नीम का पेड़ / राही मासूम रज़ा / पूजा रागिनी

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'नीम का पेड़' -- राही मासूम रज़ा साहब द्वारा रचित एक धारावाहिक है जिसे उपन्यास के तौर पर रूपान्तरित प्रभात रंजन जी ने किया है। 'नीम का पेड़' सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दशा की दास्तान है। दो मौसरे भाई होते हैं अली ज़ामिन और मुस्लिम मियाँ। उनकी लड़ाई बाग और ज़मीन के लिए है। अली ज़ामिन का नौकर है बुधई. जिस दिन उसके बेटे का जन्म होता है, उसी दिन उसने अपने द्वार पर नीम का पेड़ लगाया था। बुधई को अपने बेटे से ज़्यादा नीम के पेड़ से लगाव रहता है। बुधई अपने बेटे का नाम सुखीराम रखता है। बुधई सोचता है कि सुखीराम उसकी तरह बेगारी नहीं करेगा...वो स्कूल जाएगा।

इस कहानी में आपको हदें भी दिखाई देंगी और सरहदें भी। नफरतों की आग में मोहब्बतों के छींटे दिखाई देंगे। सपने दिखाई देंगे तो उनका टूटना भी। इस उपन्यास में राजनीति के कारण मदरसा खुर्द और लछमनपुर का ही पतन मात्र नहीं, दो मौसरे भाइयों का ही पतन नहीं है बल्कि ये मुल्कों की अदावत की तरह है, जिसमें कभी कोई पलड़ा भारी रहता है कभी कोई. इसमें न कोई हारता है न कोई जीतता है। बस नफरत का एक सिलसिला बाकी रह जाता है।

इस उपन्यास में वही मज़दूर है जो हमेशा से था और हमेशा रहेगा। जिसकी बेचारगी उससे ग़लत से भी ग़लत काम करवा सकती है। ये उपन्यास कानूनी व्यवस्था पर प्रहार करता है। जिसमें बंदूक के डर से गवाह पैदा किये जाते हैं। इस उपन्यास में लिखा है ज़िंदगी में हर चीज़ की अपनी क़ीमत है। लेकिन यह भी सच है कि बाज चीज़ें ज़िंदगी से भी ज़्यादा क़ीमती हैं। इस उपन्यास में दुख है, घुटन है, उदासी है। उपन्यास पढ़ते समय आपको रोना तो नहीं आएगा हाँ उदासी से सामना ज़रूर होगा। जब इंसान सही ग़लत में फ़र्क तो कर ले, लेकिन इसके बावजूद वह करता ग़लत ही है।

बुधई नीम के पेड़ के माध्यम से अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए बताता है कि ये वही नीम का पेड़ है जिसपर बच्चे झूला झूलते थे, निमकौरियों के हार, तिनकों के घर बनाते थे। इसी नीम के पेड़ ने भाईयों की लड़ाई देखी, बुधई की उदासी देखी। सुखीराम का बदला हुआ रूप देखा, इसी नीम के पेड़ ने वह समय भी देखा जब बुजुर्गों से ज़्यादा कुत्ते की इज़्ज़त हो गयी। बच्चे पैदा होने से पहले मार दिए गये।

राही मासूम रज़ा साहब का ये उपन्यास उस परम्परा की शुरुआत करता है जब कोई व्यक्ति विशेष उपन्यास का मुख्य किरदार न होकर नीम का एक पेड़ मुख्य किरदार है। इस उपन्यास में दास्तानगो नीम का पेड़ है। इस उपन्यास की भाषा खड़ी हिंदी, गंवई हिन्दी मिश्रित उर्दू में है। जो उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में बोली जाती है।

नीम का पेड़ दास्तान सुनाते हुए कहता है कि मैं एक मामूली नीम का पेड़ हूँ ...तो क्या हुआ समय की कितनी करवटें देखी हैं मैंने। मैं बुधई के दरवाज़े खड़ा समय को बीतते देखता रहा...इस तरह के मार्मिक कथन से मन उदासी से भर जाता है। उपन्यास शुरू से अंत तक अपनी सरलता बनाए हुए है। इस उपन्यास में व्यंग्य भी सहज बोली में कहा गया है। इस उपन्यास के पात्रों का व्यवहार बहुत ही सहज है। जो अपने आस पास के लोगों से मिलता हुआ दिख जाता है। जिससे पाठक इस उपन्यास से जुड़ते हैं। यही सरलता इस उपन्यास की जान है।

इस उपन्यास में राही मासूम रज़ा साहब उतनी वेदना नहीं व्यक्त कर पाते जो प्रेमचन्द्र जी ने अपने उपन्यासों में व्यक्त की है। सम्भवतः इसका कारण इस उपन्यास का छोटा होना रहा होगा। तेज़ी से घट रहे घटनाक्रम ही उपन्यास की नकारात्मक्ता है।

लेकिन यह उपन्यास वयस्कों को मुख्यतः पसन्द आना चाहिए. उपन्यास पढ़कर शोषक वर्ग की स्थिति समझी जा सकती है। यही इस उपन्यास का आकर्षण भी है। पुराने भारत और नए भारत में शोषण का स्तर समझने के लिए उपन्यास को पढ़ना चाहिए।