नेपाली की भक्तिभावना / दिवाकर चौधरी

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गोपाल सिंह ‘नेपाली’ छायावादोत्तरकालीन प्रेम,प्रकृति,राष्ट्रीयता और मस्ती की गीतिकाव्यधारा के प्रतिनिधि हस्ताक्षर माने जाते हैं। जिन्होंने आलोचकीय साहित्यिकता से पृथक जनगीत-धारा का साहित्यिकरण किया और अपनाया। उनका सम्पूर्ण काव्य मस्ती और उल्लास का काव्य है। लेकिन समकालीन मस्ती काव्य प्रणेताओं –बच्चन,नरेन्द्र शर्मा,भगवतीचरण वर्मा,’अंचल’ आदि से सर्वथा भिन्न सरल, स्निग्ध और मौलिक।

नेपालीजी ने अपने काव्य में समकालीन समस्याओं को सशक्त अभिव्यक्ति दी है। वे लोक-संवेदना के अप्रतिम मानववादी कवि थे। उनके काव्य में लोकजीवन का गहरा साक्षात्कार मिलता है। इन समस्त काव्य-प्रवृत्तियों के अलावा ‘नेपालीजी’ एक परम आस्थावान भक्त भी थे। अवश्य ही प्रेम,प्रकृति और राष्ट्रीयता की त्रिवेणी उनके काव्य-सृजन को सर्वाधिक सींचती रही है। किन्तु,इसके साथ ही कवि का भक्त-हृदय भी यत्र-तत्र अपनी भावनाओं की सरसता से उनके काव्य-सृजन को अभिसिंचित करता रहा है।

हिन्दी-साहित्य में भक्ति की विस्तृत परंपरा मिलती है। जिसका उत्स आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार –“धर्म की भावात्मक अनुभूति या भक्ति जिसका सूत्रपात महाभारतकाल में और विस्तृत प्रवर्तन पुराणकाल में हुआ था।” 1

आचार्य परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार –“भक्ति का सर्वप्रथम उल्लेख ‘श्वेताश्वेतर उपनिषद (६/३३)’में मिलता है।” 2

आगे चलकर –महाभारत,गीता,पुराणों,नारद-भक्ति-सूत्र,रामचरितमानस- आदि विभिन्न पौराणिक ग्रंथों में ‘भक्ति’ का सांगोपांग वर्णन-विश्लेषण किया गया। जिसमें भक्ति के नौ,शरणागति के छ: आसक्ति (भगवद्विषयक) के ग्यारह और विनय की भूमिका के सात प्रकारों का प्रवृत्तिमूलक वर्गीकरण-विश्लेषण किया गया।

नेपालीजी की भक्ति-भावना का निदर्शन दो स्रोतों से होता है - 1. कविताओं से 2. फिल्मी गीतों से

‘वन्दनागीत’ शीर्षक कविता में कवि का भक्तहृदय ‘ईश्वर’ के देय से अभिभूत जान पड़ता है। वह ईश्वर को संसार के प्रत्येक उपादान का स्रष्टा मानता है.उसकी मान्यता है कि ईश्वर प्रकृति के कण-कण में अंतर्निहित है। संपूर्ण सृष्टि उसी की छाया-प्रतिच्छाया है। यहाँ तक की स्वयं का कविकर्म भी ईश्वर की ही कृपा है.कवि के शब्दों में:

“जीवन की कृश काया पर यह सुषमा का आवरण तुम्हारा
नील नग्न इस गगन अंग पर तारों का आभरण तुम्हारा
प्राची देश में उठा बालरवि,नभ में उड़े किरण के पंछी
निर्मल जल पर खिले कमल-दल,कमल-कमल पर चरण तुम्हारा।।”3

“रूप गंध रस लेकर तुमसे कवि ने दुनिया नई बना ली
शब्द-शब्द की स्वर-लहरी में कवि की कृति उपकरण तुम्हारा।।”4

‘परिचय’ शीर्षक कविता में कवि स्वयं को विधाता की सर्जना मानता है और स्वयं को ‘पूजा का एक सुमन’ कहता है,जिसकी सार्थकता ईश्वर के चरणों पर न्योछावर हो जाने में है। कवि अपने मन की भर्त्सना करते हुए ईश्वर के महात्म्य का साक्ष्य देते हैं,जो शरणागति का एक महत्वपूर्ण लक्षण होता है। कवि के शब्दों में-

“तुम कब समझोगे मेरे मन
मैं तो पूजा एक सुमन
जिसकी नदियाँ गिरी से बह-बह
इस जीवन के सुख-दुःख सह-सह
क्षण भर को यहाँ-वहां रह-रह
छू लेती सागर की तह-तह
मैं उसी विधाता का सर्जन
तुम कब समझोगे मेरे मन।।”5

कवि जब अपने आँगन में उगी `हरी घास` को देखता है तो उसमें ईश्वर की असीम करुणा दृष्टिगोचर होती है। यह कवि की भक्ति और ईश्वर के प्रति अनन्य आस्था, श्रध्दा और कृतज्ञता को सूचित करता है।

“प्रभू की असीम करुणा कुछ-कुछ होती है अब रे मुझे भास
सुख, सुषमा, शोभा, सुन्दरता बिखरी है मेरे आस-पास
फिर मुक्त कंठ से इन सब का गुण-गान मधुर मैं करूँ क्यों न
दी बिछा उसीने इसीलिए मेरे आँगन में हरी घास।।”6

नेपालीजी गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास आदि की तरह भक्तकवि नहीं हैं। परन्तु इनके काव्य में भी अन्य भक्तकवियों की ही तरह भक्ति के विभिन्न तत्व उपलब्ध हैं। ईश्वर के प्रति कृतज्ञता,आत्मनिवेदन,गुणमहात्म्य-वर्णन,ईश्वर की असीम क्षमता के साथ ही स्वयं की असमर्थता की अभिव्यक्ति भी कवि ने की है –

“जानता कहाँ,कैसे,कब मैं,है जीवन इतना मधुर-मधुर
जो उगा न देता वह प्रभू रे मेरे आँगन में हरी घास।।”7

‘कोई’ शीर्षक कविता में कवि ने ईश्वर के प्रति अपनी ‘रहस्यभावना’ का परिचय दिया है। यद्यपि कवि की रहस्यवादिता –कबीरदास,महादेवी आदि की रहस्यभावना के मेल में नहीं है,अपितु कुछ हद तक ‘पन्त’ की रहस्यभावना के समीप जान पड़ता है। किन्तु पन्त की रहस्यभावना नेपालीजी से परिष्कृत और वैचारिक दृष्टि से समुन्नत है। प्रस्तुत कविता में कवि संकेत में ‘महादेव’ (शिव) के लोकप्रसिद्ध और परंपरागत स्वरूप का वर्णन करते हुए प्रकारांतर से सृष्टि के संपूर्ण नाश और निर्माण को उसका खेल बताते हैं तथा विश्व पर मंचीयता आरोपित कर संसार की समस्त क्रियाओं को ‘शिव’ का नर्तन मानते हैं –

“एक अनूठा खेल दिखाकर नटवर खेल रहा है कोई
मस्तक पर है चन्द्र सुशोभित
गंगा उलझी जटा-जूट में
स्वाद सुधा का मिलता उसको
काले-नीले कल-कूट में
गोर तन पर भस्म रमाए
डाल गले मुंडों की माला
युग-युग से इस विश्व मंच पर
नाच रहा है डमरूवाला
नाश और निर्माण सजाकर ज्ञानी खेल रहा है कोई।।”8

कबीरदास ने शरीर की उपमा चादर से देते हुए ईश्वर को उसका बुनकर या निर्माता कहा था और कपड़े की बुनाई या रचना प्रक्रिया को शरीर की रचना-प्रक्रिया और व्यवस्थाओं से जोड़ा था,कविता थी –‘झीनी-झीनी बीनी चदरिया’। नेपालीजी की कविता –‘झीनी-झीनी चदरिया’ में कबीरदास की उक्त कविता की झलक दिखाई देती है,लेकिन नवीनता के आवरण से परिवेष्टित और नविन स्वर में उदबुद्ध। कवि शरीर को एक चादर और ईश्वर को उसका स्रष्टा मानते हुए जीवन भर अपनी सुध न लेने के प्रति शिकायत व्यक्त करता है। यहाँ कवि का ईश्वर के प्रति घनिष्ठ प्रेम जो कुछ-कुछ ‘सख्य-भाव’ की भक्तिभावना के समीप जान पड़ता है,अभिव्यक्त है। उलाहना और मान के स्वर में कवि कहता है -

“देकर चादर झीनी-झीनी
फिर जीवन भर खबर न लीन्हीं
मन की खुश्बू भीनी-भीनी
न जाने किस-किस ने छीनी
लेनी थी रंगरेज न सुध तो
नाहक रंगी चुनरिया रे।।”9

नेपाली की भक्तिपरक कविताएँ संख्या में कम हैं। लेकिन इन रचनाओं में उपलब्ध भक्ति-तत्व उनके ईश्वरीय प्रेम व भक्ति की संश्लिष्ट अभिव्यक्ति करती हैं।

नेपाली विरचित फ़िल्मी गीतों (भक्तिपरक) की संख्या,भक्तिपरक कविताओं की तुलना में ज्यादा है और उनकी भक्तिभावना की व्यापकता को परिष्कृत रूप में प्रकट करती है। 1944 ई. में नेपालीजी ‘कालिदास शताब्दी समारोह’ में भाग लेने बंबई पहुंचे। जिसमें 40 प्रतिनिधि कवियों ने भाग लिया था। समारोह में इनका काव्य पाठ बेजोड़ रहा था। जिसे सुनकर ‘फिल्मीस्तान’ (फिल्म-कंपनी) के निर्माता ‘शशिधर मुखर्जी’ और निर्देशक ‘पी.एल. संतोषी’ ने काफी दबाव देकर अपनी कंपनी के गीतकार के रूप में (लगभग 1500-2000 रु. मासिक वेतन पर) अनुबंधित कर लिया। 1948 ई. तक इन्होंने कंपनी के लिए कार्य किया। 1945 ई. में उन्हें ‘बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन’ की ओर से सर्वश्रेष्ठ गीतकार का अवार्ड मिला। 1948 ई. में इन्होंने ‘हिमालय फिल्मस’ नामक संस्था का निर्माण किया और ’नेपाली पिक्चर्स’(नेपालीजी की फिल्म कंपनी) के बैनर तले ‘नजराना’(1949),’सनसनी’(1951) और ‘खुश्बू’(1956)फ़िल्में बनाई। इन्होंने लगभग 50 फिल्मों में 300 से अधिक गीत लिखे। इनमें कई भक्ति फ़िल्में थीं। कुछ प्रमुख भक्ति-फ़िल्में जिनमें नेपाली जी ने गीत लिखे –“हर-हर महादेव(1950),नागपंचमी(1953),तुलसीदास(1954),दुर्गा-पूजा (1954),शिवभक्त(1955),सती मदालसा(1955),गौरीपूजा(1956),नवरात्री(1955),नरसी भगत(1957),पवनपुत्र हनुमान(1957),जय भवानी(1956,अंतिम)।”

नेपालीजी मूलतः गीतकार थे। अतः उनके गीतों में भावनाओं की सरसता और गहराई ज्यादा है। भावव्यंजना की मौलिकता के साथ ही उनके गीतों में नवीनता के दर्शन होते हैं। उनके भक्ति गीतों में भक्ति की सरलता एवं भावों की स्निग्धता वर्तमान है। ‘भोलेनाथ’ का गुणगान करते हुए कवि स्वमुक्ति की करुण प्रार्थना करते हुए कहता है

“भोलेनाथ से निराला,गौरीनाथ से निराला
कोई और नहीं,कोई और नहीं
तुमने जग का कष्ट मिटाया
मुझको स्वामी क्यों बिसराया
अब तो मुझको बचाने वाला,कोई और नहीं
ऐसी बिगड़ी बनाने वाला, कोई और नहीं।।”10

प्रस्तुत गीत में भोलेनाथ की वंदना के साथ ही कवि का ‘आत्मनिवेदन’ अभिव्यक्त है,’विनय की दैन्य नामक भूमिका’ का उल्लेख है,जिसमें भक्त अपनी दीनता और ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता का वर्णन कर अपनी मुक्ति की प्रार्थना करता है। ‘आसक्तियों’ में ‘भक्तवत्सलता,गुणमहात्म्यासक्ति’ और ‘शरणागति’ के ‘रक्षा का विश्वास,कारुण्य और आत्मनिक्षेप‘ आदि भक्ति-तत्वों के दर्शन होते हैं।

कवि विश्वकल्याण का आकांक्षी और मानवतावाद का समर्थक रहा है। अतः असत रूपी अन्धकार को दूर करने और मानव कल्याण के लिए ‘शक्ति’ की उपासना करता है:

“मैया तेरी आरती से अँधेरा टले
भक्त के अँधेरे घर में रोशनी जले
जय-जय भवानी
जय-जय भवानी।।”11

प्रस्तुत गीत में कवि का शक्ति के प्रति ‘रक्षा का विश्वास’ अभिव्यक्त है।

नेपालीजी ने ‘राम-कृष्ण’ की भक्ति से सम्बंधित गीत भी लिखे हैं। ‘राम’ से ‘शरणागति’ की याचना करते हुए कवि कहता है –

“हे राम! मुझे अपनी शरण में ले लो राम
लोचन मन में यदि जगह न हो तो युगल चरण में ले लो राम
जीवन दे के जाल बिछाया, रच के माया नाच नचाया
चिंता मेरी तभी मिटेगी, जब चिंतन में ले लो राम
तुमने लाखों पापी तारे,मेरी बरी बजी हारे
मेरे पास न पुण्य की पूंजी,पद-पूजन में ले लो राम
घर-घर अटकूँ,दर-दर भटकूँ,कहाँ-कहाँ अपना सर पटकूँ
इस जीवन में मिलो न तुम तो,मुझे मरण में ले लो राम
हे राम! मुझे अपनी शरण में ले लो राम।।”12

‘तुलसीदास’ फिल्म के इस गीत में कवि का दैन्य भाव प्रबल हो उठा है और बरबस ही तुलसीदास की ‘विनयपत्रिका’ की याद दिलाता है। यहाँ कवि की भक्तिभावना बहुत कुछ तुलसीदास की भक्ति के सदृश ‘राम’ के प्रति निवेदित जान पड़ता है। साथ ही कवि की राम के प्रति अनन्य भक्ति और अनुराग की सरस व संश्लिष्ट अभिव्यक्ति हुई है।

‘राम’ की ही भांति कवि का ‘कृष्ण’ के प्रति अभिव्यक्त भक्तिभाव श्लाघ्य है। कृष्ण को समर्पित प्रस्तुत गीत में भगवद्-दर्शन की उत्कंठा और भाव-विह्वलता का चरम उत्कर्ष अभिव्यंजित हुआ है:

“दर्शन दो घनश्याम,नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे
मन-मंदिर की ज्योति जला दो घट-घट वासी रे
द्वार दया का जब तू खोले, पंचम सुर में गूंगा बोले
अँधा देखे, लंगड़ा चलकर पहुंचे काशी रे
मंदिर-मंदिर मूरत तेरी, फिर भी न दिखे सूरत तेरी
युग बीते न आई मिलन की, पूरनमासी रे
दर्शन दो घनश्याम,नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे।।”12

‘नरसी भगत’ फिल्म के इस बहुचर्चित गीत में नेपालीजी की भक्तिभावना की सबसे सरस और मर्मस्पर्शी अभिव्यंजना हुई है। ‘कृष्ण’ के प्रति अनन्य आस्था,विरहातुरता और भक्ति का उदात्त रूप अभिव्यंजित हुआ है। प्रस्तुत गीत में ‘आत्मनिवेदन’,शरणागति के कारुण्य’,विनय की दैन्य’ भूमिका और ‘आसक्तियों में परमविरहासक्ति’, शरणागतवत्सलता,गुणमहात्म्यासक्ति,दास्यासक्ति और आत्मनिवेदन’ आदि भक्ति-तत्व समाविष्ट हैं।

नेपालीजी चूँकि मानवतावादी कवि थे। मानव-कल्याण के आकांक्षी गीतकार थे,युग और समाज की ज्वलंत समस्याओं को स्वर देनेवाले अनिवार्य रूप से समय-संदर्भित आधुनिकतावादी कवि थे। अतः उनके भक्ति गीतों में ईश्वर की दिव्यता के प्रति आस्था ही नहीं,अलौकिकता और करुणा के प्रति प्रणम्यता का भाव ही नहीं, अपितु सामान्य जनों के कष्टों के प्रति ईश्वर की अनदेखी और अन्याय,उपेक्षा और निर्ममता के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया भी अभिव्यक्त है:

“दुनिया में जनम लेते ही कोई अमीर है
कोई जनम से मौत तक बना फकीर है
हम इस जनम में भोगते हैं,उस जनम का फेर
भगवान तेरे राज में अंधेर-है-अंधेर।।”14

“जिसे बनाना उसे मिटाना काम तेरा
मिटनेवाले फिर क्यों लेंगे नाम तेरा
धरती का घर भरा फूल से, तारों से आसमान का
सागर भर गये, भर न सका तू पेट इस इन्सान का
इंसानों के घर से है दूर मुकाम तेरा
मिटनेवाले फिर क्यों लेंगे नाम तेरा
मिटनेवाले फिर क्यों लेंगे नाम तेरा।।”15

नेपालीजी की रचनाओं पर समग्रता से विचार करने पर हम पाते हैं कि वे अवश्य ही निर्विवाद रूप से ‘प्रेम,प्रकृति और राष्ट्रीयता’ के अन्यतम उद्गाथा थे। समकालीन समस्याओं की अतिशयता और मानवकल्याण की आकांक्षा से उत्पन्न विकलता तथा परिस्थितिजन्य विवशता उनकी भक्ति-भावना को भले ही पूर्ण विकसित होने का अवसर न देती हो। परन्तु अवश्य ही कवि का भक्त-हृदय भक्ति की अन्तःसलिला से स्वयं को अभिसिक्त करता शक्ति पाता,संसार-समर में अपनी प्रवृत्तियों के अनुसार प्रवृत्त होता रहा है।

निर्विवाद ही नेपालीजी –कबीर,तुलसी,सूर आदि की कोटि के भक्त-कवि नहीं थे। किन्तु उनकी रचनाओं में भक्ति का परिष्कृत रूप अभिव्यक्ति हुआ है। ईश्वर के प्रति अटूट आस्था और भक्ति निवेदित है। कतिपय रचनाओं से उनका झुकाव भले ही ‘महादेव और कृष्ण’ की ओर विशेष जान पड़ता है। किन्तु किसी के प्रति पक्षपातपूर्ण आग्रह का लेशमात्र भी अभिव्यक्त नहीं हुआ है। वस्तुतः वे ईश्वर के किसी विशेष स्वरूप से स्वयं को बांधते नहीं बल्कि ईश्वर को उसकी संपूर्णता में, उसकी व्यापकता में स्वीकार कर उनके विभिन्न स्वरूपों के प्रति अपनी भक्ति निवेदित करते हैं। वे जितनी आस्था और भक्ति से ‘कृष्ण’ को याद करते हैं,उतनी ही श्रद्धा और भक्ति से ‘राम’ को भी। जिस आस्था और समर्पण से ‘शक्ति’ की उपासना करते हैं,उसी आस्था और विश्वास से ‘शिव’ की भी। व्यापक ‘ब्रम्ह’ की तरह उनकी ‘भक्ति’ भी व्यापक है।

सन्दर्भ

1. शुक्ल रामचंद्र,हिन्दी साहित्य का इतिहास,नागरी प्रचारिणी ग्रंथमाला : 43 22वाँ संस्करण,1988,प्रकाशक : नागरी प्रचारिणी सभा,वाराणसी,पृ. : 43 2. डॉ. नगेन्द्र,संपादक,हिन्दी साहित्य का इतिहास,मयूर पेपरबैक्स,नौएडा, 27वाँ पुनर्मुद्रित संस्करण : 2000,पृ. : 88 3. नंदन नंदकिशोर,संपादक,पंचमी,कविता : वन्दनागीत, प्रकाशक : साहित्य संसद,नई दिल्ली,प्रथम संस्करण : 2011,पृ. : 30 4. उपरिवत् 5. नंदन नन्दकिशोर,संपादक,उमंग,कविता : परिचय प्रकाशक : राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 25 6. नंदन नंदकिशोर,संपादक,उमंग,कविता : हरी घास प्रकाशक : राजदीप प्रकाशन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 51 7. उपरिवत् 8. नंदन नंदकिशोर,संपादक,नीलिमा,कविता : कोई प्रकाशक : पुस्तक भवन,नई दिल्ली,संस्करण : 2011,पृ. : 79 9. नेपाली सविता सिंह,संपादक,गोपाल सिंह नेपाली समग्र,भाग-1, कविता : झीनी-झीनी चदरिया,प्रकाशक : गोपाल सिंह नेपाली फाउंडेशन,बेतिया प्रथम संस्करण 2010,पृ. : 579 10. फिल्म : हर-हर महादेव,1950 11. फिल्म : जय भवानी,1956 12. फिल्म : तुलसीदास,1954 13. फिल्म : नरसी भगत,1957 14. फिल्म : नवरात्री,1955 15. फिल्म : शिव भगत,1955