नीरज जी जब पूना आए / दीप्ति गुप्ता

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मेरी न जाने कब-कब की लिखी हुई कविताओं के संग्रह का ड्राफ्ट तैयार करते -करते 2004 से जनवरी 2005 आ गया ! फिर सोचा कि पहला काव्य-संग्रह है, किसी वरिष्ठ कवि के आशीष वचन लिखवाने चाहिए ! अचानक मन में आया - क्यों न नीरज जी से निवेदन किया जाए ! अगर इस काव्य संग्रह के लिए वे आशीर्वचन लिखेगें तो मेरे लिए कितना प्रेरणास्पद होगा ! मैंने पूना के सबर्ब 'पिम्परी ' में कवि सम्मेलनों के आयोजक राकेश श्रीवास्तव से, नीरज जी का पता और फोन नंबर लिया ! किसी से मुझे पता चला था कि 2004 में श्रीवास्तव साहब द्वारा आयोजित कवि गोष्ठी में नीरज जी, तबियत खराब होने की वजह से नहीं आ पाए थे और भोपाल तक आ कर लौट गए थे ! आयोजक को जनता की बहुत सुननी पड़ी थी , सबकी धन राशि लौटानी पड़ी और पूना के स्थानीय हिन्दी और मराठी के समाचार पत्रों में भी इस 'दुर्घटना' की काफी चर्चा भी रही ! नीरज जी तक पहुँचने के लिए श्रीवास्तव साहब सबसे सही स्रोत थे ! सो मैंने उनसे पता व फोन नंबर लिया और बड़े सोच-विचार के बाद, ८ कविताओं की फोटो कापी, अपने एक पत्र के साथ नीरज जी को डाक द्वारा फरवरी में भेज दी ! मुझे न जाने क्यों लगा कि अगर नीरज जी, जो गेय कविताएँ लिखने वाले इतने प्रख्यात कवि, उन्हें मेरी छन्द विहीन आज़ाद कवितायेँ बेकार लगी और कूडे में फेक दी, तो क्या होगा ? इसलिए सोचा कि अपनी कविताएँ और एक कवि को भेज देनी चाहिए जिससे दोनों में से किसी के आशीष की ४-५ पंक्तियाँ तो आ ही जाएगी - फिर किताब प्रेस में दे दूंगी ! बाल कवि वैरागी ‘नीमच’, मध्य प्रदेश से अक्सर पूना आते रहते थे और उनके सामने मैंने दो-तीन बार कविता पाठ भी किया था, तो वे अधिक परिचित से लगे और मन ही मन आशा सी भी बंधी कि वे ज़रूर आशीष वचन लिख भेजेगें ! इसलिए उन्हें भी मैंने उन्हीं आठ कविताओं की फोटोकापी भेजने की हिमाकत की ! बालकवि जी की बहुत बड़ी विशेषता है कि वे प्राप्ति की सूचना तुरंत देते है ! उसके बाद अपने , आशीष और भेजी गई सामग्री पर बड़े ही कायदे, बहुत ही लगन से, दिल से अपने विचार लिख भेजते हैं ! वैरागी जी ने ठीक वैसा ही किया ! मेरी कविताएँ मिलते ही उन्होंने कविताओं की प्राप्ति की सूचना मुझे लिख भेजी ! उनका पोस्टकार्ड मिलते ही मुझे बहुत अच्छा लगा ! किन्तु नीरज जी का कोई जवाब फरवरी तो फरवरी, मार्च के मध्य तक भी नही नहीं आया ! मुझे कविताएं , अपनी कल्पना के अनुसार कूड़ेदान में फिंकी नज़र आई ! यह सोच-सोच कर, मैं निराश तो हुई पर ज़्यादा नहीं क्योंकि मैं पहले से माने बैठी थी कि नीरज जी को आज के दौर की काव्य-शैली शायद ही पसंद आए ! खैर , मार्च तक नीरज दादा का कोई जवाब न मिलने पर, मैंने निर्णय लिया कि वैरागी जी ने इतना बड़ा चार पेज का आशीर्वाद लिख कर भेजा हैं सो अब किताब प्रेस में छपने भेज देनी चाहिए ! मैं घर से निकल ही रही थी कि मोबाईल बज उठा ! एक अंजान नंबर देखकर बेमन से फोन उठाया क्योंकि मेरे पास नीरज का घर का नंबर था - इसलिए नीरज का मोबाइल मैं पहचानी ही नहीं ! उधर से आवाज़ आई –"मैं नीरज बोल रहा हूँ ....भई ज़रा दीप्ति से बात कराओ..." यह सुनते ही एक क्षण के लिए मैं निशब्द सी रह गई ! मुँह से बोल ही नही निकले ! इतने में फिर नीरज की गुरु गंभीर शानदार आवाज़ उभरी - 'अरे भई, क्या मैं दीप्ति से बात कर सकता हूँ '! तब मैंने तुरंत अपनी आश्चर्य मिश्रित खुशी को सम्हालते हुए कहा - 'जी दादा, मैं बोल रही हूँ !' तो फिर उधर से वे बोले - अच्छा, दीप्ति, तुम्हारी कविताएँ मिल गई हैं ! मैं सम्मेलनों में अलीगढ़ से बाहर गया हुआ था ! सो जवाब लिखने में देर हो गई ! तुम्हारी पुस्तक छप गई या अभी रोक रखी है ? '

मैंने तुरंत कहा - 'दादा अभी रुकी हुई है ! आपके आशीष वचनों की प्रतीक्षा थी......!'

बस फिर क्या था दादा ने आश्वासन दिया और बोले - ‘एक सप्ताह का समय और दो ! तुम्हारी 'रिश्ते' , 'निश्छल भाव', 'अवमूल्यन,' ‘अनुभूति,’ ‘बौराया मन’, ‘रीता जीवन’ कविताएं और दो तीन जिनके नाम याद नही आ रहे.....बहुत ही पसंद आई !’

ठीक एक सप्ताह बाद मेरे पास उनका पाँच पंक्तियों के बजाय - पूरे पांच पेज का जवाब आ गया ! मैं तो पहले, पाँच पेज देखकर ही गदगद हो गई और फिर उनमें लिखे भाव-भीने उद्गार पढकर तो सुपर गदगद हो उठी ! नीरज जी से इतने अधिक उदार आशीषवचनों की तो कभी आशा ही नहीं की थी ! कहाँ तो किसी के भी दो शब्दों की नाउम्मीदी मन मे पाले हुई थी, और कहाँ दोनों ही दिग्गज कवियों के उदारता से लिखे उदगार मेरे पास आ चुके थे ! ज़ाहिर है कि मेरी खुशी का ठिकाना न था ! मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा था ! ....खैर, इस तरह,अचरज करते- करते दिन बीतते गए ! पुस्तक भी जून तक छप कर आ गई !

तभी मेरे एक परिचित परिवार ने सुझाया कि – ‘जब नीरज जी ने आपकी पुस्तक के लिए इतना सुन्दर लिख कर भेजा है तो आप विमोचन के लिए उन्हें ही क्यों नहीं बुला लेती ? ‘

मैंने कहा - 'अरे क्या बात कर रहे हैं आप ? नीरज जी को निमंत्रित करना इतना आसान है क्या ? वे कितने व्यस्त कवि है और पिछले वर्ष पिम्परी भी नहीं आए थे ! तबियत भी उनकी नासाज़ रहती है ! वे भला क्यों और ऐसे कैसे आएगे ? '

वे बोले - 'अच्छा आप फोन तो करके देखें - हद से हद हाँ या फिर ना ही तो कहेगें !'

मुझे उस परिवार की बात समझ आ गई और लगा कि पूछने में क्या हर्ज है ! मैंने नीरज जी के मुँह से ‘नहीं’ सुनने की पक्की आशा के साथ फोन मिलाया ! उधर से उनके पुत्रवत नौकर 'सिंग सिंग' (अजीब सा नाम) ने फोन उठाया और मेरे बताने पर - नीरज जी से कहा - 'पूना से दीप्ति दीदी का फोन है ' ! फोन में नीरज जी की आवाज़ स्पष्ट आई कि - 'लाओ इधर फोन दो तुम वहाँ लिए क्यों खड़े हो '.......और उसने नीरज जी को फोन थमा दिया !

मैंने हिचकते हुए पूछा - 'दादा ! क्या आप मेरे काव्य संग्रह के लोकार्पण के लिए पूना आने का समय निकाल सकेगें ?'

सुनते ही नीरज दादा ने सोचने का भी समय नहीं लिया और खुशी ज़ाहिर करते हुए बोले - 'क्यों नहीं, क्यों नहीं ..!

मैंने साँस रोक कर सिर को झटका - कि क्या मैं सही सुन रही हूँ ? ‘नहीं, नहीं’ तो सुन रही हूँ पर ये तो सकारात्मक स्वर वाली है - 'क्यों नहीं, क्यों नहीं ..! 'मुझे पहले की तरह एक बार फिर दादा ने अचरज में डाल दिया ! मैंने उनकी बात की 'निश्चितता ' को जानने के लिए एक बार फिर पूछा - 'दादा, आ भी सकेगें या यूं ही दिल रखने के लिए कह रहे हैं ?' वे बोले - 'ऐसे ही नहीं कहा रहा दीप्ति - पक्का आऊंगा और अगले महीने की तारीख़ रखना, पर मुझ से पूछ कर ! '..

इस बार मुझे विश्वास हो गया कि वे तो आने के लिए पक्का तैयार हैं ! मैं सोचने लगी - ये क्या हुआ और कैसे हुआ ? मिनटों में प्रोग्राम तय भी हो गया......!

इसके बाद खुशी तो उड़न छू हो गई और उनके ठहरने आदि की, विमोचन भी खास कायदे से करने की तैयारी की चिंता और तनाव ने मुझे घेर लिया ! पूना के साहित्यिक समूह से मैंने राय मशवरा किया तो सब ’वाह-वाह’ कर उठे ! बहरहाल नीरज को ठहराने की सारी व्यस्था मराठी साहित्यकार ' ऊद्धव महाजन जी' की मदद से कोरेगांव पार्क में हो गई ! नीरज जी ने 18 जुलाई का दिन पूना आने के लिए निश्चित किया ! 18 जुलाई की शाम को ‘ फिरोदिया सभागृह’ में नीरज जी की 'मुख्य अतिथि' के रूप में उपस्थिति में मेरी दो पुस्तकों 'अंतर्यात्रा' और 'Ocean।n The Eyes' का विमोचन बहुत ही खूबसूरत, महके-महके काव्यमय वातावरण में हुआ ! कार्यक्रम के 'अध्यक्ष' पूना के निवासी और साहित्यकार ‘अज्ञेय’ जी के 'तारसप्तक' काव्य समूह के प्रख्यात कवि 'हरिनारायण व्यास' थे ! पूना के हिन्दी , उर्दू और मराठी के सभी साहित्यकार कार्यक्रम में आए थे ! मैंने कार्यक्रम का सञ्चालन ऑल इण्डिया पूना के हिन्दी अधिकारी 'देवधर जी' से करवाया था ! उन्होंने बहुत ही कुशलता से सञ्चालन किया ! शेष अन्य प्रवक्ता मंच पर मौजूद थे ! लोकार्पण कार्यक्रम संपन्न हो जाने पर, नीरज जी की कविताओं का जो दौर चला तो काफी देर बाद थमा ! बाहर पानी बरस रहा था और सभागृह में नीरज की मधुर-मदिर कविताएँ !

'अब के सावन में इक शरारत ये मेरे साथ हुई, मेरा घर छोड़ के, सारे शहर में बरसात हुई... फिर,

कारवां गुजर गया...

इस तरह एक के बाद एक कविताओं की झड़ी लगती रही ! नीरज जी क्षीण काय के तो थे ही, ऊपर से उन्होंने खाना भी नहीं खाया ! ऐसे मौको पे वे खाना नही खाते ! बस दोपहर जो खाया था - उसी के सहारे वे भरसक ऊर्जा से मंच पर जमे हुए थे ! मुझे उनकी चिंता सताने लगी कि इन्हें कुछ हो न जाए ! लेकिन वे तो मंच पर जमने के आदी थे, सो उन्होंने कार्यकम को 12 बजे विराम दिया ! सब मेहमानों ने डिनर खाते-खाते 1:30 बजा दिया ! इससे पहले, कार्यक्रम समाप्त होते ही, मंच पर लोगों की बेतहाशा भीड़ लग गई ! नीरज जी को प्रणाम और चरण स्पर्श और मुझे पुष्पगुच्छ व बधाई देर तक मिलती रही ! इसी बीच नीरज दादा ने बातों-बातों में किसी मुरीद से ये कह दिया कि उन्हें जन्मपत्री बांचनी और हाथ देखना आता है ! फिर क्या था....हर कोई उन्हें अपना हाथ दिखाने पे उतारू ! कोई अपनी जन्मपत्री का चार्ट बनाने मे लग गया ! एक हंगामा सा हो गया ! घर जाने वाले भी मंच पर लौट आए ! गुड़ पर मक्खियों की तरह टूट पड़ने वाली भीड़ को देखकर मुझे लगा कि नीरज जी ने ये कौन सा सुर छेड़ दिया ! अब रात के एक बजे ‘कवि से ज्योतिषाचार्य ‘ के अवतार में प्रविष्ट हुए, इन्हें अपनी सेहत की नजाकत का ज़रा भी ख्याल नहीं ! ये बिना खाए पिए मंच पर कहीं गश न खा जाए ! गश खा के.... कहीं होश में न आ पाए....कुछ ‘अनहोनी’ घट गई तो कितने दुःख की बात होगी ! ऊपर से कल देश के सारे अखबारों में मनहूस समाचार निकलेगा कि – ‘पूना में दीप्ति गुप्ता का पुस्तक विमोचन देश ने जाने-माने कवि ‘नीरज’ पे भारी पड़ा ! अब वे हम सबसे बहुत दूर चले गए हैं ! ‘ यह सोचकर तो मेरी भूख- प्यास उड़ गई और मैंने भीड़ को हटाते हुए दादा के कान में धीरे से कहा – ‘मुझे डर है कि आपको कुछ हो न जाए ! आप तुरंत बंद कीजिए प्लीज़ यह जन्मपत्री कार्यक्रम ! अपनी हालत देखी है आपने ? ‘ यह सुनते ही, ‘वे तो ज़ोर से फक्कड की तरह हँसते हुए बेबाक बोल पड़े –" अरे, दीप्ति, ज़रा भी मत डर, मैंने अपनी जन्मपत्री खूब ध्यान से पढ़ रखी है ! मैं अभी मरने वाला नहीं ! देख लेना ! 95 (2019) तक है मेरी उम्र !" मैं तो हतप्रभ सी उन्हें देखती रह गई !

सब लोग मुझे देखने लगे कि जैसे मैंने नीरज को मरने की बात सुझाई हो और नीरज जी मज़े से हँसते बैठे रहे, वे तब भी हाथ देखने में लगे हुए थे ! मैंने सबको शून्य दृष्टि से देखते हुए निवेदन किया कि प्लीज़ अब आप इन्हें आराम करने दे, यहाँ से जाने दें ! बड़ी मेहरबानी होगी ! बस, फिर सबको मेरी बात समझ आई और इस तरह धीरे-धीरे भीड़ छटी !

अगले दिन पिम्परी के राकेश श्रीवास्तव साहब ने, पूना में मेरी पुस्तकों के लोकार्पण पर नीरज के आगमन का सदुपयोग करते हुए"एक शाम : नीरज-निदा के नाम’’ कार्यक्रम रखा लिया था ! दिन में नीरज दादा, मेरे घर दोपहर के खाने पर आए ! मैं तो खाना बनाने में लगी रही और वे बीबी (मेरी माँ) को अपने फिल्मी दौर की ढेर बातें सुनाते रहे ! बीच-बीच में सुनने के लिए मै भी वहाँ पहुँच जाती ! एस.डी. बर्मन, देवानंद साहब और नीरज जी की टीम ने काफी लम्बे समय तक साथ काम किया ! उन्होंने एक बड़ा ही रोचक किस्सा सुनाया ! उन दिनों ‘प्रेम-पुजारी’ फिल्म की तैयारियां चल रही थी ! नीरज जी ने तब फिल्म इंडस्ट्री में कदम ही रखा था और उनकी पहली भेंट एस. डी. बर्मन साहब से हुई थी ! जब वे ‘बर्मन दा’ से मिलने गए तो, नीरज जी को एस. डी. बर्मन ने एक सीन की सिचुएशन बता कर गाना लिख कर, अगली सुबह तक देने के लिए कहा ! दूसरी ओर देवानंद साहब को बुलाकर धीरे से , नीरज जी के वापिस जाने लिए एक हवाई टिकिट इंतजाम करने के लिए कहा - यह सोच कर कि ये क्या गाने लिख पाएगें , भले ही वे मंच के सफल कवि हों ! लेकिन नीरज दादा तो सबके ‘दादा’ ठहरे ! रात भर गाने के बोल लिखने में लगे रहे और अगले दिन 10 बजे जब बर्मन दा को नीरज जी ने - ‘ 'रंगीला रे ! तेरे रंग में.....'’ (फिल्म में वहीदा रहमान पे फिल्माया गया गीत) सुनाया तो वे उछल पड़े और तुरंत देवानंद साहब को फोन किया कि जो फ्लाईट बुक कराई थी, उसे कैंसिल किया जाए ! बस तब से जो नीरज जी बर्मन टीम का हिस्सा बने तो, बर्मन साहब की मृत्यु पर्यंत वहीं रहे ! ‘फूलों के रंग से दिल की कलम से ’ शोखियों मे घोला जाए...’प्रेम पुजारी’ के सुंदर गीत लिखे ! इतना हीं नहीं, इस टीम से अलग अन्य फिल्मों के लिए भी गीत लिखते रहे ! जैसे राजकपूर की ‘मेरा नाम जोकर’ - ऐ भाई ज़रा देख के चलो, ‘गैम्बलर - दिल आज शायर है, मेरा मन तेरा प्यासा, ‘तेर मेरे सपने ‘ जीवन की बगिया महकेगी..., राधा ने माला जपी श्याम की , ‘शर्मीली’ - मेघा छाए आधी रात , ओ मेरी शर्मीली, आज मदहोश हुआ जाए रे , खिलते हैं गुल यहाँ ......’नई उमर की नई फसल’ - देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा.....!

शाम को नीरज जी के साथ, मैं और मेरी पहचान का एक परिवार 'नीरज-निदा शाम ' के लिए पिम्परी गए ! 'रामकृष्ण मोरे ' सभागार बहुत विशालकाय है, वह खचाखच भरा हुआ था ! पहले हम सब निदा साहब से नीरज जी के साथ लता मंगेशकर जी के होटल में मिले ! काफी देर बातें होती रहीं ! 7 बजते ही हम सब सभागार में पहुँच गए ! उसके बाद नीरज जी और निदा साहब मंच पर ऐसे जमे कि श्रोता उठने का नाम ही नही ले रहे थे ! रात के दो बज गए जो मेरे लिए प्रतिकूल समय था लेकिन ऐसे कार्यकम कभी-कभी ही सुनने को मिलते हैं सो उस दिन मैं उस प्रतिकूलता को झेल गई ! तदनन्तर हम सब रात्रि भोज के लिए डायनिंग हाल में गए ! नीरज दादा ने, मैंने और हमारी सहेली ने कुछ नहीं खाया ! सबके कहने पर और साथ देने के लिए बस जूस ले लिया ! फिर इतनी दूर से घर आते -आते सुबह के चार बज गए ! लेकिन दो दिन नीरज जी को और अगले दिन साथ में निदा साहब को सुनना हमेशा के लिए यादगार बन गया !