी के गीले शरीर को छूने से आती थी वही अब पुरुष स्पर्श सोचकर आने लगी। जाने क्या मनोवैज्ञानिक बदलाव आ गया था मुझमें।

एक और बात थी...उन्हीं दिनों कई एक दोस्तों की असफल शादियाँ देखी। एक दोस्त थी जो अपने पति के जबरदस्ती सम्बंध बनाने से परेशान थी... मैंने ठान लिया था मैं अकेली रहूंगी अपनी मर्ज़ी की मालकिन बनकर।

मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी पुरुष ने मुझे शारीरिक यातना दी हो। वर्क प्लेस पर भी अच्छे पुरुष सहकर्मी मिले इसलिए पुरुषों से घृणा नहीं थी। पर मैं क्या करूँ! मेरे प्रेमिल सपनों में कभी कोई पुरुष आया ही नहीं केवल प्रेयसी दिखी।

शादी के नाम से जी उखड़ गया था।

घर के लोगों को मेरे से ज्यादा मतलब था नहीं।

तो मैंने भी अपने रास्ते अलग मोड़ लिए। ऐसे ही चल रही थी जिंदगी कि तुम मिल गयी...बेहद अपनी सी.।"

बोलते-बोलते सनोबर चुप हो गयी। उसकी नज़रें अब मुझपर थी।

"तुम्हें मुझसे घिन आ रही होगी न पूर्वी?" उसने प्रश्न किया।

मैं चुप थी। अंदर कोई द्वंद नहीं... सब शांत स्थिर था!

मेरे लिए ये नया पन्ना था। एक तरफ मैं थी जो सालों तक प्रेमभरे अनछुए एहसास को तरसती रही...एक मर्द के अधीन रहकर अपनी कामनाओं के लिए गिड़गिड़ाती रही...और एक तरफ ये थी सनोबर! जिसने खुद ही अपने आप को मर्दों की इस दुनिया से परे कर लिया।

हमदोनों औरतें जरूर पृथक थी पर हमदोनों के मन के भाव समलैंगिक थे।

एक को मर्द ने ठुकराया...दूसरी ने मर्दों के अस्तित्व को ही दफना दिया। उसने अपनी खुशी अपनी ही बिरादरी में ढूँढी।

क्षण भर का आनंद जिसे मर्द अपनी जागीर समझता है। जिसके लिए वह अभिमान करता है अपने पौरुष पर। उन्हें तो भद्दी गाली ही लगेगी न ऐसे सम्बंध!

हाँ ऐसे रिश्तों को अपनाने में इस समाज को बहुत वक़्त लगेगा पर अपनाना तो होगा।

खजुराहो की दीवारों पर बने अनर्गल मैथुन मूर्तियों को देखकर ऐसे लोगों की कामवासना जाग्रत हो जाती है पर जब वही सम्बंध वास्तविक जीवन में दिखे तो उबकाई आती है।

आती रहे उबकाई! पर सिर्फ कानूनी पन्नों में ही नहीं, समाज में भी ये निषिद्ध जोड़े अपनाए जाएंगे।

मुझे मैं दिखने लगी! अपने पति के पैरों के बीच लोथड़े से जूझती...पसीने से तरबतर! बीच में कुटिल हँसी हंसता मेरा पति!

बचपन का वह पेड़ घूमने लगा...कीलों से बिंधा हुआ!

नहीं...!

मुझे उस पेड़ की तरह सूखकर गिरना नहीं है। अपने अंदर धंसी कीलों को खुद ही निकालना है... अपनी खुशी आप ही तलाशनी है

रास्ता सामने था...सब साफ दिख रहा था। एक नया सफर, जो आसान नहीं था लेकिन दमघोंटू भी नहीं होगा इतना यकीन था।

मैंने सनोबर की सर्द पड़ी उंगलियों को अपनी हथेली में समेटा और बिस्तर की तरफ बढ़ने लगी...