नि:शब्द / अर्चना राय

Gadya Kosh से
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अपनी साँसों की ऊपर-नीचे होती रिदम को संयत करते हुए, अनिल के कान केवल अनाउंसमेंट पर टिके थे। उसकी तरह ही अनेक सहकर्मी भी इसी ऊहापोह की स्थिति में खड़े थे। आज मंदी की चपेट में आई कंपनी से कर्मचारियों की छटनी होने वाली थी। इसलिए सभी अपने-अपने भविष्य को लेकर चिंतित खड़े थे।

"मिस्टर अनिल शर्मा यू आर नाउ इन, एण्ड प्रमोटेड टू सीनियर पोस्ट।"

अनाउंसमेंट सुनकर उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। क्योंकि जहाँ उसके कई काबिल साथी नौकरी से हाथ धो बैठे थे, ऐसे में प्रमोशन होना, उसके लिए सपने से कम नहीं था। वजह थी कंपनी के दिए कार्य को, पूरी ईमानदारी से नियत अवधि में पूरा करना तथा कभी अनावश्यक अवकाश न लेना था।

उसकी ख़ुशी का पारावार नहीं था। इसलिए ऑफिस से निकल कर, रास्ते से एक सुंदर गुलाब के फूलों का गुलदस्ता खरीद कर, टैक्सी ड्राइवर को कार तेज चलाने को कह, जल्दी बैठ गया। उसका वश चलता तो, आज उड़ कर पहुँच जाता।

कार की पहियों के साथ, उसका मन भी कहीं तेजी से अतीत में घूमने लगा।

पत्नी उससे ज़्यादा पढ़ी-लिखी ही नहीं, उससे समझदार भी थी। यह बात वह शादी के कुछ दिन बाद ही समझ गया था। क्योंकि उसने आते ही, घर के साथ-साथ बाहर की भी आधे से ज़्यादा जिम्मेदारियाँ, अपने ऊपर सहर्ष ले ली थी।

अपाहिज पिता को हर हफ्ते हॉस्पिटल ले जाने के लिए, छुट्टी लेने कि उसकी समस्या को पत्नी ने बिना किसी गिले-शिकवे के हल कर दिया। मिली राहत से, उसके दिल ने थैंक यू कहना चाहा पर

"ये तो उसका फ़र्ज़ है।"-सोच पुरुष अहं ने कहीं न कहीं रोक दिया।

बैंक, बिजली-पानी बिल आदि की लंबी लाइनों में खड़े होने की उबाऊ जद्दोजहद से भी उसे आजाद कर दिया, तब उसके दिल ने खुश हो, थैंक्यू बोलना चाहा तो

"ठीक है, इतना बडा काम भी नहीं कर रही।"-पुरुष अहं फिर आडे आ गया।

बच्चों के लगातार उत्कृष्ट प्रदर्शन से पिता होने के नाते अपनी तारीफ सुन, वह गर्व से भर उठता और उसका दिल पत्नी को धन्यवाद कहने आतुर हो उठता।

"तो क्या हुआ? ये तो माँ का ही फ़र्ज़ होता है।"-पुरुष अहं ने एकबार फिर फ़न उठाकर उसे रोक लिया।

"सर ...आपका घर आ गया।"-ड्राइवर की बात सुनकर वह अतीत से वर्तमान में लौटा। गेट के बाहर, पत्नी को बेचैनी से चहल कदमी करते देख, जल्दी से पास आकर गुलदस्ता देते हुए, मुस्कुराकर बस एक ही शब्द कहा

"थैंक यू।"

आज पुरुष अहं पहली बार दूर मौन खडा था।