नेता परेशान हैं, जनता का तूफ़ान दबाने में (कांतिमोहन) / नागार्जुन

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बीसवीं सदी के तीसरे दशक के आसपास हिंदी-उर्दू शायरी अपने पूरे हुस्नो-जमाल के साथ मंज़रे-आम पर आयी और वक़्त गुज़रने के साथ साथ उसका रूप निखरता ही गया। ज़िंदगी का शायद ही कोई पहलू ऐसा रहा हो, जिससे इस ज़माने के शुअरा दो-चार न हुए हों। उनकी इस कोशिश ने शायरी की सिन्फ़ को रंगारंग और मालामाल कर दिया और वह इस महाद्वीप की कोटि-कोटि जनता की विविधवर्णी छवि का पूरा अक्स अपनी आंखों में समोकर अपने पाठकों और श्रोताओं के दिल में उतरने लगी। अन्य कवियों के अलावा इस दौर ने तीन ऐसे राजनीतिक कवियों को भी जन्म दिया जिन्होंने राजनीति को कविता का विषय बनाया और कविता की मदद से अपनी राजनीति को मक़बूल बनाने के लिए अथक प्रयत्न किया। हिंदी-उर्दू का कविता-समाज इन तीनों कवियों को नागार्जुन, शील और साहिर लुधियानवी के नाम से जानता है, उनकी सैकड़ों लाइनों को गुनगनाता है, उन पर जान छिड़कता है। फिलहाल मैं शील पर नहीं लिख रहा हूं। बाद में कभी उन पर भी लिखूंगा। यहां नागार्जुन और साहिर पर ही अपनी टिप्पणी मैं केंद्रित कर रहा हूं। उम्र में नागार्जुन साहिर से दसेक साल बड़े थे, लेकिन उपलब्ध कविताओं के आधार पर कहा जा सकता है कि दोनों ने आसपास ही लिखना शुरू किया था। साहिर का पहला कविता संग्रह ‘तलखि़यां’ 1943 में छपकर आ गया था; ज़ाहिर है कि उनकी कविता-यात्रा सात-आठ साल पहले आरंभ हुई होगी। नागार्जुन की हिंदी कविताओं का पहला कविता संग्रह ‘युगधारा’ तो 1953 में ही आ पाया लेकिन उनकी कविताएं हिंदी की श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में 1936-37 के ज़माने से ही छपनी शुरू हो चुकी थीं। इस तरह उम्र में छोटे होते हुए भी शायर की हैसियत से साहिर नागार्जुन के समकालीन ही ठहरते हैं। हिंदी-उर्दू के विशिष्ट राजनीतिक कवि की हैसियत रखते हुए भी नागार्जुन और साहिर को इस धारा का प्रवर्तक नहीं कहा जा सकता। हिंदी-उर्दू की राजनीतिक कविता इनसे पुरानी है। असल बात यह है कि छायावाद के समांतर ही एक और कविता-धारा सतत प्रवाहित हो रही थी, जिसे कुछ लोग राष्ट्रीय काव्यधारा कहना पसंद करते हैं। हिंदी में माखन लाल चतुर्वेदी, गया प्रसाद शुक्ल सनेही, राम नरेश त्रिपाठी, जगदंबा प्रसाद हितैषी और रामधारी सिंह दिनकर आदि इस धारा के प्रमुख कवि हैं। इसी प्रकार उर्दू में हाली, अकबर इलाहाबादी, इक़बाल और ज़ोश मलीहाबादी ऐसे कवि हैं जो मुख्य रूप से राजनीतिक कवि थे और फिर उनके तथा नागार्जुन-साहिर के बीच 1936 भी है जिसमें प्रगतिशील लेखक संध की स्थापना हुई थी और जिसने अपनी स्थापना के बाद से ही साहित्य और राजनीति के बीच अगर कोई 236 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 खाई थी तो उसे तेज़ी से पाटना शुरू कर दिया था। फिर नागार्जुन और साहिर की राजनीतिक कविता का वैशिष्ट्य क्या है? नागार्जुन और साहिर की विशेषता यह है कि ये दोनों अपने समकालीन राजनीतिक घटना-विकास पर पैनी नज़र रखते हैं और जो राजनीतिक घटनाएं उनकी धारदार वैचारिक प्रतिबद्धता की दृष्टि से महत्वपूर्ण होती हैं, उन्हें अपनी कविता का उपजीव्य बनाते हैं और अपनी कविता-यात्रा के दौरान राजनीति के सूत्रा को कहीं नहीं छोड़ते। वे दोनों अपने से पहले के राष्ट्रीय कवियों की तरह राष्ट्रीय राजनीति तक सीमित नहीं रहते बल्कि संपूर्ण विश्व फलक को अपनी दृष्टि में रखते हैं और अंतर्राष्ट्रीय घटना-विकास भी उनकी कविता का विषय बनता है। इन दोनों की एक और विशेषता है जो इन्हें अपने पूर्ववर्ती कवियों से अलग करती है। ये दोनों ही अपनी विचारधारा से इस क़दर प्रतिबद्ध हैं कि इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं करते कि उन्हें कवि भी माना जायेगा या प्रचारक कहकर ख़ारिज कर दिया जायेगा? दोनों ने बार बार इस बात पर बल दिया है कि उनके लिए महत्वपूर्ण यह है कि कविता में क्या कहना है? न कि यह कि उसे कैसे कहना है? दोनों अपने वैचारिक सरोकारों के प्रति सतत सजग हैं और अपनी कविता में रह रहकर अपने संकल्प को दुहराते रहते हैं। दोनों में एक फ़र्क़ भी है। साहिर की कविता कम्युनिस्ट पार्टी के किसी ज़िम्मेदार पैरोकार के बयान के नज़दीक पड़ती है। 26 जनवरी हो, नाविक विद्रोह हो, देश का विभाजन हो या फ़िरक़ावाराना फ़सादात, या फिर रूस और चीन आदि के इनक़लाब ही क्यों न हों, साहिर पार्टी प्रवक़्ता की तरह उन्हें अपनी शायरी का मौज़ू बनाते हैं। वे इस बात की चिंता नहीं करते कि एक आला शेर के पैमाने पर उनके अशआर पूरे उतरेंगे या नहीं। अपना जीवन और काव्य मेहनतकश तबक़ों की नज़्र करते हुए वे कहते हैं: मुझको इसका रंज नहीं है लोग मुझे फ़नकार न मानें फ़िक्रो-फ़न के ताजिर मेरे शेरों को अशआर न मानें मेरा फ़न मेरी उम्मीदें आज से तुमको अरपन हैं आज से मेरे गीत तुम्हारे सुख और दुख का दरपन हैं। ‘कला कला के लिए’ की हिमायत करनेवालों को नागार्जुन ने तो लगातार रगड़ा ही है, बख़्शा साहिर ने भी नहींः सितम के दौर में हम अहले-दिल ही काम आये ज़बां पे नाज़ था जिनको वो बेज़बां निकले। साहिर उस कला को कला मानने के लिए तैयार ही न थे जो ग़रीब जनता तक नहीं पहुंचती और ज़रदारों की मीरास बनकर रह जाती हैः फ़न जो नादार तक नहीं पहुंचा अभी मेयार तक नहीं पहुंचा। लेकिन साहिर ने कलावादी कवियों को अपने हमले का निशाना नहीं बनाया है, जबकि नागार्जुन ने चुन-चुनकर उनकी ख़बर ली है। सुमित्रानंदन पंत और अज्ञेय को उन्होंने कलावाद का प्रतीक माना है नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 237 और अपनी कई कविताएं उन पर ख़र्च की हैं। शायद इस फ़र्क़ की वजह दोनों ज़बानों के अदबी पसमंज़र में ढूंढ़ी जा सकती है। उर्दू में कलावाद जदीदियत की शक्ल में अपना सर उठा रहा था और हल्क़ए-अरबाबे-ज़ौक़ की शक्ल में कलावाद को पनपाने की कोशिश भी कर रहा था। नून मीम राशिद और मीराजी जैसे शायर दिलोजान से शायरी को प्रगतिवाद की पटरी से उतारने के जतन में लगे थे, लेकिन फ़ैज़, कैफ़ी, अली सरदार जाफ़री, फ़िराक़ और साहिर लुधियानवी जैसे घोषित तरक़्क़ीपसंद शायरों के होते हुए वह अपने मक़्सद में कामयाब न हो सकते थे, और न हुए। हिंदी की स्थिति इससे भिन्न थी। निराला के मुख़ालिफ़ पंत को खड़ा किया जा रहा था और ‘तार सप्तकों’ और ‘परिमल’ के संगठित प्रयत्नों और शीतयुद्ध के साज़-सामान की मदद से प्रगतिशील कवियों को बर्फ़ में लगाने की साज़िश कामयाब होने की धमकी दे रही थी। यह अकारण नहीं था कि हिंदी समीक्षा में एक लंबे अर्से तक मुक्तिबोध, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन जैसे समर्थ कवियों का कोई नामलेवा तक आसानी से नज़र नहीं आता। इसलिए, ऐसे ठिकानों पर बम-वर्षा के लिए नागार्जुन का आक्रामक हो उठना स्वाभाविक था और ज़रूरी भी। यह आक्रमण ज़रूरी तो था, लेकिन कुल मिलाकर, था तो नकारात्मक ही। इसे सकारात्मक और संपूर्ण बनाने के लिए यह ज़रूरी था कि प्रगतिशील आंदोलन का नेतृत्व करनेवाले अपने को उस काव्य-परंपरा से जोड़ें जो व्यापक जनता के पक्ष में और शोषक-शासक वर्गों के विपक्ष में खड़ी रही है। ग़ौरतलब है कि नागार्जुन ने भारतेंदु, टैगोर, प्रेमचंद, गोर्की, लू शुन, निराला, केदारनाथ अग्रवाल, यहां तक कि राजकमल चौधरी पर भी कविताएं लिखीं और उनकी परंपरा से अपना संबंध स्थापित किया। याद नहीं आता कि हिंदी-उर्दू के अन्य किसी बड़े कवि ने कवियों और लेखकों पर इतनी कविताएं लिखी हों, वह भी इतने मनोयोग और इतनी आत्मीयता के साथ। शायद इस मामले में नागार्जुन के बाद फ़ैज़ का ही नाम लेना पड़े जिन्होंने इक़बाल, मख़्दूम, बन्ने भाई, मेजर इस्हाक़ मोहम्मद, नाज़िम हिकमत और हसन नासिर जैसे एक दर्जन अदीबों को अपनी शायरी का विषय बनाया। साहिर साठ बरस भी पूरा न कर पाये। उनका कवि और भी पहले मर गया। आज़ादी की भोर में ही वे फ़िल्मों में क्या गये, नक़्क़ादों ने फ़िल्म में उनके काम को उनके कवि-कर्म की निरंतरता में देखने के बजाय उनके शायर का मर्सिया लिखना बेहतर समझा। फ़िल्म के दायरे में रहकर वे अपनी बामपंथी-जनवादी विचारधारा के लिए जो कुछ कर सकते थे, उसमें उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, लेकिन एक उभरते हुए शक्तिशाली राजनीतिक शायर की जो उम्मीद उन्होंने जगायी थी, उसे पूरा करने की उस दायरे में बहुत गंजाइश न थी। बेशक, जब कोई उत्त्ेाजक घटना घटी, उनका शायर बेक़ाबू हो गया, जैसे जब कांगो के राष्ट्रपति पैट्रिक लुमुंबा की हत्या की गयी तो उन्होंने अपनी वे मशहूर नज़्म लिखी जो इस पैग़ाम के साथ ख़त्म होती है: ज़ुल्म की बात ही क्या जु़ल्म की औक़ात ही क्या ज़ुल्म बस ज़ुल्म है आग़ाज़ से अंजाम तलक ख़ून फिर ख़ून है सौ शक्ल बदल सकता है ऐसी शक्लें कि मिटाओ तो मिटाये न बने ऐसे शोले कि बुझाओ तो बुझाये न बने ऐसे नारे कि दबाओ तो दबाये न बने। 238 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 लुमुंबा की हत्या से नागार्जुन कम विचलित नहीं हुए थे। उन्होंने भी एक कविता लिखी जो उनकी श्रेष्ठ कविताओं में गिनी जाती है और इन शब्दों के साथ समाप्त होती है: भाड़े के भेड़िए जुटे होंगे जब चारों ओर चींथ-चांथ के लिए मचा होगा तब भारी शोर गोरों के गोरे ईश्वर की कांपी होगी रूह राष्ट्रसंघ की कूटनीति का बड़ा विकट है व्यूह तुम मरकर भी अमर रहोगे लोगे ही प्रतिशोध कालनेमि को भस्म करेगा जन-जन का यह क्रोध कोटि-कोटि काले कंठों की सुनकर यह ललकार वह देखो गोरे दनुजों पर भय का चढ़ा बुख़ार। इन दोनों कविताओं की विस्तृत तुलना यहां संभव नहीं, तो भी एक हद तक दोनों कवियों का अंतर तो स्पष्ट हो ही जाता है। साहिर ने लुमुंबा को एक शहीद के रूप में देखा है और इस तथ्य को रेखांकित किया है कि शहीद की जान लेकर हत्यारा निज़ाम अपनी हिफ़ाज़त नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी शहादत आनेवाली पीढ़ियों को अनुप्राणित करती रहेगी और ज़ुल्म और शहादत के बीच जारी संघर्ष में आखि़रकार उन्हें विजयी बनाकर ही दम लेगी। साहिर के यहां यह हत्या और इससे पैदा होनेवाला विद्रोह सैद्धांतिक जामा पहनकर आता है और संघर्षशील तबक़ों के हाथ में इस पूरी नज़्म को एक फ़लसफ़ाई हथियार की तरह सौंप देता है। यहां राजनीति है, लेकिन विचारधारा के अनुशासन में और समय की एक ऐतिहासिक अनिवार्यता बनकर। इसके विपरीत, नागार्जुन राजनीतिक शब्दावली प्रयोग करते हैं और इस प्रसंग को राजनीतिक अनुषंगों से भर देते हैं। यहां राष्ट्रसंघ है, व्यूह-रचना है, प्रतिशोध है, क्रोध है, रंगभेद है और अफ्ऱीका के बहुसंख्यक अश्वेत समुदाय की धनुष-टंकार है जिनके बीच समन्वय और सामंजस्य हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। कवि को इस बात की ज़्यादा परवाह नहीं, लेकिन अपने पाठकों के सामने वह यह स्पष्ट करने में कोई चूक नहीं करता कि रंगभेद का ज़माना लद चुका है और अब उसे निर्मूल होने से नहीं रोका जा सकता। 26 जनवरी, लेनिन, गांधी, नेहरू, नयी नस्ल आदि कई विषय ऐसे हैं जिन्हें इन दोनों कवियों ने अपनी कविताओं का उपजीव्य बनाया है। इन कविताओं को एक साथ रखकर पढ़ना दिलचस्प हो सकता है और लाभप्रद भी। साहिर साठ पूरे न कर पाये हों, लेकिन सौभाग्य से बाबा को लंबी उम्र मिली और कविता उन पर अंत तक मेहरबान रही। वे एक लंबे समय तक राजनीतिक कविता लिखते रहे। अगर उनकी कविताओं को आधार बनाकर देश का राजनीतिक इतिहास लिखा जाये तो यह न सिर्फ़ एक दिलचस्प अनुभव होगा बल्कि इससे कविता और राजनीति के रिश्ते के कुछ नये आयाम भी सामने आ सकते हैं। अगर किसी मूढ़मति शोधनिदेशक की आंखें खुलें तो यह शोध का अच्छा विषय हो सकता है। इसका लाभ हिंदी-उर्दू के कवियों को भी मिल सकता है और वे बाबा से सीख सकते हैं कि राजनीतिक घटना-विकास को किस तरह कविता का उपजीव्य बनाना चाहिए, घटनाओं में से किन्हें लेना चाहिए और किन्हें छोड़ देना चाहिए, कविताओं को किस तरह विचारधारा से संपृक्त करना चाहिए और फिर भी उनकी कलात्मकता की रक्षा करनी चाहिए। नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 239 नागार्जुन की काव्यभाषा पर बात किये बिना उनकी राजनीतिक कविताओं के प्रसंग को ख़त्म नहीं किया जा सकता। उनकी भाषा उनकी निजी भाषा है और किसी भी अन्य कवि से उसका मुक़ाबला नहीं हो सकता। अस्ल बात यह है कि बाबा हमारे भौतिक संसार के जितने बड़े और विविध अंश को अपने काव्य में घसीट लाये हैं, उसे देखकर आश्चर्यचकित होने के अलावा कुछ किया ही नहीं जा सकता। जिन परिघटनाओं, घटनाओं और दुर्घटनाओं पर दूसरे कवि सोच भी नहीं सके, उन्हें बाबा ने अपनी कविता का विषय बना दिया और उनका बड़े से बड़ा विरोधी भी यह नहीं कह सका, भला यह भी कोई कविता हुई। उनकी कविता पढ़कर यह सवाल खड़ा हो जाता है कि क्या दुनिया में कोई विषय ऐसा भी है जिस पर कविता नहीं लिखी जा सकती? क्या काव्यभाषा की यह मज़ाल हो सकती है कि वह किसी समर्थ कवि का हुक्म टाल दे और उसके चयनित विषय को कविता का स्वरूप देने से इनकार कर दे? फटकार कर कह दे कि यह विषय काव्य-जगत से बाहर का है और इस पर कदापि कविता नहीं लिखी जा सकती। अगर छोटे मुंह बड़ी बात की इजाज़त हो तो कहना चाहूंगा कि केवल भाषा की दृष्टि से नागार्जुन तुलसीदास के बाद शायद भारत के सबसे बड़े कवि ठहरें। मैं तुलसीदास का घोर निंदक रहा हूं , लेकिन उनकी भाषा का क्या करूं। संस्कृत के परम विद्वान होते हुए भी जहां कविता के लिए ज़रूरी हुआ है, वे संस्कृत की टांग तोड़ने में नहीं चूके हैं। ‘जय राम रमारमणं शमणं’ लिखते वक़्त उन्होंने एक बार भी नहीं सोचा कि अगर किसी ने पूछ लिया कि गोस्वामीजी! यह शमणम् क्या होता है और किस भाषा का शब्द है? या राम रमा के साथ रमण करते हुए शमण कैसे कर गुज़रेंगे तो उसे क्या जवाब दिया जायेगा? तत्सम संस्कृत में स्तुति जैसी गंभीर विधा लिखते वक़्त वे ‘भवकूप अगाध परें नर ते पदपंकज प्रेम न जे करते’ जैसी पंक्ति लिखकर आगे बढ़ जायेंगे और किसी का ध्यान इस बात पर नहीं जायेगा कि बाबा संस्कृत कहकर यह क्या पकड़ा गये? और, अगर उन्होंने ‘हा रघुराज देव रघुराया’ लिख दिया है तो फिर उन्हें ‘केहि अपराध बिसारेहु दाया’ लिखने से कोई नहीं रोक सकता, इस बात की क़तई चिंता किये बग़ैर कि दया किस भाषा के किस नियम से ‘दाया’ हो सकती है? और उतने ही अजीब हैं उनके पाठक भी जो उनसे यह सवाल कभी करते ही नहीं। कुछ ऐसा ही नागार्जुन के साथ भी होता है, लोग उन्हें यों ही बाबा नहीं कहते। भाषा नागार्जुन की चेरी है। वे उससे मनमाना काम ले सकते हैं। उनके हुज़्ाूर में वह बांदी की तरह हाथ बांधे खड़ी रहती है और सर झुकाकर उनकी हर आज्ञा का पालन करती है। तुलसीदास की तरह ही वे संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के पंडित हैं और वेद-पुराण के दुर्लंघ्य ज्ञाता हैं। शुद्ध गद्य की तरह किसी शुष्क से विषय पर वे अपनी कविता में संस्कृत पदों की झड़ी लगा देंगे और फिर अचानक ‘शमणम्’ जैसा कोई शब्द चिपकाकर चंपत हो जायेंगे। घोर संस्कृतनिष्ठ किंतु जयदेव की तरह की कोमलकांत पदावली में काव्य-रचना करते-करते अचानक वे ‘अजी वाह तुम!’ या ‘वह भी तुम हो’ जैसी कोई पंक्ति चस्पां कर सकते हैं और फिर बाक़ी कविता में ध्रुव पंक्ति की तरह उसका इस्तेमाल कर सकते हैं और मज़ाल है कि पाठक को भाषा के साथ कवि की यह मनमानी ज़रा भी अखर जाये। अस्ल बात तो यह है कि नागार्जुन की व्यापक मक़बूलियत ख़ास तौर पर उनके अद्भुत विषय-चयन और असाधारण काव्य-भाषा पर ही टिकी हुई है। भाषा पर ऐसा अधिकार ज़ोश मलीहाबादी के अलावा आधुनिक युग के किसी अन्य कवि में नज़र नहीं आता। घोर छंदविरोधी और तुकदुश्मन ज़माने में भी नागार्जुन ने छंद को नहीं छोड़ा और अपनी कविता को 240 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 तुकबंदी कहे जाने का ख़तरा मोल लेकर भी वे अपने बीहड़ और औघड़ मनोभावों को छंद में ही बांधते रहे, बेशक उन्होंने इस मामले में बेहद लचीलेपन से काम लिया। कविता की टांग तोड़ने के बजाय वे छंद की टांग तोड़ना हमेशा बेहतर समझते थे। तुक से उन्हें प्रेम था, और वे तुकांत कविता में भाव-प्रकाशन की असीम संभावनाओं को लेकर आशान्वित बल्कि निश्चिंत थे। लेकिन, तुक से उन्हें अंध मोह नहीं था और ज़रूरी होने पर वे तुक को त्याग भी देते थे, मगर लय से विलग होना उन्हें मंज़ूर न था। वे उन लयलीन लोगों में थे जो लयहीन कविता को कविता मानने के बजाय गद्य कहना ज़्यादा पसंद करते हैं। गोया, उन जैसे लोगों के लिए लय गद्य और पद्य के बीच की व्यावर्तक रेखा है, छंद या तुक नहीं। ऐसा नहीं है कि उनकी कविताओं में लय टूटती नहीं, बार-बार टूटती है मगर वे अक्सर उसे संभाल लेते हैं। फिर भी टूट जाती तो वे उसकी परवाह नहीं करते थे और अपने काव्य-पाठ से, भ्रू-भंगिमा-विलास और अंग संचालन से उसकी कमी पूरी कर लेते थे। बेशक उन्होंने छंदहीन कविता भी लिखी, लेकिन उनके प्राण छंदोबद्ध कविता में ही बसते थे। जनकवि होने के नाते यह बात उनसे छिपी न थी कि हिंदी-उर्दू प्रदेश छंदों में ही सांस लेता है, यहां तक कि वह उन्हीं कहावतों और मुहावरों से काम चलाता है जो छंदोबद्ध हैं, वे हिंदी के हों, संस्कृत के हों या फ़ारसी के ही क्यों न हों। वे मानते थे कि यदि कविता को लाखों-लाख लोगों की ज़बान पर चढ़ना है तो उसे छंद का सहारा लेना ही होगा। वे यह भी मानते थे कि छंद को छोड़ देने और उसके प्रति उपेक्षा, तिरस्कार या शत्राुता का भाव अपना लेने से हिंदी कविता का भारी नुक़्सान हुआ है और कविता जनसाधारण से दूर जा पड़ी है। किसी भी कवि के लिए वे छंदशास्त्रा का अध्ययन अनिवार्य मानते थे, बेशक शास्त्रा का ज्ञान प्राप्त करने के बाद वे छंद का प्रयोग करने या न करने का फ़ैसला कवि के विवेक पर छोड़ने के लिए तैयार थे, लेकिन छंद से पूर्णतः अज्ञानी कवि हिंदी-उर्दू की समृद्ध काव्य-परंपरा को आत्मसात कर सकता है, इस पर उन्हें पूरा संदेह था और बिना इस परंपरा को आत्मसात किये कविता क्या ख़ाक होगी? 1954 में लिखी गयी ‘छेदी जगन’ नागार्जुन की एक विशिष्ट कविता है जो सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद में डूबकर लिखी गयी है। छेदी जगन इसलिए कवि के प्रणम्य नहीं हैं कि वे एक हिंदुस्तानी हैं जो ग़रीब घर में जन्म लेकर और विदेश में पलकर भी सर्वोच्च पद पर पहुंचे हैं। वे प्रणम्य इसलिए हैं कि उन्होंने ‘उपनिवेशी दासता के पंक की तह’ छेद दी है, μछेदी के लिए छेदना तो स्वाभाविक है ही। इतना ही नहीं उन्होंने विश्व की मुक्तिकामी जनशक्तियों से मिलकर ‘ब्रिटिश दानव को नगन’ कर दिया है। अब इतिहास की गति को कोई रोक नहीं सकता। अब ‘अफ्ऱीका में, मलाया में, अरब में, ईरान में; मिस्र, बर्मा, हिंद, पाकिस्तान में; श्राद्ध होने जा रहा है अब ब्रिटिश साम्राज्य का’। उन जैसों के प्रयत्नों से ‘उपनिवेशों में छिड़ा स्वाधीनता संग्राम, ब्रिटिश महलों में मचा कुहराम’। आज के हिंदुस्तानी गयाना के इस महापुरुष को लगभग भूल चुके हैं, हालांकि उनकी मृत्यु को अभी मुश्किल से चौदह-पंद्रह साल हुए हैं। 1997 तक गयाना के राष्ट्रपति स्व. छेदी जगन के बारे में जानकारी के अभाव में बाबा की इस कविता का मर्म पूरी तरह नहीं समझा जा सकता और न उनके इस सात्विक उत्साह से तादात्म्य स्थापित किया जा सकता हैः अंत तक देंगे तुम्हारा साथ हम नहीं यों ही नवाते हैं माथ हम हिंदवासी जनगणों का प्यार लो! नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 241 विषमता के प्रति धृणा का अनोखा उपहार लो! विश्व मानव के लिए मनुहार लो! दो हमें भी ज़रा अपना ओज दो अपनी लगन! मित्रावर प्रिय बर्नहम, बंधुवर छेदी जगन!! 22 मार्च 1918 को जन्मे छेदी जगन एक ऐसे आप्रवासी हिंदुस्तानी मज़दूर के बेटे थे जो गयाना में गन्ने के खेत में मज़दूरी करते थे। अपनी प्रतिभा और परिश्रम के बल पर उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की और अपना बहुमूल्य जीवन गयाना की जनता के नाम लिख दिया। 1953 में ब्रिटिश उपनिवेश गयाना में पहले चुनाव हुए जिसमें उनकी पीपुल्स प्रोग्रेसिव पार्टी भारी बहुमत से जीती और विश्व के आक्रामक गोरे जनमत को अंगूठा दिखाकर जगन देश के प्रधानमंत्राी बने। पदासीन होते ही उन्होंने अपनी पार्टी की नीतियों का अनुसरण करते हुए जनतांत्रिक और समाजवादी देशों से मैत्राी की राह पर चलना शुरू कर दिया जिसे ब्रिटिश साम्राज्यवादी और उनके नये अमरीकी आक़ा किसी हाल में बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। लिहाज़ा 133 दिन के शासन के बाद ही उन्हें अपना देश छोड़कर भागना पड़ा। उनका दूसरा गुनाह यह था कि उन्होंने आस्ट्रेलियाई कम्युनिस्ट जेनेट से शादी की थी और अमरीका के गौरांग महाप्रभुओं को कोई कम्युनिस्ट फूटी आंखों नहीं सुहाता। जेनेट जगन केवल श्रीमती जगन नहीं थीं, बल्कि उनके सुख-दुःख की साथिन और उनके बाद पीपुल्स प्रोग्रेसिव पार्टी की सर्वोच्च नेता थीं, इतनी मक़बूल कि जगन की मृत्यु के बाद उन्हें ही गयाना का राष्ट्रपति बनाया गया। साम्राज्यवादियों के लिए जागृत राष्ट्र गयाना की जनता के कंठहार जगन को अधिक दिनों तक सत्ता से दूर रखना असंभव था, लिहाज़ा 1961 में जब संविधान बदलकर चुनाव कराये गये तो गयाना की जनता ने उनकी पार्टी को फिर भारी बहुमत से जिताया और वे 1964 तक देश के प्रधान मंत्राी रहे। बाद में संविधान एक बार फिर बदला गया और अमरीका की तर्ज़ पर वहां भी राष्ट्रपति प्रणाली स्थापित की गयी। इस बार फिर प्रत्यक्ष चुनाव जीतकर डॉ. जगन 1992 में फिर गयाना के राष्ट्रपति बने और इसी पद पर रहते हुए 6 मार्च 1997 को उनकी मृत्यु हुई। गयाना की जनता आज भी अपने इस महान नेता की पूजा-अभ्यर्थना करती है और विश्व स्तर पर वे जनवादी शक्तियों के प्रेरणा-स्रोत बने हुए हैं। इस कविता को एक वर्ष पूर्व लिखी गयी ‘आइज़नहावर’ के प्रतिमुख खड़ा करके नागार्जुन की प्रतिबद्धता को समझने में काफ़ी मदद मिल सकती है। 1953 तक भारत-पाकिस्तान और भारत-चीन के बीच कुछ सवालों पर मतभेद ज़रूर थे और आज़ादी के फ़ौरन बाद ही भारत-पाकिस्तान के बीच काश्मीर को लेकर संघर्ष भी हो चुका था तो भी पड़ोसी देशों के बीच ऐसे शत्राुतापूर्ण संबंध न थे कि विश्व की एक महाशक्ति का प्रतिनिधि उन अंतर्विरोधों का लाभ उठाने की ग़रज़ से भारत आये और इस इलाक़े मंे हस्तक्षेप करे। 1953 में अमरीका के राष्ट्रपति आइज़नहावर की भारत-यात्रा का ऐलान होते ही बाबा न सिर्फ़ इसके निहितार्थ समझ गये बल्कि उन्होंने संबद्ध देशों की जनता को सावधान भी कर दियाः सजग एशिया, सजग अफ्ऱीका, सजग आज भूमंडल सारा बना नहीं पाओगे तुम हमको अपनी तोपों का चारा दुर्दम युग ज्वाला में जलकर प्रतिशोधी हथियार ढल रहे नवल चीन की सबल सांस से फ़ौलादी घेरे पिघल रहे भाई-भाई नहीं लड़ेंगे, दाल गलेगी नहीं तुम्हारी 242 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 अरबों डालर की सामग्री लील जायगी भूमि हमारी पैर तुम्हारे धो सकता क्या अरब-हिंदसागर का पानी शांति चाहते कोटि-कोटि हम हिंदुस्तानी-पाकिस्तानी याद करो हर हिटलर को इन दीवारों से मत टकराओ अपने सींगों की परछाईं देख-देखकर मत चकराओ। दोनों कविताओं की भाषा एक-दूसरे से कितनी ज़्ाुदा है। इससे यह भी साबित हो जाता है कि एक समर्थ कवि की भाषा उसके मनोभाव का अनुरण करके अपने अंदर विस्मयजनक परिवर्तन कर सकती है। दोनों कविताओं के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि नागार्जुन की वैचारिक प्रतिबद्धता भारत तक सीमित नहीं है बल्कि उसका एक अंतर्राष्ट्रीय पार्श्व भी है और वह भी उतना ही महत्वपूर्ण है। नागार्जुन ने हिंदी में लिखना और पत्रिकाओं आदि में छपना तो चौथे दशक के मध्य से ही शुरू कर दिया था, लेकिन तब उनकी छवि एक ऐसे कवि की थी जो छंदोबद्ध कविता करता है, जिसका प्रकृति वर्णन अद्भुत और मौलिक है और जिसकी भाषा संस्कृतप्रधान किंतु निजविशिष्ट है और जो ऐसे विषयों पर कविता करता है जिन पर आम तौर पर हिंदी के कवि नज़र डालना भी गवारा नहीं करते। राजनीतिक कवि के रूप में उनकी छवि का मूलाधार तैलंगाना के किसानों के सशस्त्रा संग्राम पर लिखी गयी कविता ‘लाल भवानी’ है जिसकी टेक है, ‘लाल भवानी प्रकट हुई है सुना कि तैलंगाना में’। ग़ौरतलब है कि तैलंगाना के सशस्त्रा संगा्रम को तेलुगु, उर्दू और हिंदी कवियों का नैतिक समर्थन प्राप्त था। तेलुगु के कई कवि और उर्दू के मख़दूम मोहीउद्दीन और हसन नासिर जैसे कई शायर तो किसानों के कंधे से कंधा मिलाकर उस युद्ध में भाग भी ले रहे थे। फिर भी, हिंदी-उर्दू प्रदेश में नागार्जुन की उपर्युक्त कविता ही सबसे अधिक लोकप्रिय हुई और उस कविता ने बाबा की काव्यधारा की भावी दिशा ही तय कर दी। तैलंगाना के जन-संघर्ष से जुड़कर वे जनकवि हो गये और वामपंथी राजनीति से जुड़कर वामपंथी। 1948 के बाद बाबा ने हिंदी के कोश को अपनी बहुविध कविताओं से लगातार समृद्ध किया और विषय-चयन में उनकी विविधता ने हिंदी के समीक्षकों को हैरान-परेशान कर दिया, लेकिन उनकी छवि आरंभ से अंत तक एक जनवादी-वामपंथी या वामपंथी-जनवादी कवि की ही बनी रही और जब उनके प्रशंसक उन्हें इस रूप में पहचानते थे तो बाबा पुलकित हो उठते थे। इस कविता ने उत्तरी भारत में तैलंगाना की धूम मचा दी। इन पंक्तियांे के लेखक ने अपनी किशोरावस्था में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के छोटे-मोटे क़स्बों में इस कविता का सामूहिक पाठ होते देखा है, वैसे ही जैसे आल्हा-ऊदल की कहानियों पर आधारित काव्य का जिसे आल्हा के नाम से ही संबोधित किया जाता था और छंदशास्त्रा में जिसके छंद को वीर छंद के नाम से जाना जाता है। ‘लाल भवानी’ का एक बंद देखिए: पुलिस और पलटन के हाथी कितना चारा खाते हैं, वही रंग है वही ढंग है फ़रक नहीं कुछ पाते हैं; ऊपर वाले बैठे-बैठे खाली बात बनाते हैं, बाढ़-अकाल-महामारी में काम नहीं कुछ आते हैं; देशभक्ति की सनद मिल रही आये दिन शैतानों को, डांट-डपट उपदेश मिल रहे दुखी मजूर-किसानों को; बात-बात में नाक रगड़ना पड़ता है इंसानों को, नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 243 हरी फ़सल चरने को छुट्टा छोड़ दिया हैवानों को; सड़ी-गली नौकरशाही से पहले ही ऊबे थे हम, इधर सुराज मिला है जब से दूर हो गया सभी भरम; नेता परेशान हैं जनता का तूफ़ान दबाने में, लाल भवानी प्रकट हुई है सुना कि तैलंगाने में! इस बंद को उद्धृत करने का कारण यह नहीं है कि यह पूरी कविता का उत्कृष्ट अंश है। आशय यह दिखाना है कि आज़ादी से जनता का मोहभंग तैलंगाना, यानी 1948 से ही शुरू हो गया था। भारत के शासक-शोषक वर्ग आज़ादी के फ़ौरन बाद से ही जनता के दमन और शोषण की नीति पर चल रहे थे। अंग्रेज़ों ने कोटि-कोटि जन के निर्मम शोषण और दमन के लिए जो भारी भरकम तामझाम बनाया था वह भारत के नये शासकों को अपने काम की चीज़ लग रही थी और वे उसमें कोई तब्दीली करने को तैयार न थे। प्रेमचंद ने सुराज के नाम पर जिस मज़दूर-किसान राज का सपना देखा था, वह सपना ही बनकर रह गया था और फ़र्क़ सिर्फ़ इतना पड़ा था कि ‘जॉन’ की जगह गद्दी पर ‘गोविंद’ आ बिराजा था। तैलंगाना के बाद कम्युनिस्ट नेतृत्व के एक हिस्से ने नेहरू और बाद में नेहरू परिवार का अंध समर्थन किया और वामपंथी आंदोलन इस समर्थन के चलते बदनाम भी हुआ, लेकिन नागार्जुन ने तैलंगाना में नेहरू-पटेल की सरकार का जो जनविरोधी रूप देखा था, उसे देखने के बाद वे जीवन के अंत तक कांग्रेस के दुश्मन ही बने रहे। इसी कांग्रेस-विरोध के चलते उनमें राजनीतिक विचलन भी आया लेकिन अपनी अविचल वामपंथी-जनवादी आस्था के चलते जल्दी ही उन्होंने दुरुस्त भी कर लिया। आइए, जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु पर नागार्जुन और साहिर लुधियानवी द्वारा रचित दो कविताओं के कुछ अंशों का आस्वाद करें और ऐसा करते वक़्त दोनों कवियों की एप्रोच के फ़र्क़ पर भी ग़ौर करेंः रो देती क्रांतिकुमारी तब, जब होता उसका चीर हरण नब्बे प्रतिशत का दस प्रतिशत खुलकर करते तक़दीरहरण निश्चय ही सपना हो जाता पीड़ित आंखों का नीरहरण लहराता फ़ैशन का समुद्र, सुंदरियां करतीं वीरहरण ओढ़ते संत कुछ खाल और बढ़ जाते उनके बाल और टपका करती कुछ राल और तुम रह जाते दस साल और मिलवाले होते सोशलिस्ट, धनपतियों को लेनिन भाता माओ आकर मिलता तुमसे पेकिंग दिल्ली से शरमाता मार्शल अयूब वर्धा आता, सर्वोदय की दीक्षा पाता बढ़कर भारत सेवक समाज दुनिया में झंडा फहराता छिपता क्या नटवरलाल और तुम रह जाते दस साल और 244 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 गलती समता की दाल और तुम रह जाते दस साल और झुकती स्वराज्य की डाल और तुम रह जाते दस साल और। μनागार्जुन जिसने ज़रदार मशीअत1 को गवारा न किया जिसको आईने-मसावात2 पे इसरार रहा उसके फ़रमानों की ऐलानों की ताज़ीम3 करो राख तक्सीम की अरमान भी तक्सीम करो। मौत और ज़ीस्त के संगम पे परेशां क्यूं हो उसका बख़्शा हुआ सहरंग4 अलम लेके चलो जो तुम्हें जादए-मंज़िल5 का पता देता है अपनी पेशानी6 पे वो नक़्शे-क़दम लेके चलो दामने-वक़्त पे अब ख़ून के छींटे न पड़ें एक मरकज़7 की तरफ़ दैरो-हरम8 लेके चलो हम मिटा डालेंगे सरमाया-ओ-मेहनत का तज़ाद9 ये अक़ीदा10 ये इरादा ये क़सम लेके चलो।’ साफ़ है कि साहिर की नज़्म में उस वक़्त की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व पर क़ाबिज़ हिस्से की लाइन झलक रही है, जबकि बाबा की कविता में नेतृत्व के छोटे हिस्से की नेहरूविरोधी लाइन अभिव्यक्ति पाती है और विरोध का कारण यह है कि नेहरू की नीतियां नब्बे प्रतिशत भारतीयों की क़ीमत पर दस प्रतिशत लोगों की झोली भर रही थीं। नेहरू से उनकी नाराज़गी की दूसरी वजह यह है कि उन्होंने भारत को कॉमनवेल्थ से बाहर नहीं निकाला। दोनों कविताओं में तब के कम्युनिस्ट आंदोलन में कांग्रेस और नेहरू के समर्थन पर जो आपादमस्तक विभाजन था, वह भी अभिव्यक्त होता है। डांगे और गोपालन की भिन्न स्थिति को ऐसे ही रेखांकित नहीं किया गया है, इसके पीछे सचेत प्रयास है क्यांेकि ये दोनों नेता पार्टी के भीतर संभावित विभाजन की रहनुमाई कर रहे थे। जहां साहिर की कविता अपने पाठकों को नेहरू के चरणचिह्नों पर चलने को ललकारती है, वहीं बाबा अपने पाठकों को इससे उल्टा ही संदेश देते हैं। पूरी कविता में कहीं ऐसा नहीं लगता कि देश के प्रधानमंत्राी की मृत्यु हुई है इसलिए देश की जनता को उसका शोक मनाना चाहिए, बल्कि ऐसा आभास होता है कि एक तरह से यह अच्छा ही हुआ, बूढ़ा दस साल और जी जाता तो इस महादेश को और उसकी जनता को, और भी बुरी और पस्त हालत में छोड़ता। दरअसल यह वह ज़माना था जब बाबा पार्टी के बहुत निकट थे और पार्टी के अंदर-बाहर की सारी खोज-ख़बर रखते थे। ग़ौरतलब है कि कांग्रेस के समर्थन को लेकर ही कम्युनिस्ट पार्टी नेहरू के मृत्यु वर्ष 1964 में दोफाड़ हुई और जो लोग कांग्रेस को समर्थन देना ग़लत समझते थे, उन्होंने सी पी आइ (एम) नाम से अपनी पार्टी अलग बना ली। 1. दौलत की दिव्य शक्ति; 2. बराबरी पर आधारित संविधान; 3. इज़्ज़त; 4. तिरंगा; 5. मंज़िल का रास्ता; 6. माथा; 7. केंद्र; 8. मंदिर-मस्जिद; 9. द्वंद्व, संघर्ष; 10. विश्वास। नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 245 कविता की दृष्टि से देखें तो नागार्जुन की राजनीतिक कविता 1948 में ‘लाल भवानी’ से शुरू होकर 1964 में रचित ‘तुम रह जाते दस साल और’ तक आते-आते अपने उत्कर्ष बिंदु को छू लेती है। ‘लाल भवानी’ की प्रेरणादायिनी शक्ति और आंदोलन के लिए उसकी उपादेयता से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन कविता की दृष्टि से देखा जाये तो उसमें निरी नारेबाज़ी और एक शानदार सशस्त्रा संग्राम की घनगरज के अलावा शायद ही कुछ ऐसा नज़र आये जो कविता को साहित्यिक मानदंडों पर उत्कृष्ट साबित कर सके। पूरी कविता अभिधा में है और कविता के पारंपरिक शिल्प को मुंह चिढ़ाती है; जैसे कवि ललकार कर अपने आलोचकों से कहना चाहता हो कि अगर मेरी कविता साहित्यिक मानदंडों पर खरी नहीं उतरती तो न उतरे, अगर तुम मुझे कवि न मानना चाहो तो एक बार नहीं सौ बार न मानो, मैं तुम्हारी परवाह ही कहां करता हूं। मुझे तो एक प्रवहमान आंदोलन से शक्ति पाकर उस नवप्राप्त शक्ति से आंदोलन को प्राणपण से और अधिक सशक्त और अधिक प्रवहमान बनाना है, मेरे पास तुम्हारे वाग्विलास से उलझने का वक़्त कहां? लेकिन, बाबा ने जल्द ही अनुभव कर लिया होगा कि कविता करनी है तो कविकर्म को गंभीरता से लेना ही होगा। अभिधा आंदोलन की गरिमा के ताप से कुछ दूर तो साथ चलेगी, लेकिन आगे चलकर दम तोड़ जायेगी। उन्होंने ज़रूर बर्तोल्त ब्रेश्त जैसे पश्चिम के राजनीतिक कवियों का अध्ययन किया होगा और माखनलाल चतुर्वेदी जैसे प्रथम हिंदी राजनीतिक कवि से भी सीखा होगा कि राजनीतिक कवि के लिए कारगर और पुरअसर व्यंग्य आवश्यक है और यदि कविता को संघर्षशील जन के हाथ में कारगर हथियार बनाना है तो उसे व्यंग्य की सान पर रखना ही होगा। इसलिए ‘लाल भवानी’ के बाद की उनकी राजनीतिक कविताओं में हम अचानक बेधक व्यंग्य के दर्शन करते हैं और अभिधा के साथ-साथ लक्षणा तथा व्यंजना की शब्द-शक्तियों का खुला खेल देखते हैं। 1964 तक आते आते उनकी व्यंग्यात्मकता केवल शब्द शक्तियांे या काव्य के अन्य उपादानों तक सीमित नहीं रह जाती बल्कि दुनिया को देखने के नज़रिये के तौर पर सामने आती है। 1964 में देश के बुज़ुर्ग प्रधान मंत्राी की मृत्यु पर यह सोचना ही कौतुक और विस्मय उत्पन्न करने के लिए काफ़ी है कि ये हज़रत दस-पांच साल और ज़िंदा रह गये होते तो हमारे देश और उसके लोगों का क्या हश्र होता? उसके सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक और अंतर्राष्ट्रीय निहितार्थ क्या होते? यह दुनिया हमारी दुनिया से कितना भिन्न हो जाती? 1948 से पहले या ‘लाल भवानी’ में व्यंग्य ग़ैरहाज़िर है, लेकिन उसी वर्ष रचित ‘मांजो और मांजो’ शीर्षक कविता में वह भरपूर ताक़त से सामने आता है। इसका एक कारण तो हिंदी कविता की तत्कालीन परिस्थितियों में देखा जा सकता है। 1948 के आसपास ही ‘कला कला के लिए’ का नारा नयी नयी शक्लों में सामने आया, कांग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम और परिमल जैसी संस्थाओं की दाग़ बेल पड़ी और इस सबके पीछे शीतयुद्ध की ताक़तें भी क्रियाशील नज़र आयीं। उन्हें जवाब देना ज़रूरी था, सिर्फ़ आलोचना में नहीं, कविता में भी। और, इसके लिए नागार्जुन से बेहतर कवि कौन हो सकता था? उन्होंने यह जवाब दो तरह से दिया। एक तो एकाधिक कविताओं में उनका मखौल उड़ाकर, उनके ‘गुरु गंभीर’ सिद्धांतों का खोखलापन उजागर करके; दूसरे उनसे भिन्न और पारंपरिक अर्थों में काव्येतर विषयों पर उनसे बढ़कर और अधिक कलात्मक कविताओं की रचना करके; ऐसी रचनाएं जो सौंदर्य शास्त्रा के किन्हीं भी मानदंडों पर खरी उतरें और जनवादी-वामपंथी आंदोलन की खिल्ली उड़ानेवालों को पानी पानी कर दें। यह प्रक्रिया जारी रही और 1964 में ‘तुम रह जाते दस साल और’ में अपने उत्कर्ष पर पहुंची। मो.: 09818367626