नीम का वह पेड़ / अमित कुमार झा

Gadya Kosh से
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वर्षों तक वह नीम का पेंड़ यात्रियों को छाँव प्रदान करता रहा। प्राय: यायावर लोग छाँव के लिए नीम के पेंड़ को प्राथमिकता देते हैं। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि नीम के पेंड़ के पास साँप-ढोढ़, कीड़े-मकोड़े नहीं आते हैं।

गाँव तक बिजली पहुँचने वाली है। गाँव वालों की खुशियों का ठिकाना नहीं है। स्वाभाविक ही है कि आज तक जिस गाँव का कोई व्यक्ति कॉलेज भी न गया हो, ऐसी जगह बिजली का पहुँचना किसी चमत्कार से कम नहीं होता। लालटेन-डिबिया की कालिख से छुटकारा मिल जाएगा। रौशनी भी खूब रहेगी। किसी को ताश खेलने में मजा आएगा। जगमग प्रकाश रहेगा तो साहूजी के दुकान में चूहा नहीं आएगा। बच्चे खुश हैं कि पढ़ाई करने में भी मजा आएगा। बुधिया ने जो अपनी टुमनी में रैजकी भर कर रखा है। उससे वह सीली पंखा (सीलिंग फैन) खरीदेगी, और अपने फूस के घर के धरैंग में उसे टाँग देगी और गर्मी की रात में सारे बाल-बच्चे चैन से सोएँगे।

सब खुशी से झूम रहे हैं। लेकिन उस नीम के पेंड़ का दर्द कोई नहीं समझता। गाँव जाने वाली सड़क के किनारे वह नीम का विशाल पेंड़, जो तकरीबन ४५ वर्षों से राहगीरों को छाँव तथा ग्रामीणों को औषधि उपलब्ध कराता आया है। वह भी नि: स्वार्थ भाव से।

जब सड़क का पक्कीकरण होने लगा तब सड़क की ओर झुकी हुई उसकी सबसे विशाल शाखा को काट दिया गया। उस डाल को कटवाने में रतन का बड़ा हाथ था। सुनते हैं कि ठेकेदार और पथ निर्माण विभाग के अभियंता सड़क को टेढ़ी करने के लिए तैयार हो गए थे। लेकिन ऐसा करने से रतनमा का दो धूर जमीन सड़क में चला जाता था। सो उसने ठेकेदार को चाय-पानी पिलाकर उस डाल को ही कटवा दिया। उसके बाद तो पेंड़ जैसे ठूँठ ही हो गया था।

खैर, गाँव में बिजली आने की पूरी प्रक्रिया पूरी हुई. गाँव तक बिजली पहुँचाने के लिए जो ११, ००० वोल्ट करंट वाली तार लगाई गई थी, उस तार से उस नीम के पेंड़ के कुछ बचे-खुचे डालों में से एक डाल लगता था। हालाँकि जब वायरिंग हो रही थी उस समय पेंड़ की डाल उस तार से एक फीट की दूरी पर थी। परंतु तार में बिजली के आते-आते एक बरसात बीत गई और वह डाल तकरीबन दो फीट बढ़ गया।

जैसे ही तार में पहली बार बिजली प्रवाहित हुई, पेंड़ की समूची भौतिकता थर्रा उठी। पेंड़ थर-थर काँपने लगा। वह रो तो ज़रूर रहा होगा किंतु ईश्वर ने उसे 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' नहीं दी थी। उसकी चीख-पुकार कोई मनुष्य नहीं सुन सका और अंतत: तीन दिनों के अंदर ही वह पेड़ सूख चुका था।

उन्हीं दिनों गाँव में एक संन्यासी का आगमन हुआ। उन्होंने बताया कि नीम की लकड़ी का धुआँ सेवन करने से सारे रोग-व्याधियों से मुक्ति मिलती है।

और दूसरे दिन सुबह होते उस पेंड़ की जगह वीरान हो गई। अब तो कोई नया आदमी विश्वास भी नहीं करता कि किसी जमाने में वहाँ नीम का एक विशाल पेंड़ हुआ करता था।