नेता का भिक्षा पात्र और द्रौपदी का अक्षय पात्र / जयप्रकाश चौकसे

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नेता का भिक्षा पात्र और द्रौपदी का अक्षय पात्र
प्रकाशन तिथि :25 जून 2016


हिंदुस्तानी फिल्म उद्योग के केंद्र हैं मुंबई, चेन्नई, कोलकाता और केरल। दक्षिण भारत के प्रांतों में मुंबई से चार गुना अधिक फिल्में बनती हैं और वर्तमान में कोलकाता से अधिक फिल्में भोजपुरी भाषा में बन रही हैं। हमारे यहां राष्ट्रीय फिल्म की कोई छवि नहीं है। हमारी केंद्रीय सरकार अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव आयोजित करके अपनी फर्ज अदायगी का स्वांग पूरा कर लेती है परंतु इस उद्योग की समस्याओं के निदान में उसकी कोई रुचि नहीं है। यह टेक्नोलॉजी आधारित उद्योग है परंतु टेक्नोलॉजी ने ही घर बैठे फिल्म देखना संभव कर दिया है और सिनेमाघरों में भीड़ कम होती जा रही है जबकि दर्शक संख्या बहुत बढ़ चुकी है। इस उद्योग की सारी समस्याओं का निदान केवल इस तथ्य में रेखांकित होता है कि भारत में सिनेमाघरों की संख्या बहुत कम है। ऐसे हजारों छोटे शहर और कस्बे हैं जहां सिनेमाघर नहीं हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि नए सिनेमाघर बनाने के रास्ते में अनेक रुकावटें हैं। विगत दशक में एकल सिनेमाघरों की संख्या घट गई है। अनेक सिनेमाघर तोड़कर वहां बाजार बना दिए गए हैं।

मंुंबई के वर्ली क्षेत्र में लोटस नामक सिनेमाघर था, जिसे तोड़कर बहुमंजिला व्यवसाय केंद्र बनाया गया है और सरकारी नियम का पालन करते हुए एक छोटा सिनेमाघर बनाया गया है परंतु उसमें फिल्म दिखाने के लिए इतना पैसा मांगा जाता है कि कोई फिल्म प्रदर्शित ही नहीं होती और सिनेमाघर के नाम पर बनाए गए पार्किंग स्थान का इस्तेमाल संकुल में बने व्यवसाय के लिए किया जाता है। दरअसल, भारत के पास कानून के होते हुए पतली गली निकालने की विलक्षण प्रतिभा है। यह प्रतिभा अन्य क्षेत्रों में भी देखी जा सकती है। हमारे विकास में भी पतली गलियों की कमी नहीं है। किसानों को दी गई सहूलियतों का लाभ केवल बड़े और राजनीतिक तौर पर समर्थ किसान ही ले पाते हैं। विमल राय की 1952 में बनी 'दो बीघा जमीन' आज के यथार्थ को भी प्रस्तुत करती है। उस दौर का किसान अपनी समस्या से उबरने का प्रयास करता है परंतु आज हमने ऐसे हालात बना दिए हैं कि वह आत्महत्या करता है। इस तथाकथित विकास युग में तमाम व्यवसाय करने वाले हताश हो गए हैं। रिश्वत की मात्रा इतनी अधिक बढ़ गई है कि अनेक व्यवसाय करने वाले लोग अपनी सक्रियता कम कर रहे हैं। हमारे नेता भिक्षा पात्र लिए पूरी दुनिया घूम आए हैं परंतु पात्र खाली ही रह गया है। किसी दौर में धार्मिक संगठन से जुड़ा व्यक्ति भिक्षा पात्र लिए केवल पांच घरों में दस्तक देता था और भिक्षा नहीं मिलने पर भूखा ही रहता था। हमारे देश में भूखा रहने की विलक्षण क्षमता है परंतु यह ताकत भी समाज में व्याप्त असमानता तोड़ रही है। अमीर और गरीब के बीच की खाई दिन-प्रतिदिन चौड़ी और गहरी होती जा रही है और उससे आती भांय भांय को सत्तासीन लोग अनसुना कर रहे हैं। उनके कानों में काल्पनिक सफलता के नगाड़े गूंज रहे हैं। कल्पना अब यथार्थ के रूप में सामने खड़ी है और उसके तहत ही हम सब 'देश देश' नामक स्वांग को जी रहे हैं। इन पंक्तियों के लिखे जाते समय इंग्लैंड के प्रधानमंत्री त्यागपत्र दे चुके हैं परंतु उनसे तीन माह तक बने रहने की गुजारिश की गई है। यूरोपीयन यूनियन विघटन की कगार पर खड़ा है। हमारे यहां सतह के भीतर भारी विघटन हो रहा है परंतु ऊपरी सतह पर स्वांग जारी है। प्राय: क्रांतियां किसान अौर मजदूरों ने की है परंतु आज भारी परिवर्तन केवल समर्थ और धनवान लोग ला सकते हैं। इस विषय पर दीपांकर गुप्ता ने 'रिवोल्यूशन फ्राम अबव' नामक किताब लिखी है। अपनी सुरक्षा की खातिर ही सही परंतु समर्थ वर्ग को परिवर्तन के लिए प्रयास करने चाहिए। अगर धनाढ्य वर्ग की बहुमंजिला के इर्द-गिर्द साधनहीन लोगों की झोपड़पट्टी बसी है, जैसा कि हम अपने महानगरों में देखते हैं, तो इस बस्ती में फैली छूत की बीमारियों के कीटाणुओं को धनाढ्य वर्ग के सिक्योरिटी गार्ड रोक नहीं पाएंगे। महज इस भय की खातिर ही श्रेष्ठि वर्ग को आगे आना चाहिए। यह सर्वविदित है कि तमाम राजनीतिक दलों को चंदा इसी वर्ग से मिलता है। कोई दल यह दावा नहीं कर सकता कि आम आदमी के अनुदान पर वह अपना तामझाम चला रहा है। अत: अमीर वर्ग के पास वह लीवर है, जिसकी सहायता से वह दलों को बाध्य कर सकता है कि नारेबाजी, जुमलेबाजी छोड़कर ठोस काम करें। सिनेमा उद्योग की तरह ही देश को उसके दमखम पर खड़ा करने के प्रयास होे चाहिए।

द्रौपदी को आशीर्वाद स्वरूप एक अक्षय पात्र प्राप्त हुआ था, जिसमें कभी खत्म न होने वाला भोजन वह पका सकती थी परंतु एक शर्त यह थी कि स्वयं द्रौपदी के खा लेने पर उस पात्र की क्षमता स्थगित हो जाएगी।

हमारे नेता विदेशों में भिक्षा पात्र के लिए घूमना बंद करें और द्रौपदी वाले पात्र को प्राप्त करें परंतु उस पात्र के साथ जुड़े नियम को याद रखें। नेता तो स्वयं ही खाने में लगे हैं, अत: उस तरह का अक्षय पात्र भी काम नहीं आएगा।