नी सुलताना रे / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
इस गाने में शशि कपूर जैसे बारिश में हरे दरख़्त की तरह झूमे-लहराए हैं, उसके लुत्फ़ का भला कैसे बखान करें।
लेकिन बात इतनी ही तो नहीं। गाने में एक भटियाली क़िस्म की गूँज है, एक सुदूर माँझी स्वर की पुकार है। रफ़ी साहब उस पुकार से पिकअप करते हैं, छोटी पिच से उसे ऊपर ले जाते हैं- जैसे कोहरे में कंदील जल उठी हो। गाने की एक बड़ी ज़िंदा पल्स है, ताल है, बीट्स हैं। आप चुटकियाँ बजाते हुए मात्राएँ गिनने को मजबूर हो जाते हैं। राहुल देव बर्मन ने इसको एक ग्रिड पर गूँथ दिया है!
नायक की टेक है :
"नी सुलताना रे, प्यार का मौसम आया!"
इसे संगीत के नोटेशंस में ऐसे पढ़ेंगे :
"गा मा मा पा नि
मा रे रे सा
सा रे रे सा"
जबकि नायिका की टेक इससे थोड़ी जुदा है :
"बलम बबुआ बेदर्दी, सावन आया आ जा!"
परदे पर सजीले शशि कपूर के साथ सदाबहार आशा पारिख हैं। प्रतिस्पर्धा का दृश्य है। गाने की होड़ लगी है। "आप क्या लता मंगेशकर हैं?", "आप भी तो मोहम्मद रफ़ी नहीं!" जैसे संवाद कहे जाते हैं। ये उस ज़माने की फ़िल्मों में एक सुपरिचित सिचुएशन हुआ करती थी। स्पर्धा में अकसर लड़की जीतती थी, क्योंकि लड़की के लिए लता गाती थीं। भला लता से कौन जीत सकता है? लेकिन इस गीत में शशि कपूर श्रोता लड़कियों को रुपयों की हरियाली दिखलाकर बाज़ी मार लेते हैं, मानो यहाँ केवल छायाएँ ही हरी-हरी न हों। कुल मिलाकर निर्भार मन की उत्फुल्लता का यह एक रंगीन चित्र है।
गीत की संरचना अनूठी है। इसमें रेल की पटरियों जैसी दो समांतर लीकें हैं। नायक एक लीक को गुनगुनाता है, नायिका दूसरे को। दोनों की धुनों में फ़र्क है, लेकिन उनका कन्वर्जेंस समान है। गाना बार-बार उठता और धँसता है, फिर पिकअप लेता है। देखें तो ये दो भिन्न गाने हैं, जिन्हें एक लहर में गूँथ दिया गया है।
नायक की धुन है :
"बोलो न बोलो
मुख से गोरी
चूड़ी तुम्हरी बोले
हे!"
नायिका की धुन इससे एकदम अलग है :
"मिल जाए मोरे सैंया
जब तेरी बैंया
फिर घनी छैंया
मैं मचल के गाऊं!"
अपनी कड़ी के अंत में नायिका की आवाज़ ठहर जाती है, उसके विलम्बित में देह के मूवमेंट्स भी मद्धम और ग्रेसफ़ुल हो जाते हैं, स्वर डूबता चला जाता है : "सावन आया, आजाsss" के दोहराव-तिहराव में, जहाँ से फिर वही रफ़ी साहब का गूँज भरा पिक-अप, जो उस डूबती हुई कड़ी को उठाकर आसमान में लिए जाता है : "नी सुलताना रे, हेsss"
ग़ालिबन, क्या चीज़ बनाई है बनाने वालों ने! अनुकूल मौसम और मिज़ाज हो तो ये गाना जुनून की तरह तारी होता है, ज़ुबान पर चढ़ जाए तो उतरता नहीं।
इस गाने से मेरी एक मीठी याद जुड़ी है। कॉलेज छात्र ही था। उम्र होगी कोई उन्नीस बरस। एक दिन कॉलेज से घर लौट रहा था। देवास रोड, उज्जैन की लम्बी सूनी सड़क थी और साइकिल चला रहा था। साइकिल चलाने वाला घर लौटते समय निश्चिंत-भाव से कुछ गाता ही है, सो मैं भी गा रहा था- "नी सुलताना रे।" गाने में डूब गया था। शशि कपूर वाले बोल भारी आवाज़ में गाता था और आशा पारिख वाले बोल पतली आवाज़ में। गाते-गाते जब आशा पारिख वाली इन पंक्तियों पर आया- "पिया मोरा जिया तुझी से लागा / जीये कोई कैसे हाँ यही बता जा..." तो सहसा एक सामूहिक खिलखिलाहट की आवाज़ गूँजी। चौंककर देखा कि कॉलेज की चंद लड़कियों का समूह मेरे पीछे ही मौजूद था, वो कब से मेरा गाना सुन रही थीं, इन पंक्तियों पर खिलखिलाने से ख़ुद को रोक न सकीं। किसी ने दूसरी के हाथ पर ताली मारी, कहीं किसी कोने से आवाज़ आई- "ओये होये!"
इस गाने में भी शशि कपूर के साथ लड़कियाँ चुहल करती हैं, लेकिन चूँकि वे शशि कपूर हैं- बाँके और छबीले- इसलिए वे इससे सुख ही पाते हैं। मैं कहाँ का शशि कपूर था? मैं तो केवल एक संकोची स्नातकोत्तर छात्र भर था। फ़ौरन गाना बंद किया, साइकिल पर ज़ोर से पैडल मारने लगा, घर पहुँचने तक फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा!