निष्कम्प लौ: डॉ. सुधा गुप्ता के काव्य में स्त्रीत्व निरूपण / कुँवर दिनेश

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अँग्रेज़ी कवि-नाटककार विलियम शेक्सपियर ने अपने एक नाटक 'हैमलेट' में एक संवाद में कहा है―"कमज़ोरी, तेरा नाम औरत है।" इस उक्ति का प्रसंग जो कुछ भी रहा हो, किन्तु शताब्दियों से इसे स्त्री की अबला स्थिति के लिए प्रयुक्त किया जाता रहा है। बात चाहे शरीर की हो, मन की हो अथवा सामाजिक स्थिति की हो, स्त्री को सदा ही असमर्थ व अबला माना जाता रहा है। आज के अत्याधुनिक युग में स्त्री की स्थिति नि: सन्देह सुदृढ़ हुई है―स्त्री के लिए सामाजिक न्याय, अधिकार एवं सशक्तीकरण के प्रयास हुए हैं लेकिन वास्तव में स्त्री की स्थिति कितनी सशक्त हुई है, इस विषय पर कई प्रश्न-चिन्ह अभी भी बने हुए हैं। कुछ समय से साहित्य में स्त्री-विमर्श के माध्यम से भी स्त्री की शारीरिक, मानसिक / मनोवैज्ञानिक, पारिवारिक, सामाजिक तथा राजनीतिक स्थिति पर चर्चा जारी है, किन्तु देखना यह है कि यथार्थ के धरातल पर कितना और किस प्रकार इस दिशा में सुधार कार्य किया जा रहा है।

समकालीन हिन्दी कविता की सशक्त हस्ताक्षर डॉ. सुधा गुप्ता के काव्य में स्त्रीत्व के विविध आयाम और रूप देखने को मिलते हैं। पाश्चात्य नारीवाद के उग्र सिद्धान्तों पर इनके काव्य में रूपायित स्त्री को न देखते हुए, भारतीय सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में उसे समझने की आवश्यकता है। इनके काव्य में स्त्रीत्व भावना-प्रधान है जो भीतर से टूटी हुई है, व्यग्र है, व्यथित है, किन्तु मुखर रूप से विद्रोही नहीं है। डॉ. सुधा गुप्ता के कविता-संग्रह "आदमक़द वसन्त" (1988) में स्त्री एक प्रणयिनी के रूप में संयोग-वियोगात्मक प्रणयानुभूति के साथ-साथ पुरुष की संगिनी के रूप में भी अह्लाद एवं विषाद के मनोभाव लिए विद्यमान है। स्त्रीत्व का निरूपण कोमलता, भावुकता, धैर्य, सहनशीलता, मौन स्वीकृति, विनम्रता, करुणा, त्याग तथा समर्पण इत्यादि भावों में हुआ है। रोष, चिन्ता, पीड़ा, व्यथा, व्यग्रता, उपेक्षा एवं उद्विग्नता के क्षणों को स्त्री अकेले ही, बिना किसी प्रतिक्रिया अथवा प्रतिरोध के सहन करती हुई दर्शाई गई है। स्त्री का आक्रोश उसके हृदय में जाज्वल्यमान रह सकता है, उसकी बाह्याभिव्यक्ति नहीं होती है। डॉ. सुधा गुप्ता ने स्त्रीत्व की ऐसी प्रवृत्ति के कारण को अपनी एक कविता "पत्थर-1" में स्पष्ट किया है:

बचपन में / दादी माँ की देखादेखी

पत्थर की प्रतिमा / पूजती थी

जब बड़ी हुई / तो उसकी निरर्थकता समझ तो पाई

लेकिन / आदत तो आदत है । । ।

जब तुम मिले तो / बस, तुम्हें पूजना शुरू कर दिया

यानी / पत्थर पूजा की आदत से / मुक्ति / नहीं पाई!

(आदमक़द वसन्त, पृ। 3)

नि: सन्देह पुत्रों और पुत्रियों को बाल्यकाल से ही पृथक्-पृथक् ढंग से दिए जाने वाले पारिवारिक संस्कारों तथा सामाजिक दिशा-निर्देशों से पुरुषत्व और स्त्रीत्व का निर्माण होता है और ये प्रवृत्तियाँ ही आदतों का रूप धारण कर लेती हैं।

डॉ. सुधा गुप्ता ने अधिकाँश कविताओं में प्रकृति के क्रिया-कलापों में, ऋतुओं के रंगों में स्त्री-जीवन के आरोह-अवरोहशील मनोभावों को चित्रित किया है। यथा "ग्रीष्म-1" में ऋतु के स्वभाव के साथ अपने अन्तर के भाव को जोड़ा है:

वैशाख / का / उदास

रूख़ा / नीरस वातास:

विफल इन्तज़ार में

जागकर काटी रात

प्रिय ने न पूछी बात। । ।

(पृ. 15)

पुरुष द्वारा स्त्रीमन की उपेक्षा तथा स्त्री के कोमल हृदय को न समझ पाना, स्त्री और पुरुष के मध्य भावात्मक दूरता बनाए रखते हैं। अपने प्रति इस अनदेखी को स्त्री अकेले ही सहती रहती है, प्रकट नहीं करती है। "ग्रीष्म-2" में भी कवयित्री ने ऋतुओं के साथ अपने एकाकीपन की वेदना को बेहद मार्मिक ढंग से जोड़ा है:

धूसर केशा / वयस्का दोपहर

देहरी पर बैठी है उन्मन, उदास

कुछ दिन / हँसी-ख़ुशी मायके रहकर

फूल-बच्चे साथ लेकर / वासन्ति बिटिया

लौट गई पिया के पास

सूना घर / काटने को दौड़ता है!

(पृ. 16)

"ग्रीष्म-3" में कवयित्री ने परिवार में पुरुष के अहंकार से जूझती स्त्री को सूर्य, यामा और हवा के बिम्बों से चित्रित किया है:

तुनक-मिज़ाज / गृहपति सूर्य

पूरे दिन ताप दिखाता रहा

'प्रॉब्लम-चाइल्ड' हवा

सारा दिन उत्पात मचाती रही

सुगृहिणी यामा / घुट-घुटकर

दोनों के नख़रे उठाती रही ...

(पृ. 17)

पुत्र 'प्रॉब्लम-चाइल्ड' हवा की तरह धरती से ऊपर ही रहता है, यानी बेपरवाह घूमता है, तो पुत्री माँ की परवाह करती है: "आकर / लिपट गई माँ से / संतुलित-सुरभित व्यक्तित्व वाली / । । । / बड़ी बिटिया: बेले की कली..." (पृ। 17)

"मुखौटा" और "उसकी दुनिया" जैसी कविताएँ स्त्री की दिनचर्या / नित्यचर्या का चित्र प्रस्तुत करती हैं जो उसकी जीवनचर्या बन चुकी है, जिसमें गृहिणी की भूमिका निभाने में परिवार के सब सदस्यों की सेवा करने में ही स्त्री का प्रति दिन व्यतीत हो जाता है और जीवन व्यतीत हो जाता है:

सब कुछ करते-धरते / सबको भरते-भरते

उसका / जीवन-प्याला / रीत गया!

एक दिन और / बीत गया!

(पृ. 8-9)

दूसरों के सेवाकार्य में अपने जीवन को समर्पित कर देने वाली स्त्री का अपना हृदय उत्तप्त एवं तृषित रह जाता है, जैसा कि "रक्तबीज" में स्वनित हुआ है: "बचपन की दबी / ज़िद्दी-ग़ुस्सैल-बिगड़ी हुई / मेरी प्यास / आक्रोश से भर / सैंकड़ों चेहरे लेकर / मेरे सामने चीख़ने लगी ― / और .. और ... और ... " (पृ। 28)

एक अन्य कविता "कहाँ है?" में स्त्रीमन की व्यग्रता को कवयित्री ने इस प्रकार ध्वनित किया है: "आशा और भय के जबड़ों में चकनाचूर / चक्करदार भूल भुलैया में / फँसकर / निरन्तर / भटक गई है / रास्ता ― ग़ुम अँधेरों में / । । । / और राह है / कि / ख़त्म होने में नहीं आती!" (पृ। 43) और इस अनन्तिम परिस्थिति में स्त्रीमन प्रश्न खड़ा करता है: "कहाँ है / रोशनी का वह सिरा / जिसे पकड़कर / अगर वह चल दे / तो / पहुँचा दे उसे / उसकी / मनचाही दुनिया में?" (पृ। 43)

वास्तव में भारत के पुरुषसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में स्त्री को स्वतन्त्र रूप से अपने जीवन के मिर्णय लेना आसान नहीं है। "घटाटोप अँधेरा अन्तहीन" में कवयित्री एक स्त्री के अन्तर्जगत् में व्याप्त अन्धकार को इन शब्दों में कहती हैं: "ख़ुद को चुराकर ख़ुद से / तुम तक न जा सकी / तुमको चुराकर तुमसे / ख़ुद तक ला न सकी / और अब ये अँधेरा । । । अन्तहीन । । ।" (पृ। 31) एक अन्य कविता "क्या करूँ?" में स्त्रीमन की दुविधा मुखरित है: "मैं / । । । / अपनी जर्जर कोठरी का / द्वार / बन्द कर / बाहर आ खड़ी हुई थी / अगली यात्रा पर / निकल पड़ने को / कि / अचानक / तुम / अतिथि बन / द्वार पर / आ पहुँचे । । । / क्या करूँ? / यात्रा स्थगित कर / तुम्हारी अगवानी? / या / अनदेखा कर / चल दूँ / अपनी / अनाम / अगली / यात्रा पर?" (पृ। 40-41)

पुरुष की आज्ञा के बिना औसत भारतीय स्त्री के लिए स्वेच्छा से कोई निर्णय लेना सम्भव नहीं हो पाता। जीवन को अपनी शर्तों पर जीना अत्यधिक कठिन हो जाता है। "नहीं मिले" कविता में कवयित्री स्त्रीमन की व्यथा बताती हुई कहती है कि उसके पास इतनी शक्ति नहीं कि वह मनचाहे ढंग से कोई परिणति ला सके, प्रत्युत उसके सामने एक ही रास्ता है-बिना कोई शर्त, आत्मसमर्पण व त्याग का:

बहुत तलाशा

पर / कुछ नहीं मिला:

मेरे पास / न रंग हैं― / न फूल― / न लौ दीप की!

सिर्फ़ मैं ख़ुद खड़ी हूँ―अकेली

रंगभरी तूलिका―मैं!

शहदीला फूल―मैं!

निष्कम्प लौ―मैं!

अपने से अपने में तुम्हें चित्रित करती

ख़ुद को बिन शर्त और समूचा तुम्हें दे डालने को आतुर। । ।

(पृ. 78)

डॉ. सुधा गुप्ता के अन्तर की निष्कम्प लौ उन्हें निरन्तर एक सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करती है, वाञ्छित ऊष्मा प्रदान करती है तथा जीवन के अँधेरे पथ पर आगे बढ़ते रहने के लिए प्रकाश भी प्रदान करती है। टकराव या तनाव का मार्ग न अपनाकर, कवयित्री ने सकरात्मक एवं रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाने का संदेश दिया है:

कहीं, कोई भी तो नहीं था

न कोई मल्लाह / न कोई साथी मुसाफ़िर

दूर-दूर तक / कहीं कोई पाखी तक नहीं

सिर्फ़ / जल था / एक नौका और

एक मैं / अकेली मुसाफ़िर

मैं / ख़ुद मल्लाह थी / ख़ुद पतवार

ख़ुद मुझे ही तो नाव खोलनी थी!

(पृ. 48)

इस प्रकार डॉ. सुधा गुप्ता ने स्त्रीत्व को आत्मज्ञान एवं आत्मावलम्बन से आत्मसशक्तीकरण की ओर ले जाने की बात कही है। इनकी कविताओं में सभी बिम्ब एवं प्रतीक स्त्रीत्व-बोधक हैं, जैसे याद, रात, साँस, ख़ुशबू, मैना, लहर, वर्षा, इच्छा, पीड़ा, उम्मीद, लौ― ये सभी स्त्रीमन के पर्याय हैं। दूसरी ओर वक़्त, पल, दर्द, सूरज, ग्रीष्म, वसन्त, हवा, अँधेरा, पत्थर, जुगनू, प्रकाश, जीवन―ये सभी पुरुष के अहं के द्योतक हैं। समस्त स्त्री-प्रश्न अपने स्थान पर न्यायोचित और तर्कसंगत हैं, किन्तु डॉ. सुधा गुप्ता ने अपने समन्वयात्मक एवं सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ इन सभी द्वन्द्वों का परस्पर विलयन होते दिखाया है। नि: सन्देह डॉ. सुधा गुप्ता की कविताएँ भारतीय समाज के पारम्परिक जीवन-मूल्यों का निर्वहन करते हुए, विरोध अथवा विद्रोह की प्रत्येक सम्भावना को नियन्त्रित रखकर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में अद्भुत् सामंजस्य की बानगी प्रस्तुत करती हैं। 


-0-