नीलमोहन पंडीजी / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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ओड़हारा के एक बराहमन, नाम छेलै नीलमोहन झा, बहुतेॅ सात्विक, शुद्ध विचारोॅ के आदमी। पूजा-पाठ करै वाला, दिन-रात भगवानोॅ के नामोॅ रो जाप करतैं रहै छेलै। कपाड़ोॅ पर लाल चंदन रो लंबा बड़ोॅ-बड़ोॅ तीन टीका, गल्ला में रूद्राक्षोॅ के ढेर सीनी माला, खादी धोती पर सादा उजरोॅ दकदक बंडी आरो खादिये रो एक ठो झोला हरदम हुनका टांगलोॅ रहै छेलै। वै झोला केॅ कोय कहियो खाली नै देखलें होतै। पानोॅ के पनबिट्टी, थोड़ोॅ-बहुत हकीमी नुसखा, झाड़-फूंकोॅ लेली काली माय रोॅ भसम, तीन-चार तरह के मीठ्ठोॅ प्रसाद, तेॅ हुनका झोला में रहतैं छेलै। स्वभाव के हुनी अत्तेॅ बढ़ियां छेलै कि जे मिलै हुनकौ होय जाय छेलै।

बाप सोनमनी केॅ कहि केॅ लालजी नीलमोहन झा जी केॅ बच्चा-बुतरु केॅ पढ़ाय-लिखाय लेली द्वारीये पर स्थायी रूप सें राखी लेलकै। गरीब वराहमन केॅ आरो की चाहियोॅ। खाय-पीयै केॅ इंतजाम होय गेलै, रहै लेली एक ठो कोठरी, चौकी, बिछौना। दूध-दही, घी के कमी तेॅ नहिये छेलै। अनाजोॅ साल भरी में अगबर के अतना ज़रूरे होय जाय छेलै कि झाजी के घरोॅ-परिवार के खाना-खरचा चली जाय छेलै। यै में सबसे बड़ोॅ काम लालजी मड़रें करलकै। सोनमनी के बड़का बेटा होय के नाते ई उनकोॅ कर्त्तव्य भी छेलै। एक रोज हुनी सबके बीचै में बात राखलकै-"दिन भर पंडीजी बैठी केॅ रही जाय छै। बाबू के बात जमींदार खोखा बाबू नै उठैतेॅ। एक टा गामोॅ के बच्चा सीनी के पढ़ै लेली इसकूल होय जाय तेॅ कत्तेॅ बढ़िया। पंडीजी दिन भर वाहीं पढ़ैतेॅ आरो सांझ केॅ दुआरी पर आपनोॅ सबटा घरोॅ के बच्चा लैकेॅ बैठतै।"

सोनमनी बेटा के किरदारी आरो उच्चोॅ सोच सें बहुतेॅ प्रभावित होलै। खुश होतेॅ हुअें बोललै-"जे काम हम्में नै करेॅ पारलोॅ छेलियै उ$ काम तोंय करै के रसता सूझाय देलोह। सभ्भेॅ के बच्चा-बुतरू पढ़तै। दिन भर छौड़ा सीनी खेलतें रहै छै, यै पुण्य कामोॅ में देरी की, काल्हें ढोेलाई दिलवाय केॅ गाँव वाला केॅ बैठावोॅ आरो परसू सें स्कूली के काम शुरू।"

सौसे गांमें एक होयकेॅ भिड़ी गेलै आरो इस्कूल तेसरोॅ महिना बनी केॅ तैयार होय गेलै। नीलमोहन झा वै इस्कूली के पहिलो गुरूजी होलै। सौसे गाँमोॅ से चटिया बुलाना, घरोॅ-घरोॅ सें बुतरु केॅ जे नै आबै लेॅ चाहै छै ओकरा खींची-पकड़ी के भी मंगवाना गुरुजी के काम होलै। शनिचरोॅ दिन शनीचरा रूपोॅ में पंडीजी केॅ चौेॅर-दाल, तरकारी जेकरा सें जे चलेॅ-बनै प्रेमोॅ सें लानी केॅ दै छेलै। यही में पंडीजी गदगद।

सबसे बड़ोॅ बात कि खाली समय सें उबीं केॅ जैवा आपनोॅ पूरा समय लिखै-पढ़ै में लगाय देलकै। सांझ केॅ दू-तीन घंटा सभ्भेॅ बच्चा साथें तेॅ जैवा पढ़ै लेॅ बैठवेॅ करै, ओकरोॅ बाद भियान केॅ एक घंटा पंडीजी ठिंया बैठी केॅ दिनभरी के अंदाज सें सबक लैकेॅ बनैतें-रटतें रहै छेलै। पंडीजी भी जैवा के लगन आरो मेहनत सें प्रसन्न छेलै। सच यहोॅ छै कि जबेॅ कोय गुणी विद्वान शिक्षक केॅ गुणग्राही विद्या ग्रहण करै वाला उचित योग्य पात्रा मिली जाय छै तेॅ पढ़ाय में वेशी मोॅन लागै छै। यहेॅ कारण छेलै कि पंडीजी नीलमोहन झा ने जैवा केॅ पढ़ाबै में वेशी समय दियै लागलै।

स्कूल खुलला सें सौसे गाँव के लोग खुश छेलै। तीन गो बड़ोॅ-बड़ोॅ कोठरी, बरामदा। मांटी रो भीत, नरुवा के छौनीं। इसकूल सरकारी सड़कोॅ के किनारा में ठीक पछियारी टोला के कोना पर छेलै। जगमोहन चौधरी के बड़का आमोॅ के बगीचा रोॅ छाया भी बच्चा सीनी के मिलै छेलै। दक्खिन तरफें जमीनदारो रो खुदैलोॅ पोखर भी छेलै। कुल मिलाय केॅ इसकूल बड्डी बढ़िया जघ्घा पर एकभट्टोॅ में छेलै। गाँमोॅ सें सटलोॅ आरो एकटा इसकूल। असकल्लोॅ पंडीजी हरवा-हरान। तहियो पंडीजी दम नै मारै।

शनिचरोॅ के दिन देखै लायक होय छेलै। हौ दिन पंडीजी के शनिचरा उगाही के दिन होय छेलै। सभ्भै चटिया केॅ कुछ नै कुछ लानल्हेॅ छेलै। इसकूली में छोटोॅ-मोटोॅ दक्षिणा के ढ़ेर लागी जाय। कोय चौेॅर लानलेॅ छौं तेॅ कोय गहूँम। कोय छपरी पर सें कद्दू, तेॅ कोय सीम। कोय बूट, मौंसरी, लहारोॅ के दाल तेॅ कोय-कोय लोटा में दूधेॅ लैकेॅ हाजिर छौं।

एतवारोॅ के छुट्टी रहै छेलै। शनिचरोॅ केॅ आधो दिन। पंडीजी के चार-पाँच ठो बलचटिया होय छेलै। शनिचरोॅ दिन शनिचरा के सामान लैकेॅ पंडीजी आपनोॅ घोॅर ओड़हारा जाय छेलै। मिर्जापुर गाँमोॅ सें ओड़हारा पुनसिया चौक होतें हुअें उत्तर-पूरब कोना पर दू-तीन कोसोॅ सें बेशी दूर नै छेलै। पंडीजी आगू-आगू आरो सभ्भेॅ सामान लेनें चारोॅ-पाँचोॅ बलचटिया पीछू-पीछू ओड़हारा सब टा सामान पहुँचाय आबै छेलै। बलचटियो सीनी शनिचरोॅ दिन के इंतजारोॅ में रहै छेलै। खेलमसती रसता में जे होय छेलै, होतैं छेलै, पंडीजी कन पुरकस दही-चूड़ा जे मिली जाय छेलै।

रसता में जैतें आरो कोय तेॅ नै मतुर कुम्हर टोली में पांचू पंडितें टोकिये दै-"सोनमनी आरो लालजी मड़रोॅ रो किरपा! पंडीजी रो भाग्य चरचराय गेलोॅ छै।"

नीलमोहन पंडीजी हाँसै आरोॅ अतनै टा बोलै-"कटकछरी करै छोॅ पाँचू। अरे, बच्चा-बुतरु केॅ पढ़ाय छियौं। कुछ्छू तेॅ गरीब बराहमन केॅ दही लेॅ पड़थौं। हमरौ तेॅ बाल-बच्चा छै। खबैया केॅ रामदेवैया, आरो तोंय यहेॅ टा देखी केॅ आँख लगावै छोॅ। मड़रे तेॅ सालोॅ में गाड़ी सें घोॅर पहुँचाय दै छै।"

पाँचू आरो लालजी मड़रोॅ के दोस्ती गाँव भरी में प्रसिद्ध छेलै। पंडीजी ई बातोॅ केॅ जानै छेलै। देखै में पांचू कारोॅ जमीठ, लंबा-छरहरोॅ देह, आभी जवान छेलै, बारी के भीती पर बैठलौ छेलै। वहाँ सें उठी केॅ आगू टेकी केॅ खाड़ोॅ होय गेलै-"पंडीजी, आवेॅ जानै छोॅ की नै, गाड़ी लैकेॅ आभरी सालोॅ सें ओड़हारा हम्मी जैभौं। मड़र जी बोली रहलोॅ छेलै।"

पंडीजी हाँसलै। हाँसैं में हुनको पानोॅ सें बदरंग होलोॅ उबड़-खाबड़, डेढ़-बेड़ दाँत झलकी गेलै। पान तेॅ हुनका मुँहोॅ में हरदम रहतैं छेलै से टप सें दू-तीन बूंद पानोॅ रो पिरकी हुनका बंडी पर टपकी गेलै।

पांचू हाँसतें हुअेॅ बोललै-"नै संभरलौं पंडीजी. चलोॅ, छोड़ोॅ। पान खाय रो ई निशानी पंडिताइनी देखतौं तेॅ बड्डी खुश होतौं।"

पंडीजी यै पर कुछ्छू बोललै नै। अतनै टा कहलकै-"बील्हामोॅ नांकी आगू में कथी लेॅ खाड़ोॅ छोॅ। रसता छोड़ोॅ देर होय रहलोॅ छै।"

"तोंय तेॅ जानथैं छोॅ पंडीजी. पानोॅ के परसाद पांचू केॅ चाहियोॅं। हम्मू घरोॅ में कनियैनी केॅ ..."।

सौसे बात सुनै के पैन्हेॅ पंडीजी पनबिट्टा सें पानोॅ रो लागलोॅ खिल्ली निकाली केॅ हाथोॅ में पांचू केॅ देलकै-" जर्दा, सुपाड़ी सब यही में छौं पांचू आरो धरफड़ करनै रसता धरलकै।